हिन्दी से दूर होते भारतीय युवा हिन्दी से क्यों कतराते हैं भारतीय युवा - युवा चाहे भारत का हो या फिर अन्य किसी देश का और फिर आज का हो या किसी भी युग का, उद्दण्डता जैसे शब्द का उसके साथ चिपका होना एक सहज प्रवृत्ति की तरह है।
हिन्दी से क्यों कतराते हैं भारतीय युवा
हिन्दी से दूर होते भारतीय युवा हिन्दी से क्यों कतराते हैं भारतीय युवा - युवा चाहे भारत का हो या फिर अन्य किसी देश का और फिर आज का हो या किसी भी युग का, उद्दण्डता जैसे शब्द का उसके साथ चिपका होना एक सहज प्रवृत्ति की तरह है। सभी पीढ़ी के बुजुर्गों की यह शिकायत चली आ रही है कि उनके वर्तमान के युवा बेहद अशालीन हैं, हमारे समय में ऐसा नहीं था, यानि जब वे युवा हुआ करते थे, तब ऐसा नहीं था। इस वाक्यांश ने अब एक उक्ति का रुप ले लिया है। लेकिन यह उक्ति युवाओं के पारिवारिक, सामाजिक और राष्ट्रीय व्यवहारों के प्रति हर काल में कुछ सीमाओं तक सही कही जा सकती है। क्योंकि युग परिवर्तन प्रकृति का नियम है, जो पीढ़ी परिवर्तन से समानुपातिक रुप से जुड़ा हुआ है। आज के भाषाई व्यवहार के संदर्भ में भारतीय पीढ़ी परिवर्तन का विश्लेषण किया जाए, तो एक बात स्पष्टरुप से सामने आती है कि भारत के अधिकांश युवा भारतीय भाषाओं को लेकर बिल्कुल गम्भीर नहीं हैं। भाषा की महत्ता के विषय जैसी किसी प्रक्रिया के बारे में सोचना उनकी व्यावहारिक परिधि में शामिल ही नहीं है।
भाषा उनके लिए कितनी अहमियत रखती है और वे उसे कितना आवश्यक समझते हैं, ये दोनों ही बातें शोचनीय
भारतीय युवा |
भारतीय बच्चे भाषाई अर्थ को समझते नहीं है, लेकिन परिवेशी स्तर पर क्रमशः युवा होते होते भाषाई महत्व को पारिस्थितिक रुप से थोड़ा बहुत समझने लगते हैं। सिर्फ हिन्दी के संदर्भ में देखा जाए, तो उत्तर और दक्षिण दोनों भागों के भारतीय युवाओं में हिन्दी के प्रति एक तरह की असहजता स्पष्ट दृष्टिगोचर होती है। यहां तक कि विशुद्ध हिन्दीभाषी प्रदेशों जैसे उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, बिहार, दिल्ली आदि के युवाओं में हिन्दी बोलने में एक तरह की शर्मींदगी के भाव देखे जा सकते हैं। हांलाकि मनोवैज्ञानिक व्याख्या इसके लिए पूरे तौर पर उनमें छिपी हीन-मनोग्रंथी को कारण बताती है। बरसों से भारत में चली आ रही अंग्रेजी भाषा के महिमामण्डन की रीति ने भाषाई स्तर पर अब भारतीय युवाओं को कुछ इस तरह रिक्तता की स्थिति में पहुंचा दिया है कि वे न तो अंग्रेजी भाषा में ही निपुण हैं और अपनी भाषाओं को तो सम्भवतः कभी उन्होंने ढंग से सुना सीखा ही नहीं है।
बचपन की शुरुआत अंग्रेजी के 26 अक्षरों से शुरु करवाने की परम्परा शहरों में तो दूर गांवों में भी उतनी ही प्रचलित होती चली गई है। स्कूलों का माध्यम कोई भी हो, पर घरेलू स्तर पर बच्चे पहले ए से ज़ेड तक के अक्षर
डॉ. शुभ्रता मिश्रा |
यह तो बात हुई लिखने की बात, परन्तु हिन्दी बोलने में भी युवाओं को बुरा लगता है, क्योंकि उनके मन में कहीं यह बात गहरे बैठ गई है कि अंग्रेजी बोलने से ज्यादा प्रभाव पड़ता है और उनकी बात को सुना जाता है। कारण भी काफी हद तक सही है, क्योंकि अंग्रेजी माध्यमों वाले स्कूलों में तो हिन्दी बोलने पर फाइन देना उन्होंने बचपन से देखा सुना है। तब उनके कोमल मन मस्तिष्क पर इस भ्रम का स्थाई रुप से बैठ जाना स्वाभाविक है। बड़े होने पर भी समाज और देश में ऐसी ही मानसिकता को फलते फूलते वे देखते आ रहे हैं, जिससे उनके मन में हिन्दी या अन्य भारतीय भाषा के प्रति बनी दोयम दर्जे की छवि और पुख्ता होने लगती है। साथ ही अपनी भाषाओं में उनकी भाषाई नींव यूं भी मजबूत नहीं होती है और ऊपर से ये अंग्रेजियत की मनोग्रंथि, कुल मिलाकर हिन्दी को लेकर कतराना भारतीय युवाओं के लिए मानो एक नैसर्गिक प्रवृत्ति बन गई है। यह भारत की भाषाई समस्या भी कही जा सकती है।
