ध्वस्त मकानों के मलबों में हमें एक छेद में से वह दबी हुई लड़की दिखी । जब खोजी कुत्तों ने उसे ढूँढ़ निकाला तब भुवन और मैं अपना माइक और कैमरा लिए खोजी दल के साथ ही थे । धूल-मिट्टी से सने उस लड़की के चेहरे को उसकी विस्फारित आँखें दारुण बना रही थीं ।
भूकंप
"समय के विराट् वितान में मनुष्य एक क्षुद्र इकाई है । "
--- अज्ञात ।
ध्वस्त मकानों के मलबों में हमें एक छेद में से वह दबी हुई लड़की दिखी।जब खोजी कुत्तों ने उसे ढूँढ़ निकाला तब भुवन और मैं अपना माइक और कैमरा लिए खोजी दल के साथ ही थे।धूल-मिट्टी से सने उस लड़की के चेहरे को उसकी विस्फारित आँखें दारुण बना रही थीं । चारों ओर मलबे में दबी सड़ रही लाशों की दुर्गन्ध फैली हुई थी । ऊपर हवा में गिद्ध मँडरा रहे थे । मलबे में दबे-कुचले लोगों की कराहों और चीत्कारों से पूरा माहौल ग़मगीन हो गया था । इस सब के बीच दस-ग्यारह साल की वह लड़की जैसे जीवन की डोर पकड़े मृत्यु से संघर्ष कर रही थी । उसके दोनों पैर शायद कंक्रीट के भारी मलबे के नीचे दबे हुए थे । वह दर्द से बेहाल थी । एक बड़े-से छेद में से टी. वी. कैमरे उसकी त्रासद छवि पूरे देश में प्रसारित कर रहे थे । और ठीक उस बड़े-से छेद के ऊपर भुवन मुस्तैदी से मौजूद था -- उस लड़की से बातें करता हुआ , उसे हौसला देता हुआ ।
भूकम्प |
इस भयानक घटना की सूचना मिलते ही अगली सुबह भुवन को बॉस का फ़ोन आया था कि वह हादसे वाले क्षेत्र के लिए फ़ौरन निकल जाए । टेलिविज़न चैनल वालों ने तुरत-फुरत एक हेलिकॉप्टर का बंदोबस्त कर दिया था । भुवन ने मुझे फ़ोन लगाया और साथ चलने के लिए कहा । मैं उसका सहयोगी हूँ । हमने कई आपात स्थितियों को साथ-साथ कवर किया है । भुवन का फ़ोन आते ही मैंने फटाफट काम का ज़रूरी सामान एक बैग में डाला और हेलीपैड पर पहुँच गया । हम दोनों तत्काल हेलिकॉप्टर में बैठ कर घटना-स्थल के लिए रवाना हो गए । हम वहाँ पहुँचने वाले पहले पत्रकार थे । बाक़ी पत्रकार साइकिलों , जीपों और बसों के सहारे वहाँ पहुँचने का प्रयास कर रहे थे , जबकि हमारे हेलिकॉप्टर ने हमें ठीक घटना-स्थल पर ही उतार दिया था । वहाँ पहुँचते ही हम भूकम्प से होने वाली उस त्रासदी की भयावह छवियाँ उपग्रह के माध्यम से वापस टी. वी. स्टेशन में बीम करने लगे थे । बिलखते हुए अनाथ बच्चे , चीख़ते-कराहते घायल , मलबे में दबी सड़ रही लाशें -- इन सभी छवियों के साथ भुवन की संयत आवाज़ राज्य और देश भर में प्रसारित हो रही थी ।
हम दोनों ने साथ-साथ कई युद्धों और दुर्घटनाओं को कवर किया था , चाहे वह कारगिल का युद्ध था या केदारनाथ, उत्तराखंड में आई भीषण तबाही थी । बड़े-से-बड़े हादसे के बीच भी मैंने कभी भुवन को विचलित होते हुए नहीं देखा था । रिपोर्टिंग करते हुए वह हर ख़तरे , हर त्रासदी का सामना सधे हाथों से माइक पकड़े हुए सधी आवाज़ में करता था । मुझे लगता था कि कोई भी भयावहता उसे हिला नहीं सकती । शायद माइक और कैमरे के लेंस का उस पर गहरा प्रभाव पड़ता था -- तब वह ख़ुद को हादसे से अलग रखते हुए सारी घटना को तटस्थ भाव से देख पाता था । अलगाव की यह दूरी ही उसे भावनाओं की बाढ़ में बहने से बचाए रखती थी ।
