नारीमुक्ति ,जातिवाद ,आरक्षण ,मजदूर क्रांति ,दलित शोषित वर्गों द्धारा अपने अधिकारों के लिए हमेशा से आंदोलन का सहारा लिया गया है। माज में शोषण की प्रवृति पनपी है ,तब उसके विरुद्ध समाज में आंदोलन खड़े हुए हैं समाज के परिवर्तन और विकास में इनकी महत्वपूर्ण भूमिका है।
साहित्य ,समाज और शिक्षा प्रतिक्रियात्मक व्यवस्थाएं
शिक्षा ,समाज एवं साहित्य एक दूसरे के पूरक एवं प्रतिक्रियात्मक संस्थान है शिक्षा के प्रभाव से समाज में विकास होता है एवं समाज की संस्कृति साहित्य का सृजन करती है। समाज की आवश्यकताएं बहुमुखी होती हैं, इसके लिए व्यक्ति निर्माण ,परिवार निर्माण एवं समाज निर्माण के लिए शिक्षा को व्यवस्थित एवं उपयोगी बनाने की आवश्यकता है। साहित्य का सरोकार आधारभूत एवं शाश्वत मानवीय मूल्यों ,विवेक एवं चेतना से होता है। साहित्य हमेशा देश काल परम्पराओं को लाँघ जाता है। ये साहित्य का स्वाभाविक गुण है क्योंकि साहित्य अविरल है वह किसी व्यक्ति ,समाज कल एवं परम्पराओं से बंधा नहीं है। समाज के शुभ अशुभ ,अच्छे बुरे ,नैतिक अनैतिक गुणों को व्यक्त करना उसका स्वभाव है।
साहित्य हमेशा समाज के प्रति प्रेम,संस्कृति एवं इतिहास के प्रति सम्मान दर्शाये ये जरूरी नहीं है। साहित्य ने हमेशा सत्य को जिया है। समाज में जो अशुभ उसकी भर्त्सना की है एवं जो शुभ है उसका गुणगान किया है। साहित्य हमारी अस्मिता की पहचान कराता है-सामूहिक, सामाजिक, व्यक्तिगत और आस्तित्विक अस्मित की। साहित्य स्थितिबोध जगाता है, जड़ों की पहचान कराता है, उनके द्वारा अपनी मिट्टी से रस खींचने की प्रेरणा देता है,
देश काल परस्थिति एवं संस्कृति से साहित्य एवं शिक्षा हमेशा प्रभावित रहे हैं। औपनिवेशिक काल में साहित्य ने हमेशा साम्राज्यवाद का घोर विरोध किया था कुछ डेढ़ सौ वर्ष पुराने हिंदी साहित्य को हमेशा मानवीय मूल्यों की
शिक्षा ,समाज एवं साहित्य |
समाज कल्याण की भावना से लिखा गया अर्थमय विचार साहित्य कहलाता है। साहित्य समाज एवं व्यक्ति की आत्माभिव्यक्ति है ,समाज की खूबियां एवं कुरीतियाँ दोनों को साहित्य साक्षी हो कर व्यक्त करता है। वरिष्ठ साहित्यकार नारायण श्रीवास्तव के अनुसार "साहित्य और समाज हमेशा प्रतिक्रियात्मक होते है व दोनों एक दूसरे से अभिप्रेरित होते हैं जैसा समाज होगा वैसा साहित्य लिखा जावेगा व जो साहित्य लिखेगा उसका अनुसरण समाज करेगा। "
साहित्य का मुख्य कार्य मानवीय चेतनाओं का स्पष्टीकरण एवं उत्प्रेरण हैं। वर्तमान सन्दर्भों में व्यक्ति को उनके प्रति सजग एवं अभिप्रेरित करना साहित्य का मुख्य लक्ष्य होता है। समकालीन साहित्य में समाज का चित्रण स्वाभाविक प्रक्रिया है साहित्य हमेशा से समाज के सरोकारों से प्रभावित रहा है समाज में होने वाली घटनाएँ उन्हें जीने वाले लोग अच्छे बुरे आचरण हमेशा से साहित्य के केंद्र बिंदु रहे हैं। श्री लाल शुक्ल का राग दरबारी आज़ादी के बाद ग्रामीण समाज की दुर्दशा ,भ्रष्टाचार ,अशिक्षा इत्यादि को मूर्त रूप में चित्रित करता है।
