प्रार्थना क्या है, क्यों करें प्रार्थना ?

SHARE:

प्रार्थना ईश्वर को भेजा गया एक सादर आमंत्रण होता है जिसे ईश्वर कभी नहीं ठुकराता। फलतः प्रार्थना से ईश्वरीय ऊर्जा का अनुभव होने लगता है। इस ऊर्जा में मानव को परमशक्ति का अनुभव होने लगता है।

 प्रार्थना ईश्वरीय शक्ति की तरंगों का एक स्वरूप 

              
हम प्रार्थना क्यों करते है प्रार्थना का अर्थ प्रार्थना का महत्व प्रार्थना क्यों करनी चाहिए प्रार्थना की परिभाषा ?? प्रार्थना की ताकत विद्यालय प्रार्थना - हम प्रार्थना क्यों करते हैंजब प्रकाश की किरणें अंतः में यकायक फूट पड़ती हैं. तब आत्मशक्ति लयबद्ध हो झरनों की तरह प्रवाहित होने लगती है और पवित्र विचार बिना किसी अवरोध के स्वर की लहरियों में परिणित होने लगते हैं। सारा तन अचानक एक ताल में मन को अपने आगोश में भर लेता है। एक दैविक प्रेरणा जाग्रत हो उठती है समस्त सारतत्वों को संग्रहित करती हुई] ईश्वर का सानिद्ध पाने उद्वेलित होती हुई। अनंत का सामने फैला हुआ विस्तृत सौन्दर्य आनंद के रत्नकणों से झिलमिलाने लगता है। पलकें अपने आप झुक जाती हैं --- अंतः की शांति का रसास्वादन करने के लिये] हृदय में पनपे प्रेम के अथाह सागर में गोता लगाने और मस्तिष्क में ज्ञान की रश्मियों के साथ किलकारी करने। एक दिव्य स्वरूप प्रकट होने लगता है] हमारी अपनी आत्मा से संवाद करने। लयबद्ध एक एक शब्द प्रस्फुटित होने लगता है] श्रंगार करता हुआ लबों पर मुखरित होने के लिये और आस्था व श्रद्धा का स्वरूप लिये हृदय के प्रांगण में नृत्य करने के लिये। जीवन के हर क्षण में माधुर्य को पनपाता] हर शब्द ईश्वर से संवाद करने उद्वेलित हो उठता है। मुख से ईश्वर वंदना निकल पड़ती है जिसे अध्यात्म प्रार्थना कहता है --- प्रार्थना जो आत्मिक शांति देनेवाली होती है --- आनंद का अनुभव करानेवाली अंतः से उपजी करुण पुकार होती है।