भुवन शुरू से ही मलबे के नीचे दबी उस लड़की को बचाने के प्रयास में जुट गया । उसने उस ध्वस्त इमारत के आस-पास की फ़िल्म बनवाई और फिर स्लो-मोशन में कैमरे को उस बड़े से छेद में डाल कर उस सहमी हुई लड़की पर ज़ूम करवा दिया । उसका धूल-मिट्टी से सना चेहरा , उसकी क़तार आँखें , उसके उलझे हुए बाल -- सब कुछ भुवन की सधी हुई आवाज़ में हो रही कमेंट्री के साथ टी. वी. पर प्रसारित हो रहा था । भुवन ने उसे ' बहादुर लड़की ' की संज्ञा दी जो अपनी जिजीविषा के सहारे विकट परिस्थितियों से जूझ रही थी । बचावकर्मियों ने उस छेद में से नीचे उस लड़की के पास एक मज़बूत रस्सी फेंकी । पर तब लड़की ने सबकी शंका को पुष्ट करते हुए बताया कि उसके दोनों पैर कंक्रीट के भारी मलबे के नीचे दबे हुए थे , और वह ख़ुद से बाहर नहीं निकल सकती थी । अब भारी क्रेन के आने की लम्बी प्रतीक्षा शुरू हुई -- वह क्रेन जो मलबा हटा कर उस लड़की को सुरक्षित निकाल पाती ।
यह वहाँ हमारा पहला दिन था , और शाम घिरने लगी थी । साथ ही ठंड बढ़ने लगी थी । भुवन ने अपना जैकेट उतार कर नीचे फँसी ठंड से ठिठुरती लड़की को पहनने के लिए दे दिया । आस-पास फँसी सड़ रही लाशों में से सड़ाँध बढ़ने लगी थी ।
" बेटी , तुम्हारा नाम क्या है ? " भुवन ने कोमल स्वर में पूछा था । जवाब में उस लड़की ने कमज़ोर-सी आवाज़ में कहा था , " मीता । " भुवन लगातार उससे बातें कर रहा था , उसे दिलासा दे रहा था । " हम तुम्हें बचा लेंगे , मीता । कल बड़ी क्रेन आ जाएगी जो सारा मलबा हटा कर तुम्हें बाहर निकाल लेगी । " एक डॉक्टर आ कर लड़की के लिए दर्द की दवाई दे गया था । मीता के खाने के लिए थोड़ा दूध और ब्रेड ऊपर छेद में से नीचे भेजा गया था । उसका ध्यान बँटाने के लिए भुवन उसे असली कहानियाँ सुनाता रहा । बातों-ही-बातों में मीता ने उसे बताया कि इसी मलबे में आस-पास कहीं उसके माता-पिता और भाई-बहन भी दबे हुए हैं । पता नहीं वे सब अब जीवित होंगे या नहीं । भुवन लगातार उसका हौसला बढ़ा रहा था । लेकिन पहली बार मैंने उसकी आवाज़ को भर्राया हुआ पाया । जैसे इस बार इस त्रासदी के सामने वह तटस्थ नहीं रह पा रहा था । जैसे इस भूकम्प की वजह से उसके भीतर भी कहीं कुछ दरक गया था , ढह गया था । फिर भी वह बड़ी शिद्दत से मीता का जीवन बचाने का भरपूर प्रयास कर रहा था ।
अचानक मुझे दस साल पहले घटी वह त्रासद घटना याद आ गई जब इसी उम्र की भुवन की अपनी बेटी नेहा एक सड़क-दुर्घटना का शिकार हो गई थी । बुरी तरह घायल नेहा को गोद में उठाए भुवन पास के अस्पताल की ओर भागा था । पर डॉक्टर नेहा को नहीं बचा पाए थे । इस सदमे से उबरने में भुवन को कई महीने लगे थे । मुझे लगा जैसे मलबे में फँसी इस लड़की मीता में भुवन अपनी बेटी नेहा की छवि देख रहा था ...