समाज में स्त्रियों के अधिकारों की स्थिति, लैंगिक विभेद,जाती एवं धर्म का टकराव। राजनैतिक कुचक्रों में फंसा आम आदमी ,लोकतंत्र के नाम पर भीड़ तंत्र हमेशा से साहित्य के प्रिय विषय रहें हैं। साहित्य ने इन पर भीषण प्रहार किया हैं एवं विकृतियों को सुधारा है। भारतीय समाज में साहित्य की बहुत बड़ी भूमिका देश के उत्थान में रही है आदिकाल से ही इस बात को हम महसूस करते चले आ रहें हैं | इसीलिये भारतीय समाज को साहित्य,समाज का प्रतिबिम्ब आइना माना जाता है। भाषा में सामाजिक और सांस्कृतिक अनेक ऐसे पहलू निहित होते हैं जिन्हें सीखकर हम लोक व्यवहार के साथ साथ व्यक्तित्व निर्माण के लक्ष्य को भी प्राप्त कर सकते हैं. सभी भाषाओं के साहित्य में अनेक ऐसे पात्र मौजूद हैं जो हमें जीवन संघर्ष की शिक्षा देते हैं तथा हताशा के क्षणों में हमारे काम आते हैं.साहित्य अतीत का वास्तविक दर्पण और भावी जीवन मार्गदर्शक पथप्रदर्शक भी माना जाता है। सच्चा साहित्य कभी पुराना नहीं होता, ऐसा साहित्य जीवन के शाश्वत मूल्यों को समाज के समक्ष प्रतिष्ठित करता है, उसके के उद्देश्यों को उसके महत्वपूर्ण सिद्धांतों को प्रतिपादित करता है उसके विस्तृत रूपों पर अनवरत् चर्चा करता है है,साहित्य का कार्य ही समाज में व्याप्त बुराईयों का बहिष्कार कर मानवता और नैतिकता और उच्च सिद्धांतों की बात करना है । यह सार्थक परिष्कृत चिन्तन भारतीय समाज में आधुनिक साहित्य की उपज ही कहा ही जा सकता है जिसने भारतीय समाज में व्याप्त कुरीतियों का उन्मूलन किया, साथ ही समाज की उन्नति का आधार भी बना जिसका साक्षात प्रभाव भारतीय समाज और साहित्य पर दृष्टिगोचर होता है। यह बात अलग है कि आज जिन कृतियों को हम साहित्य के नाम से पढ़ते हैं उनमें इनी-गिनी ही इस कोटि में आती हैं; जिन्हें हम साहित्यस्रष्टा और कवि कहते हैं उनमें भी विरला ही इस कसौटी पर खरा उतरेगा जिसकी ओर संकेत किया गया है। ऐसा कवि हमें आसपास नहीं दीखता, लेकिन ऐसा कवि होता है-हमारा यह विश्वास नहीं डिगता।
सामाजिक ,राजनैतिक ,आर्थिक ,एवं सांस्कृतिक तंत्र हमेशा से शिक्षा को प्रभावित करते रहे हैं। एमिली डूरकेमके अनुसार "शिक्षा का मुख्य कार्य समाज में नैतिक मूल्यों का स्थापन करना है " शिक्षा बच्चे को परिष्कृत कर उच्च व्यक्तित्व प्रदान करती है।शिक्षा संचित ज्ञान एवं साहित्य में समाहित मूल्यों के अनुसार व्यक्ति के व्यक्तित्व का विकास करती है शिक्षा व्यक्ति को वो कुशलता प्रदान करती है जिससे वह समकालीन समाज में अपना स्थान का निर्धारण कर सके। कोई भी समाज अपने अस्तित्व की रक्षा तभी कर सकता है जब उसके सदस्यों में शिक्षा का सामान फैलाव हो। समाज का विकास एवं प्रतिष्ठा उसके शिक्षित सदस्यों का समानुपात होता है। मनुष्य के पैदा होने पर परिवार में उसकी स्थिति न्यूनतम पर होती है उसकी शिक्षा ही उसे परिवार या समाज में उच्चतर स्थिति प्रदान करती है।
