नागपंचमी पर गुड़िया पीटने की परंपरा नागपंचमी से मेरी कुछ खास यादें जुडी है इसलिए नही कि ये नागपंचमी हिन्दुओं का प्रमुख त्यौहार है बल्कि इसलिए क्योकि इस दिन मैंने पहली बार गुड़िया खेली थी । जी हाँ सावन माह की शुक्ल पक्ष की पंचमी को मेरी नानी के गाँव में अलग तरह से मनाया जाता था ।सारे देश में इस दिन नागों की देवता की तरह
नागपंचमी पर गुड़िया पीटने की परंपरा
नागपंचमी पर गुड़िया पीटने की परंपरा - नागपंचमी से मेरी कुछ खास यादें जुडी है इसलिए नही कि ये नागपंचमी हिन्दुओं का प्रमुख त्यौहार है बल्कि इसलिए क्योकि इस दिन मैंने पहली बार गुड़िया खेली थी ।
जी हाँ सावन माह की शुक्ल पक्ष की पंचमी को मेरी नानी के गाँव में अलग तरह से मनाया जाता था ।सारे देश में इस दिन नागों की देवता की तरह पूजा की जाती है और उन्हें दूध से स्नान कराया जाता है। (लेकिन कहीं-कहीं दूध पिलाने की परम्परा चल पड़ी है।शास्त्रों में नागों को दूध पिलाने को नहीं बल्कि दूध से नहलाने को कहा गया है) और उनसे परिवार क सलामती की कामना करते हैं लेकिन हमारे गाँव के आस-पड़ोस के गाँव में इस दिन पूजा के साथ ही जगह जगह कुश्ती आयोजित की जाती थी मेले लगते थे और हमारे गाँव में इस दिन सामूहिक झूले झूले जाते , गुड़िया खेली जाती थीं ।हमारे गाँव में नागपंचमी की रौनक देखते ही बनती थी । गाँव के वो बच्चे भी मैले -कुचैले रहना जिनकी पहचान बन गई थी इस दिन साफ-सुथरे सजे-धजे नजर आते थे,और हो भी क्यों ना आखिर यहाँ इस दिन सबसे मनोरंजक खेल(वहाँ के लोगों के अनुसार ) जो खेला जाता था जिसे वहां के लोग "गुड़िया" कहते थे ।इस त्यौहार के पीछे एक कहानी छुपी हुई थी किसी राजकुमारी की ....! गाँव वालों से इस त्यौहार की वजह पूछने पर उन्होंने बताया कि किसी समय यहाँ कोई राजा रहता था उसकी राजकुमारी बेहद मिलनसार और हंसमुख स्वाभाव की थी।
राजकुमारी दसियों के साथ मित्रवत रहती थी ।एक रोज वो महलों से चुपचाप निकलकर दसियों के साथ बागों में झूला झूलने गयी वहाँ उसे किसी अन्य देश का राजकुमार मिला जो राजकुमारी को पहली ही नजर में भा गया।
नागपंचमी |
तब से लेकर आज तक वहां के लोग अपनी लडकियों को सबक सिखाने की इस प्रथा को दोहराते रहते हैं ।जैसे राजा ने अपनी बेटी के प्रेम के,उसके स्वप्न के चीथड़े उड़ा दिए थे बिल्कुल वैसे ही ये लोग अपनी बहनों ,बेटियों की गुड़ियो को पीट-पीट कर उनके चीथड़े उड़ा देते थे। मुझे तो बस ऐसा लगता था जैसे कि यहाँ के लोग इस त्यौहार के बहाने लडकियों को उनके भावी स्त्री रुप के व्यवहार व श्रंगार के लिए तथा लड़को को उनके भावी पुरुष के व्यवहार के लिए तैयार करते थे ।