अगली सुबह और पूरा दिन भुवन राज्य की राजधानी में अलग-अलग अधिकारियों को फ़ोन करके भारी मलबा हटाने वाली बड़ी क्रेन को घटना-स्थल पर तुरंत भेजे जाने की माँग करता रहा । दूसरे दिन की शाम तक उसकी आवाज़ टूटने लगी थी और उसके हाथ काँपने लगे थे । अब मैंने माइक और कैमरा -- दोनों का दायित्व सँभाल लिया था , जबकि भुवन लगातार इधर-उधर फ़ोन कर रहा था और मीता का ध्यान रख रहा था ।
उसी शाम केंद्र के गृह-मंत्री ने अपने व्यस्त कार्यक्रमों में से समय निकाल कर प्रदेश के गृह-मंत्री के साथ घटना-स्थल का दौरा किया । उनके साथ सरकारी अमले का पूरा ताम-झाम मौजूद था । टेलिविज़न कैमरों की रोशनी की चकाचौंध में दोनों मंत्रियों ने उस बड़े से छेद में से मीता से बात की और उसे आश्वस्त किया कि उसे बचा लिया जाएगा । उन्होंने राहत और बचाव-कर्मियों की भूरि-भूरि प्रशंसा की जो जी-जान से लोगों को बचाने के काम में लगे हुए थे । भुवन ने दोनों मंत्रियों से भी भारी मलबा हटाने वाली बड़ी क्रेन को यहाँ तुरंत भेजने की गुहार लगाई । दोनों मंत्रियों ने अधिकारियों से कहा कि यह काम कल तक हो जाए । फिर रात होने से पहले दोनों मंत्रीऔर सारा सरकारी अमला वहाँ से लौट गया । बाक़ी टी.वी. कैमरे भी अन्य जगहों की स्थिति की रिपोर्टिंग करने के लिए इधर-उधर चले गए । उस लड़की के पास अब केवल भुवन और मैं बचे । भुवन ने उसे खाने के लिए बिस्कुट दिए , लेकिन उसकी हालत अब बिगड़ रही थी । शायद उसकी दबी-कुचली टाँगों में इन्फ़ेक्शन की वजह से उसे तेज़ बुखार हो गया था । वह जो कुछ भी खा रही थी उसकी उल्टी कर दे रही थी ।
भुवन ने एक डॉक्टर से लेकर मीता को बुखार उतारने और उल्टी रोकने वाली दवाइयाँ नीचे भेजीं । वह अब भी किसी तरह उम्मीद का उजला दामन थामे हुए था । सोच रहा था कि कल तक बड़ी क्रेन ज़रूर आ जाएगी और किसी तरह भारी मलबा हटा कर मीता को बचा लिया जाएगा ।
वह एक बहुत लम्बी और भारी रात थी जो बड़ी मुश्किल से कटी ।
सुबह होते ही भुवन एक बार फिर हर रसूख़ वाले जानकार को फ़ोन करके उससे एक अदद बड़ी क्रेन घटना-स्थल पर भेजने का आग्रह करता रहा । किंतु अब उसके स्वर में एक याचक का भाव आ गया था । जैसे वह क्रेन भेजे जाने के लिए गिड़गिड़ा रहा हो । टी. वी. कैमरे वाले अब भी मलबे में इधर-उधर फँसे हुए दूसरे लोगों की रिपोर्टिंग करने में व्यस्त थे । डॉक्टरों की टोली स्ट्रेचर पर लगातार लाए जा रहे घायलों का उपचार करने में लगी हुई थी । राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन संस्था के कर्मचारी और अधिकारी खोजी कुत्तों के साथ चारों ओर घूम रहे थे । महामारी से बचने के लिए निकाली गई लाशों का कुछ ही दूरी पर सामूहिक दाह-संस्कार किया जा रहा था ।
उस बड़े-से छेद के नीचे मलबे में फँसी उस दस-ग्यारह साल की बच्ची मीता को जैसे राम-भरोसे छोड़ दिया गया था । वह अब तेज़ बुखार में काँप रही थी । वह इतनी क्षीण लग रही थी कि पहली बार मुझे लगा कि शायद उसके लिए अब देर हो चुकी थी । लेकिन भुवन अब भी उम्मीद का सिरा थामे यहाँ-वहाँ फ़ोन कर रहा था । बीच-बीच में वह मीता को आश्वस्त भी कर रहा था कि आज उसे ज़रूर बचा लिया जाएगा । हालाँकि मैं देख सकता था कि इस आश्वासन पर मीता का भरोसा भी अब उठता जा रहा था । इस बीच इलाक़े का एक पुजारी भी वहाँ आया , जिसने मलबे में फँसी उस लड़की की जान बचाने के लिए वहीं ईश्वर से प्रार्थना भी की ।
