मैंने मान-मर्यादा, अध्यापकीय पद की गरिमा, पद, प्रतिष्ठा आदि सब कुछ भुलाकर उसे उसके पूरे वज़ूद में पूरी तरह से पा लिया। यह सब कुछ हो जाने के बाद मै फिर कभी उस पार्क में टहलने नहीं गया।
लालची
वो पहली बार से ही मुझे प्यारी और सुन्दर दिखी। जब वो दूसरे बच्चों के साथ अटखेलियाँ करती और झूला झूलती, तब वह मुझे और भी आकर्षक लगती। छरहरा आकर्षक शरीर, अर्द्धविकसित स्तन, बड़ी-बड़ी काली आँखे, पतले-पतले होंठ, हिप्पीकट बाल और सबसे अधिक घायल करने वाला उसकी ठुड्डी पर मस्सेनुमा बड़ा सा तिल। उस तिल ने उसकी सुन्दरता को कई गुना बढ़ा दिया था। वही मेरे आकर्षण का केंद्र भी बना। क्योंकि पार्क से लौटने पर, वही बार-बार मुझे याद आता था। उसी ने मुझे पतंग को डोर की भाँती उसकी ओर खींचा।
कमरे पर लौटने पर उसके चेहरे की मासूमियत मुझे हर समय मोहे रहती। और कोई भी काम करते समय उसकी याद आती रहती। सुन्दरता का शायद ही कोई ऐसा गुण हो, जिसे उसमे न खोजा जा सकता हो। वो महाकवि बिहारी की मुग्धा नायिका से किसी प्रकार भी कमतर न थी।
आप कहेंगे, ‘लो भई, मै श्रृंगारिकता पर उतर आया। विश्वास कीजिए साहब, सुन्दर चीज सबको सुन्दर लगती है। मै कौन सा ब्रह्मचारी हूँ, जो खूबसूरत को खूबसूरत न कहूँ।’
वो तेरह-चौदह साल की किशोरी थी। लेकिन हष्ट-पुष्ट शरीर के कारण कुछ-कुछ जवान दिखती थी। उसके विशिष्ठ अंगों में ज़वानी के अधिकांश लक्षण दिखने लगे थे। लेकिन उसके शरीर को देखकर कभी-कभी ऐसा भी लगता जैसे किशोरावस्था और युवावस्था में द्वंद्व छिड़ा हुआ है। कभी किशोरावस्था का पलड़ा भारी हो जाता है, तो कभी युवावस्था का।
उसके ठीक विपरीत, मै पैंतीस साल का प्रौढ़ होने पर भी बाईस-तेईस साल का युवा लगता था। क्लीन सेव, नियमित योगासन, पोष्टिक खानपान आदि के कारण। दूसरे, मेरी कद-काठी थी ही इस प्रारूप की कि उसने मेरी उम्र को काफी हद तक छिपा लिया था।
जब मेरा मन उसे पाने को मचल उठा तो, मैंने योजनाएं बना-बनाकर उससे बतियाना आरम्भ किया। उसके समीप जाने का मुझे यही उचित और सबसे उपयुक्त उपाय लगा था। मेरा मानना था कि यदि अपनी और किसी लड़की के बीच की दूरियाँ कम करनी हो तो उससे बतियाना आरम्भ करो। और हमेश उसकी तारीफ़ें करो। इसलिए मेरी बातों में सदा ही उसकी बढ़ी-चढ़ी और कुछ झूठी तारीफ़ें हुआ करती। जिन्हें सुनकर वह कभी मुस्कराती तो कभी मचलती। कभी रोमांचित होती तो कभी पुलकित। जैसा कि मै कह चूका हूँ कि लड़कियों को अपनी तारीफ़ें सुनना अधिक पसंद होता है। यह सिद्धांत उस पर पूर्णत: लागू हो गया। क्योंकि उसे अपनी तारीफ़े सुनना बहुत पसंद था। चाहे वे सच्ची हों या फिर झूठी।
उसके चंचल नेत्रों को पहली ही दृष्टि में देखकर मै भाँप गया था, ‘वो मुझसे अधिक दिन बच नहीं पाएगी। मैंने उसमे एक तृष्णा देखी थी। एक मर्द को दोस्त के रूप में अपनाने हेतु वह लालायित भी दिखी। क्योंकि दो-तीन दिन उससे मिलने के बाद मुझे ऐसा लगा कि उस लड़की को माँ-बाप का प्यार सही से नहीं मिला या मिल रहा है। इसलिए वह एक बड़ी उम्र वाले इन्सान में बाप और प्रेमी दोनों का प्यार एक साथ पाना चाहती है। और फिर मेरा यह भी मानना था कि उस उम्र की लड़कियां शीघ्र ही बहल-फुसल जाया करती हैं।