प्रार्थना ईश्वर को भेजा गया एक सादर आमंत्रण होता है जिसे ईश्वर कभी नहीं ठुकराता। फलतः प्रार्थना से ईश्वरीय ऊर्जा का अनुभव होने लगता है। इस ऊर्जा में मानव को परमशक्ति का अनुभव होने लगता है। ऐसा लगता है कि जिसे उसने परमात्मा माना वह उसके अंदर आकर विराजमान हो गया है और उसकी प्रार्थना का सम्मान करने ईश्वरीय शक्ति की तरगों का स्वरूप लेकर प्रकट हो गया है। जब भी मनुष्य को इस ऊर्जा के ह्रास का आभास होने लगता है] वह प्रार्थना] पूजा] अर्चना आदि करने मंदिर] गिरजाघर] गुरुद्वारा] मस्जिद आदि की तरफ दौड़ पड़ता है तथा वहाँ प्रार्थना से उसे जो आनंद की अनुभूति मिलती है] वही मनुष्य के लिये इस ऊर्जा का स्त्रोत बन जाती है।
प्रार्थना
प्रार्थना
मंदिरों में प्रार्थना करना का अर्थ है आस्था को आँखों में पनपाना और श्रद्धा को प्रेमाश्रू से लथपथ करना। श्रद्धा ने ही पत्थर की मूर्ति को ईश्वर बनाया है और उस पत्थर ने भी वही कर दिखाया है जो ईश्वर ही कर सकता है। जहाँ श्रद्धा का अभाव होता है] वहाँ पत्थर] पत्थर ही बना रहता है। जहाँ श्रद्धा टूटती] बिखरती नजर आने लगती है] वहाँ आस्था में दरारें भी दिखने लगती हैं। जब प्रार्थना का चमत्कार प्रकट नहीं होता] तो निराशा घनीभूत होने लगती है। इन सबसे हासिल क्या होता है\ न प्रार्थना] न प्रार्थना का प्रभाव] न पत्थर की मूर्ति के प्रति आदर] न पत्थर की मूर्ति में ईश्वर का आभास] न ईश्वर पर विश्वास] न ईश्वर पर श्रद्धा] न मानव में आत्मबल का विस्तार ----- सब कुछ खंड़ित दिखता है] खंडहर जैसा] टूटा फूटा] बिखरा] निराशापूर्ण।
फिर भी आत्मा नहीं मानती। प्रार्थना की लहरें थमती नहीं। मनुष्य की आँखों में अश्रूधारा उमड़ने लगती है। इस करुण पुकार को सुन कहीं से आवाज उठने लगती है जो ढाठस बाँधने का प्रयास करती हुई कहती है] ^^हे मनुष्य! मात्र क्षणिक विश्वास से कि ^मैं हूँ जो तुम्हारे कष्टों का निवारण कर सकता हूँ’] तुम्हारी प्रार्थना सुन ली जाती है। फिर तू क्यूँ  सोचता है कि मैं बहरा हूँ] अन्धा हूँ] निर्दयी हूँ] अन्यायी हूँ\ मैंने ही तुम्हें वह शक्ति दे रखी है जिसके बल पर तू कठिनाईयों में बहादुरी प्रदर्शित कर सकता है। यह शक्ति तुममें कैसे जाग्रत होती है? मात्र एक बार मेरे स्मरण करने से यह शक्ति तुम्हारी प्रार्थना से ही प्रतिध्वनित होकर तुझमें ही जाग्रत हो जाती है।  ‘मैं हूँ] बस यही विश्वास काफी है।**
इस विश्वास के कारण दुनिया में हर मानव कभी न कभी ईश्वर को याद कर प्रार्थना करता है ----- अपनी अपनी भाषा में] अपने अपने तरीके से] अपने अपने धर्म के अनुसार। प्रार्थना किसी न किसी तरीके से] कम या ज्यादा मात्रा में फल अवश्य देती है] ऐसा हरइक का मानना है। फलतः प्रार्थना मानव जीवन का एक अभिन्न अंग बन गयी है। वास्तव में प्रार्थना की कोई विशिष्ट भाषा नहीं होती। उसका कोई विशिष्ट धर्म या स्वरूप नहीं होता। वह निराकार है और इसलिये उससे मिलनेवाले फल भी निराकार हो तो कुछ आश्चर्य नहीं होना चाहिये। फल निराकार होने से उसे समझना कठिन हो जाता है और प्रायः ऐसा लगता है कि प्रार्थना सुनी ही नहीं गई। यह एक विचित्र भ्रम है। इस भ्रम के कारण अनेकों बार जब मनुष्य ने प्रार्थना करनी चाहिये] तब वह नहीं करता क्योंकि वह सोचता है कि प्रार्थना से कुछ नहीं होता। कुछ जो प्रार्थना से फल पाने पर विश्वास करते हैं] वे कर्म की जगह मात्र प्रार्थना करते रहते हैं और जब यूँ ही बैठे बैठे फल नहीं मिलता तो प्रार्थना को निरर्थक समझ लेते हैं। भ्रम का जाल इस तरह फैलता जाता है और भ्रम के कारण विश्वास की जड़ें तक उखड़ जाती हैं।
कहा जाता है कि प्रार्थना सुख देती है --- आंतरिक सुख जो संसार में मिलना अति दुर्लभ है। यदि इस सुख की प्राप्ति क्षणिक भी हो तो भी वह चमत्कारी प्रभाववाली होती है। यह क्षणिक सुख भी विकटतम दुख को भुला देने में सफल हो जाता है। लेकिन वास्तव में दुख भूला नहीं जाता बल्कि उसको सहने की शक्ति जाग्रत होकर मन को शान्त कर जाती है। यह शक्ति ईश्वर ही मनुष्य को देता है। संत कहते हैं कि यह शक्ति भक्ति से मिलती है। आस्तिक कहता है कि प्रार्थना से यह शक्ति मिलती है। अध्यात्म कहता है कि यह मन में उपजी शांति से मिलती है। दार्शनिक कहते हैं कि यह आस्था] विश्वास व श्रद्धा के संगम से मिलती है।
वहीं अंतरात्मा कह उठती है] ^हे मानव! सब कर्मों में सबसे महत्वपूर्ण कर्म ^व्यवहार’ है --- व्यवहार जो सदैव प्रार्थना की अनुकृति बना मधुर और सभी का मन जीतनेवाला हो। ऐसा व्यवहार जिससे तुम्हारी आत्मा तृप्त होती है ----- आनंदित होती है। यही व्यवहार यदि परमात्मा के प्रति हो तो मन का हर उद्गार तुम्हारी प्रार्थना बन जाता है। इसलिये संसार में सबके प्रति तुम्हारे व्यवहार में परमात्मा का ही प्रतिबिंब हो ताकि तुम्हारे कर्म को सदा तृप्ति देनेवाला ----- आनंदित करनेवाला कहा जा सके। मैं चाहता हूँ कि तुम इस न्यायवर्धक विधान के अनुसार अपना व्यवहार बनाये रखो।’ 
कहते हैं कि प्रत्येक प्रतिमा में भारतीय दर्शन की छवि होती है और हर प्रतिमा एक विशेष सत्य के साक्ष के रूप में उकेरी जाती है। प्रतिमायें स्वर्ण की] काँस्य की] अष्टधातु की होती है तो कहीं संगमरमर सी स्वच्छ धवल पत्थर की होती हैं। प्रतिमायें मिट्टी की भी होती हैं। मूर्ति बनाने की परम्परा ऋषि मुनियों से प्राप्त हुई है] ईश्वर के निराकार रूप को साकार रूप देने की। जो ईश्वर को साकार मानते हैं] उनके लिये मूर्ति जीवंत है। वे मूर्ति के भीतर उतरकर उसी निराकार ब्रह्म को पकड़ लेते हैं जो अन्य लोग मूर्ति के बाहर ढूँढ़ रहे होते हैं। इस तरह हर रूप में मूर्तियाँ मानस मन को आल्हादित करनेवाली हो जाती हैं। वे श्रद्धा जगाती हैं ----- आत्मबल बढ़ाती हैं और मनुष्य को भरोसा हो जाता है कि ईश्वर उन्हें सहारा देने उनके सम्मुख उकेरी गई मूर्ति या चित्रकारी के रूप में उपस्थित है। इस तरह ईश्वर को देख मनुष्य कल्पनाओं में खो जाता है ----- दार्शनिक बन जाता है----- कवि बन जाता है ----- स्तुतिगान करने लगता है जिससे मनुष्य की अंतः की आवाज मुखरित होकर प्रार्थना बन जाती है। प्रार्थना का माधुर्य प्रेम को सजग करता है। प्रेम जीवन को आल्हादित करने का गुण रखता है। श्रद्धा] भजन के माध्यम से मुखरित होने लगती है। भजन गाये जाते हैं] मन में गुनगुनाये भी जाते हैं। अगर संगीत से जुड़ जावे तो नृत्य कला को गुदगुदाने भी लगते हैं। तब भक्ति मस्ती-सी लगने लगती है। इस तरह मनुष्य में चेतना के एक एक कर सारे लक्षण प्रतिबिंबित होने लगते हैं। मनुष्य भक्त बन जाता है और यही चाहता है कि वह अपनी आत्मा ----- अपनी चेतना ----- के पलने में पलकर सृष्टि में विचरण करते हुए सतत ईश्वर का स्मरण करता चले।
परमभक्त वास्तव में उस प्रशंसक की तरह होता है जो सुन्दर कृति को देख इतना मोहित हो जाता है कि उसके मन में इच्छा जाग्रत होती है कि काश वह भी ऐसी कृति का निर्माण स्वयं के अंदर करने के सक्षम होता। वह तन मन धन से इस काम में लग जाता है जिसे साधना भी कहा गया है। वह कृति के साथ कलाकार तक पहुँचना चाहता है। परमभक्त सृष्टि के सौन्दर्य के अनुरूप अपने को ढ़लने की चेष्टा करता है और सृष्टि के सौन्दर्य का एक हिस्सा बन जाता है। इसके लिये वह तन मन धन से लग जाता है। इसके लिये यह साधना वह अनुष्ठान बन जाती है
प्रार्थना
जहाँ जिज्ञासा को चेतना का बल मिल जाता है तथा चेतना से सत्य की खोज सरल हो जाती है। उसकी जाग्रत चेतना उसे बताती है कि यदि वह अपने व्यक्तित्व को ईश्वरेच्छा के अनुरूप सुन्दर बना लेता है तो उसका सुन्दर व्यक्तित्व सृष्टि के सौन्दर्य को बढ़ावेगा। इसके लिये उसे मात्र प्रार्थना का सहारा नहीं लेना है ----- सिर्फ हाथ फैलाकर विनंती नहीं करना है। उसे तो स्वयं की आन्तरिक प्रेरणा से आगे बढ़ना है और जब वह सफल हो जाता है तो ईश्वर के प्रसन्न होने का अनुभव करने लगता है। जब एक बालक परिवार के सौन्दर्य को बढ़ाता है] तब उसके माता पिता प्रसन्न हो उठते हैं। कौन अपनी सृष्टि के सौन्दर्य में चार चाँद लगानेवाले से खुश नहीं होगा\
गति के सौन्दर्य के लिये उत्साह व हतोत्साह पैदा करनेवाली दोनों तरह की घटनाओं की जरुरत है। उत्साह तो मंगलमय होता ही है पर हतोत्साह करनेवाली घटनायें प्रायः प्रार्थनाओं को जन्म देती हैं। ऐसे वक्त की गई प्रार्थना के परिणाम से भी ईश्वर के प्रति श्रृद्धा का आना] मन को भक्ति की ओर खींच ले जाता है। यह आकर्षण बहुधा इतना तीव्र होता है कि मनुष्य अपना सारा जीवन ईश्वर भक्ति में समर्पित करने व्याकुल हो उठता है। तब धर्म] कर्म व मर्म से भक्ति भी अलौकिक संतोष देने में अग्रणी बन जाती है।
भक्ति की कोई भाषा नहीं होती। वह तो प्रेम की अभिव्यक्ति है। नन्हें शिशु को जिस तरह मात्र प्रेम ही पर्याप्त होता है और उसी से वह आनंद का रसास्वादन करता है] भक्ति भी ईश्वर के प्रति प्रेम से आनंद पाती है। परन्तु कहा जाता है कि प्रार्थना में विनम्रता लाने के लिये शब्दों के चयन का बहुत महत्व है। प्रार्थनापत्र में किसी चीज की याचना की जाती है अतः दाता का मन जीतने के लिये प्रभावशाली शब्दों का चुना जाता है। लेकिन भक्त किसी चीज की माँग लेकर प्रार्थना नहीं करता। उसकी प्रार्थना में बस ईश्वर के प्रति आस्था व श्रद्धा का सारतत्व होता है। वह प्रभावशाली शब्दों की जगह हृदय में ईश्वर के प्रति प्रेम की उठी उत्तुंग लहरों की बूँदों का उपयोग करता है। उसकी प्रार्थना भींगे आँसुओं से तरबतर दिखती है और ऐसा प्रतीत होने लगता है जैसे प्रेम की झिर चहुँओर से एक साथ रिस रही हो।
भक्त के लिये शब्द मात्र अर्थ के परिधान की तरह होते हैं। उन्हें त्यागकर ----- मौन रहकर भी प्रार्थना की जा सकती है। मौन के लिये किसी भाषा की जरुरत नहीं पड़ती। आस्था व श्रद्धा खुद ब खुद अपने को परिभाषित करती है। उसे न तो ^फैशनेबल’शब्दों के परिधान और न ही ^शरीररूपी’अर्थ के श्रंगार की आवश्यकता होती है।
भक्त तो सिर्फ चाहता है कि उसकी प्रार्थना ईश्वर तक पहुँचे। वह कहता है] ‘हे ईश्वर मेरी प्रार्थना में तो तुम्हारी दी हुई शक्ति संचारित होती है। उसके शब्दों में तुम्हारे द्वारा प्रदत्त वाणी की ही अमृतधारा प्रभावित होती है। देखो] उसमें जीवन की महक भरी हुई है] जो शब्दों के उच्चारण के साथ चहूँओर फैल रही होती है। हर शब्द के आगोश में वही तरंगें भरी हुई हैं जिनसेे तुम्हारे कर्म हमने अपने कर्म में रूपन्तरित किये हैं और आगे भी करते रहना चाहते हैं। हमारी प्रार्थना तो बस इन तरंगों की ऊँचाईयों को इंगित करने में प्रयासरत है। तुम्हारी ही कृपा से उत्सर्जित तुम्हारे आशीर्वचन के झोंकों में जीवन के हर पल पत्तियों की तरह नृत्य कर रहे होते हैं और कर्मफल जिनकी हमने कभी कामना ही नहीं की थी] झूम झूमकर ताल दे रहे होते हैं। हम भक्तों की प्रार्थना में इन्हीं फलों का रस भरा हुआ है। हम जानते हैं कि इन फलों में तुम्हारी ही महिमा के मधुर स्वाद है जो हर शब्द के गर्भ में श्रद्धा के अर्थ को चिन्हित कर रहा होता है। अतः हे ईश्वर! फल का कामना से रहित हमारी यह प्रार्थना निरंतर चलती रहे ----- हमारे तन] मन] और अतः में बसी आस्था व श्रद्धा को अमरत्व प्रदान करती रहे।’
यह भी सच है कि शब्द चयन से ही प्रार्थनायें बनती हैं] स्तुतिगीत बनते हैं और सद्वाक्य प्रस्फुटित होकर दूसरों को आनंदित करनेवाली ‘वाणी’ कहलाने लगते हैं। संत-मुनियों की वाणी में नम्रता वास करती है और उनके कहे में अहं का लेशमात्र न होना उन्हें देवरूप प्रदान कर जाता है। उनके शब्द जब लिपिबद्ध होते हैं तो वे ^ग्रंथ’ बनकर पूजे जाते हैं। प्रार्थना की रचना शब्दों से की जाती है ताकि वह मधुर हो मन को मोहित कर सके। संगीत के सरस प्रवाह में अवतरित हो सके। शब्द तो मात्र रेखाओं की शक्ल के होते हैं। उन्हें उकेरकर हम ^ईश्वर’ शब्द लिखते हैं ताकि वह शब्द हमें ईश्वर का आभास करावे। शब्दों से ही ग्रंथ बनते हैं --- ग्रंथ जिसके मर्म में ईश्वर की बातें कही जाती हैं --- एक मंदिर की तरह जिसके गुह्यग्रह में ईश्वर की मूर्ति होती है। हम गीतापाठ करते हैं। जहाँ अर्थ हमारी समझ में नहीं आता] वहाँ हम दुबारा पढ़ते हैं। वास्तव में इस तरह हम लिखे शब्दों की परिक्रमा करते हैं ताकि अंततः अर्थ स्पष्ट हो जावे। हम पृथ्वीवासी प्रार्थना करते हुए मंदिर में मूर्ति की परिक्रमा करते हैं ताकि मूर्ति से प्रस्फुटित आध्यात्मिक किरणें हमारे विचारों को देदिप्यमान बनायें और कर्मों को पवित्र करती जावें। परिक्रमा के समय हर कदम पर प्रार्थना के एक-एक शब्द का अर्थ हमारे सामने आने लगता है ताकि हम एकाग्रता से उन कदमों पर चले जो विधाता ने हम सबके कल्याण के लिये जीवन पथ पर चिन्हित किये हैं।
भगवान व भक्त के बीच एक रिश्ता होता है] जिसमें भक्त प्रार्थना करता है और ईश्वर की ओर से लगातार कृपा की वर्षा होती रहती है। मनुष्य ईश्वर को दयालू मानता है। भक्त कहता है कि वह दया का सागर है। मनुष्य हमेशा प्रार्थना करता है ताकि उस पर ईश्वर की कृपाद्दष्टि बनी रहे। भक्त भक्ति के सागर में डूब जाता है जहाँ की हर बूँद में ईश्वर का प्रतिबिम्ब  दिखता रहता है ----- हर लहर में ईशकृपा की मस्ती झलकती रहती है और भक्त की नाव हिलोरें खाती ----- उठते तूफानों का आलिंगन करती ----- उन्हें चूमती ----- उन्हें ईश्वरीय कृपा की महत्ता का अहसास कराती आगे बढ़ती जाती है। भक्त कहता है]  ^ए तूफान! हमारी तरह ईश्वर की प्रतिमूर्ति बन। दूसरों के प्रति दयाभाव रखने के गुण ईश्वर से प्राप्त कर। तू भी तो मेरी तरह सृष्टि का एक लघु कण है जो अभी है और अभी ही मिट जानेवाला है। समय का यह सूक्ष्म अंश जो तुझे ईश्वर से मिला है] उसका सदुपयोग कर। अभी भी वक्त है। यह तेरी परीक्षा की घड़ी है और ईश्वर देखना चाहता है कि तू अपने इस क्षणिक प्रभुत्व की जिम्मेदारी ठीक से निभा पाता है या नहीं। यही वक्त है जब तू दूसरों के प्रति दयाभाव के बनाये रखने की जिम्मेदारी निभा पा सकता है। तेरी शक्ति क्षणिक है] पर हो सकता है कि तुझमें जागा दयाभाव इस शक्ति को द्विगुणित कर दे। याद रहे कि जो दूसरों की मदद करना नहीं चाहते वे वक्त आने पर दूसरों की मदद पाने भी तरसते रह जाते हैं।’
इसलिये कहा जाता है कि प्रार्थना मात्र स्वतः के लिये नहीं बल्कि दूसरों के लिये भी करना चाहिये जिससे सभी के साथ स्वयं का भी कल्याण सुनिश्चित हो। हमारे ग्रंथों में प्रर्थना में ‘मैं] मेरी’ शब्द का प्रयोग नहीं किया गया है। हम वहाँ ^हम] हमारी’ शब्द पाते हैं।
धियो यो नः प्रचोदयात्
याने हमारी बुद्धि को प्रेरणा दें।

स्पष्ट है कि इस प्रार्थना में सबकी बुद्धि की शुद्धि की कामना की गई है। मात्र एक दो के बुद्धिमान होने से किसी के द्वारा कही गई बुद्धि व समझदारी की बातें सभी एक सी ग्रहण नहीं कर पावेंगे। प्रत्येक अपनी-अपनी बुद्धि व समझदारी के अनुसार आधा अधूरा ही समझ पावेंगे। हो सकता है कि वे अपने स्तर की बुद्धि के अनुसार बात का अर्थ ही बदल दें। जितने लोग होंगे] उतने अलग अलग अर्थ निकलते जावेंगे।
फलतः जिस भाव] जिस समझ] जिस बुद्धिमानी से बात कही गई हो] वही अंतिम व्यक्ति तक पहुँचते पहुँचते रूप बदल लेगी। प्रार्थना में भी ^मैं] मेरी’ के प्रयोग से वह संकीर्ण बन जाती है। प्रार्थना में ^हम] हमारी’ के प्रयोग से परमात्मा की कृपा सभी तक पहुँचने का आनंद लेना चाहिये। हमारे ग्रंथों में ऐसी ही प्रार्थना मिलती हैं] उदाहराणार्थ %&
सर्वे भवन्तु सुखिनः
सर्वे सन्तु निरामयाः
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु
मा कश्चिद् दुःखभाम् भवेत।।
याने सभी सुखी रहें। सब निरोगी रहें। सबका कल्याण हो। कोई दुखी न हो।

प्र तार्ययुः प्रतरं नवीयः।।
              ऋग्वेद 10-19-1
याने भगवन] हमें उत्तरोत्तर समुन्नतिशील नवनतर जीवन में अग्रसर कीजिये।