दोपहर बाद वहाँ बारिश शुरू हो गई । बारिश की वजह से ठंड और बढ़ गई थी । वह इक्कीसवें सदी के दूसरे दशक के किसी दिसम्बर का उदास , धूसर दिन था । मलबे की क़ब्रगाह में हमारे सामने एक लड़की का जीवन धीरे-धीरे ख़त्म हो रहा था , और हम कुछ नहीं कर पा रहे थे । लोग अपने-अपने ड्राइंग और बेड-रूम में गप्पें मारते या खाना खाते हुए टी. वी. पर इस हादसे के ' लाइव ' दृश्य देख रहे थे । मीता का दारुण चेहरा ज़ूम हो कर राज्य और देश के कोने-कोने के घरों में पहुँच रहा था । हर टी. वी. चैनल इस 'बहादुर लड़की' की जिजीविषा को प्रेरणादायी बता रहा था । पर मीता का जीवन बचाने के लिए एक अदद बड़ी क्रेन का बंदोबस्त कोई नहीं कर पा रहा था । सरकार अपनी लाचारी जता रही थी कि भूकम्प की वजह से रास्ते क्षतिग्रस्त हो गए थे । इसलिए क्रेन के घटना-स्थल पर पहुँचने में देरी की बात की जा रही थी । उम्मीद जताई जा रही थी कि समय रहते क्रेन वहाँ पहुँच जाएगी और मीता को बचा लिया जाएगा ।
देखते-ही-देखते तीसरे दिन की शाम भी आ गई । और बड़ी क्रेन का कोई अता-पता नहीं था । भुवन के लिए ख़ुद से भाग सकना अब असम्भव हो गया था । क्या पुरानी स्मृतियों की धुँध उसे बदहवास कर रही थी ? क्या उसका अतीत उसके वर्तमान का द्वार खटखटा रहा था ? इस बीच ख़बर आई थी कि राज्य में एक हफ़्ते के सरकारी शोक की घोषणा कर दी गई थी । सभी सरकारी भवनों पर राष्ट्रीय ध्वज झुका दिया गया था । एक अनुमान के अनुसार इस भूकम्प की वजह से पूरे इलाक़े में लगभग दस हज़ार लोग मारे गए थे। जगह-जगह मृतकों की आत्मा की शांति के लिए प्रार्थना-सभाएँ आयोजित की जा रही थीं ।
मुझे लगा जैसे भुवन के लिए मीता और नेहा के चेहरे आपस में गड्ड-मड्ड हो गए थे । उसके ज़हन में मौजूद अपनी बेटी की अकाल-मृत्यु का भर रहा पुराना घाव जैसे फिर से हरा हो गया था । । उस लड़की ने भुवन के अंतस के बरसों से शुष्क पड़े कोनों को फिर से आर्द्र कर दिया था । वे सूख चुके कोने जिन्हें वह ख़ुद भी भूल गया था । मुझे लगा जैसे जीवन के दूसरी ओर से मैं असहाय-सा भुवन और मीता पर नज़र रखे हुआ था ।
चौथे दिन बड़ी क्रेन आ गई । पर तब तक बहुत देर हो चुकी थी । पिछली रात ही जीवन मीता का साथ छोड़ गया था । जब उसका शव मलबे में से निकाला गया तब सबकी आँखें नम हो गई थीं । भुवन बहुत देर तक मीता के शव को गोद में लिए हतप्रभ बैठा रहा । इस भूकम्प में उसके भीतर भी बहुत कुछ भयावह रूप से तबाह हो गया था । उसके मन का बाँध टूट चुका था । मीता की अंत्येष्टि के समय वह बच्चों की तरह फूट-फूट कर रोया । उसके लिए मीता कीचड़ में धँसा वह अधखिला नीला कमल थी जो असमय मुरझा गया ...
( भुवन वापस राज्य की राजधानी लौट आया है । पर वह पहले जैसा नहीं रहा । अब वह
उदास , गुमसुम और खोया हुआ लगता है । अक्सर हम साथ बैठ कर मीता के वे वीडियो
देखते हैं जो हमने शूट किए थे । जैसे हम आइने में ख़ुद को नंगा देख रहे हों । क्या हमसे
कहीं कोई ग़लती हो गई थी ? क्या हम किसी तरह मीता को बचा सकते थे ? भुवन मेरा
सहयोगी ही नहीं , मेरा अच्छा मित्र भी है । अब वह न ज़्यादा बातें करता है , न कोई गीत
गुनगुनाता है । अक्सर अकेला बैठा शून्य में ताकता रहता है , जैसे दूर कहीं खो गया हो ।
लेकिन मैं जानता हूँ कि अपनी इस भीतरी यात्रा के बाद भुवन लौटेगा । गहरे घावों को भरने
में समय लगता है । मुझे यक़ीन है कि जब उसके दु:स्वप्न उसका पीछा छोड़ देंगे , तब सब
कुछ पहले जैसा हो जाएगा । इस भूकम्प के बाद भी पुनर्निर्माण ज़रूर होगा । )
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प्रेषक : सुशांत सुप्रिय
A-5001 ,
गौड़ ग्रीन सिटी ,
वैभव खंड ,
इंदिरापुरम् ,
ग़ाज़ियाबाद - 201014
( उ. प्र. )
मो : 8512070086
ई-मेल : sushant1968@gmail.com
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