किराए पर कमरा लेकर रहने वाला, मै उस शहर में अज़नबी था। गाँव छोड़ने के मेरे दो कारण थे- डिग्री कॉलेज में ट्यूटर की अस्थायी नौकरी और उसके साथ ही मेरा रिसर्च वर्क। काफी व्यस्त रहने और रिज़र्वड प्रवृत्ति का होने के कारण मैंने उस शहर में लोगों से अधिक मेल-जोल नहीं बढ़ाया था। इसलिए कॉलेज से वापस कमरे पर आने के बाद न कोई मुझसे मिलने आता था और न मै किसी से मिलने जाता था। केवल टाइम पास करने और घर-घुसरे से बचने के लिए मैंने उस पार्क में जाना आरम्भ किया था।
जब मैंने, जवानी की दहलीज़ पर आरंभिक कदम रखने वाली उस लड़की से बतियाना आरम्भ किया तो वह मुझसे तुरंत नि:संकोच हो गयी या कहूँ खुल गयी। तब मुझे ऐसा लगा जैसे वो मुझे पहले से जानती है। लेकिन वास्तव में ऐसा था नहीं। कई बार मुझे ऐसा भी लगता जैसे वो मुझमे किसी और का अक्ष तलाश करने की कोशिश करती हो।
उसमे अल्हड़पन तो था पर बालिग लड़कियों जैसी हिचकिचाहट बिलकुल नहीं थी। जब मै बातूनी होकर उससे बतियाने लगा, तो वो मुझे दूसरी लड़कियों से कुछ अलग दिखी। शक्ल-सूरत में ही नहीं, रूची, व्यवहार, आदत आदि में भी। उसने अपने विषय में सब कुछ इतनी जल्दी और सहजता से बता दिया कि मुझे विश्वास न हुआ। नाम- शिवानी, कक्षा-8, एस.के. हैप्पी पब्लिक स्कूल, मम्मी-पापा गवर्नमेंट जॉब पर, घर पार्क से कुछ ही दूर लगभग दस कदम की दूरी पर, घर में अधिक समय तक अकेले रहना आदि-आदि।
केवल एक सप्ताह उससे बातचीत करने पर, मै लालची भेड़िया उसे ‘फ्रेंडशिप’ तक ले आया। जिसे उसने सहजता से स्वीकार कर लिया। बस फिर क्या था, शुरू हो गयी वही काल्पनिक फिल्मों वाली ‘लव स्टोरी’। और मैंने देखने शुरू कर दिए मुंगेरी लाल के हसीन सपने- उसे उसके सम्पूर्ण अस्तित्व में पाने के। मैंने उसके विषय में वह भी सपना देखा जो वास्तविक जीवन में कभी भी पूरा नहीं हो सकता था।
तभी कुछ आशा के बिलकुल विपरीत घटित हुआ। लव ट्रेक पर मेरी गाड़ी काफी तेजी से दौड़ी थी। लेकिन अचानक उसके एक टायर में भस्ट हो गया। ‘आई लव यू’ पर आते ही मेरी प्रेम गाड़ी का एक पहियाँ तो टूट ही गया। मेरे मुख से ये शब्द सुनते ही उसने मुझे कठोर शब्दों में सुना दिया, ‘विश्वास जी, दोस्ती तक तो ठीक था। उससे आगे कुछ नहीं। मै ऐसी लड़की नहीं हूँ। आपके बारे में मैंने ऐसा तो नहीं सोचा था। आप जो चाहते हैं, वो नहीं हो सकता। किसी को पता चल गया तो मै बदनाम हो जाऊँगी।’
तभी विश्वास ने विश्वश्वासघात वाली कई चालें चली और पैंतरे बदले। उसको कई बार समझाने का प्रयत्न किया, ‘देखो, कुछ नहीं होगा, किसी को कुछ पता नहीं चलेगा। तुम किसी को कुछ नहीं बताओगी और मै भी नहीं बताऊंगा। हम दोनों समझदार हैं। फिर कैसे किसी को पता चलेगा?’