शिक्षा व्यक्ति को समाज के महत्वपूर्ण विकास के लिए तैयार करती है। भूमंडलीकरण के इस दौर में शिक्षा के औपचारिक एवं अनौपचारिक संस्थान अपनी राह से भटक रहें हैं। वो बच्चों को सही शिक्षा प्रदान करने में असमर्थ दिख रहे हैं। आज परिवार एकल हो गए हैं पति पत्नी के पास बच्चों के लिए समय नहीं हैं पारिवारिक संस्कारों की कमी के कारण बच्चे एकांगी हो रहें हैं इस कारण से समाज में नैतिक मूल्यों का ह्राष हो रहा है। विद्यालय सिर्फ किताबी एवं मशीनी शिक्षा पर जोर दे रहे हैं। विद्यालय में छात्रों को पाठ्यक्रम रटवाया जा रहा है। सामाजिक एवं नैतिक मूल्यों से उन्हें वंचित रखा जा रहा है।
राष्ट्रीय शिक्षा नीति 1986 में स्पष्ट कहा गया है "सभी स्तर पर शिक्षण में नैतिक मूल्यों का समावेश किया जाना चाहिए। चरित्र निर्माण शिक्षा का प्रमुख उद्देश्य होना चाहिए। हमें पाठ्यक्रमों में बदलाव कर शिक्षा को सामाजिक एवं नैतिक मूल्यों के स्थापन का प्रमुख औजार बनाना चाहिए "
साहित्य समाज का दर्पण होता है तो शिक्षा समाज की रीढ़ होती है। इन तीनो का उच्चतम समन्वय उत्कृष्ट संस्कृतियों का निर्माण करता है। शिक्षा विकास का प्रमुख अस्त्र है ,यह व्यक्ति देश समाज के बहुआयामी विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। समाज एवं संस्कृति के उत्थान में शिक्षा प्रमुख घटक है। शिक्षा के उचित प्रोत्साहन से सामाजिक ,आर्थिक राजनैतिक एवं सांस्कृतिक क्षेत्रों में नैतिक विकास का समावेश किया जा सकता है। समाज सुधार के परिपेक्ष्य में शिक्षा ने प्राचीन कल से महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन किया है जिसका प्रभाव आधुनिक भारत में स्पष्ट परिलक्षित होता है। साहित्य में प्रकट और परोक्ष रूप से शिक्षा के सूत्र समाए हुए हैं. अगर कोई साहित्यकार प्रकृति का वर्णन करता है तो वह नदी, समुद्र, वृक्ष और बादल तक को शिक्षक बना देता है कि कैसे इनके माध्यम से परमार्थ और परोपकार जैसी उदार चीज़ें सीखी जा सकती है। यही कारण है कि बचपन से ही कोई भी साहित्यिक पाठ पढ़ाने के बाद हम से यह पूछा जाता है कि इस पाठ से आपको क्या सीख मिली. गणित या अर्थशास्त्र अथवा अन्य किसी विषय के पाठ में ऐसा नहीं होता.शिक्षा नागरिक एवं समाज के बीच सेतु का कार्य करती है।समाज की आवश्यकता अनुरूप अपने में परिवर्तन की सामर्थ्य शिक्षा में होती है। प्रारम्भ में शिक्षा का उद्देश्य सिर्फ ज्ञान का संवर्धन था किन्तु धीरे धीरे शिक्षा समाज के परिवर्तन का माध्यम बन गई गांधीजी ने शिक्षा को जनचेतना का आंदोलन बनाया था उन्होंने बुनियादी शिक्षा का सूत्र देकर भारतीय जीवन एवं समाज में जाग्रति व समग्रता की भावना उत्पन्न की थी।गांधीजी ने शिक्षा को रोजगारोन्मुखी एवं जीवन के बहुमुखी विकास का माध्यम बना कर देश को प्रगति के पथ पर अग्रसर कर भूमंडलीय व्यवस्था की प्रतिस्पर्धा में शामिल किया था।