इन सभी प्रार्थनाओं में स्वतः के लिये जो भी चाहा गया है उसमें दूसरों के क्ल्याण की कामना का पुट दिखाई देता है।
यजुर्वेद में कामना की गई है कि ^हे मानव अच्छा कर्म करते हुए शतायु हो।’ शरीर में आत्मा है इसलिये स्वस्थ शरीर की उसे आवश्यकता है।’ इस कारण अथर्ववेद में प्रार्थना है जो कामना करती है कि हमारे मुख में वाणी हो] नासिका में प्राण हों] नेत्रों में दर्शन की शक्ति हो] दंत क्षमतावान हों] भुजाओं में बल हो। हमारे मस्तक पर ओज हो] जाँघों में वेग हो] पैरों पर खड़े रहने की शक्ति हो लेकिन सर्वशक्ति पाकर भी हिन्सा का भाव मन में न आवे। हमारा प्रत्येक अंग पाप से शून्य रहे।’
इसी तरह यजुर्वेद में प्रार्थना की गई है कि ^हे परमपिता परमेश्वर! मुझे ऐसा मस्तक दे जो अच्छी बातों से संपन्न हो] ऐसा मुख दे जो यशस्वी हो] ऐसा बल दे जो मेरे उत्तम कर्मो से कांतिमय हो जावे] मेरे प्राण श्रेष्ठ अमृत के समान हों] मेरे नेत्र ज्योतिर्मय हों जो दूसरों को भी प्रकाशित कर सकें।’
संक्षेप में यह भी कहा जा सकता है कि हमारे मन में उठे अच्छे विचार प्रार्थना को स्वरूप देेते रहें। मन में सतत अच्छे विचारों का बना रहना] हमेशा प्रार्थना में लीन रहने की तरह होता है। अच्छे कर्म करते रहना ही ईश्वर की पूजा है। सब के प्रति समभाव रखना और प्रेम का विस्तार करना ईश्वर के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करने के समान है। कर्म भी प्रार्थना का एक स्वरूप है] जिसमें हम प्रभू को वह समर्पित करते हैं जिसके लिये हमें जन्म मिला है --- कर्म ही वह पुष्पाँजली है जिसमें हमारी प्रार्थना की सी महक होती है। यह ऐसी प्रार्थना है जिसके जरिये हम ईश्वर से कुछ माँगते नहीं हैं] बल्कि उन्हें समर्पित करते हैं --- वह सब कुछ जो हमने ईश्वर प्राप्त शक्ति के माध्यम से हासिल किया है। हमने देखा है कि बच्चे स्कूल से प्राप्त पारितोषक सबसे पहले दौड़कर माता-पिता को देते हैं। एक तरह से यह भी प्रार्थना है जो माता-पिता से आशीर्वचन पाने बच्चे करते हैं। वे चाहते हैं कि भविष्य में भी वे माता पिता के कृपा के पात्र बने रहें।
सच] भक्ति वह विलक्षण मनःस्थिति है जहाँ हमें आभास होने लगता है कि हम अंतः से ईश्वर के कृपा के पात्र बन गये हैं। बाहरी शक्तियाँ चाहे कितनी भी विध्वंसक हों] हम तक पहुँचने और हमें क्षति पहुँचाने के पहले] स्वयं शिथिल हो जाती हैं। वे सारी भक्ति की लपट में ही वे झुलस जाती हैं। कुछ संतों ने इस तरह की प्रार्थना को ‘कवच’ कहा है। परन्तु भक्त सिर्फ चाहता है कि उसमें बसी आस्था व श्रद्धा बनी रहे और इसके लिये वह अपना तन] मन सब कुछ न्योंछावर करने उत्सुक रहता है।
माना जाता हैं कि ईश्वर का सानिध्य पाने के सिवा प्रार्थना में और किसी की माँग करना ही नहीं चाहिये क्योंकि और कुछ पाने के लिये की गई प्रार्थना का उत्तर ईश्वर कभी ^हाँ’ में नहीं देता और न ही ^प्रतीक्षा करने’ की सलाह देता है। उसके पास एक ही उत्तर होता है और वह कहता है] ^जो तुम माँग रहे हो वह तो तुम्हारे पास पहले से ही है] ढूँढ़ने का साहस करो] सफलता अवश्य मिलेगी। हे मानव! रेखायें तो मैंने पहले ही खींच रखी हैं] तुम्हें सिर्फ रंग भरना है।’
अपनी प्रार्थना में भक्त ईश्वर की कृपा के सिवाय और कोई माँग हाी नहीं रखता। कृपा बरसती रहती है जैसे प्रज्वलित दीपक से रोशनी फैलती रहती है। दीपक को तेल व बाती की जरुरत होती है। ईश्वर के कृपारूपी दिये को भक्त व भक्त की भक्ति की आवश्यकता होती है। वैसे मन के अंदर ईश्वर के प्रति आस्था व श्रद्धा का होना ही काफी है। प्रार्थना इन्हीं दो का एक बाहरी आवरण है ----- ध्वनि का संचार है जो हृदय से प्रस्फुटित होकर हृदय में प्रतिध्वनित होते हुए संगीत का सहारा लिये बाहर आता है।
हमारे ग्रंथ इस बात पर जोर देते हुए कहते हैं कि प्रार्थना में कुछ माँग रखने की जगह] उसमें ईशवन्दना को ही प्रमुखता दो। निम्न प्रार्थनायें में यही परिलिक्षित होता है ---
   त्वमेव माता च पिता त्वमेव
 त्वमेव बंधु च सखा त्वमेव
 त्वमेव विद्या द्रविणं त्वमेव
 त्वमेव सर्वम् मम् देव देवा।
गूढ़ार्थ यह है कि हे ईश्वर! तुम मेरे पिता] माता सभी हो और मैं अपने पिता] माता व अन्य सभी में तेरे ही दर्शन पाता हूँ। अब मुझे और क्या चाहिये\
एक बच्ची की प्रार्थना थी] ^हे ईश्वर! मुझे अच्छी बच्ची ही बने रहने देना ताकि मुझे मेरी माँ से मिलनेवाले प्यार में कभी कोई कमी न आवे।’
गूढ़ार्थ यह है कि हे ईश्वर! जैसा अच्छा तुमने मुझे बनाया है] वैसा ही मुझे बने रहने दो] ताकि माँ के रूप में जो तुम मेरे पास हो मुझे सदा एक सा प्यार देते रहो।
एक अत्यंत दुखी व्यक्ति की प्रार्थना थी] ^हे ईश्वर! मुझे तुम अपनी मुस्कान का एक लघु अंश उधार में दो ताकि जब मैं तुम्हारे पास जाऊँ या तुम मेरे सामने आवो तो मैं मुस्काता नजर आऊँ] तुम्हारी उस मुस्कान को मय ब्याज सहित लौटाता हुआ।’
भावार्थ यह है कि हे ईश्वर! मुझे अपने जैसी सहनशक्ति दो ताकि मैं सहर्ष दुख झेलता तुमको प्रसन्नचित्त दिखूँ।
दुश्मनों से त्रस्त व्यक्ति प्रार्थना में कहता है] ^हे ईश्वर! मेरे दुश्मनों को सद्बुद्धि दे ताकि वे पापों से वंचित रहें।’
यहाँ प्रार्थना स्वयं के लिये न होकर दूसरों के लिये है।
प्रार्थना प्रसन्न मन का उद्गार होती है। एकांत में प्रार्थना मन पर अद्वितीय परिवर्तन ला देती है। उद्वेलित मन यकायक शान्त हो जाता है। प्रार्थना के सुन्दर शब्दों की फुहार से मन हरेभरे वृक्षों की तरह मुखरित हो उठते हैं।
प्रार्थना
प्रकृति की तरह मन को भी खिलने की इच्छा होती है --- सुविचारों की फसल प्रार्थना की वृष्टि में लहलहा उठती है। यही कारण है कि मानव मन प्रार्थना सभा में] कीर्तन मंड़ली में] सामुहिक कथावाचन के वातावरण में एकाग्रता के साथ श्रवण करने सदा लालायित हो उठता है। तब मन कह उठता है] ^हे ईश्वर] तू मुझे बच्चों का सा मन दे।’ इस प्रार्थना से ही मन खिल उठता है। याद आने लगता है वह मन जो बचपन में छोटी छोटी बातों में खुश हो जाता था] जो माटी से बने हाथी को सच का हाथी समझकर प्रफुल्लित हो जाया करता था। याद आता है भोला भाला मन] अहं से रहित खुशनूमा मन] एक ऐसा चमत्कारिक मन जो प्यार मिलते ही खिलखिला उठता था --- जो जिससे प्यार मिलता था] उसी का हो जाता था] एक ऐसा मन जो माँ की गोदी मिलते ही] अँगूठा चूसते व मुस्कराते हुए सपनों में खो जाता था। प्रार्थना भी माँ तरह कह उठती है] ^हे ईश्वर] तू मुझे मेरे बच्चे का सा मन दे।’
कहते हैं कि प्रार्थना से हम एक दिव्य शक्ति से जुड़ते हैं और यह सच में एक अलौकिक उपलब्धि है। परन्तु इससे बेहतर तो यह कहना होगा कि प्रार्थना से हमें दिव्यशक्ति मिलती है] जो हमें उपलब्धियों के लिये नये उत्साह से कार्य करने प्रेरित करती है। इसलिये कहा गया है कि जब भी प्रर्थना करो तो गुण ग्रहण करने की करो। ईश्वर के पास सत्गुणों को परिभाषित करनेवाले ज्ञान का अपार भंडार है। प्रार्थना करने पर गुण सहजता से मिल जाते हैं क्योंकि प्रार्थना के शब्द  प्रायः सत्गुणों के सुन्दर परिणामों का वर्णन भी करते जाते हैं। प्राप्त गुणों को अपने में विकसित करने के लिये ही प्रार्थना की जाती है। मात्र बीज एकत्र करने से बाग नहीं सजाया जा सकता। बीज को बोना पड़ता है। पनपे बीज के पौधे की सेवा करनी होती है। तब ही उसमें सुगंधित फूल खिलते हैं।                 
प्रार्थना का सामान्य अर्थ है] किसी से अति विनम्रता से कुछ माँगना।  प्रार्थना उससे ही की जाती है जो कुछ देने में सक्षम है और चूंकि ईश्वर सब कुछ देने की क्षमता रखनेवाला दयावान दाता है इसलिये उससे की गई विनंति को प्रार्थना कहा जाता है। लेकिन भक्त अपनी प्रार्थना में ईश्वर से कुछ नहीं माँगता। वह ईश्वर को ही माँग बैठता है। वह जानता है कि यदि ईश्वर मिल जावे तो फिर और किस अन्य चीज की जरुरत मनुष्य को नहीं रहती। ईश्वर के मिल जाने से सारा ब्रह्मांड़ उसका अपना हो जाता है। ईश्वर की संपूर्ण सृष्टि उसकी अपनी बन जाती है। भक्त की चाह होती है कि उसे अंतः की शान्ति मिले और वह उस आनंद को प्राप्त करे जिसके लिये ईश्वर ने अनुपम व अद्वितीय सृष्टि का निर्माण किया है ----- प्रकृति को सजाया सँवारा है ----- जीवों का संसार बसाया है ----- मनुष्य को उसकी बुद्धि व शक्ति का नियंत्रक बनाया है।
भक्ति का आनंद ईश्वर को पाना है ----- उसका सानिध्य प्राप्त करना है। वह जानता है कि अनंत में बसा ईश्वर इतनी सहजता से नहीं मिलता। वह निराकार है ----- अजन्मा है ----- वह सर्वत्र होकर भी नहीं दिखता ----- वह सब का होकर भी मात्र किसी एक का नहीं होता। तो फिर कैसे वह सिर्फ भक्त का होकर प्रकट हो सकेगा\ भक्ति कहती है कि वह उसी तरह प्राप्त होता है] जिस तरह स्वच्छ निर्मल चाँदनी प्रकाश के स्त्रोत के अद्दश्य होते हुए तथा प्रकाश की किरणों के निराकार होते हुए भी उस धरातल पर पहुँच जाती है जिसे वह चमकाना चाहती है। परब्रह्मचेतना भी जिसे ईश्वर कहते हैं] वह अद्दश्य रहकर तथा अपनी चेतना के गमनपथ को निराकार रखते हुए भक्त के हृदय में एक ऐसी चेतना जाग्रत कर जाती है जिससे भक्त की आत्मा दमकने लगती है।
जिस तरह सूर्य के प्रकाश में निहित तेज ऊष्मा चाँद से परावर्तित होकर शीतल चाँदनी का रूप ले लेती है] उसी तरह चेतना भक्त की प्रार्थना की तरंगों से परावर्तित होकर निर्मल रूप धारण कर भक्त की आत्मा में वास करने दौड़ पड़ती है। इस चेतना की जाग्रति से भक्त स्वयं चेतना का स्त्रोत बन जाता है] जिस तरह चन्द्रमा स्वयं प्रकाश पिंड़ सा बना आकाश में विचरण करता द्दष्टिगोचर होता है।
भक्ति उसी तरह काम करती है जैसे सुबह सूरज उगते हुए अपनी स्वर्णिम आभा चहुँओर फैलाता पृथ्वी के समग्र जीवों को आल्हादित कर देता है। भक्तिमय होकर सुबह ईश्वर का स्मरण करना] अंतः की आत्मा को आनंदित करता है। कहते हैं कि चौबीस घंटे में मात्र एक बार प्रार्थना करना मन को स्वच्छ कर देता है ठीक उसी तरह जैसे मनुष्य प्रतिदिन स्नान कर शरीर को स्वच्छ करता है। इससे दिनभर उठनेवाले नये विचारों में भी वही स्वच्छता छलकने लगती है] जैसे स्नान के बाद स्वच्छ वस्त्र धारण करने पर।
प्रार्थना में मानव अपने अलौकिक अनुभवों को व्यक्त करने की इच्छा रखता है। इस इच्छा की अभिव्यक्ति का उद्देश्य समस्त जनों को जागरुक करने का है ताकि वे भी उस आनंद को प्राप्त हों जिसके लिये हरएक में बसी आत्मा अपनी पवित्रता को अक्षुष्ण बनाये रखती है।
हर प्रातः जब  सूर्य की लालिमा की रिबिन में बाँधा उपहार स्वरूप नया दिन मिलता है तब प्रार्थना करने से आदमी अपनी भावनाओं और व्यवहार में अद्भुत निखार उपजते देखता है। इस एक प्रार्थना से वह दिन भर की ऊर्जा अपने में जाग्रत पाता है। वह परेशानियों या कठिनाईओं और यहाँ तक की बीमारियों से लड़ने की शक्ति का संचार भी स्वयं में पाने लगता है। कहा भी गया है कि ईश्वर के प्रातःकालीन स्मरण से कार्यक्षमता में इजाफा होता है] आत्मबल बढ़ता है और मनुष्य दिनभर तरोताजा महसूस करता है। सच] यह सबसे सहज प्राप्त होनेवाली औषधि है।