लेकिन उसने मेरी एक न सुनी और मुँह बिचकाकर गुस्से में चल दी। एक झिड़की के साथ उसने मेरे सारे प्रस्ताव अस्वीकार कर दिए। मेरे सैंकड़ों मधुर सपने पाँच मिनट में चूर-चूर हो गए। उसके अस्वीकारे जाने पर मुझे गहरा धक्का लगा और क्रोध भी बहुत आया। मै उसी क्षण शैतानियत पर उतर आता और उसे नोच लेता यदि पार्क में दूसरे बच्चे न खेल रहे होते। और बैंच पर बैठे हम दोनों को ताक न रहे होते। इसी बीच एक बच्चे ने तो चुटकी लेकर कहा भी था, ‘अंकल क्या हुआ? रूठ गयी क्या?’
ठुकराए जाने के बाद मैंने उस पार्क में न जाने की कसम खा ली और पूरे एक महीने तक पार्क में टहलने नहीं गया। लेकिन उस एक महीने में जो कुछ घटित हुआ, उसे संयोग कहा जाए, आकस्मिक घटना या फिर मेरा भाग्य। जिसके कारण मैंने अपनी कसम तोड़ डाली। और वह सब कर डाला जो मुझे नहीं करना चाहिए था।
जैसा कि मै पहले बता चुका हूँ, ‘मै पी-एच.डी. में एनरोल्ड था। मेरे गाइड ने मुझे आज्ञा दे रखी थी कि मै जितना रिसर्च वर्क करूँ, उसे साथ-साथ टाइप करता या कराता रहूँ। उस छोटे शहर में मुझे एक ऐसा टाइपिस्ट आसानी से मिल गया था, जो मेरी थीसिस से लेकर शोध-पत्र, लेख, नोट्स, कहानी आदि सब कुछ टाइप करता रहे। वह दिन भर प्रिंटिंग कार्य में लगा रहता और सुबह-शाम मेरा कार्य पार्ट टाइम समझकर करता। पिछले दो वर्षों से कार्य कराने के कारण उससे सम्बन्ध मधुर हो जाना स्वाभाविक था’।
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शिवानी द्वारा घुड़क दिए जाने पर मै एक सप्ताह निठल्ला बना रहा। फिर एक दिन मै टाइप की जा रही थीसिस की त्रुटियां ठीक कराने और नया प्रूफ रीडिंग मैटर लेने टाइपिस्ट के पास पहुँचा तो उसने आग्रहपूर्वक कहा, ‘ददा, मै पन्द्रह दिन तक आपका काम नहीं कर पाऊँगा। मैंने तीन प्राइवेट पब्लिक स्कूलों के अर्द्धवार्षिक परीक्षा के प्रश्न-पत्र टाइप व प्रिंट करने का ठेका ले लिया है।’
मुझे अपने काम की न कोई जल्दी थी और न उतावलापन। अत: मै सहमत हो गया। इसलिए अब मै निठल्ला बना पार्क के स्थान पर शाम को बाज़ार में घूमने लगा।
लगभग बीस दिन बाद मै, टाइपिस्ट के पास गया तो उसने मुझे प्रूफ रीडिंग के लिए थीसिस का एक अध्याय दे दिया। जिसे मै कमरे पर ले आया। वो अक्सर मेरे शोध-पत्र, थीसिस या लेख आदि रफ पेजों पर निकालता। जिन्हें मै प्रूफ रीडिंग के लिए कमरे पर ले आता और बाद में भाषा सम्बन्धी त्रुटियों का निवारण करके फेयर पेज पर निकलवा लेता। उसका और मेरा आरम्भ से यही सिलसिला चला आ रहा था।
