सप्तपदी और भारत का सामाजिक जीवन

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सप्तपदी और भारत का सामाजिक जीवन महेश दत्तानी ने बीसवीं सदी में एक रेडियो प्ले लिखा था जिसका नाम सप्तपदी जान सकते हैं और इसमें समाज के पाखंड पर चोट की गई थी और प्ले एक हत्या , जो कि समाज के बहिष्कृत वर्ग हिजड़े से महिला थी, की हुई थी। जैसा कि आज है उस रेडियो प्ले मैं भी पुलिस किस तरह सबूत जुटाती है उसकी एक पोल भी खोली गई है।

सप्तपदी और भारत का सामाजिक जीवन


                     
महेश दत्तानी ने बीसवीं सदी में एक रेडियो प्ले लिखा था जिसका नाम सप्तपदी जान सकते हैं और इसमें समाज के पाखंड पर चोट की गई थी और प्ले एक हत्या , जो कि समाज के बहिष्कृत वर्ग हिजड़े से महिला थी, की हुई थी। जैसा कि आज है उस रेडियो प्ले मैं भी पुलिस किस तरह सबूत जुटाती है उसकी एक पोल  भी खोली गई है।

अमर उजाला ने परिणय शीर्षक के अंतर्गत रविवार 10 मार्च ,19 को पृष्ठ 12 पर इस विषयक एक लेख भी प्रकाशित किया है,जो  कि सभी   दम्पत्तियों  के अपनाने योग्य है।

मुझे हिंदीकुंज में मीनाक्षी वशिष्ठ के लेख जो विवाह की परिभाषा से शुरू हुआ था ,को देखने पर मिलाकि  पश्चिमी उत्तरभारत  में  हर   मामले   में    भारी   विसंगति  विचार   और   व्यवहार   के   धरातल  पर   है   । यहां विवाह के संबंध में अक्सर लोग झूठ बोलते हैं और वह एक जुए जैसा ही खेल रह गया है।

अभी एक सज्जन पूछ रहे थे के उत्तर और   दक्षिण भारत में सामाजिक जीवन अलग अलग प्रकार का देखने को
सप्तपदी
सप्तपदी
मिल रहा है उत्तर भारत में कमोवेश स्त्री को संपत्ति इसलिए माना जाता है के विवाह के वचनों की समानता के बाद भी स्त्री को हर समय सिर से लेकर पैर तक बिछिया से लेकर सिंदूर तक धारण करना पड़ता है जबकि पुरुष के  लिए कोई बाध्यता नहीं है,महाराष्ट्र में तो लड़की वाले के यहां लड़के वाले लड़की का रिश्ता लेकर आते हैं और दक्षिण भारत में तो सगोतियों के बीच भी शादियां हो जाती है ,उसके अपने कारण  रहे होंगे। लेकिन हमारा ऐसा मानना है कि कालांतर में जो हमारे समाज में बुराइयां पनप चुकी है उन को नष्ट करने में अब कोई देर नहीं करनी चाहिए।

उत्तर   और  दक्षिण  में  जो  हे सो  हे  , सब  जानते हैं  लेकिन  एक  बात   खरी  यह   है  कि   उत्तर  भारत   में प्रवासी  का  जीवन  निर्वाह  हो  जाएगा  ,  कोई भेद्भाव  नहीं   होगा    लेकिन   दक्षिन में  इस  को  पक्के तौर पर नहीं  कहा  जा  सकता ।आप   कारण  इस   का  तलाशना   चाहेंगे   कि   दक्षिण   भारत  में   क्यों  वृद्ध महिलाएं कान   में  भारी  भारी  कुंडल बसों  में  अकेले  पहन   निडरता   से  यात्रा   कर  लेती   हैं   और   लडकी    किसी भी  समय   बीमार  मां  के  लिए  निडरता  से दवा  ला   सकती   है ,  तो  हमारे  यहां   एसा  क्यों नहीं   हो  सकता  ? 

