कुत्रे - विजय तेंडुलकर नाटककार विजय तेंडुलकर यह हस्ताक्षर किसी एक भाषा, एक काल, एक प्रांत का न होकर इन सारी सीमाओं को लॉंघकर वे सर्वकालिक विश्वप्रसिद्ध नाटककार साबीत हुए । इस शतक के मुख्य नाटककारों में उनका नाम बड़े सम्मान से लिया जाता है ।
कुत्रे - विजय तेंडुलकर
नाटककार विजय तेंडुलकर यह हस्ताक्षर किसी एक भाषा, एक काल, एक प्रांत का न होकर इन सारी सीमाओं को लॉंघकर वे सर्वकालिक विश्वप्रसिद्ध नाटककार साबीत हुए । इस शतक के मुख्य नाटककारों में उनका नाम बड़े सम्मान से लिया जाता है । उनकी अनेक रचनाएँ आज भी रंगमंच पर प्रस्तुत होती हैं, उनकी कृतियाँ कालबाह्य नही लगती, यहीं उनकी सफलता का रहस्य हैं । मराठी रंगभूमि को संगीत नाटक आल्हादित कर रहा था , तब ' श्रीमंत ' जैसी रचना ने मराठी रसिकों को हड़बड़ा कर जगा दिया । हिंसाचार उनका प्रिय विषय रहा है , उनके अनेक नाटकों में वह स्थान स्थान पर प्रस्तुत हुआ हैं; तब स्वयं नाटककार को ही प्रश्न उपस्थित होता है, ' हे सर्व कोठून येते ?'
नाटक : कुत्रे
नाटककार : विजय तेंडुलकर
प्रकाशक : पॉप्युलर प्रकाशन , मुंबई
प्रकाशन वर्ष : सन् २००३ ई.
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विजय तेंडुलकर लिखित ' कुत्रे ' नाटक का प्रकाशन पॉप्युलर प्रकाशन , मुंबई द्वारा सन् २००३ ई. में प्रकाशित हुआ । हॉंलाकि इस नाटक का प्रकाशन सन् २००३ ई. में हुआ पर नाटक की रचना लगभग तीस - पैंतीस वर्ष पूर्व हुई थी । नाटक के जन्म के संदर्भ में नाटककार का भाष्य हैं कि,"गतवर्षी माझी खोली लावीत असता टाकाऊ गोष्टींत एक पुडके मिळाले. ते कच-यात टाकलेच होते पण वेळ होता म्हणून काय आहे बघू लागलो, तर माझेच अक्षर. नाटक . ते देखील पूर्ण . तेव्हा बाजूला ठेवले. ........... नाटक नव्याने हाती लागल्यानंतर पहिल्या वाचनात झालेला ग्रह या वाचनांतून पक्का झाला. या नाटकात काहीतरी आहे आणि मला ते , म्हटले जावे असे वाटते ." * (१) इस प्रकार रद्दी में गए इस नाटक को पुर्नजन्म प्राप्त हुआ ।
दो अंकी इस नाटक का आरंभ लोकनाट्य की शैली में होता है , विदूषक सुत्रधार के रूप में नाटक का कथानक आरंभ करता है । संपूर्ण नाटक में केवल तीन पात्र है, मी (मैं) , घोडके , बाई ( स्त्री ) तथा अदृश्य रूप में कुत्तें ( नाटक के कथानक के मुख्य पात्र को अदृश्य रखना , यह तेंडुलकरी शैली हैं , जैसे श्रीमंत में मथुरा को जिससे गर्भधारणा हुई है वह अदृश्य है , शांतता कोर्ट चालू आहे में बारबार प्रो. दामले का उल्लेख आता है पर वे अदृश्य हैं, घाशिराम कोतवाल में ललितागौरी को संवाद नहीं वैसे यहाँ भी अदृश्य कुत्ते) हाँलाकि यह कुत्ते अदृश्य रूप में रहकर सफेदपोशी मनुष्य के अतिक्षुद्र पाशवी कृति का चित्रण करते हैं । पाठकों पर यह नाटक सीधा प्रहार नहीं करता बल्कि मनुष्य के भीतर की हीन भावना को उजागर कर मन में द्वंद्व निर्माण करता है ।
