निष्पक्ष हवा बेरंग हुए हैं पतझड़ में पर्वत के शिखर पर निष्ठुर से कोई अली न कोई आली ओढ़ ली जग-जीवन ने हिम की चादर तन-मन पर, सूर्य ने तेवर दिखलाये जब हवा बिगो दिये झाड़-जंगल भी झरनों के झरने से नदियों को गति मिली, बगियाँ, पर्वत, खेत-खलिहान बंजर धरा और बंजर मन पर जब चेतन हो अनुष्ठान आयी बहार वसंत आने वाला हैं.
निष्पक्ष हवा
बेरंग हुए हैं पतझड़ में
पर्वत के शिखर पर निष्ठुर से
कोई अली न कोई आली
ओढ़ ली जग-जीवन ने
हिम की चादर तन-मन पर,
सूर्य ने तेवर दिखलाये जब
बिगो दिये झाड़-जंगल भी
झरनों के झरने से
नदियों को गति मिली,
बगियाँ, पर्वत, खेत-खलिहान
बंजर धरा और बंजर मन पर
जब चेतन हो अनुष्ठान
आयी बहार
वसंत आने वाला हैं.
निष्पक्ष हवा के संग
कोयल की कूक और कलियों का रंग
भँवरे का गुंजन, भीनी सुगंध
सरसों के पीले फूलों पर
जब मध्यम हो तापमान
आयी बहार
वसंत आने वाला हैं.
लहलहाती हरियाली में
कोई गुलाब चमेली से
प्रणय-प्रसंग के झरने में
जब हुए आत्मसात,
अमृत के प्यारे कतरों से
शुष्क दिल की प्यास बुझे
तब जीवन का हुआ बखान
आयी बहार
वसंत आने वाला है.
बर्फ के सारे भ्रम
गिर जाते है आँधियों से
विशाल चिनार के पत्ते भी
कभी कभी
टूट जाती है शाखें
बिखर जाते है आशियाने
परिंदों के...
डर मत, पतझड़ है.
खिल जाती है नई भौर
फूट जाती है कोपलें
फूट जाता है सच्चा झूठ
पिगल जाते है बर्फ के सारे भ्रम
जब होता है प्रकाश
जब बढ़ता है तापमान
उग आती है हरयाली चारों ओर
रंग जाती है धरा
कई छोटे-बड़े हिस्सों में
एक हिस्से में, कवि ने देखा लाल
दुसरे ने देखा हरा
तीसरा दब चुका है
बर्फ तले अभी भी...
उसके हिस्से में बहार आनी बाकी है.
मेरे साथ वायु है
सामने कई छोटे-बड़े पर्वत
कई स्वच्छ- निश्छल
कहीं हरे-भरे वस्त्र निर्मल
पीछे एक विशाल हिम चट्टान
एक आगम्य - असीम आह्लाद
कानों से टकरा रहा,
ठीक आगे फूलोंवाली गुमसुम थी
मुझे देखते ही कराह उठी
शायाद उसे मैं रमा नहीं.
हिमाच्छादित हिमावृत
डरा रहे प्रतिबिम्ब भी
आँखों पर करते रहे प्रहार
क्रोधित थी वह
सुखद लगा स्पर्श उसका
मिटा जा रहा आकार
मेरे अस्तित्व से.
विपरीत था सम्पूर्ण परिवेश
क्योंकि मेरे होने से हो रहा था
मेरे होने का विद्रोह,
कर्म जो कर रहा है मर्म से
करता चल
नफरतों की खाइयों को भर रहा है
भरता चल
मेरे साथ वायु है
और सम्पूर्ण आकाश.
मानवता का पेट
मुझमें उगते है
कांटेदार पौधे
कई टहनियों वाले
जब दिखता है
बसंत में फूलों का
एक- एक कर
पीला होना
सूख जाना।
मुझमें पलते है
खंडहर भरे ख्वाब
जब देखता हूँ
आकाश में भर गए
बारूदी बादल
हो हाती है गरज- चमक
भीग जाता है
धरा का हर कोना
लाल वर्षा से।
मुझमें आ जाते है
अनगिनत भूत-प्रेत
जब गायब हो जाते है
मासूम बच्चों के पिता
जब विधवा हो जाती है
नई नवेली दुल्हन,
जब अकेली हो जाती है
एक अकेले बेटे की माँ।
मुझमें खो जाता है
ईश्वर भी
जब होता है धर्म का व्यापार
बिकती जब धर्म की रोटी
सूख जाता है
मानवता का पेट।
बीत गया है पूरा साल
कब तक करे अब हम मलाल
बीत गया है पूरा साल,
फिर शहर में न हो बवाल
बीत गया है पूरा साल.
क्यों किये थे वादे हमसे
जो पूरा न कर सके,
क्यों पूछे थे इरादे हमसे
जो हिम्मत न कर सके.
विकास के घोड़ों पर बैठे
अंधभक्तों का हुआ ज़वाल
कब तक करे अब हम मलाल
बीत गया है पूरा साल.
नोटबंदी से अब तक कितनी
हमने जाने खोई है
काले धन की सरकार में
बूढी माँ भी रोई है.
सत्ता के यारों से कब तक
पूछोगे तुम यही सवाल
कब तक करे अब हम मलाल
बीत गया है पूरा साल
घाटी की गलियों में देखो
बिकती अब भी दहशत है,
कभी कर्फ्यू और हडतालों में
नाचती अब भी वेहश्यत है.
जिन आँखों ने सच को देखा
उन बच्चों की आँखें निकाल
कब तक करे अब हम मलाल
बीत गया है पूरा साल.
-डॉ. मुदस्सिर अहमद भट्ट
प्रवक्ता, सरकारी महिला महाविद्यालय श्रीनगर
ईमेल mudasirhindi@gmail.com
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