शिक्षक दिवस का महत्व Importance Of Teacher's Day in India शिक्षक दिवस फिर आ गया | जैसा कि हम सभी जानते हैं , अपने गुरुओं को सम्मान देने वाला यह दिन हर शिक्षक एवं विद्यार्थी के लिए विशेष होता है |गुरु-शिक्षा व्यवस्था प्राचीन काल से चली आ रही है | अपने बच्चों को कई वर्षों के लिए गुरुकुल में भेजकर माता-पिता आश्वस्त हो जाते थे कि अब हमारा बालक शिक्षित व ज्ञानवान होकर ही वापिस आएगा | गुरुकुल में गुरु अपने विद्यार्थियों को वेद ,पुराण,राजनीति, युद्धनीति, अस्त्र-शस्त्र चलाने का प्रशिक्षण देने के साथ-साथ नैतिक शिक्षा भी देते थे |
शिक्षक दिवस का महत्व
Importance Of Teacher's Day in India
शिक्षक दिवस फिर आ गया | जैसा कि हम सभी जानते हैं , अपने गुरुओं को सम्मान देने वाला यह दिन हर शिक्षक एवं विद्यार्थी के लिए विशेष होता है | एक ओर तो जहाँ विद्यार्थी स्वयं को कृतार्थ अनुभव करते हैं वहीं शिक्षक भी स्वयं को सम्मान व प्रेम से अभिभूत अनुभव करते हैं | हमारे ग्रंथों में भी गुरुओं की महत्ता का वर्णन किया गया है |
“गुरु ब्रह्मा, गुरु विष्णु:,गुरु देवो महेश्वर :|
गुरु साक्षात् परमब्रह्मा , तस मयी श्री गुरवे नम : |”
ये श्लोक सुनकर हर शिक्षक को अपने शिक्षक होने पर गर्व होता है | वास्तव में,एक शिक्षक समाज निर्माण में अति महत्वपूर्ण या ऐसा भी कह सकते हैं कि नींव के पत्थर की भूमिका निभाता है | विद्यार्थी पढ़-लिख कर ऊँचे-
ऊँचे पदों पर आसीन हो जाते हैं | हर काम, हर क्षेत्र अलग होता है लेकिन एक शिक्षक ही है जो विद्यार्थियों को अलग-अलग व्यवसायों या पदों के लिए तैयार करता है| समाज में , शिक्षा में, तकनीकी में , विषयों में नए-नए बदलाव आ रहे हैं , उन सब के साथ सामंजस्य रखता है जिससे उसका शिक्षण और भी अधिक प्रभावशाली व जीवनोपयोगी हो |
ऊँचे पदों पर आसीन हो जाते हैं | हर काम, हर क्षेत्र अलग होता है लेकिन एक शिक्षक ही है जो विद्यार्थियों को अलग-अलग व्यवसायों या पदों के लिए तैयार करता है| समाज में , शिक्षा में, तकनीकी में , विषयों में नए-नए बदलाव आ रहे हैं , उन सब के साथ सामंजस्य रखता है जिससे उसका शिक्षण और भी अधिक प्रभावशाली व जीवनोपयोगी हो |
गुरु-शिक्षा व्यवस्था प्राचीन काल से चली आ रही है | अपने बच्चों को कई वर्षों के लिए गुरुकुल में भेजकर माता-पिता आश्वस्त हो जाते थे कि अब हमारा बालक शिक्षित व ज्ञानवान होकर ही वापिस आएगा | गुरुकुल में गुरु अपने विद्यार्थियों को वेद ,पुराण,राजनीति, युद्धनीति, अस्त्र-शस्त्र चलाने का प्रशिक्षण देने के साथ-साथ नैतिक शिक्षा भी देते थे | विद्यार्थी एक विशेष व स्वस्थ वातावरण में रहकर अध्ययन करते थे | गुरु व गुरुमाता का आदेश व निर्देश का हृदय से पालन भी करते थे | गुरुओं का स्थान अति पवित्र माना जाता था | द्रोणाचार्य व एकलव्य की कहानी से सभी लोग परिचित हैं | एकलव्य ने मात्र गुरु की प्रतिमा को ही साक्षी मान कर अभ्यास किया और प्रवीणता भी प्राप्त की | यह उसकी संपूर्ण निष्ठा का प्रमाण है | समय के साथ-साथ शिक्षा व्यवस्था में भी परिवर्तन