नाटक का कथानक आरंभ करते हुए विदूषक कहता है , " खेळ नवा . जसा तापला तवा . पोळी घ्या भाजून, तिकिटाचे पैसे मोजून , करमणूक टिच्चून . मायबाप, एका विक्रेत्याची ही कहाणी . सेल्समन . ऐन विशीतला तरूण विक्रेता ." *२ यहीं विदूषक अपने चेहरे से मुखौटा उतार देता है और नाटक का नायक मी ( मैं) बन जाता है । मी पाठकों को अपना भूतकाल स्पष्ट करते हुए कहता है, " जगासमोर स्वत:ला नागवं करणं हीच माणसाची कधीकधी एक गरज असत असेल . या क्षणी ती माझी आहे ." *३ सोलापूर के किसी कलघटगी नामक गाँव में मी को सेल्समन की नौकरी मिली है । ब्रिटीश ज़माने में यह गाँव संस्थान था , आज भी उसके चिह्न स्थान स्थान पर दिखाई देते हैं । गाँव में भौतिक सुखों का अभाव हैं , अत: मुंबई जैसे महानगर से आये मी को आये दिन मुश्किलों का सामना करना पड़ता हैं । जिस ' बादशाही लॉज' में मी रूका है , उस 'लॉज' का ' ऑ' गिरकर केवल ' लाज ' ( इज़्ज़त ) बचीं है । रात के समय साथ निभाने के लिए चुहे , खटमल, मच्छर आदि सेना तैयार हैं, कई दिनों से बिना
धोयी चद्दर और तेल से भरी तकिया का उसे सहारा है । छत पर टंगा एक बिजली का पंखा ज़रूर है, पर उससे ठंडी हवा की अपेक्षा रखना ग़लत हैं । ऐसे ख़ौफ़नाक वातावरण में मी रहने लगा है । दिवार पर एक सरस्वती की तस्वीर है, जिसे देखते ही मी की कामवासना जागृत होती है ( सफेदपोशी षंढ प्रवृत्ति )। इस मी को कंपनी का कर्मचारी एक स्थानिक व्यक्ति घोडके मिलता है । इस घोडके को कंपनी के काम के सिवा गाँव के अन्य मुफ़्त के कामों में ही अधिक रुचि है । घोडके मी का सहाय्यक , मित्र तथा तत्वज्ञ की भूमिका निभाता है । वह मी को आते ही गाँव का प्रथम नियम समझाता हैं कि इस गॉंव में किसी को मात्र नाम से पुकारा नहीं जाता बल्कि ' सरकार ' कहा जाता है ; ' सरकार' कहना यहाँ की जीवनावश्यक ज़रूरत है, अन्य सुविधा भले ही न मिले । घोडके बात बात में तत्वज्ञान बॉंटता हैं । वह मी का सलाहकार बनता है । मी को वह ' कंपनी सरकार ' कहकर पुकारता है और कंपनी सरकार को ऐसे हालातों में आराम मिले इसलिए हर क्षण सेवा में तत्पर रहता है ।
मी को इस माहौल में राहत मिले इस लिए किसी स्नेहिल व्यक्ति के साथ की आवश्यकता हैं , ऐसा सुझाव घोडके देता है । रात्रि का समय व्यतीत करने के लिए एक विधवा स्त्री ( बाई) की मतिमंद पुत्री का अध्यापन कार्य का अतिरिक्त काम घोडके मी को देता है । यह स्त्री युवावस्था में विधवा हुई हैं, तथा इसके पति ने स्वप्न में दृष्टांत दिया है कि अब उन्होंने कुत्ते के रूप में पुर्नजन्म प्राप्त किया है, अत: स्त्री ने अपने ईदगिर्द सात आठ कुत्ते सँभाले हैं । इन कुत्तों से वह प्रेमभरी बातें करती है । इस स्त्री के व्यक्तित्व से मी प्रभावित होता है , मी घोडके को स्त्री का वर्णन करते हुए कहता है,
मी को इस माहौल में राहत मिले इस लिए किसी स्नेहिल व्यक्ति के साथ की आवश्यकता हैं , ऐसा सुझाव घोडके देता है । रात्रि का समय व्यतीत करने के लिए एक विधवा स्त्री ( बाई) की मतिमंद पुत्री का अध्यापन कार्य का अतिरिक्त काम घोडके मी को देता है । यह स्त्री युवावस्था में विधवा हुई हैं, तथा इसके पति ने स्वप्न में दृष्टांत दिया है कि अब उन्होंने कुत्ते के रूप में पुर्नजन्म प्राप्त किया है, अत: स्त्री ने अपने ईदगिर्द सात आठ कुत्ते सँभाले हैं । इन कुत्तों से वह प्रेमभरी बातें करती है । इस स्त्री के व्यक्तित्व से मी प्रभावित होता है , मी घोडके को स्त्री का वर्णन करते हुए कहता है,
" मी : घोडके , प्रकरण वाटलं होतं त्याहून वेगळं आहे .