मनुष्य की आवश्यकतायें व्यक्ति दर व्यक्ति बदलती हैं। रोटी का एक टुकड़ा किसी की भूख मिटाने काफी होता है तो दूसरे के लिये उसके एक भोजन के हजारवें हिस्से के बराबर। प्रार्थना की आवश्यकता भी व्यक्ति दर व्यक्ति बदलती है क्योंकि किसी को जीवन के प्रत्येक क्षण में प्रार्थना की आवश्यकता पड़ती है तो दूसरे को कभी कभार। कुछ सोचते हैं कि उन्हें अपने जीवन-काल में एक भी प्रार्थना की जरूरत नहीं है --- ऐसे मनुष्य या तो हैवान होते हैं या फिर ईश्वर के साक्षात् अवतार। पर ऐसे भी लोग हैं जिन्हें अपनी प्रत्येक साँस में प्रार्थना की महत्ता का आभास होता है और वे संत होते हैं। फिर भी कुछेक जिन्हें अपने संपूर्ण जीवन-काल में मात्र एक सही साँस के लिये प्रार्थना की जरूरत होती है] वे भी संत होते हैं। उनके लिये सारा जीवनकाल एक पवित्र साँस सद्दश्य है और वे अति आवश्यक घड़ी में ही अपनी प्रार्थना कहते हैं।
स्वार्थ] विद्वेष] अहंकार से प्रेरित प्रार्थना वास्तव में प्रार्थना नहीं होती। यह वह पुकार भी नहीं होती जो अंतः से प्रस्फुटित होती है। प्रार्थना की शक्ति अंतःकरण की शक्ति है। इसमें हृदय की भावनाओं की पवित्रता होती है। हृदय में अंकुरित और हृदय की पारदर्शिता के साथ उठी पुकार ही प्रार्थना बनती है और चमत्कार दिखाती है।
प्रार्थना तो सब कर सकते हैं लेकिन शुष्क शब्दों को दुहराना प्रार्थना नहीं हो सकती। औरों का बुरा चाहनेवाली प्रार्थना बद्दुआ होती है। सच्ची प्रार्थना दिव्य अंतःकरण का सृजन है। जहाँ दिव्यता होगी] वहाँ हरेक शब्द पवित्र होगा --- हरेक शब्द के अर्थ में मानवता होगी --- संपूर्ण प्रार्थना ईश्वरीय शक्ति से तरबतर होगी। प्रार्थना तो भक्त को भी भगवान बना देती है। यहीं भक्त व भगवान का संगम पवित्र होता है। यहीं प्रार्थना के शब्द और ईश्वरीय वाणी एकरूप होकर प्रकट होते हैं। कहा भी गया है कि प्रार्थना भक्ति का लघु किन्तु अत्यंत महत्व रूप है। 
दुष्टों के नाश की प्रार्थना करते हम बहुतों के देखते हैं। याद रहे कि प्रार्थना नकारात्मकता लिये नहीं होती। प्रतिशोध से भरी प्रार्थना बद्दुआ बन जाती है। बद्दुआऐं बूमरेंग की तरह उसी तरफ वापस आ जाती है] जहाँ से वे निकलती है। दुष्टों के लिये तो यही प्रार्थना होनी चाहिये कि ^हे ईश्वर! इन्हें सद्बुद्धि दे] ताकि वे अन्य से वैसा व्यवहार न करें जैसा उन्होंने मेरे साथ किया है।’
हर एक मंदिर में जाते ही मंदिर की भव्यता को देख मोहित हो जाता है --- मूर्ति की कला देख मुग्ध हो जाता है --- मन ही मन प्रार्थना कहकर आनंदित हो मुस्कराने लगता है। तब प्रार्थना का वास्तविक प्रबल होना परिलक्षित होने लगता है।
सच्चे दिल को उस जगह की तलाश नहीं करनी पड़ती जहाँ वह अपनी प्रार्थना पढ़ सके। जो अपने अंतः से जुड़ा है] उसे मनन के लिये न तो एकांत की चाहत होती है और न ही भीड़ से पलायन करने की अधीरता। प्रार्थना जब हृदय से प्रस्फुटित होती है] तब एकांत का सन्नाटा भी प्रिय लगने लगता है और भीड़ का कोलाहल  सुमधुर संगीत सा बना भाने लगता है। किसी भी धर्म विशेष से जुड़ी प्रार्थना भी ईश्वर को याद करती है और मन में उसके अस्तित्व को बनाये रखती है। ईश्वर कोे याद रखने के लिये ही मंदिर] मस्जिद] गुरुद्वारे] चर्च आदि बनाये जाते हैं। यदि ईश्वर को ही मानव भूल जावेगा तो ये सारे प्रतिष्ठान खंड़हर बन जावेंगे क्योंकि वहाँ जाने की किसी को भी सुध नहीं रहेगी। पूजापाठ] प्रार्थना सभा] त्यौहार] सत्संग आदि उत्सवों के मिट जाने से संसार में रह ही क्या जावेगा? जीवन तो उत्सव की तरह जीने के लिये होता है। 
आम आदमी का धर्मस्थलों से लगाव कुछ ज्यादा ही होता है क्योंकि वह लोगों से सुनता है कि प्रार्थना से सब कुछ हासिल किया जा सकता है] बशर्ते प्रार्थना हृदय से कही गई हो। पर वह सोचता है कि कितने हैं जो हृदय से प्रार्थना कर पाते हैं या कर सकते हैं। अधिकांश तो इतने अभागे हैं कि प्रार्थना करते ही नहीं और वे बेचारे भी हैं जो प्रार्थना करने का समय ही नहीं निकाल पाते। ^हे ईश्वर! तुम क्या हो\ मुझे बतावो ताकि मैं तुम जैसा बनने की सोच सकूँ।’बस यही प्रार्थना काफी है उन आम आदमियों के लिये जो धर्म के पचड़े में नहीं पड़ना चाहते और न ही स्वयं को नास्तिक कहने का स्वाँग करते हुए अहं करते हैं।              
मुसीबत के समय की गई प्रार्थना सहनशक्ति प्रदान करती है ----- विपरीत परिस्थितियों से जूझने में हमारी मदद करती है। किन्तु जब मुसीबतें हों तो उस समय प्रार्थना यही होनी चाहिये कि ‘हे ईश्वर! मुसीबतों न आवें और अगर आवें तो उनसे निपटने की शक्ति भी साथ आवे।’ यह प्रार्थना हमें परमशक्ति से जोड़ती है या यह कहें कि हमें वह परमशक्ति प्राप्त होती है जो मुसीबतों के आने के अहसास को ही खत्म कर देती है। 
प्रायः सलाह दी जाती है कि ठीक से प्रार्थना करो। प्रार्थना निस्वार्थ होनी चाहिये। प्रार्थना हृदय से करनी चाहिये। यह सब करने के बाद भी यदि तुरंत फल नहीं मिला तो कहा जाता है कि प्रार्थना करने में जरूर कुछ कमी रह गई होगी। अब प्रार्थना में और क्या कुछ मिलाया जावे कि वह फल देने लगे\ सच तो यह है कि प्रार्थना एक समर्पण है] व्यापार नहीं है कि कुछ दिया तो कुछ मिलना ही चाहिये। 
सच तो यह है कि प्रार्थना में क्या माँगा जावे। सब कुछ तो है ----- प्रकाश है] प्रज्ञा है] बुद्धि है] शक्ति है और तो और ईश्वर भी साथ है। निस्वार्थ प्रार्थना इच्छारहित होती है] तो फिर किस फल की प्रतीक्षा मानव करता है\ उससे फल जो सहज व हमेशा मिलता है वह है अंतः की शान्ति ----- एक आत्मविश्वास ----- आशा का प्रबल स्त्रोत जो कर्तव्यपालन में उत्साह व उमंग की धारा बनकर जीवनधारा के प्रवाह को निरंतरता प्रदान करता है। प्रार्थना से उपजा आत्मविश्वास अलौकिक क्षमता देता है। उससे आत्मबल में अनूठी द्दढ़ता आती है ----- मन निर्भय होता है जिससे परिस्थितियाँ अपने आप अनुकूल बनने लगती हैं] क्योंकि तब आत्मशक्ति का सम्मान करने अन्य शक्तियाँ भी सहायक हो एकत्र हो जाती हैं।
प्रार्थना करने से मात्र आनंद का आभास होना ही काफी होता है। परन्तु कभी कभी वास्तविक आनंद की अनुभूति तो प्रार्थना के प्रभावी होने की प्रतीक्षा में मिलती है। उपहार की प्रतीक्षा करना आनंददायी होता है क्योंकि हर पल उपहार के पाने की खुशी रगों में संचारित होती रहती है। ^उपहार कैसा होगा’इसकी कल्पना करना भी आनंददायी होता है विशेषकर जब यह ज्ञात होता है कि उपहार देनेवाला स्वयं परमपरमेश्वर है। इसलिये प्रतिक्षा भी कह उठती है]^हे ईश्वर! मेरी प्रार्थना के अस्तित्व को बने रहने दो ----- उसे गुंजायमान होने दो ----- उसकी गर्जना को कायम रहने दो ----- उसे ब्रह्मनाद बन आने दो। इस बह्मनाद से एक और सूक्ष्म सृष्टि प्रकट होगी जो तुम्हारी विस्तृत सृष्टि में मात्र समाहित ही ना होगी बल्कि उसका श्रंगार कर उसके रूप में और निखार ला सकेगी।’ 
भक्त प्रार्थना करने और प्रतीक्षा करते रहने का इच्छुक हूँ क्योंकि ये दोनों ----- प्रार्थना व प्रतीक्षा ----- अध्यात्म क्षेत्र में बहुत महत्वपूर्ण हैं। प्रार्थना मनुष्य के भीतर विनम्रता व सरलता का संचार करती है और प्रतीक्षा में धैर्य व विश्वास छिपा होता है। ये दोनों ध्यान] समर्पण व प्रेम के साथ मिलकर आस्था व श्रद्धायुक्त भक्ति के पंचामृत का निर्माण करते हैं।
इसलिये भक्त कहता है] ^हे ईश्वर! तेरी प्रतीक्षा करते न तो थकता हूँ और न ही झुँझलाता हूँ। मैं अपनी आँखों को मूँदने भी नहीं देता। हृदय की पंखुड़ियों को मुरझाने नहीं देता। प्रतीक्षा की प्यास में सूखे ओंठों को खामोश नहीं होने देता ----- लगातार तेरी प्रार्थना करता हुआ तुझे पुकारता रहता हूँ। परन्तु कभी कभी ऐसा महसूस होता है प्रार्थना गूँगी बन पीड़ा बन जाती है। प्रार्थना कंठ से उठती ओठों तक आते आते कुंठित हो जाती है और अंतः की चेतना यकायक शिथिल हो जाती है।’ तब प्रार्थना मूक बन जाती है] उन फूलों की तरह जो कुछ कहते नहीं] बस महकते रहते हैं --- खश्बू ही उनकी प्रार्थना बन जाती है।
भक्ति ब्रह्मांड़ की समस्त शक्तियों का एकाकार स्वरूप है। जो शक्तियाँ हमें मालूम हैं वे सारी भक्ति से जुड़ी हैं। ध्वनि भक्ति में मुखरित होकर सुन्दर संगीत अपनाती हुई स्तुति गीत] प्रार्थना] भजन] आदि को ऐसा रूप देती है कि भक्त उसमें लीन हो जाता है ----- डूब जाता है। भक्ति में भजन] कीर्तन आदि के माध्यम से भक्त धर्म के काव्यात्मक रूप का सहारा पाते हैं। भजन का अर्थ है ---- ईश्वर का गुणगान करना और वह भी शान्तिपूर्ण ढंग से। यह स्वतः के अंदर शान्ति का साम्राज्य स्थापित करने का सहज तरीका है ---- भक्ति के शांत सागर में नौकाविहार करने जैसा। 
कहते हैं कि ईश्वर कभी बोलता नहीं ---- वह सुनता हैं और सबकी सुनता है। तो फिर उसकी वाणी कैसे सुनी जा सकेगी\ भक्त कहता है कि इसके लिये प्रार्थना नहीं की जाती है। जो प्रार्थना सुनी जाती है उसके सुने जाने का पूर्वाभास होता है ---- वह आकाशवाणी होती है जिसकी गूँज अंतरात्मा में होती है। इस गूँज को ही ईश्वर की वाणी कहा जाता है। ईश्वर की वाणी सत्य होती है और सत्य के सिवाय कुछ नहीं। मनुष्य कहता है ---- बोलता है ---- उसके वक्तव्य में सत्य-असत्य गुथ्थमगुथ्था हो जाता है। इसलिये मनुष्य के कहे को ^वाणी’ नहीं कहा जाता। वह ^बोली’ कहलाती है। वाणी संतों की होती है क्योंकि उनके कहे गये शब्दों में ईश्वर वास करते हैं। उनके शब्दों में सत्य प्रस्फुटित होता है। शब्दों के अर्थ में कल्याणकारी विचारधारा होती है। ज्ञानी की जिव्हा पर ईश्वर सरस्वती के रूप में अवतरित होते हैं इसलिये ज्ञानियों के कहे गये में तथ्य ही वाणी का स्वरूप लेकर प्रकट होता है। वेद ईश्वर की वाणी ही तो हैं। आम आदमी की प्रार्थना इन सब का ही सारसंक्षेप होती है।