होते गए | लेकिन फिर भी गुरुओं का स्थान सर्वोपरि ही रहा | यहाँ एक विशेष बात दृष्टव्य है कि जब तक हमारे समाज में गुरुओं को उचित मान-सम्मान मिलता रहा तब तक समाज भी दृढ़ता से खड़ा रहा | सतयुग, त्रेता , द्वापर हर युग में शिक्षकों का योगदान महत्वपूर्ण रहा है | कलयुग के पदार्पण के साथ जब हमारे नैतिक मूल्यों में ह्रास होने लगा तब से हमारा समाज व सभ्यता दोनों ही पतन के मार्ग पर कदम रख चुके हैं | ये सब तथ्य किसी से छुपे नहीं है | आज़ादी से पहले भी यही कहा जाता था कि अगर कोई बालक कुछ न कर सका तो कम से कम अध्यापक तो अवश्य ही बन जाएगा |
समय अवश्य बदला किंतु शिक्षक , शिक्षा , शिक्षार्थी के त्रिकोण ने समाज व मानव को संभाल कर रखा | इतिहास साक्षी है कि जितने भी महान राजा , नेता, संगीतकार या महापुरुष हुए हैं सबके जीवन – निर्माण में गुरुओं ने एक अहम भूमिका निभाई है | चाणक्य तथा चंद्रगुप्त इसका एक ज्वलंत उदहारण है | बिना चाणक्य जैसे गुरु के चंद्रगुप्त कभी भी राजगद्दी तक नहीं पहुँच सकता था |
पर पता नहीं कौन से क्षण में लोगों में यह धारणा आ गई कि अध्यापन एक सरल कार्य है | इसमें आपको अधिक प्रयास करने की आवश्यकता भी नहीं है | शायद यही कारण है कि अध्यापकों का वेतन भी सबसे कम होता था | स्थिति सुधरने के बजाय दिन प्रति दिन और बिगड़ने लगी | अध्यापकों का स्तर , सामाजिक स्थान गिरने लगा | विद्यालय में कुछ भी हो जाए , किसी बच्चे को विद्यालय के अंदर या बाहर कुछ भी हो जाए तो पहला निशाना विद्यालय व अध्यापक ही होते हैं | अभिभावक जहाँ एक ओर तो विद्यालय से संबंधित किसी भी बात में सबसे अधिक विश्वास अध्यापकों पर ही करते हैं वहीं दूसरी ओर कोई भी बात होने पर सबसे पहले अध्यापकों को ही निशाना बनाते हैं | ऐसा द्विमुखी व्यवहार अध्यापकों के प्रति क्यों ? सब की सुरक्षा के लिए कानून भी बनाए गए हैं | अध्यापन के लिए विशेष नियम भी बनाए गए हैं जिनका पालन हर अध्यापक को कड़ाई से करना होता है | अन्यथा उनके खिलाफ़ तुरंत शिकायत कर दी जाती है | अध्यापक अपने विद्यार्थियों को मारना तो दूर की बात ज़ोर से कुछ कह भी नहीं सकते | यहाँ तक तो फ़िर भी ठीक है लेकिन अपने बच्चों को ये सिखाना कि अध्यापक आपके सेवक है , उनका वेतन हमारे द्वारा दी गई फीस से आता है , अध्यापक से डरने की कोई जरूरत नहीं , और कोई अध्यापक कुछ कहे तो हम देख लेंगे , डरने की कोई ज़रूरत नहीं आदि-आदि ... क्या ये उचित है ? ये तो सिर्फ चंद बातें हैं | वास्तविकता तो इससे कहीं अधिक कड़वी और भयावह है | जो भी अभिभावक ऐसा करते हैं ..क्या उन्होंने कभी यह सोचा कि ऐसा करके वे अपने बच्चे का ही नुकसान कर रहे हैं | अगर आप किसी का सम्मान नहीं कर सकते तो आप उससे शत-प्रतिशत नहीं सीख सकते और न ही वह आपको सिखा सकता है | इसी संदर्भ में एक बोध कथा का वर्णन समाचीन प्रतीत होता है-