वाह   रे   घूंघट  ?  कब  तक   इस    गलत  पृथा   को   ढोएं   हम  ?  यह   वेदिक   रीति  रिवाज़  का   हिस्सा नहीं  हैं।शेक्सपियर ने कहा है के लंबे समय तक के मतभेद/ खटास  संबंधों में दरार पैदा करते  है। मतभेद के मुख्य कारण झूठ, कथनी और करनी में अंतर, व्यक्तिगत एब और  हिंसा या हिंसक विचार हो सकते है।

मुझे याद है कि पश्चिम बंगाल क्षेत्र में अधिकारियों के परिचय के समय हमारे   विभागाध्यक्ष  श्री प्रभातचंद्र चतुर्वेदी  जी को एक अधिकारी अपना परिचय दे रहे थे,वे बता रहे थे कि मैं उपनिदेशक लीगल हूं इसके उत्तर में श्री चतुर्वेदी जी ने यह जानना चाहा कि क्या आपके पास कोई कानून की डिग्री है अथवा डिप्लोमा है उसका उत्तर उन  अधिकारी महोदय ने दिया कि ऐसी कोई डिग्री अथवा डिप्लोमा उनके पास नहीं।तो यहां आप यह पाते हैं कि जिस के पास विषय का सम्यक ज्ञान अथवा प्रशिक्षण अथवा अनुभव नहीं है तो निश्चित रूप से हर मामले की मैट्रिक्स में उन से न्याय नहीं हो पाएगा और वह केस को डाइल्यूट कर देंगे ।अच्छा होगा यदि हिंदी भाषी राज्यों में लॉ इंस्टीट्यूट नई दिल्ली अच्छी साख वाले और सधे हुए कॉलेजों में और विश्वविद्यालयों में अपनी शाखाएं खोलें ताकि वे  वैकल्पिक विवाद समाधान के डिप्लोमा और अन्य पाठ्यक्रम चला सके।

जब आप ही किसी एक नेक काम के लिए एकजुट होते हैं तो उस काम के क्या कहने,  लेकिन जब आप किसी घटिया काम के लिए चाहे कितने भी  उच्च पद पर आप विराजमान  क्यों न हो आपकी सिफारिश अथवा आपके नाम का प्रयोग भी आपकी प्रतिष्ठा को मटिया मेट कर सकता है समय बहुत बलवान होता है या अच्छे-अच्छे घाव भी भर देता है और अच्छे अच्छे घाव दे देता है। कुछ समय पहले तक माननीय सर्वोच्च न्यायालय पश्चिमी उत्तर प्रदेश  की खाप पंचायतों और पश्चिम बंगाल की इस साल इसी पंचायतों पर बरस पड़ते थे अब समय की मांग है कि वह कई स्तरों पर मध्यस्थता की पैरवी करते नजर आते हैं मेडिएशन अथवा मध्यस्थ बनने के लिए भी अपेक्षित शैक्षिक ज्ञान और अनुभव अवश्य होना चाहिए अन्यथा जो निश्चित परिणाम है वह कभी भी मिलने वाली नहीं है  और वह नासूर की तरह समाज में चुभते रहेंगे। 

जब यह बात महिलाओं पर आती है तो घरेलू हिंसा एक नए आयाम में देखनी पड़ जाती है विशेषकर उत्तर प्रदेश जैसे राज्य में जहां लड़की अपना घर बार छोड़कर दूसरे  घर जाती है तो नयी जगह है उसको यदि घरेलू हिंसा का सामना करना पड़ता है तो न तो वह अपनी बात खुलकर कह सकती है और ना गवाह जुटा सकती है और अगर  दूसरा पक्ष चलता पुर्जा हुआ तो झूठी और मनगढ़ंत काउंटर कंप्लेंट लिखा सकता है। कन्यादान   रूपी  वरदान , ससुराल के लिए ,पश्चिमी  तलहटी मे वर और उसके परिवार को , भस्मासुर बना देता है। धोखे और जुगाड से लोग शादी कर लेते है और वह चंद महीने चल नही पाती । सरकारी और गैर सरकारी आपसी झगडा कहकर पल्लू  छुडा लेते है और कयी लोग दो बिल्लियो मे बंदर की याद दिलाते है । अमूमन एसा होता नही कि विवाद वाले पक्षकार विवाद निपटा सकै । 