भक्त कहते हैं कि ईश्वर की वाणी मनुष्य के अंतः में गूँजती रहती है। अतः उसे सुनने आत्मा से बातें करो। लेकिन आत्मा भी बोलती नहीं ----- मूक बनी सी प्रतीत होती है। वह मन की बातों को सुनती रहती है। मन बकबक करता रहता है और आत्मा उसे कहे का रूपान्तर सुन्दर वचनों में करने की कोशिश करती रहती है। मन तब भी आत्मा की अवहेलना करता जाता है। मन सोचता है कि मानव-जीवन में उसकी ही भूमिका महत्वपूर्ण होती है। उसका अहं उसे वास्तव में आत्मा की आवाज सुनने ही नहीं देना चाहता। संत कहते रहे हैं कि आत्मा की आवाज सुनो। आत्मा गूँगी नहीं होती] मनुष्य बहरा होता है और भक्ति इस बहरेपन की व्याधि को दूर करती है। आत्मा की आवाज सुनने भक्त मौन रहने का प्रयास करता है। पर मन उसे भी अपने चुंगल में दबाने में माहिर होता है। तब भक्त मन को बाँधने ईश्वर की स्तुति ----- उसकी वन्दना -----उसके नाम का मंत्रोत्चारण का सहारा लेता है। मन मौका पाकर मेंढ़क की तरह उचककर बार बार आत्मा से बाहर आ जाता है। वह भक्त को विचलित करने की कोशिश करता है। भक्त तब चौबिसों घड़ी भक्ति की रसधार में प्रवाहित होने लग जाता है। लोग भक्त की यह दशा देख उसे बावला कहने लगते हैं। परन्तु भक्त मौन रहता है ----- वह अपने अंदर ईश्वर की वाणी को प्रतिध्वनित होने देता है। भक्त जानता है कि सृष्टि में सर्वत्र व सर्वदा ईश्वर की वाणी गूँजती रहती है। वह मौन धारण किये रहता है क्योंकि जब तक वह ईश्वर की वाणी सुन नहीं पाता उसके लिये और कुछ कहना शेष ही नहीं रहता। उसे तो देववाणी रुचिकर लगती है। और सच में] देववाणी रुचिकर होने के साथ सरल] सहज व सरस होती है तथा भक्त पाता है कि इस वाणी में ईश्वर की प्रचंड़ शक्ति का उद्वेग शान्त व गंभीर बना रहता है। भक्त की आत्मा तृप्ति का अनुभव करने लगती है। वह इस मौन के दौरान अपनी आत्मा से संवाद करने में सफल भी हो जाता है। 
प्रशंसा करना एक अद्वितीय कला है। किसी की सफलता पर बधाई देना -- इक छोटे से शब्द का प्रयोग करना ----- उस व्यक्ति की खुशी को दुगना कर देता है। प्रशंसित होकर वह और आगे बढ़ने के लिये प्रोत्साहित होता है। इससे आपको और मौका मिलता है बधाई देकर उसके मन को जीतने का। सच] दूसरों की खुशी में शामिल होकर ----- उसे बधाई देकर -- उसके हृदय तक पहुँचा जा सकता है। यदि कोई ऐसा नहीं करता तो इसका अर्थ है कि वह उसकी सफलता से खुश नहीं है ---- उससे ईर्ष्या करता है। प्रशंसा दिल खोलकर करनी चाहिये] विशेषकर जब व्यक्ति सत्कर्म करता है और उसमे सफलता भी पाता है। ये प्रशंसा के शब्द ईश्वर तक पहुँचते है और उस प्रार्थना में परिणित हो जाते हैं जो हम उस व्यक्ति की तरफ से ईश्वर से करते हैं ताकि वह सत्कर्म करने में उत्साहित होता रहे और सफलता पाता रहे।
भक्त अपने अंतः की प्यास बुझाने चिल्लाता नहीं] वह ईश्वर से अपना संवाद प्रार्थना के माध्यम से करता है। प्रार्थना हृदय से प्रस्फुटित आस्था] आत्मा से उमड़ते प्रेम] मन से उद्वेलित श्रृद्धा] ज्ञानेन्दियों से उद्वेलित निष्ठा की स्वरलहरियों में उछलती] उफनती ईश्वर का आत्मबोध करानेवाले अतर्नाद की पहचान होती है। प्रार्थना में आत्मा की शक्ति तरंगित होकर ब्रह्मांड़ के अथाह सागर के उस पार] हमारी बाट जोहते ईश्वर के चरणों को छूने का प्रयास करती है। जीवन के अंत तक की भक्ति हमें ईश्वर से जोड़ती है। इसे मृत्यु कहकर भय की संज्ञा देना उचित नहीं है क्योंकि तब मृत्यु] मृत्यु नहीं होती] उसे मुक्ति या मोक्ष कहते हैं।
प्रार्थना में काव्य व साहित्यिक श्रृंगार का होना मन मोहक तो होता है। पर हृदय के गर्भ से उठती प्रार्थना की हुँकार श्रद्धा से ओतप्रोत होती है। भक्त अपने आँसूओं को ----- आहों को भी प्राार्थना बना लेता है। प्रार्थना की प्रबलता मनुष्य के चरित्र] उसके आचरण] उसके सद्विचारों व सत्कमों के अनुपात में घटती बढ़ती है। इन बातों पर ही प्रार्थनाओं का सुना जाना निर्भर करता है। लेकिन प्रार्थनायें इच्छाओं की पूर्ति  के लिये नहीं होती] बल्कि संतोष की खुशबू पाने के लिये होती हैं जिससे इच्छाओं के पूर्ण होने का अहसास खुद ब खुद होने लगता है। संतोषधन के आगे कुबेर का धन भी फीका लगने लगता है। संतोष करना आध्यात्मिक विवेक को जगाना कहलाता है।
दुविधा की स्थिति में ईश्वर का स्मरण करने से समाधान मिल जाता है। यह ईश्वर का स्मरण कोई प्रार्थना का स्वरूप लिया हुआ या किसी इच्छा की अभिव्यक्ति का कारण लिये हुए नहीं होता। फिर भी ऐसे समय प्रार्थना का प्रस्फुटन अनायास होता है। आत्मा खुद ब खुद सचेत अवस्था का रूप मानव मन में पैदाकर] उसे प्रार्थना करने उकासाने लगती है। आत्मा द्वारा स्वजनित यह प्रार्थना अपना खास मकसद लेकर प्रकट होती है। वह ईश्वर से मिलनेवाली मदद का अहसास दिलाती है।
ईश्वरीय मदद का अर्थ है ईश्वर द्वारा हममें बसाये गये ईश्वरीय अंश ---- आत्मा ---- द्वारा उत्प्रेरक की तरह हमारी सोच व कर्म की मदद करना। ईश्वर की इस मदद की सुन्दरता यही है कि जब कभी हम सत्कर्म की ओर बढ़ते हैं ----- उसके लिये मदद की प्रार्थना करते हैं ----- तब आत्मा ईश्वर के करीबी कक्ष में भ्रमण करती हुई तेजस्विनी हो जाती है। जब हम प्रार्थना नहीं भी करते होते हैं तब भी हमें ईश्वर से मदद मिलती रहती है। यह इस बात द्योतक है कि हम कभी भी अकेले नहीं होते ----- ईश्वर हमारे साथ होता है और हमारी आत्मा का संवाद हमेशा ईश्वर से बना रहता है।
प्रार्थना को ईश्वर से संवाद करने का एक माध्यम माना गया है। यह भी माना गया है कि प्रार्थना के शब्द मानव हृदय की सजग चेतना का संदेश लिये हुए होते हैं। लेकिन सच तो यह है कि भक्त की प्रार्थना में ये शब्द मानव की कमजोरियों व उसकी कमियों को उजागर करते हुए भक्त को ईश्वर की शरण में ले जाते हैं। स्वयम् को कमजोर बताना ईश्वर के द्वारा दी गई शक्तियों की अवहेलना ही तो है। ऐसी प्रार्थना से ऐसा लगता है कि ईश्वर से आशीर्वाद न मिलने से हम कहीं के नहीं रहेंगे। फलतः इस प्रार्थना से ईश्वर का आशीर्वाद प्राप्त होने की लालसा ही सजग हो पाती है। परन्तु आस्तिक जानता है कि आशीर्वाद मिलने से अवगुण] सत्गुण में नहीं बदलते। उससे सिर्फ मनुष्य में विद्यमान सत्गुणों में निखार आता है। अवगुण पूर्ववत् बने रहते हैं। अवगुणों को धारण कर प्रार्थना करने से कुछ हासिल नहीं होता। अवगुणों को देखकर आशीर्वाद की किरणें अपनी दिशा बदल लेती हैं। इसलिये दुर्जनों को आशीर्वाद नहीं मिलता ----- भीख की तरह माँगने पर भी नहीं। 
आस्तिक की प्रार्थना याचिका का स्वरूप त्याग कर स्तुति बन जाती है और तब उसके शब्द मनुष्य को उस लोक में ले जाते हैं जहाँ उसकी सोच व कर्म करने की उत्कंठा आध्यत्मिक शक्ति के प्रभावक्षेत्र में आकर अपार शान्ति व आनंद का अनुभव करने लगती है।
एक आम आदमी जो न तो भक्त की श्रेणी में आता है ----- ना तो अस्तिक कहलाता है ----- न ही नास्तिक जैसा होता है ----- वह भी प्रार्थना करता है और हृदय से स्तुतिगान भी करता है। उसके लिये प्रार्थना के शब्द संतोष का खजाना होते हैं और मनोबल को बढ़ानेवाले होते हैं।
वहीं नास्तिक कहता है कि प्रार्थना की जरुरत नहीं है क्योंकि ईश्वर जानता है कि हम क्या चाहते हैं। परन्तु वह अन्य के द्वारा की जा रही प्रार्थना में दखल देने की हिम्मत भी नहीं करता क्योंकि वह भी अंतः से जानता है कि मानव पूर्ण रूप से मानव नहीं है --- उसमें कमजोरियाँ हैं जो उसे आहत करती हैं। इस कारण उसे दूसरों से मदद लेनी पड़ती है। यह मदद उसे हर कोई नहीं दे तो वह क्या करेगा। वह शून्य में निहारेगा। उस शून्य में देख वह सांत्वना पा लेता है। तब नास्तिक भी शून्य में देखता है और उसे वहाँ अनंत दिखाई देता है जिसके आगे वह नतमस्तक हुए बिना नहीं रह सकता।
यह भी सच है कि मात्र याचिकारूपी प्रार्थना से मनुष्य प्रायः चिंतित हो उठता है कि उसने जो कुछ पाना चाहा था] वह उसे मिलेगा या नहीं। उसे अपनी क्षमता में कमी का अनुभव होने लगता है। इस कमी को दूर करने वह बारम्बार प्रार्थना की ओर प्रवृत होता है। लगातार याचिकारूपी प्रार्थना करते रहने से मनोबल गिरता जाता है। आस्तिक की प्रार्थना उसे बताती है कि वह सर्वशक्तिमान ईश्वर के साथ है ----- वह ईश्वर जो उसे अद्भुत शक्ति दे सकता है ----- उसकी क्षमता में और निखार ला सकता है। आस्तिक अपनी प्रार्थना में अपनी अंतःशक्ति की क्षमता में काल्पनिक कमी का बखान नहीं करता। आस्तिक प्रार्थना से अपने मनोबल को बढ़ाता है।
मनुष्य अपने आप को कमजोर मानकर] अपनी क्षमता को सीमित समझकर अपना सब कुछ ईश्वर के अधीन करना चाहता है। शायद उसे ईश्वर द्वारा प्रदत्त अखंड़ शक्ति का अंदाज नहीं होता] जबकि आस्तिक मानता कहता है कि]  ‘मुझे इस जीवन में ईश्वर की दी हुई अंतः की शक्ति को सजग रखते हुए ईश्वर के समतुल्य बनने की ईश्वरीय चाह को पूरा करना है।’ फलतः वह अपनी प्रार्थना में ईश्वर के प्रति पूर्ण समर्पण के शब्दों का प्रयोग करता है और स्तुति को माध्यम बनाकर ईश्वर से सहयोग पाने की कामना करता है। वह शक्ति की उपासना करता है --- शक्ति के संचार पानेे ईश्वर की उपासना करता है। आम आदमी ईश्वर की मूर्ति पर ध्यान लगाकर मनोबल को बढ़ाने की कोशिश करता है।
प्रार्थना हर रूप में विश्वास की अलख जगानेवाली होती है। विश्वास ही वह ग्रंथी है जिसमें वह शक्ति संग्रहित होती है जो मनुष्य को उचित निर्णय व सही कर्मपथ अपनाने ही हिम्मत देती है ----- भय से मुक्ति दिलाती है ----- भ्रम को मिटती है ----- विपदाओं से लड़ने की शक्ति प्रदान करती है ----- चिन्ताओं के उन्मुलन का मार्ग दिखाती है ----- निडरता से कर्तत्वपालन करने उत्साहित करती है और सोच को सदैव सकारात्मक बने रहने उकसाती रहती है। सबसे अहं बात यह है कि प्रार्थना अपने हर रूप में चंचल मन में स्थिरता लाती है ----- विचारों में पवित्रता लाती है ----- कर्म में शुद्धता व द्दढ़ता लाती है ----- हृदय में विश्वास की जड़ें विकसित व मजबूत करती है और श्रद्धा को ईश्वर के प्रति प्रेम में परिणित करती है। प्रार्थना मनुष्य की अंतरात्मा की चेतना से समग्र ज्ञानेन्द्रियों व कर्मन्द्रियों को सुसंचालित करने का काम करती हैं।
प्रार्थना हमारे अंतःकरण को प्रोत्साहित करनेवाली होनी चाहिये ----- ईश्वर द्वारा हमें प्रदत्त शक्तियों की क्रियाशीलता को उत्साहित करनेवाली होनी चाहिये ----- हम पर होते कुठाराघात के समय हमारी सहनशीलता को तेजस्वी करनेवाली होनी चाहिये -------- आशंका के समय हमें भय से मुक्त करानेवाली होनी चाहिये ----- दुख व वेदना को झेलते समय संयम दिलानेवाली होनी चाहिये। कर्म तो हमें ही करना है। प्रार्थना ने उत्प्रेरक का काम करना चाहिये ----- वह भी सिर्फ सत्कर्म करने। रवीन्द्रनाथ ठाकुर एक प्रार्थना लिखते है 
हे ईश्वर! ^विपत्तियों में मेरी रक्षा करो’] यह प्रार्थना लेकर मैं तेरे द्वार पर नहीं आया] विपत्तियों से भयभीत न होऊँ] यही वरदान दे।
अपने दुख से व्यथित चित्त को सान्त्वना देने की भिक्षा नहीं माँगता] दुखों पर विजय पाऊँ] यही आशीर्वाद दे] यही प्रार्थना है।  
तेरी सहायता मुझे न मिल सके] तो भी यह वर दे कि मैं दीनता स्वीकार करके अवश न बनूँ।
संसार के अनिष्ट-अनर्थ और छल-कपट ही मेरे भाग में आए] तो भी मेरा अंतः इन प्रतारणाओं के प्रभाव से क्षीण न हो।
‘मुझे बचा लो’] यह प्रार्थना लेकर मैं तेरे दर पर नहीं आया हूँ] केवल संकट-सागर में तैरते रहने की हिम्मत चाहता हूँ।
‘मेरा भार हल्का कर दो’] यह याचना पूर्ण होने की सान्त्वना नहीं चाहता हूँ] यह भार वहन करके चलता रहूँ] यही प्रार्थना है।
सुख भरे क्षणों में नतमस्तक हो तेरे दर्शन कर सकूँ] किन्तु दुख भरी रातों में जब सारी दुनिया मेरा उपहास करे] तब मैं शंकित न होऊँ] यही वरदान चाहता हूँ। 