“ प्राचीन काल में एक महान गुरु थे उनको लोहे से सोना बनाने की कला आती थी | पर वह ये कला किसी को सिखाते नहीं थे | कई लोगों ने प्रयास किया कि वे यह कला सीख सकें पर सफ़ल न हो सके | उस देश के राजा को यह विचार आया कि अगर उसे यह कला आ जाए तो वह अपनी प्रजा का कल्याण कर सकता है | ऐसा सोचकर पहले तो उसने कई प्रकार के उपहार व मूल्यवान वस्तुएं उस ऋषि को भेजे तथा अपने किसी दरबारी को वह कला सिखाने का अनुरोध किया परंतु उन्होंने मना कर दिया | इससे राजा को गुस्सा आ गया कि उस ऋषि को अपनी कला पर इतना अभिमान है कि राजा की आज्ञा का पालन भी नहीं किया | फिर उसने अपनी सेना व सेनापति को भेजा कि ऋषि को धमकाकर वह विद्या सिखाने के लिए मजबूर कर दो | पर फिर भी वह ऋषि टस से मस न हुए | राजा ने सोचा कि ऐसी क्या विशेष बात है ? मैं स्वयं ही पता लगाता हूँ | यह सोचकर वह एक साधारण आदमी का वेश धारण कर के उस ऋषि के आश्रम में चले जाते हैं | और उस ऋषि की खूब मन लगाकर सेवा करते हैं किंतु उस अद्भुत कला के विषय में कुछ नहीं कहते | ऐसे ही पूरा एक वर्ष बीत गया | एक दिन जब वह ऋषि मरणासन्न स्थिति में होते हैं तो वे उस को बुलाकर कहते हैं कि तुमने मेरी निस्वार्थ भाव से सेवा की है | मैं तुमसे अति प्रसन्न हूँ और मुझे तुम पर पूरा विश्वास है कि तुम इस कला का प्रयोग जन कल्याण हेतु ही करोगे | जब ऋषि ने उस आदमी को पूरी कला सिखा दी तो राजा ने अपना परिचय दिया तथा पूर्व में किए गए अपने व्यवहार के लिए क्षमा भी माँगी | तब उस ऋषि ने कहा कि कोई भी विद्या ग्रहण करने के लिए विद्यार्थी को गुरु के प्रति संपूर्ण निष्ठावान होना चाहिए तभी विद्या सफ़ल व उपयोगी होती है |
यह कहानी भले ही पुरानी हो पर आज की शिक्षा व्यवस्था पर एकदम सटीक प्रहार करती है | आज लोग या तो शिक्षा खरीदना चाहते हैं या पाना चाहते हैं पर पूरी निष्ठा से ग्रहण करने वालों की संख्या न्यून होती जा रही है | इसीलिए आज की शिक्षा हमारे जीवन में पारस मणि नहीं बन पाती और हमारा जीवन स्वर्ण नहीं बन पाता | धीरे-धीरे गुरुओं का वर्चस्व भी कम होने लगा | पहले बच्चे तो क्या उनके माता-पिता भी अध्यापकों को पूरा मान-सम्मान देते थे | जो अध्यापक ने कह दिया वही करते थे | किन्तु आज परिस्थितियाँ ऐसी नहीं हैं | काल चक्र ऐसा घूमा कि शिक्षक जोकि समाज में सर्वाधिक सम्मान का पात्र था आज वही दयनीय व शोचनीय स्थिति में पहुँच गया है |
आज के समय में जितना प्रतिबंध शिक्षकों पर है उतना प्रतिबंध शायद ही अन्य किसी व्यवसाय में हो | इसीलिए हमारा समाज और हम हर पल पतन के गहरे गर्त की ओर बढ़ रहे हैं | शिक्षक दिवस पर शिक्षकों को एक फूल या एक कलम भेंट देने से ही हमारे कर्तव्य की इतिश्री नहीं हो जाती | आज आवश्यकता है कि हम अपने सोये हुए मूल्यों को जगाएँ, अपने शिक्षकों को पूरा मान-सम्मान, प्रेम ,निष्ठा एवं समर्पण अर्पित करें जिसके वे अधिकारी हैं , तभी तो हमें शिक्षकों का सच्चा आशीर्वाद प्राप्त होगा और हमारा जीवन-सुमन खिलेगा और यह दोहा चरितार्थ होगा -
“ गुरु गोविंद दोउ खड़े , काके लगे पांव |
बलिहारी गुरु आपने , गोविंद दियो बताए || ”
लेखिका-
इलाश्री जायसवाल
नोएडा
Adhunik kaal me sikshak ki vidambanaon ka sateek pratipadan
जवाब देंहटाएं