आज की वैश्विक परस्थितियों में हमारा समाज एक बड़े परिवर्तन से गुजर रहा है। हमारे नैतिक मूल्य पीछे छूट रहे है भौतिकता ,पश्चमी सभ्यता एवं नकारात्मक मूल्य नायक बन कर लोगो के आदर्श बनते जा रहे हैं। इन सारी बुराइयों का केंद्रबिंदु शिक्षा का अधूरापन है प्रमुख शिक्षा शास्त्री अनिल सद्गोपाल के अनुसार "शिक्षा का विकेंद्रीकरण होना चाहिए मैं ये बात कतई स्वीकार नहीं कर सकता की भारत जैसे विशाल देश के पास अपने बच्चों को शिक्षित करने के लिए संसाधनो की कमी है। सरकारें लगातार गरीबों की शिक्षा के प्रति उदासीन एवं अन्यायकारी है ,सरकारी स्कूलों को बर्बादी के कगार पर पहुँच दिया गया है।"
जब भी समाज में शोषण की प्रवृति पनपी है ,तब उसके विरुद्ध समाज में आंदोलन खड़े हुए हैं समाज के परिवर्तन और विकास में इनकी महत्वपूर्ण भूमिका है। नारीमुक्ति ,जातिवाद ,आरक्षण ,मजदूर क्रांति ,दलित शोषित वर्गों द्धारा अपने अधिकारों के लिए हमेशा से आंदोलन का सहारा लिया गया है।वरिष्ठ पत्रकार राजेंद्र हरदेनिया के अनुसार "आंदोलनों की सार्थकता उसमे निहित जनसमूहों के व्यापक हितों की आवाज उठाने से होती है लेकिन ये आवाज़, जब चंद व्यक्ति जो उस आंदोलन की अगुआई कर रहे होते हैं कि महत्वाकांक्षाओं की बलि चढ़ जाती तो वह आंदोलन उस जनसमूह के लिए एक बुरे स्वप्न की भांति बन जाता है। "आज पूंजीवादी साम्राज्यवादी ताकतें समाज में आर्थिक विषमता पैदा कर शिक्षा, संस्कृति, नीति-नैतिकता को नष्ट करने पर तुली हुई हैं। साम्प्रदायिकता का जहर फैलाया जा रहा है। धर्म को राजनीति का मुख्य अंग बना दिया गया है। किसान -मजदूरों की हालत लगातार बदतर होती जा रही है। युवाओं के सामने रोजगार का संकट है। शिक्षा को बाजार की वस्तु बना देने से यह आम आदमी की पहुंच से बाहर हो चुकी है। हत्या, बलात्कार और नारी उत्पीडन की घटनाएं पराकाष्ठा पर है। ऐसी विषम परिस्थिति में प्रेमचंद और उनका साहित्य युवापीढी को मार्गदर्शन करने वाला है।प्रेमचंद के उपन्यास ‘रंगभूमि’ का सूरदास अंधा अनपढ़ भिखारी होते हुए भी बहुत बड़ा अनाऔपचारिक शिक्षक है जो हमें समाज के लिए कुछ सार्थक कार्य करने की प्रेरणा देता है
पूँजी की बढ़ोतरी समाज में विसंगतियां उत्पन्न कर रही है महानगरीय जीवन में जो आज घटित हो रहा है उससे समाज ,शिक्षा एवं साहित्य तीनो प्रभावित हो रहे हैं। कस्बों की पीड़ा ,गावों का दर्द एवं महानगरों की अमानवीयता आज के साहित्य ,समाज एवं शिक्षा की चिंता के प्रमुख केंद्रबिंदु हैं।
- सुशील शर्मा
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