परिणामतः  फिर मुडकर एक दूसरे को देखते तक नही ।महिलाओं की सुरक्षा के लिए यद्यपि दोनों ही स्थितियों में चाहे वह विवाह हिंदू रीति रिवाज से हुआ हो अथवा हिंदू विवाह अधिनियम से अर्थात रजिस्ट्रेशन से कमोबेश
 बताया जाता है की शादी जन्म जन्म का बंधन है लेकिन सच बात यह नहीं,  यह भी एक अनुबंध है और समय की मांग है कि सप्तपदी भी अब पूरे राष्ट्र में मानक बनाई जाए।सर्वोच्च न्यायालय ने घरेलू हिंसा और दहेज पर प्रतिबंध के लिए कुछ नियम पास किए थे और कुछ अधिकार पुलिस को दिए थे उस में प्रमुख रूप से इन दोनों ही  मुद्दों में मिडीएशियन अथवा परामर्श केंद्र था।कोई भी प्रताड़ित महिला यदि थाने जाती है तो सीधे उसकी एफ आई आर, जब तक कि प्राथमिक साक्ष्य न दिखाई पड़े , दर्ज नहीं होती और मामला महिला परामर्श केंद्र  चला जाता है। कई तरह के इंटरवेंशंस, लोकल नेताओं के दबाव, राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग, आदि कारकों के चलते पुलिस केवल नौकरी करना चाहती है समाज  सुधारक तो वह बन भी नहीं सकती और काफी हद तक वह पानी के सांप की तरह है अगर वह डंस भी ले तो उस  से कोई मरने वाला नहीं वैसे आजकल वह सांप  डंसता भी नहीं है तब उसे डरने का तो सवाल पैदा नहीं होता है।

परामर्श केंद्र में अगर मेडिएटर प्रशिक्षित ना हुए या उनको विधि की पर्याप्त जानकारी ना होगी तो उसके परिणाम नहीं होगे। मेडिएशन दोनों पक्षों में केवल स्वेच्छा से  हो सकता है और जबरिया तो किसी भी हालत में नहीं (source : www.allahabadhighcourt.in/mediation/mediation.html)। कभी कभी लोकल नेताओं की
राजनीतिक दलों की और मंत्रियों की सिफारिश अपराधियों को बचाने के लिए पुलिस के कर्मचारियों तक पहुंचती रहती हैं,  ऐसी हालत में पुलिस को कई बार अनचाहे  आंख बंद करनी पड़ती हैं क्योंकि उनको भी नौकरी करनी है और कई राज्य तो इतने बड़े हैं कि एक छोर से दूसरे छोर का स्थानांतरण उनके निजी समस्याओं जैसे बच्चों 
क्षेत्रपाल शर्मा
क्षेत्रपाल शर्मा
की पढ़ाई आने जाने आदि के कारण समस्याएं पैदा कर देता है तो वह भी यह चाहते हैं कि कोई बीच का रास्ता निकाले। इस तरह की तरकीब से  केस डाइल्यूट हो जाता  है या ऐसे प्रस्ताव आ सकते हैं जो देखने में फायदेमंद लगते हैं लेकिन होते नहीं वरन उनमें भी अपराध को डाइल्यूट करने की क्षमता होती है जैसे कोई पुलिस कर्मचारी यदि कहें कि अगर आप केस लड़ेंगे तो उसमें जितना आपको मिलना है उसका आधा या उससे अधिक तो वकील आदि की खर्च हो जाएगा, यह भी केस को डाइल्यूट करने जैसा है,अथवा उदासीनता अथवा दुष्परिणाम भी सामने आते हैं। पर मीडिएसन मे कोई जबरन अपनी बात मनवाना चाहता है तो जिले के वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक अथवा बार काउंसिल से जैसा भी लागू हो शिकायत की जा सकती है। मेडिएशन की सभी कार्रवाई यद्यपि गोपनीय होती है और इसकी कही गई बातें न्यायालय में साक्ष्य के रूप में नहीं  मान्य होती यहां तक कि समझौता भी और बाद में भी विवाद होने पर मामला न्यायालय ही पहुंचता है। अतः यह जरूरी और समीचीन लगता है और विधि सम्मत लगता है कि जो भी कार्रवाई हो वह विधि सम्मत हो और  तथ्यों व  गुण दोष के आधार पर ही मामले को निपटाया जाए ।परन्तु यदि एफ आई आर हो जाती है तब मामले को न्यायालय पहुचना ही है।