प्रार्थना के माध्यम से मनुष्य अपनी आत्मा में परमात्मा के विराट स्वरूप को देख पाता है -- अपनी सोच को अध्यात्म के शिखर पर ले जाता है जिससे शरीर व मन के अंदर व बाहर आनंद का वातावरण बन जाता है।
भूपेन्द्र कुमार दवे
भूपेन्द्र कुमार दवे
ईश्वर का विचार आते ही मनुष्य उटपटांग जिन्दगी जीने की राह त्याग देता है। मनुष्य के मस्तिष्क में उपजनेवाली असंख्य चिंताऐं, भय, डर, शंकाऐं, दुख, पीड़ा आदि तथा विकृति पैदा करनेवाली इच्छायें यकायक मिटने लगती हैं। मन आनंद की उन लहरों के साथ बहने लगता है जिसकी उसने कभी कल्पना तक नहीं की थी। सुन्दर विचारों के अनगिनत सितारे मस्तिष्क में दमकने लगते हैं। प्रार्थनाओं की गूँज मधुर संगीत की लय में विचरण करने लगती है। प्रकृति अनायास अपने पूर्ण सौन्दर्य का अहसास कराने लगती है। ज्ञान के विस्तृत खलिहानों में सद्भावनायें अंकुरित होने लगती है। प्रेम का अलौकिक साम्राज्य मानव के विचार व कर्म में फैलने लगता है। वाणी में अमृत की धारा प्रवाहित होने लगती है। उन सारी शक्तियों का आभास होने लगता है जो मनुष्य को ईश्वर से प्राप्त हुई होती हैं और मनुष्य इन शक्तियों के प्रवाह कोे ईश्वरत्व की ओर ले जाने में अपने को सक्षम पाकर आल्हादित हो उठता है। शैतानी प्रवृतियों से मुक्त मानव ईश्वर के सानिध्य की कल्पना करने लगता है।  यह कल्पना उसे ईश्वर के साक्षात् रूप का अनुभव कराने लगती है। ईश्वर के सुन्दर स्वरूप से प्रभावित मनुष्य स्वतः को ईश्वर के रूप में परिणित करने की प्रबल इच्छा के साथ अपने विचार व व्यवहार में परिवर्तन करने प्रयासरत हो उठता है। इतना ही नहीं] वह प्रत्येक जीव में ईश्वर के दर्शन पाने की दिव्यद्दष्टि पा लेता है। हरेक में ईश्वरीय अंश का आभास होना उसके ज्ञानचक्षु को क्रियाशील बना देता है। उसे संपूर्ण सृष्टि अपनी लगने लगती है। सारी सृष्टि अपार प्रेम का सागर सी लगने लगती है। मन में क्रोध] द्वेष] ईर्ष्या] घृणा आदि के किलबिलाते कीटाणुओं का नामोनिशान मिट जाता है। एक स्वस्थ मानसिक प्रवृति के साथ जीना मनुष्य सीख जाता है। उसकी जिन्दगी एक सहज] सरल] सुखद प्रवास के लिये उत्साहित होती नजर आने लगती है और उसके लिये पृथ्वी स्वर्ग की सी बन जाती है।