किसी समस्या को उसके हाल पर छोड़ देना उसका हल नहीं हो सकता। भारतीय समाज में प्रत्येक भाषा की अस्मिता की रक्षा के लिए समय समय पर कार्य होते रहते हैं, लेकिन उनकी परिधियां बेहद सीमित होती हैं। विशेषरुप से हिन्दी के साथ भी वैसी ही स्थिति है। हिन्दी नगर भाषा परिषदों से लेकर विश्व हिन्दी सम्मेलनों तक विविध रुपों और आयामों में विश्लेषित होती रहती है, परन्तु सही मायनों में युवाओं की भागीदारी के दर्शन दुर्लभ होते हैं। मीडिया के नए स्वरुपों ने हिन्दी को प्रसारित भले ही कर दिया हो, लेकिन उसके बोलचाल और लिखित रुपों को ध्वस्त करने में कोई कसर बाकी नहीं छोड़ी है। भारताय युवाओं का रोमन में हिन्दी लिखना हो या फिर अंग्रेजी के शब्दों की भरमार के साथ हिन्दी के वाक्यों का प्रयोग करना हो, हिन्दी के प्रति उनकी भावहीनता को दर्शाता है। फिर वही बात आती है कि इसके लिए वे पूरे तौर पर दोषी नहीं कहे जा सकते, उस दोष के मूल में उनके अंदर हिन्दी के प्रति बिठाई गई सोच है।
अभी भी समय ज्यादा निकला नहीं है, हिन्दी स्वयं कहती है, जब जागो तभी सबेरा। सबके अपने अपने सूरज हैं, जब जिसका जितने बजे उगा दिया जाए। भारतीय युवाओं की हिन्दी से कतराने की प्रवृत्ति को समाप्त करने के लिए बेहद आवश्यक है कि अब भाषाई चेतना के सूरज को उगने दिया जाए। अपनी मातृभाषा अपनी हिन्दी के प्रति कर्तव्यनिष्ठा को संवैधानिक प्रतिबद्धता मानते हुए ही युवाओं में एक स्थाई सोच विकसित की जाए, ताकि वे अपने मन से भी कभी हिन्दी के अखबार, पत्रिकाएं और किताबें उठाने का साहस जुटा पाएं। बिना किसी ऐसे संकोच को किए कि अब मात्रा की गलती हो जाएगी या कोई शब्द फिर गलत लिख जाएगा या फिर कोई वाक्य अर्थ का अनर्थ कर देगा। क्योंकि हिन्दी के कतराने के मूल कारण यहीं हैं, अंग्रेजी तो सिर्फ सहारा मात्र है। और कब तक बैसाखियों के सहारे चलोगे मेरे देश के आदित्य?
डॉ. शुभ्रता मिश्रा वर्तमान में गोवा में हिन्दी के क्षेत्र में सक्रिय लेखन कार्य कर रही हैं । उनकी पुस्तक "भारतीय अंटार्कटिक संभारतंत्र" को राजभाषा विभाग के "राजीव गाँधी ज्ञान-विज्ञान मौलिक पुस्तक लेखन पुरस्कार-2012" से सम्मानित किया गया है । उनकी पुस्तक "धारा 370 मुक्त कश्मीर यथार्थ से स्वप्न की ओर" देश के प्रतिष्ठित वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली से प्रकाशित हुई है । इसके अलावा जे एम डी पब्लिकेशन (दिल्ली) द्वारा प्रकाशक एवं संपादक राघवेन्द्र ठाकुर के संपादन में प्रकाशनाधीन महिला रचनाकारों की महत्वपूर्ण पुस्तक "भारत की प्रतिभाशाली कवयित्रियाँ" और काव्य संग्रह "प्रेम काव्य सागर" में भी डॉ. शुभ्रता की कविताओं को शामिल किया गया है । मध्यप्रदेश हिन्दी प्रचार प्रसार परिषद् और जे एम डी पब्लिकेशन (दिल्ली) द्वारा संयुक्तरुप से डॉ. शुभ्रता मिश्रा के साहित्यिक योगदान के लिए उनको नारी गौरव सम्मान प्रदान किया गया है।
bahut hi sundar aalekh mamji.
जवाब देंहटाएंडॉ शुभ्रता मिश्रा जी का आलेख पठनीय व संग्रहनीय है
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