सिविल प्रोसीजर कोड की धारा 19 आदेश 10 के नियमों के अधीन प्रत्येक न्यायालय को अब यह देखना होता है कि वैकल्पिक विवाद समाधान ( ए. डी. आर.)के निम्नलिखित किसी 5 में से एक को मामला क्या संदर्भित किया जा सकता है ,यथा -

1 आर्बिट्रेशन
2 कॉन्सिलिएशन
3 लोक अदालत
4 मीडिएशन
5 जुडिशल सेटेलमेंट

हालांकि तलाक ,घरेलू हिंसा और दहेज के मामलों में अपराध से संबंधित ऐसे मामलों में यह बात प्रमुख थी कि क्या परिवार के अन्य सदस्यों के कारण पति  पत्नी के मतभेद गहरे हो सकते हैं और क्या पति पत्नी के मतभेदों को सुलझाया जा सकता है लेकिन यह मत भेद केवल मामूली होने चाहिए लेकिन गंभीर मामलों में तो सीधे ही f.i.r. की जा सकती है ।उ.प्र   में   यूपीकोप  एप से  ई  एफाईआर   किए   जाने   की   जानकारी    दी   जा  रही   है एडीआर के भी मुख्य लाभ गरीब और वंचितों को न्याय की सहूलियत प्रधान करना अनौपचारिक जल्दी और कम खर्चीली तरीके से विवाद निपटान के  बोझ को तुच्छ मामलों में हल्का करना लेकिन अवयस्क मंदबुद्धि आपराधिक मामलों में अभियोजन से संबंधित जबरन धोखा आदि के गंभीर आरोप एडीआर के अधीन नहीं लाए जा सकते। लेकिन सामाजिक किस्म के बिगड़े हुए संबंधों में एक पहल की गुंजाइश बची रहती है।यदि   निपटारा  करने वाला   बंदर-  छाप  हो  तो   फिर  क्या  कहने?   यद्यपि मेडिएशन पूर्णतया स्वेच्छा से होता है पर  पार्टिया इस से किसी भी समय इससे बाहर आ सकती है लेकिन एक बार समझौता हो जाता है और वह न्यायालय द्वारा स्वीकार कर भी लिया जाता है तो यह न्यायालय से   लागू करने योग्य होता है। परन्तु पुलिस  द्वारा किया मीडिएसन  या समझौता एसा नही होता। इस तरह के समझौतों में पुलिस कुछ नहीं करती और बाद में भी समय गंवाने  के बाद न्यायालय   में जाना पड़ता है।यदि आप की रिपोर्ट थाने अथवा पुलिस अधिकारियों के पास जाने पर भी नहीं दर्ज की जा रही तब आप इलाके के मजिस्ट्रेट के यहां धारा,मैं मुकदमा दर्ज करा सकते हैंअगर आपको लग रहा है कि कोई पुलिस अधिकारी दबाव बना रहा है तब आप उसकी शिकायत उसके वरिष्ठ अधिकारी से भी कर सकते हैं अथवा मुख्यमंत्री विंडो पोर्टल पर दे सकते हैंप्रशासन डिजिटल और ई- गवर्नेंस के माध्यम से आपके दरवाजे तक आने के लिए कटिबद्ध है और यही कल्याण राज्य की विशेषता है कि एक सभ्य समाज में कोई कमजोर  या  शारीरिक अथवा अन्य ताकत  के दबाव मे जबरन या मनमाने तरीके से या छल बल से नहीं मनवा सकता फिर आपको प्रकृति का यह सिद्धांत अवश्य याद रखना चाहिए कि मारने वाले से बचाने वाला हमेशा ही बड़ा होता है ।