तो नागपंचमी के दिन गाँव में सुबह से ही काफी चहल-पहल दिखती थी यूँ तो मैंने वहां कभी सामान्य वर्ग को ये खेल खेलते नही देखा था फिर भी मैं निश्चित रुप से नही कह सकती कि ये जाति विशेष का त्यौहार था क्योकि गुड़िया भले ही न खेलें पर झूला झूलने तो लगभग सभी वर्ग के लड़के-लड़कियाँ बागों में जाया करते थे ।मेरी पड़ोसन की वजह से एक बार मुझे भी मौका मिला था इस खेल में शामिल होने का....!वो मेरा पहला सावन था नानी के साथ उस गाँव में, यूँ तो वो पड़ोसन हमारे मुहल्ले की मंथरा थी पर उस दिन पहली बार वो मेरे लिए अच्छा बोली थी ।'का हो बिटिया गुड़िया खेले न चालिहो का ? चलो बहु मजा आई खेले मा ,, कहती हुई जब पड़ोसन घर आई और मुझे भी उसकी नातिन के साथ भेजने की जिद करने लगी तो नानी ने हाँ कह ही दिया इस तरह मुझे इस खेल में शामिल होने का मौका मिला वरना मेरे बचपन में गुड्डे-गुड्डियो का खेल ही नही था।
खैर--------
तो इस दिन गाँव की सभी छोटी बड़ी लडकियाँ और मायके में सावन मनाने आई युवतियाँ भी अपने मेंहदी रचे हाथों में हरी-हरी चूड़ियाँ पहनती थी तो मुझे भी नानी ने भर-भर हाथ छोटी -छोटी हरी-हरी चूड़ियाँ पहनवा दी ।आस पड़ोस की सभी लडकियों ने तरह तरह की चोटी बनाई थीं तो नानी ने भी कहा आजा तेरी सुन्दर वाली चोटी बना दूँ और नानी ने मेरी भी गजरे वाली चोटी बना दी।छोटी लड़कियाँ गजरे वाली चोटी बनाकर सब बहुत प्यारी दिखती थी ।इस दिन सभी लड़कियाँ छोटी- छोटी टोकरियो में अंकुरित अनाज 'मिठाइयाँ 'फल 'टाफिया खिलौने और इन्ही टोकरियों में से किसी एक टोकरी में कई सारी गुड़िया सजा कर फूलों के बीच छुपा लेती थी ।इन टोकरियो को लेके सभी को बाग तक जाना होता था लड़कियों की टोलियाँ अपनी सहेलियों के साथ गाती-गुनगुनाती हुई गली मुहल्लों से होकर बागों की और बढ़ती हुई ऐसी लगती थीं जैसे सारे उत्सव,सारी खुशियाँ एक साथ बढ़ी चली आ रही हों ।रंग-बिरंगे कपड़े,गजरे वाली चोटी ,मेहदी रचे खनकती चूडियों वाले हाथों से सर पर रखी टोकरियों को सम्भालते हुए छोटी-छोटी लडकियाँ गोपियों से कम नही लगती थीं ।उस दिन जातिभेद भुलाकर मेरा इस उत्सव में शामिल हो पाना मेरे लिए बहुत बड़ी बात थी।गाँव में कई सारे बाग थे सारे बागों में झूले तो डाल दिए जाते पर साथ ही हर बाग तक पहुँचने वाले रास्तों पर लड़को की टोली लाठी-डंडो के साथ छुपी रहती थी जो की लडकियों की टोली देखते ही धावा बोल देते और उनकी सारी टोकरी छीन ली जाती थी गुड़ियो को छुपाकर बाग तक सही सलामत पहुँचाना बेहद मुश्किल था कोई भी लड़की वहाँ तक गुड़ियों को नही पहुंचा पाती थी ।लड़के जब टोकरी छीनते तो उनमें रखी खाने खेलने की चीजें आपस में मिल बाँट लेते लेकिन बेचारी गुड़िया........