शारांश में प्रार्थना के महत्व का संकलन निम्नानुसार किया जा सकता है: 
1  प्रार्थना हमें बोध कराती है कि हममें उस मदद को प्राप्त करने की क्षमता है] जो हमें सर्वशक्तिमान से मिल सकती है। इस बोध से ही हममें नवस्फूर्ति संचारित होने लगती है। इसे दिव्यानुभूति कहते हैं।
2 प्रार्थना बीते कल या आनेवाले कल पर विचार नहीं करती। वह वर्तमान की पुकार होती है। उसमें कुछ भी माँग नहीं होती। मन इच्छारहित होता है। भिकमंगा मन प्रार्थना नहीं करता] वह गिड़गिड़ाता है। गिड़गिड़ाना आध्यात्मिक कमी को दर्शाता है।
3 प्रार्थना के समय ईश्वर से कोई फासला ही नहीं होता। यह एक पवित्र संवाद होता है जो आत्मा व परमात्मा के बीच भीतर ही भीतर होता है।
4 प्रार्थना श्रद्धायुक्त हो तो वह अवश्य सकारात्मकता को अपने भीतर बढ़ाने में सहायक होती है। श्रद्धा जहाँ कहीं भी होती है] नकारात्मकता को समाप्त करती जाती है।
5 जीने का आनंद तब तक बना रहता जब तक हममें यह विश्वास जाग्रत रहता है कि हमारी प्रार्थना सुनने ईश्वर हैं।
6 जब हम प्रार्थना करते हैं तो ईश्वर हमारे साथ होते हैं और हमारे साथ गाते हैं।
7 कोई भी ^मेरी प्रार्थना’नहीं] ^हमारी प्रार्थना’ होती है क्योंकि हमारी प्रार्थना में हमारे सभी प्रियजन सम्मलित होते हैं और वे भी जो हमसे प्यार करते हैं।
8 सुबह की प्रार्थना पूरे दिन के लिये आशीर्वाद लिये हुई होती है।
9 वह दिन बहुत प्यारा लगता है जो प्रार्थना से प्रारंभ होता है।
10 मधुर शब्द बिना संगीत के होकर भी प्रार्थना के रूप होते हैं क्योंकि प्रार्थना आस्था की भाड्ढा होती है। इसमें श्रद्धा की ताल और संपूर्ण त्याग का संगीत होता हैं।
11 जब हृदय में संगीत और मस्तिष्क में कविता होती है तो मन वह स्थल बन जाता है जहाँ इनके संगम से हमारी प्रार्थना का निर्माण होता है क्योंकि जब हम अपनी प्रार्थना कहते हैं तो मस्तिष्क सोचता है] हृदय सँवरता है और मन विश्लेड्ढण करता है और  हमें सही मार्ग दिखलाता है ----- हमारे विचार शुद्ध होते हैं -------- हमारा मूल्यांकन सही होता है ----- हमारे कर्म पवित्र हो जाते हैं तथा इस तरह मात्र प्रार्थना से मनुष्य और उसकी आत्मा का कल्याण होता है।
12 प्रार्थना मन को परमशांति प्रदान करनेवाली होती है] रगों को स्थिर प्रवाह देनेवाली और जीवन के लिये आनंददायिनी होती है।
13 प्रार्थना कविता है जो आस्था] श्रद्धा व विश्वास से भरे हृदय से उफनती है। यह समस्त ज्ञानेन्द्रियो के वाद्यों से संगत पाया सुमधुर गीत है।
14 अपनों की दुआयें तो हमेशा बनी रहती है] फिर भी प्रार्थनायें दुआओं को  फिर से तरो-ताजा करती हैं।
15 जो प्रार्थना अनसुनी सी प्रतीत होती है] मरती नहीं क्योंकि उसकी प्रतिध्वनि अद्दश्य दुआओं के रूप में हमारे पास लौट आती हैं।
16 हमारे अच्छे कर्म भी हमारी मूक प्रार्थना हैं एवं वे भी पुरस्कार स्वरूप हमारे लिये दुआयें लाते हैं।
17 प्रार्थना आशा प्रादन करती है। यह पथ को प्रकाशित ही नहीं करती बल्कि पथिक के मन में उत्साह एवं उमंग को भी प्रज्वलित करती है ताकि वह धर्म-परायणता के मार्ग पर आगे बढ़ता रहे।
18 हृदय में चुपचाप कही गई प्रार्थना भी बाहर सुनी जाती है क्योंकि ईश्वर जानते हैं कि हृदय में प्रतिध्वनित होने वाली प्रार्थना गम्भीर व सारगर्भित होती है।
19 प्रार्थना में शक्ति होनी चाहिये और उसके कहनेवाले में भी।
20 जो सिर्फ स्वतः के लिये प्रार्थना करता है] अपने जीवन को बचाता है और जो दूसरों के लिये प्रार्थना करता है] अपने साथ दूसरों के जीवन की भी रक्षा करता है।
21 जो दूसरों के लिये प्रार्थना करते हैं] अद्भुत कार्य करते हैं और ईश्वर के साथ दूसरों को आशीर्वाद देने का आनंद पाते हैं।
22 जो दूसरों के लिये प्रार्थना नहीं करते हैं] वे उस तरह से प्रार्थना नहीं करते जैसा ईश्वर ने उनसे चाहा है।
23 जब हम दूसरों के लिये प्रार्थना कहते हैं तो सिर्फ मानवता की सेवा ही नहीं करते बल्कि ईश्वर की सेवा करने का स्वतः में संकल्प भी स्थापित करते हैं।
24 प्रार्थना की महक में तल्लीन मन अपने में जीवन के प्रति उत्साह व लगन की शुद्ध वायु प्रवाह का अनुभव करता है।
25 प्रार्थना में जुड़े हाथ] क्रोध में भिंची मुठ्ठी से ज्यादा शक्तिशाली होते हैं।
26 यह संसार एक मंदिर है जहाँ हम अपनी प्रार्थना कहते हैं] अपने दाहिने हाथ में दीप लेकर जिससे संपूर्ण श्रद्धाशक्ति से देवी की पूजा होती है।
27 दिन में एक बार कही प्रार्थना दिनभर औरों से मिलनेवाली समस्त बद्दुओं को दूर करती है।
28 प्रार्थना अंतःकरण की पुकार होती है -- यह आत्मशक्ति प्रदान करने की चाह की अभिव्यक्ति है और यदि प्रार्थना से इस शक्ति को बल मिलता है तो इसका अर्थ है कि प्रार्थना सुनी गई है।
29 प्रार्थना में भक्ति के प्राण प्रतिष्ठित होते हैं। ईश्वर के प्रति प्रगाढ़ प्रेम की अभिव्यक्ति प्रार्थना से होती है। प्रार्थना में आस्था व श्रद्धा का संगम] भक्ति की पवित्रता को निरूपित करता है।
30 बच्चा खिलौने के लिये रो रहा था पर माँ उस समय बच्चे के लिये दवाई बनाने में व्यस्त थी। बच्चे ने समझा कि माँ उसकी प्रार्थना नहीं सुन रही थी। यही ईश्वर कर रहा होता है और हम समझते हैं कि वह हमारी प्रार्थना नहीं सुन रहा।
31 यदि प्रार्थना अनसुनी-सी प्रतीत होती है तो निरुत्साहित मत हो क्योंकि कोई प्रार्थना अनुत्तरित नहीं रहती। कुछ उत्तर छिपे रूप में होते हैं और निराकार ब्रह्म की तरह सदैव सचेतना से युक्त होते हैं।
32 हम नहीं जान पाते कि कब और कैसे हमारी प्रार्थना का उत्तर प्राप्त होगा। प्रार्थना विश्वास का वाणीरूप है तो उसका उत्तर भी विश्वास को अडिग बनाये रखने संकल्पित रहता है।
33 प्रार्थनायें जो नरक में गूँजती हैं] बद्दुआयें बन जाती हैं क्योंकि उनका आशय अच्छा नहीं होता। कोई भी बद्दुआ प्रार्थना नहीं बन सकती और कोई भी अपशब्द स्तुतिगान का अंश नहीं बन सकता।
34 प्रार्थनायें स्वर्ग में गूँजती हैं और उस स्वर्ग में भी जो हमने अपने चारों ओर बनाये रखा होता है। बद्दुआयें गूँजती हैं उस नरक में जो हमने अपने चारों ओर बनाये रखा होता है।
35 मैं नरक में भी आराम से रह सकूँगा] यदि मुझे वहाँ अपनी दैनिक प्रार्थना करने की अनुमति मिल जाये क्योंकि मैं जानता हूँ कि मेरी प्रार्थना से नरक भी स्वर्ग बन सकता है। पवित्र प्रार्थना में वो शक्ति होती है कि उसकी प्रतिध्वनि  नरक में गूँजकर नरक के गरिष्ठ जीवन को बदल सकती है।
36 न सुनी गई सी प्रतीत होनेवाली प्रार्थना की प्रतिध्वनि जब हम तक पहुँचती है] तो वह हमें सान्त्वना ही नहीं प्रदान करती] बल्कि वह हमारी प्रार्थना को और भी बलवती बना देती है।
37 मौन प्रार्थना हमारे हृदय में शान्ति की गूँज है। यह क्रोध के शोर-शराबे से मुक्त है इसलिये ज्यादा असरदार है क्योंकि यह आत्मा व ईश्वर के बीच का सीधा संवाद होती है।
38 सही समय पर कही गई प्रार्थना प्रायः हृदय से उठती है और इसलिये मनुष्य को हर संभावित पतन से बचाती है।
39 प्रार्थना करने के सही समय की पहचान उस मनुष्य को होती है जिसमें ईश्वर के प्रति पूर्ण श्रद्धा होती है तथा स्वतः में अटूट विश्वास होता है।
40 प्रार्थनायें जो हृदय से उठती हैं कही जाती हैं] लिखी जाती हैं] पढ़ी जाती हैं और सुनी भी जाती हैं।
41 जीवन में ऐसी कई नाजुक घड़ियाँ आती हैं जब प्रार्थना की आवश्यकता पड़ती है -- जीवन की खतरनाक खाईयों को पार करने व मनुष्य को निरुत्साहित होने से बचाने के लिये।
42 प्रार्थनायें भय] चिंतायें व दुख के बदले आशीर्वाद कमाकर लाती हैं।
43 प्रार्थना व्यथित मन की चिकित्सा] आरोग्यकर हृदय की कुंजी] तथा टूटते व ध्वस्त होते जीवन का सहारा होती है।
44 प्रार्थना आत्मिक शान्ति के लिये होती है न कि सांसारिक प्रसन्नता और सफलता के लिये। आत्मिक शान्ति सारी बुराईयों की इलाज होती है।
45.प्रार्थना का मस्तिष्क और शरीर पर प्रभाव पड़ता है। वह तनाव से मुक्ति दिलाती है। दुख दूर करती है। न्यूरोलॉजी के अनुसार पाया गया है कि मानव जीवन और ईश्वर का कुछ तो संबंध अवश्य है क्योंकि जहाँ उपचार काम नहीं करता वहाँ प्रार्थना करिश्मा कर दिखाती है।
46.प्रार्थना ईश्वर और मानव के बीच मधुर संवाद है। ईश्वरीय वंदना वह उद्गार है जो गूँजता व प्रतिध्वनित होता हुआ हमें आनंदित करता है। वहीं मौन प्रार्थना से भी हम ईश्वर को सम्मानित करते हैं --- उनके प्रेम का विस्तार करते विचारों को अपने अंतः में गुँजायमान करते हैं। प्रार्थना पूरी तल्लीनता से विचारों को खिलने का मौका देती है --- वह उस खिलते हुए पुष्प की तरह होती है जो अपनी महक फैलाने के लिये पंखुड़ियों को खोलने उत्सुक होते हैं। 

