भवानी भाई ने कहा था - मैं सन्नाटा हूँ, फिर भी बोल रहा हूँ। कहना न होगा कि इस कविता संग्रह की कविताएँ बोलती हैं – कुछ कोलाहल भी है और कुछ उद्वेग भी। और अनुवाद को चाहे कविता के शिल्प में कहने वाले – कविता कहाँ अनुवाद है – कहते रहें, फिर भी उन्हें नीरजा का शुक्रगुजार होना होगा क्योंकि उन्होंने अनुवाद करके एक नई रचना को जन्म दिया और अनुसृजन पीड़ा का भार भी वहन किया।
जो कविता है !
यदि आप मेरे इस आलेख को किसी पढ़े-लिखे का समझकर पढ़ रहे हैं और गुर्रमकोंडा नीरजा को नहीं जानते तो मेरी बेशकीमती सलाह है – आप पहले इस कविता-संग्रह (कुछ कोलाहल, कुछ सन्नाटा. गुर्रमकोंडा नीरजा. 2019. नजीबाबाद : पारिलेख प्रकाशन) का परिशिष्ट पढ़ें। डॉ. पूर्णिमा शर्मा ने “नत नयन, प्रिय कर्मरत मन नीरजा” शीर्षक से सुसज्जित करके 2014 में इसे लिखा था। आप जानते हैं 2014 और 2019 में अंतर है। अब नीरजा जी का मुकुल भी इस ‘थैंकलेस’ जमाने में अच्छे दिनों की मानिंद खिल उठा है। उन्हें वह स्थान अब मिल गया है जिसकी वे मुस्तहक हैं। लखटकिया पुरस्कार और वह भी केंद्रीय हिंदी निदेशालय से, यह हुई न कोई बताने वाली बात!
‘कुछ कोलाहल, कुछ सन्नाटा’ नीरजा की विविध काव्यात्मक अभिव्यक्तियों का गुलदस्ता है जिसमें किसिम किसिम के फूल हैं; कुछ मौलिक कविताएँ, कुछ अनूदित (तेलुगु और तमिल से)। बड़े अरमानों से रक्खा गया यह कदम बड़े लोगों के द्वारा सराहा गया है – अभी यह शुरूआत है (गंगा प्रसाद विमल) और अनूठे काव्य संग्रह की हर रचना मन को उकेरती है (देवी नागरानी)।
कवि लोग होते बहुत उस्ताद हैं, कहते हैं वे कुछ कोलाहल और कुछ सन्नाटे की कविता लेकर आए हैं। मुगम्बो खुश हुआ – जब से गाँव से नाता टूटा है – किसी ब्याह बरात में बूँदी के लड्डू के साथ ‘सन्नाटा’ पीने का मौका ही नहीं मिला। पहले तो कोई अब बुलाता नहीं, दूसरे अब कोई जा नहीं पाता, तीसरे ‘सन्नाटा’ अब मिलता नहीं। जो है वह हलाहल सा कोलाहल है ।
भवानी भाई ने कहा था - मैं सन्नाटा हूँ, फिर भी बोल रहा हूँ। कहना न होगा कि इस कविता संग्रह की कविताएँ बोलती हैं – कुछ कोलाहल भी है और कुछ उद्वेग भी। और अनुवाद को चाहे कविता के शिल्प में कहने वाले – कविता कहाँ अनुवाद है – कहते रहें, फिर भी उन्हें नीरजा का शुक्रगुजार होना होगा क्योंकि उन्होंने अनुवाद करके एक नई रचना को जन्म दिया और अनुसृजन पीड़ा का भार भी वहन किया। कवि की कविता तभी सही अर्थों में कालजयी होती है जब वह किसी अनुवादक के माध्यम से काल-जायी होने का सौभाग्य प्राप्त कर सके। यह जोड़ देना जरूरी है कि इन कविताओं के अनुवादक के रूप में कविताओं को अनुप्रयुक्त भाषाविज्ञान का सजग प्रयोक्ता और लेखक मिला इसलिए यह नवसृजन है। कृष्ण पर देवकी से अधिक यशोदा का अधिकार हो जाता है।
यदि मैं इन कविताओं के कथ्य को प्रस्तुत कर दूँगा तो पाठकीय आनंद में बाधक बनूँगा। फिर भी इतना तो कहना ही होगा – कोख में अपने रक्त मांस से सींचकर कवि ने कविता को जन्म दिया और इस बेटी वाली माँ ने स्त्री-मन को विवेचित ही नहीं विरेचित और विकसित भी किया है। यह विवेचन ऐमिली डिकिन्सन सी संक्षिप्तता और मार्मिकता की अभिव्यक्ति कवयित्री नीरजा से करा ले गया है और इस कोलाहल में उन्हें पता भी नहीं चला। यही खूबसूरती है इस सिरजन की – कच्ची मिट्टी हूँ / आकार दो हाथों से / ढल जाऊँगी।
इस प्रकार से प्रस्तुत संस्करण की कविताएँ एक तरफ तो सन्नाटे को कविता के शिल्प में पिरोकर जीवन के तुमुल कोलाहल को जीने की सीख हैं, दूसरी तरफ उनका ‘बोम्मै-पसु-अडिमै’ और ‘अन्ना पिरवै’ है (!)। एक पक्ष और भी है जो गौरय्या, चिड़िया, पंखुड़ी, पंख, गाय, थन आदि का तमिल-तेलुगु पाठ रचकर हिंदी के पाठकों को जिज्ञासु बनाता है। दूसरी तरफ इस पट्टी के लोगों को हिंदी पट्टी के लोगों से मिलवाता है। समझ में आ जाता है कि सरोकार एक ही है, सरकार अलग होने के बावजूद।
ग्लोत्फेल्टी (Glotfelty) ने कुछ वर्ष पूर्व साहित्य और उसके फिजिकल एनवायर्नमेंट के संबंध के मद्देनजर उत्तर-आधुनिक समीक्षा करने का विचार प्रस्तुत किया था। इस पुस्तक का एक पाठ उन ‘गिद्धों, शिकार, आग, बसंत, तितली, पंछी, डालियाँ और फूलों’ को लेकर भी होगा। पर उसके लिए मुझे उत्तर-आधुनिक का बाना पहनना पड़ेगा। फिर कभी, इत्यलम।
- प्रो. गोपाल शर्मा
प्रोफेसर, अरबा मिंच विश्वविद्यालय
अरबा मिंच, इथियोपिया
prof.gopalsharma@gmail.com
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