घोडके : असणार तर.
मी : आणि साधं नाही, गुंतागुंतीचंसुद्धा आहे . " * ४
यह ' गुंतागुंत ' ( पेचीदा) संपूर्ण नाटक में उन्मुख होता है ।
मी हर रोज बाई के घर मतिमंद पुत्रि के अध्यापन कार्य के लिए जाता है, पर बाई के विचार , (सुंदर) व्यक्तित्व में ही गोता खाने लगता है । बाई के सहवास में मी हिंदू संस्कृति , अध्यात्म की उत्तुंग बातें करने लगता है, जिसमें उसके षंढ प्रवृत्ति का दर्शन होता है । बाई भी " रात्र -रात्र झोप नसते . या कुशीवरून त्या कुशीवर तळमळण्यात रात्री सरतात . मनोमनी त्यांना बोलवत राहते . बिछाना नुसता खायला येतो . भरभरून यायचं आणि..... वाहून जायचं . असं किती चालणार ? सांगा किती चालणार ? " *५ इस तरह का प्रश्न मी को पुछ कर अपनी खोखली पतिव्रता का दर्शन देती हैं । बाई को गहन प्रश्न हैं कि , उन सात आठ कुत्तों में से यक़ीनन उसका पति कौनसा है ? फिर एक रात एक कुत्ता बाई को सुँघने लगता है , उसके दाढ़ी के बाल उसे अपने पति का स्मरण देते हैं , फिर वह उसी कुत्ते के साथ पत्नि जैसा व्यवहार करती है । इस विलक्षण अनुभव से मी झुलसने लगता है, उसका अंतरंग द्वंद्व आरंभ होता है , मी दिन प्रतिदिन अस्वस्थ रहने लगता है,डॉक्टर की दवाइयाँ भी उसपर असर नहीं करती ।
एक बार फिर बाई को दृष्टांत होता है कि उसके पति ने कुत्ते के रूप में नहीं बल्कि घोड़े का जन्म प्राप्त किया है , सफ़ेद घोड़ा , जिसके शरीर पर कहीं भी दाग नहीं । अपना स्वप्न वह मी को बताती है और स्वप्न का अर्थ पुछती हैं । इस दृष्टांत के उपरांत वह ठान लेती है कि अब वह पालतू घोड़ा घर लायेगी , उससे प्रेमभरा व्यवहार करेगी । इस घटना से हैरान मी को विश्वास होता है कि ," या बाईला आपण गाढवासारखे पवित्र , उदात्त आणि उच्च वगैरे समजलो पण ही तर साधी , सरळ मैड आहे मैड. उगीच नाही पोरगी अर्धवट जन्मली ." *६ मी बाई का विनयभंग करने का मन्सुबा बनाता है , बहाना बनाकर वह उस रात बाई के घर ही रहता है । किन्तु रात के अंधेरे में बाई का कमरा दिखाई नहीं देता और ग़लती से बाई की जगह बाई की पुत्री के साथ ज़्यादती कर बैठता है । बाई का हिंदू संस्कृति के प्रति प्रेम , मृत पति के प्रति निष्ठा , अध्यात्म का लगाव होने के बावजूद पुत्री की चिख सुनकर वह मी की ओर केवल क्रोधित नज़रों से अँगारे फेंकती है, मी का उसकी अवहेलना कर पुत्री के साथ समागम उसे अपमानित करता है । " ती काहीच म्हणत नव्हती . फक्त तिचा तो थंड , जाळता कटाक्ष . त्या नि:शब्द कटाक्षाचे घणाघाती प्रहार माझ्यावर पुन:पुन्हा होत होते. त्याखाली मी पुन्हा पुन्हा चूर -चूर होत होतो . "*७ अपने इस भाँति लज्जास्पद वर्तन का समर्थन करते हुए मी कहता है , " लढाई हरलो पण तशी हरलेलो नाही , लढून हरलोय . .................... अंधारात दरवाजांचा हिशेब चुकला . आईऐवजी ..... मुलगी गडबडीत हाती लागली आणि ...." *८
