अपना अपरिचित चेहरा सुना है तुम्हें नाज है। अपनें शीशे पर, जिसको लटका रखे हो धर्म की खुंटी पर। जिसमें देख-देख कर मुस्कुराते रहते हो, अपना अपरिचित चेहरा। मेरी जीवन की सबसे बड़ी भूल क्या है, जानते हो? बस यहीं कि मैं तुम्हारे शीशे के सामने से, हो कर गुजरा था। जिसे तुम अचानक लेकर मेरे सामने खड़े हो गये थे।
अपना अपरिचित चेहरा
सुना है तुम्हें नाज है।
अपनें शीशे पर,
जिसको लटका रखे हो धर्म की खुंटी पर।
जिसमें देख-देख कर मुस्कुराते रहते हो,
अपना अपरिचित चेहरा।
मेरी जीवन की सबसे बड़ी भूल क्या है,
जानते हो?
बस यहीं कि मैं तुम्हारे शीशे के सामने से,
हो कर गुजरा था।
जिसे तुम अचानक लेकर मेरे सामने खड़े हो गये थे।
और तुमनें कहा था मुझसे बड़े ही लजीज,
शब्दों में,
देख लीजिए अपना परचित चेहरा।
मैं सम्हल जाता,
मैं सम्हल सकता था।
लेकिन नही मैं तुम्हारे शीशे की तरफ़ नज़र कर ही लिया था।
देखा था उसमें तुम्हारा और अपना नव अक्श।
मुझे एहसास था इस शीशे को,
स्पर्श नही कर पाऊँगा।
क्योंकि तुमनें उसे लटका रखा था,
धर्म की खुंटी पर।
मैनें सोचा था यह तुम्हारा और मेरा है,
लेकिन तुम्हारी बचकानियों ने उसे तोड़ दिया था।
यह शायद तुम्हारे लिए हंसी-मजाक था।
लेकिन मेरे लिए एक सबक।
मुझे जिसकी तलाश है वो तुम्हारे पास नही।
क्या मैं इन्ही दो-चार दिन में नही जान,
पाया था तुम्हें।
तुम्हें क्या लगता है मुझे कुछ नही मालूम।
तुम तो सही तरीके से कुछ भी नही।
मैं मानता हूं तुम्हारे पास बचपना है,
वो भी कम।
मैं मानता हूं तुम सयानें हो,
वो भी ठीक से नही।
मैं मानता हूं तुम्हारे पास चंचलता है,
लेकिन वो भी अधूरा।
मैं मानता हूं तुम्हारे पास खामोशी है,
लेकिन वो भी आधा।
मैं मानता हूं तुम्हारे पास कसक है,
लेकिन वो भी थोड़ी सी।
मैं मानता हूं तुम्हारे पास खुशी है,
लेकिन वो भी जरा सी।
मैं चाहता तो तुम्हारे इस अजनबीपन से,
दूर हो जाता।
लेकिन देखना चाहता था।
और अपनें दबी संवेदनाओं को तुम्हारे,
तरफ़ बढ़ा दिया था।
जिस तरह बड़े ही तनकर,
अपनें धर्म का नाम ले लेते हो।
कभी अपना नाम तनकर लेते हो,
शायद कभी नही।
तुम्हें अंदाजा भी नही होगा,
मैं इन्ही दो रोज में कितनी शताब्दियाँ गुजार दी।
तुम्हें मालूम भी नही होगा,
मैं कितनें हिस्से में बँट चुका हूं।
कभी तुमनें ध्यान से देखा नही,
मैं वो बासी रोटी का कौर था।
जिसे बौखलाकर कोई कुत्ता खानें के लिए तैयार खड़ा था।
अब तो रात भी होती है एक डर के साथ।
सुबह होती है एक थके आदमी के चेहरे के साथ।
अब देखती है जब कोई औरत दरपन में,
अपना चंचल चेहरा।
तो कलेजा गलेे तक आ जाता है मेरा।
अब देखता है कोई आदमी अपना चेहरा,
तो उसे देख कर कहीं सिमट जाता हूं मैं।
खै़र इससे ज्यादा तुमसे उम्मींद भी नही थी।
लेकिन एक सच का दरपन मेरे पास है,
मैंने तो वहीं किया है,
जो सदियों से कम होता आया है।
बुद्ध ने जो दु:ख के लिए किया था।
कृष्ण ने जो राधा के लिए किया था।
गांधी ने जो अहिंसा के लिए किया था।
टैगोंर ने जो गीतांजली के लिए किया था।
धर्मवीर ने जो कनुप्रिया के लिए किया था।
लेकिन तुमनें क्या किया था ?
खीच दिया तुमनें एक धर्म की लकीर।
आगे चलकर किसी को अगर दिखाना,
तुम अपना दरपन तो,
थोड़ा उसे साफ कर लाना,
थोड़ा रश्मों को पीछे छोड़ आना।
थोड़ा अपनें जंजीरों से बाहर आना,
क्योंकि जंजीरे तो सभी के पास है।
थोड़ी अपनी आदत बदल कर आना।
बस आना थोड़ा आना लेकिन आना।
जहां तुम पाओगे अपनें आप को,
वहीं मुझे भी पाओगे अपनें आप से।
बस आना थोड़ा आना लेकिन आना।
यह रचना राहुलदेव गौतम जी द्वारा लिखी गयी है .आपने काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से शिक्षा प्राप्त की है . आपकी "जलती हुई धूप" नामक काव्य -संग्रह प्रकाशित हो चुका है .
संपर्क सूत्र - राहुल देव गौतम ,पोस्ट - भीमापर,जिला - गाज़ीपुर,उत्तर प्रदेश, पिन- २३३३०७
मोबाइल - ०८७९५०१०६५४
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