अगर आपको लगता है कि आप की छवि अकारण ही धूमिल की गई है तब आप इसकी शिकायत प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया में कर सकते हैं।यदि आपको लगता है कि किसी वकील ने आपके साथ सदाशयतापूर्वक  काम नहीं किया है और इन्हीं तथ्यों को जो उनसे व्यक्त करने को या प्रस्तुत करने को अपेक्षित थे ,लेकिन नहीं किए हैं तब आप उनकी भी शिकायत बार काउंसिल से कर सकते हैं।याद रखिए कि आप सही तथ्यों कागजों आदि के साथ साफ-सुथरे हाथों के साथ न्यायालय के समीप जाएं नहीं तो झूठी सूचना देने का आरोप आप पर आ सकता हैमध्यस्थता का काम कंपनी लॉ बोर्ड और बैंकों में ओंबुद्समैन या  बैकलोकपाल के रूप में पहले से ही विद्यमान है जिसमें न्यायिक औपचारिकता की बहुत जरूरत नहीं होती। न्यायालय से निर्देश पर जो मध्यस्थता होती है उसका समझौता न्यायालय में लागू होने योग्य होता है जबकि पुलिस का नहीं होता ।अब  तो  बेतुके  सुर  भी  सुनने  को  मिल  रहे  हैं  कि   पुरुष  आयोग    गठित किया   जाए  , यह  मांग  एस आई  एफ एफ  कर रहा  है ।
सच  बात  यह  है   कि   समाज  के  कई    तबकों   की   नज़र   महिला   ओं  को   लग  गई  या   अब   भी  लगी   हुई   है  ,इस   नज़र   को  उतारने  का समय  आ  गया   है।उनको   ट्रेकिलाजर  पिस्टल   या  एसा ही कोई   आत्म  रक्षार्थ  हथियार  दिया   जाना   चाहिए ,  अब   ज़्यादा  जरूरत  है ।
                                   



संपर्क  - क्षेत्रपाल शर्मा
 म.सं 19/117  शांतिपुरम, सासनी गेट ,आगरा रोड अलीगढ 202001
 मो  9411858774    ( kpsharma05@gmail.com )

COMMENTS

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  1. सुंदर और मर्मस्पर्शी आलेख। शर्मा जी बधाई
    *रमेशराज

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  2. शिक्षा के प्रचार प्रसार व जीवन स्तर में सुधार के बाद तो दहेज की समस्या घटने के स्थान पर कई गुना बढ़ गई है।लड़का जितना सक्षम व जितने सम्पन्न परिवार का होगा दहेज के बाजार में उसकी बोली उतनी ही ऊँची लगती है। वर पक्ष द्वारा लड़के की एक निश्चित कीमत निर्धारित की जाती है, जो कि कन्या पक्ष से स्पष्टतः मांगी जाती है।इस निश्चित धनराशि को चुकाने के बाद ही विवाह के रश्मों-रिवाज सम्पन्न होते हैं। वधू पक्ष द्वारा इस वर-मूल्य को एकमुश्त न चुका पाने की स्तिथि में कुछ लोग समाज के सामने अपना असली चेहरा छुपाने के लिये वधू को विदा तो करा लें जाते हैं मगर वधू की इतनी दुर्दशा करते हैं कि ताने,उलाहने, मारपीट,शारीरिक मानसिक शोषण से भी जब मन नही भरता तो उसे आग के हवाले करने से भी नही झिझकते ये दहेजलोलुप.......!

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सप्तपदी और भारत का सामाजिक जीवन
सप्तपदी और भारत का सामाजिक जीवन महेश दत्तानी ने बीसवीं सदी में एक रेडियो प्ले लिखा था जिसका नाम सप्तपदी जान सकते हैं और इसमें समाज के पाखंड पर चोट की गई थी और प्ले एक हत्या , जो कि समाज के बहिष्कृत वर्ग हिजड़े से महिला थी, की हुई थी। जैसा कि आज है उस रेडियो प्ले मैं भी पुलिस किस तरह सबूत जुटाती है उसकी एक पोल भी खोली गई है।
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