कमरे में बैठा मै प्रूफ रीडिंग करते हुए जब एक दिन टाइपिस्ट की गलतियाँ पकड़ रहा था तो एकाएक पेज के पीछे टाइप किए किसी मैटर पर मेरी नज़र ठहर गयी। ध्यान से पढ़ने पर ज्ञात हुआ मेरी थीसिस के अध्याय के पीछे किसी स्कूल के प्रश्न-पत्र थे। दस-पन्द्रह पेज उलटने-पलटने पर विद्यालय का नाम ज्ञात हुआ- एस.के.हैप्पी पब्लिक स्कूल। उन पर उस वर्ष के नाम (सन्) सहित अर्द्धवार्षिक परीक्षा भी लिखा था। शायद वे पेज लाल पेन से त्रुटियाँ ठीक होकर स्कूल से आए हुए थे और उन्ही के पीछे टाइपिस्ट ने मेरी थीसिस का अध्याय रफ़ प्रिंट कर दिया था। पेज बचाने के चक्कर में उसने ऐसा जानबूझकर किया था या उससे अनजाने में ऐसा हो गया था, मै विश्वासपूर्वक नहीं कह सकता।
यह मुझे ज्ञात था कि शिवानी एस.के.हैप्पी पब्लिक स्कूल की कक्षा आठ की छात्रा है। अत: प्रश्न-पत्र देखते ही उसका पूरा अक्ष, पूरे वज़ूद के साथ उन कागज़ों पर मेरे सामने उतर आया। मुझे तुरन्त लगा जैसे शिवानी से बदला लेने का अस्त्र मिल गया हो। वे प्रश्न-पत्र त्रुटि युक्त थे लेकिन मुझे सिद्धि मन्त्र के समान लगे।
मै चोट खाया साँप था। अत: कोई भी अवसर हाथ से जाने नहीं देना चाहता था। मुझ लालची भेड़िये को अब शिवानी के विषय में हर तरह के सपने देखने का अधिकार मिल गया था। वैसे भी सपने देखना बुरी बात तो है नहीं। प्रत्येक को अधिकार है, वो किसी के भी विषय में अच्छी या बुरी, श्लील या अश्लील कल्पना करे। कैसे भी सपने देखे।
मै तुरन्त टाइपिस्ट के पास गया और बिना किसी लाग-लपेट की बात के सीधे तौर पर उससे एस.के.हैप्पी पब्लिक स्कूल के कक्षा 8 के सभी विषयों के प्रश्न-पत्र देने की प्रार्थना करने लगा। लेकिन उसने शीघ्रता से ‘नहीं-नहीं भई’ बोलकर कहा, ‘अभी-अभी प्रिंसिपल का फोन आया था, सुबह पेपर लेने स्कूल का कोई अध्यापक आएगा।’
वह इतनी स्पष्टता से इंकार कर देगा मुझे इसका अनुमान नहीं था। क्योंकि दो वर्षों की जान-पहचान के कारण शायद मै उससे कुछ ज़्यादा ही आशान्वित हो गया था।
आग्रह, विनम्रता और याचना करने पर भी जब वह नहीं माना तो मेरे इस तर्क पर तनिक ढीला हुआ, ‘यार हाफ-यर्ली एग्जाम के ही तो पेपर हैं, कोई आई.ए.एस. के तो पेपर नहीं। जो सेवा पानी चाहिए ले ले।’
बड़ी कठिनाई से तीन सौ रूपये प्रत्येक पेपर के हिसाब से वह इस शर्त पर सहमत हुआ कि यदि बात लीक हुई तो उसका नाम नहीं खुलना चाहिए। अन्यथा परिणाम अच्छा नहीं होगा। मैंने बिना सोचे-समझे उसकी शर्त स्वीकार की और पेपर लेकर कमरे पर लौट आया।
अगले दिन शाम को पार्क में टहलने गया तो शिवानी को वहाँ पहले से ही मौजूद पाया। अपने चिर-परिचित अंदाज़ में वह पूर्व की भाँती कुछ छोटे बच्चों के साथ अटखेलियाँ कर रही थी। और कभी-कभी खिलखिलाकर जोर से हँसती भी थी। उसका इस प्रकार का अटहास मुझे अपने ऊपर किए जाने वाले कटाक्ष के समान लगा।