लड़के गुड़ियो को लड़कियों से जबरन डंडे के बल पर छीनकर इकठ्ठा कर चौराहे पर डालकर दुष्टता से हँसते
गुड़िया पीटने की परंपरा |
जिस जिस नुक्कड़ पर ये गुड़िया खेली जाती थी वहां महीनों कटी-फटी गुड़िया और दूर दूर तक उनके रंग-बिरंगे कपड़े बिखरे रहते थे मुझे तो वो जगह देखकर ही डर लगता था, जाने क्यों वहाँ लडकियाँ बिना विरोध किये अपनी गुड़ियों को उन क्रूर हाथों में साँप देती थी मैंने तो अपनी गुड़िया उनके हाथ नही लगने दी । इस छीनाझपटी में लड़कियाँ मन मसोस कर चुप रह जाती थीं ।गुड़ियो को छीनकर चीर-फाड़ कर देने के बाद सारा शोरगुल थम जाता था फिर सभी मिलजुलकर सारी चीजे मिल बांटकर खाते थे ' फ़िर सभी बाग में जी भर झूला झूलते थे लड़के सभी लड़कियों को झोटा देते हुए झूला झुलाते ,इस तरह सभी बारी-बारी से झूलते फिर सब साथ ही हँसते खेलते घर आ जाते थे ।इस त्यौहार का अन्त चाहे जैसा हो पर इसकी शुरुआत मुझे बहुत बुरी लगती थी। मन खराब हो जाता था इस तरह के खेल से ""जब लड़के हमसे" गुड़िया " झीनते थे लगता था जैसे किसी ने हमारी खुशियाँ झीन ली हो ?मैने अपनी गुड़िया कभी उनके हाथ नही लगने दी मुझे पुरुषों के वर्चस्व का ये खेल बिल्कुल पसन्द नही था !
लगता था जैसे ये खेल ना होकर वहाँ के समाज का सच हो ।एक कुप्रथा को बार-बार दुहराने और क्रूर राजा को आदर्श मानने वाला ये समाज अपनी बेटियों के सपनों को उसी की तरह रोंद देता था ।अगर किसी बहन ने भाई को पलट कर जबाब दे दिया फिर बहन छोटी हो या बड़ी फर्क नही पड़ता उसे भाइयों के लात घूंसे झेलने पड़ते थे ।वहाँ के पुरुष बात-बेबात स्त्री को (पत्नी,बेटी,बहू ) को गलियों में खींचकर बेरहमी से पीटते थे।हर दुसरे चौथे दिन का यही क्रम था किसी ना किसी घर से ओरतो के रोने सिसकने की आवाजें,शारीर पर जगह-जगह खरोंच,घाव और उनसे रिसता हुआ खून बस यही उनकी जिन्दगी बन चुकी थी जैसे ही मार पड़ना बंद होता खून को हाथो से पोछते हुए वो घर के कामों में जुट जाती और फ़िर से सब कुछ सामान्य हो जाता बिलकुल वैसे ही जैसे गुड़िया छीनकर फाड़ देने के बाद भी सारी लडकियाँ उन लड़को को माफ़ कर देती थीं । वहाँ के लोगो को स्त्री हर रुप में कठपुतली जैसी चाहिए थी जो उनके हिसाब से चले और सपने भी वही देखे जो वो चाहते हैं । अपने क्रूर व्यबहार से वहाँ के पुरुष अपनी बेटियों को गूंगी गुड़िया बना देते थे फिर न तो उनके कोई सपने बचते थे और न ही इच्छाए वो मात्र कठपुतली बनकर रह जाती थी पहले पीहर की और बाद में ससुराल की..!!
परिवार के पुरुषों की आज्ञानुसार जीना ही उनके जीवन का उद्देश्य रह जाता है !इस समर्पण के बदले उन्हे मरने के बाद एक अच्छी बहू /बेटी होने का प्रमाणपत्र मिलता है ।।मैंने वहाँ रहकर इतना जाना कि कई सालों तक अपमान भरी जिन्दगी जीकर वहाँ की ओरते उसकी अभ्यस्त हो गई थी उस अपमान भरी ज़िदगी को अपना भाग्य समझ कर उन्होंने स्वीकार कर लिया था ।।
- मीनाक्षी वशिष्ठ
सच लिखा है मैंने भी अपने इस बचपन के खेल को बड़ी खुशी खेला और देखाहै
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