आवो हम भी अपने हृदय की पंखुड़ियों को खोलने का प्रयास करें और सर्वत्र ईश्वरीय महक का विस्तार करें।

                    
    

           
   

यह रचना भूपेंद्र कुमार दवे जी द्वारा लिखी गयी है आप मध्यप्रदेश विद्युत् मंडल से सम्बद्ध रहे हैंआपकी कुछ कहानियाँ व कवितायें आकाशवाणी से भी प्रसारित हो चुकी है 'बंद दरवाजे और अन्य कहानियाँ''बूंद- बूंद आँसू' आदि आपकी प्रकाशित कृतियाँ हैसंपर्क सूत्र - भूपेन्द्र कुमार दवे,  43, सहकार नगररामपुर,जबलपुरम.प्र। मोबाइल न.  09893060419.           

COMMENTS

Leave a Reply
नाम

अंग्रेज़ी हिन्दी शब्दकोश,3,अकबर इलाहाबादी,11,अकबर बीरबल के किस्से,62,अज्ञेय,37,अटल बिहारी वाजपेयी,1,अदम गोंडवी,3,अनंतमूर्ति,3,अनौपचारिक पत्र,16,अन्तोन चेख़व,2,अमीर खुसरो,7,अमृत राय,1,अमृतलाल नागर,1,अमृता प्रीतम,5,अयोध्यासिंह उपाध्याय "हरिऔध",7,अली सरदार जाफ़री,3,अष्टछाप,4,असगर वज़ाहत,11,आनंदमठ,4,आरती,11,आर्थिक लेख,8,आषाढ़ का एक दिन,22,इक़बाल,2,इब्ने इंशा,27,इस्मत चुगताई,3,उपेन्द्रनाथ अश्क,1,उर्दू साहित्‍य,179,उर्दू हिंदी शब्दकोश,1,उषा प्रियंवदा,5,एकांकी संचय,7,औपचारिक पत्र,32,कक्षा 10 हिन्दी स्पर्श भाग 2,17,कबीर के दोहे,19,कबीर के पद,1,कबीरदास,19,कमलेश्वर,7,कविता,1478,कहानी लेखन हिंदी,17,कहानी सुनो,2,काका हाथरसी,4,कामायनी,6,काव्य मंजरी,11,काव्यशास्त्र,40,काशीनाथ सिंह,1,कुंज वीथि,12,कुँवर नारायण,1,कुबेरनाथ राय,2,कुर्रतुल-ऐन-हैदर,1,कृष्णा सोबती,3,केदारनाथ अग्रवाल,4,केशवदास,6,कैफ़ी आज़मी,4,क्षेत्रपाल शर्मा,52,खलील जिब्रान,3,ग़ज़ल,139,गजानन माधव "मुक्तिबोध",15,गीतांजलि,1,गोदान,7,गोपाल सिंह नेपाली,1,गोपालदास नीरज,10,गोरख पाण्डेय,3,गोरा,2,घनानंद,3,चन्द्रधर शर्मा गुलेरी,6,चमरासुर उपन्यास,7,चाणक्य नीति,5,चित्र शृंखला,1,चुटकुले जोक्स,15,छायावाद,6,जगदीश्वर चतुर्वेदी,17,जयशंकर प्रसाद,35,जातक कथाएँ,10,जीवन परिचय,77,ज़ेन कहानियाँ,2,जैनेन्द्र कुमार,7,जोश मलीहाबादी,2,ज़ौक़,4,तुलसीदास,28,तेलानीराम के किस्से,7,त्रिलोचन,4,दाग़ देहलवी,5,दादी माँ की कहानियाँ,1,दुष्यंत कुमार,7,देव,1,देवी नागरानी,23,धर्मवीर भारती,12,नज़ीर अकबराबादी,3,नव कहानी,2,नवगीत,1,नागार्जुन,25,नाटक,1,निराला,39,निर्मल वर्मा,4,निर्मला,42,नेत्रा देशपाण्डेय,3,पंचतंत्र की कहानियां,42,पत्र लेखन,202,परशुराम की प्रतीक्षा,3,पांडेय बेचन शर्मा 'उग्र',4,पाण्डेय बेचन शर्मा,1,पुस्तक समीक्षा,141,प्रयोजनमूलक हिंदी,38,प्रेमचंद,50,प्रेमचंद की कहानियाँ,91,प्रेरक कहानी,16,फणीश्वर नाथ रेणु,4,फ़िराक़ गोरखपुरी,9,फ़ैज़ अहमद फ़ैज़,24,बच्चों की कहानियां,88,बदीउज़्ज़माँ,1,बहादुर शाह ज़फ़र,6,बाल कहानियाँ,14,बाल दिवस,3,बालकृष्ण शर्मा 'नवीन',1,बिहारी,8,बैताल पचीसी,2,बोधिसत्व,9,भक्ति साहित्य,143,भगवतीचरण वर्मा,7,भवानीप्रसाद मिश्र,3,भारतीय कहानियाँ,61,भारतीय व्यंग्य चित्रकार,7,भारतीय शिक्षा का इतिहास,3,भारतेन्दु हरिश्चन्द्र,10,भाषा विज्ञान,18,भीष्म साहनी,9,भैरव प्रसाद गुप्त,2,मंगल ज्ञानानुभाव,22,मजरूह सुल्तानपुरी,1,मधुशाला,7,मनोज सिंह,16,मन्नू भंडारी,10,मलिक मुहम्मद जायसी,9,महादेवी वर्मा,20,महावीरप्रसाद द्विवेदी,3,महीप सिंह,1,महेंद्र भटनागर,73,माखनलाल चतुर्वेदी,3,मिर्ज़ा गालिब,39,मीर तक़ी 'मीर',20,मीरा बाई के पद,22,मुल्ला नसरुद्दीन,6,मुहावरे,4,मैथिलीशरण गुप्त,14,मैला आँचल,8,मोहन राकेश,16,यशपाल,19,रंगराज अयंगर,43,रघुवीर सहाय,6,रणजीत कुमार,29,रवीन्द्रनाथ ठाकुर,22,रसखान,11,रांगेय राघव,2,राजकमल चौधरी,1,राजनीतिक लेख,21,राजभाषा हिंदी,66,राजिन्दर सिंह बेदी,1,राजीव कुमार थेपड़ा,4,रामचंद्र शुक्ल,3,रामधारी सिंह दिनकर,25,रामप्रसाद 'बिस्मिल',1,रामविलास शर्मा,9,राही मासूम रजा,8,राहुल सांकृत्यायन,2,रीतिकाल,3,रैदास,4,लघु कथा,125,लोकगीत,1,वरदान,11,विचार मंथन,60,विज्ञान,1,विदेशी कहानियाँ,34,विद्यापति,8,विविध जानकारी,1,विष्णु प्रभाकर,3,वृंदावनलाल वर्मा,1,वैज्ञानिक लेख,8,शमशेर बहादुर सिंह,6,शमोएल अहमद,5,शरत चन्द्र चट्टोपाध्याय,1,शरद जोशी,3,शिक्षाशास्त्र,6,शिवमंगल सिंह सुमन,6,शुभकामना,1,शेख चिल्ली की कहानी,1,शैक्षणिक लेख,57,शैलेश मटियानी,3,श्यामसुन्दर दास,1,श्रीकांत वर्मा,1,श्रीलाल शुक्ल,4,संयुक्त राष्ट्र संघ,1,संस्मरण,34,सआदत हसन मंटो,10,सतरंगी बातें,33,सन्देश,44,समसामयिक हिंदी लेख,270,समीक्षा,1,सर्वेश्वरदयाल सक्सेना,19,सारा आकाश,22,साहित्य सागर,22,साहित्यिक लेख,87,साहिर लुधियानवी,5,सिंह और सियार,1,सुदर्शन,3,सुदामा पाण्डेय "धूमिल",10,सुभद्राकुमारी चौहान,7,सुमित्रानंदन पन्त,23,सूरदास,16,सूरदास के पद,21,स्त्री विमर्श,11,हजारी प्रसाद द्विवेदी,4,हरिवंशराय बच्चन,28,हरिशंकर परसाई,24,हिंदी कथाकार,12,हिंदी निबंध,436,हिंदी लेख,536,हिंदी व्यंग्य लेख,14,हिंदी समाचार,186,हिंदीकुंज सहयोग,1,हिन्दी,7,हिन्दी टूल,4,हिन्दी आलोचक,7,हिन्दी कहानी,32,हिन्दी गद्यकार,4,हिन्दी दिवस,91,हिन्दी वर्णमाला,3,हिन्दी व्याकरण,45,हिन्दी संख्याएँ,1,हिन्दी साहित्य,9,हिन्दी साहित्य का इतिहास,21,हिन्दीकुंज विडियो,11,aapka-banti-mannu-bhandari,6,aaroh bhag 2,14,astrology,1,Attaullah Khan,2,baccho ke liye hindi kavita,70,Beauty Tips Hindi,3,bhasha-vigyan,1,chitra-varnan-hindi,3,Class 10 Hindi Kritika कृतिका Bhag 2,5,Class 11 Hindi Antral NCERT Solution,3,Class 9 Hindi Kshitij क्षितिज भाग 1,17,Class 9 Hindi Sparsh,15,divya-upanyas-yashpal,5,English Grammar in Hindi,3,formal-letter-in-hindi-format,143,Godan by Premchand,12,hindi ebooks,5,Hindi Ekanki,20,hindi essay,428,hindi grammar,52,Hindi Sahitya Ka Itihas,105,hindi stories,682,hindi-bal-ram-katha,12,hindi-gadya-sahitya,8,hindi-kavita-ki-vyakhya,19,hindi-notes-university-exams,77,ICSE Hindi Gadya Sankalan,11,icse-bhasha-sanchay-8-solutions,18,informal-letter-in-hindi-format,59,jyotish-astrology,23,kavyagat-visheshta,26,Kshitij Bhag 2,10,lok-sabha-in-hindi,18,love-letter-hindi,3,mb,72,motivational books,12,naya raasta icse,9,NCERT Class 10 Hindi Sanchayan संचयन Bhag 2,3,NCERT Class 11 Hindi Aroh आरोह भाग-1,20,ncert class 6 hindi vasant bhag 1,14,NCERT Class 9 Hindi Kritika कृतिका Bhag 1,5,NCERT Hindi Rimjhim Class 2,13,NCERT Rimjhim Class 4,14,ncert rimjhim class 5,19,NCERT Solutions Class 7 Hindi Durva,12,NCERT Solutions Class 8 Hindi Durva,17,NCERT Solutions for Class 11 Hindi Vitan वितान भाग 1,3,NCERT Solutions for class 12 Humanities Hindi Antral Bhag 2,4,NCERT Solutions Hindi Class 11 Antra Bhag 1,19,NCERT Vasant Bhag 3 For Class 8,12,NCERT/CBSE Class 9 Hindi book Sanchayan,6,Nootan Gunjan Hindi Pathmala Class 8,18,Notifications,5,nutan-gunjan-hindi-pathmala-6-solutions,17,nutan-gunjan-hindi-pathmala-7-solutions,18,political-science-notes-hindi,1,question paper,19,quizzes,8,raag-darbari-shrilal-shukla,8,Rimjhim Class 3,14,samvad-lekhan-in-hindi,6,Sankshipt Budhcharit,5,Shayari In Hindi,16,skandagupta-natak-jaishankar-prasad,6,sponsored news,10,suraj-ka-satvan-ghoda-dharmveer-bharti,6,Syllabus,7,tamas-upanyas-bhisham-sahni,4,top-classic-hindi-stories,58,UP Board Class 10 Hindi,4,Vasant Bhag - 2 Textbook In Hindi For Class - 7,11,vitaan-hindi-pathmala-8-solutions,16,VITAN BHAG-2,5,vocabulary,19,
ltr
item
हिन्दीकुंज,Hindi Website/Literary Web Patrika: प्रार्थना क्या है, क्यों करें प्रार्थना ?
प्रार्थना क्या है, क्यों करें प्रार्थना ?
प्रार्थना ईश्वर को भेजा गया एक सादर आमंत्रण होता है जिसे ईश्वर कभी नहीं ठुकराता। फलतः प्रार्थना से ईश्वरीय ऊर्जा का अनुभव होने लगता है। इस ऊर्जा में मानव को परमशक्ति का अनुभव होने लगता है।
https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjrDNCjtdWi1Jnoktr6bkgXWtTarLjyb1zWQkDt5GoPT8cfEzNeZlP_FZgrKWMqEtTyDhzOBPi9otJC2rCHwaeyM5Hm-vHR2yHdPAEpXtbH7tSbJPO4V9hbOnt8QthZwtRgs-aLv8dBHLJS/s320/PrayingHandscreditShuttestockcom.jpg
https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjrDNCjtdWi1Jnoktr6bkgXWtTarLjyb1zWQkDt5GoPT8cfEzNeZlP_FZgrKWMqEtTyDhzOBPi9otJC2rCHwaeyM5Hm-vHR2yHdPAEpXtbH7tSbJPO4V9hbOnt8QthZwtRgs-aLv8dBHLJS/s72-c/PrayingHandscreditShuttestockcom.jpg
हिन्दीकुंज,Hindi Website/Literary Web Patrika
https://www.hindikunj.com/2019/01/prarthana-shakti.html
https://www.hindikunj.com/
https://www.hindikunj.com/
https://www.hindikunj.com/2019/01/prarthana-shakti.html
true
6755820785026826471
UTF-8
Loaded All Posts Not found any posts VIEW ALL Readmore Reply Cancel reply Delete By Home PAGES POSTS View All RECOMMENDED FOR YOU LABEL ARCHIVE SEARCH ALL POSTS Not found any post match with your request Back Home Sunday Monday Tuesday Wednesday Thursday Friday Saturday Sun Mon Tue Wed Thu Fri Sat January February March April May June July August September October November December Jan Feb Mar Apr May Jun Jul Aug Sep Oct Nov Dec just now 1 minute ago $$1$$ minutes ago 1 hour ago $$1$$ hours ago Yesterday $$1$$ days ago $$1$$ weeks ago more than 5 weeks ago Followers Follow THIS PREMIUM CONTENT IS LOCKED STEP 1: Share to a social network STEP 2: Click the link on your social network Copy All Code Select All Code All codes were copied to your clipboard Can not copy the codes / texts, please press [CTRL]+[C] (or CMD+C with Mac) to copy बिषय - तालिका