उसने मुझे दो बार देखा लेकिन अनदेखा कर दिया। शायद वो नाराज़ थी। एक बार तो उसने मुँह ऐसे घुमाया, जैसे मुझे घुड़कते हुए ‘हूँ’ कहकर मुँह फेरा हो। उसका इस प्रकार का व्यवहार मुझे तुरन्त चुभा। लेकिन मै कर भी क्या सकता था? बस उससे बातचीत करने का अनुकूल अवसर खोजने लगा और जैसे ही वो मुझे मिला, मैंने परीक्षा के विषय में बातचीत करते हुए उसे दो विषयों के प्रश्न-पत्र दिखा दिए। साथ ही यह भी बता दिया कि अन्य सभी विषयों के प्रश्न-पत्र मेरे कमरे पर रखे हुए हैं। विश्वास न हो तो मेरे कमरे पर चलकर देख लो। मैंने उसे अपनी सबसे प्रिय वस्तु की कसम खाकर विश्वास दिलाया तो वह मान गयी। बस फिर क्या था? वह गुलाब के समान चहक उठी। और उसने तुरन्त मुझसे ऐसे बतियाना आरम्भ किया जैसे हम दोनों के बीच कुछ हुआ ही नहीं था। जब सब कुछ ठीक हो गया तो हम दोनों कुछ ही क्षण बाद पार्क की उसी बैंच पर पहुँच गए जहाँ अक्सर बैठकर बातें किया करते थे।
अभी शायद उस पर बचपना हावी था जो उसे सही-गलत का निर्णय करने से रोके हुए था। इसका मैंने पूरा फ़ायदा उठाया। जब वह प्रश्न-पत्रों के विषय में पूछने लगी कि मेरे पास कहाँ से आए तो मैंने आधी हक़ीकत को फ़साना बनाकर सुना दिया। उसे मेरी सभी बातों का अतिशीघ्र पूर्ण विश्वास हो गया। इसके बाद मैंने चाहे किसी भी बिन्दु पर बात आरम्भ की वह घुमा-फिराकर प्रश्न-पत्रों पर ही ले आती।
जब मै ऐसी स्थिति में पहुँच गया कि अब उसे नि:संकोच होकर कुछ भी कह सकता हूँ तो मैंने प्रश्न-पत्रों के बदले सम्बन्ध बनाने की शर्त रख डाली। उसने शरारती नज़रों से मेरी ओर देखा और थोड़ा मुस्कराते हुए अपनी सहर्ष स्वीकृति दे दी। मेरा तो एकमात्र यही तो उद्देश्य था। जिसके लिए मुझे इतना कुछ करना पड़ा। इसलिए मैंने मान-मर्यादा, अध्यापकीय पद की गरिमा, पद, प्रतिष्ठा आदि सब कुछ भुलाकर उसे उसके पूरे वज़ूद में पूरी तरह से पा लिया। यह सब कुछ हो जाने के बाद मै फिर कभी उस पार्क में टहलने नहीं गया। बाद में मुझे एहसास हुआ, हम दोनों में ज्यादा बड़ा लालची कौन था? वो या मै अथवा पता नहीं। लेकिन इसका मुझे विश्वास है, वो लालची थी, जो प्रश्न-पत्रों की खातिर उसने अपने सम्पूर्ण अस्तित्व को मुझे सौंप दिया था।
-मो. इसरार
ये जो कहानी है न "लालची", उससे ज्यादा बकवास कुछ हो ही नही सकता। ऐसा लगा फुटपाथ से कोई नोवेल लेकर पढ़ा मैंने
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