मनुष्य की पाशवी प्रवृत्ति का अनुठा वर्णन तेंडुलकर अपने नाटकों में करते हैं , कुत्रे भी ऐसा ही एक अराजक नाटक है । मनुष्य की कुत्ते के भाँति लाचार वृत्ति , संसार के सारे सुखों को प्राप्त करने के उपरान्त भी उसकी भीतरी पशुता , कुत्ते की पुँछ की तरह तेढी करतूतें ' कुत्रे ' नाटक में स्थान स्थान पर दृष्टिगोचर होती है । नाटक का कथानक बड़ा पेचीदा है, कई बार असंबंध सा जान पड़ता है । नाटक के अंत में मी पुन: विदूषक का मुखौटा धारण करता है । मी ही विदूषक है और विदूषक ही मी है, सारे कुकर्मों के बाद भी स्वयं को खिलखिलाकर हँसाने का कार्य विदूषक ही करता है , अपने वर्तन को महज़ एक खेल का प्रारूप केवल विदूषक ही दे सकता है । संपूर्ण नाटक अलग ढंग का है, उपरी तौर पर तेंडुलकर के अन्य नाटकों जैसा प्रक्षोभक नहीं लगता पर पाठकों की सभ्यता पर प्रहार करता है । मध्यवर्ग का जीवनयापन जीते हुए जिस हीन प्रवृत्ति का सहारा लेता है उसको इस नाटक में रेखांकित किया है ।
नाटक के संवाद बड़े बड़े है , पर विषयवस्तु , आशय की वह माँग है । नाटक में मी की बोली नागरी मराठी है , तो घोडके की भाषा ग्रामिण है , बाई की भाषा में ख़ानदानी रुप प्रकट होता है। नाटक का काफ़ी सार कोष्ठक में नाटककार स्पष्ट करते है , दिग्दर्शक , कलाकारों के लिए सारी रंगसूचना तेंडुलकर कोष्ठक में स्पष्ट करते है । नाटक में नेपथ्य का उपयोग न कर तेंडुलकर ने स्लाइड का नवीनतम प्रयोग नाटक में किया है । इस नाटक को रंगभूमि पर प्रस्तुत नही किया गया, आज तांत्रिक दृष्टि से रंगमंच पर प्रस्तुत करना सरल है किन्तु इतना सशक्त आशयप्रधान नाटक रंगभूमि से वंचित रहा है ।
पात्रयोजना ,संवाद, भाषा, कथ्य , शिल्प आदि दृष्टि से तेंडुलकर की यह एक सफल एवं सशक्त रचना है ।
परिशिष्ट :
१) प्रस्तावना , कुत्रे
२) पृष्ठ -२, कुत्रे
३) पृष्ठ -५ _॥_
४) पृष्ठ -३६ _॥_
५ ) पृष्ठ -४९_॥_
६) पृष्ठ -६२_॥_
७) पृष्ठ -८४_॥_
८) पृष्ठ -८३_॥_
लेखिका परिचय -
सौ. गौतमी अनुप पाटील
शोधछात्रा , गुरूनानक खालसा महाविद्यालय , मुंबई,
हिंदी एवं मराठी पत्र पत्रिकाओं के लिए लेखन
ईमेल - save.gautami@gmail.com
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