सत्रह आखर - व्हाट्स एप ग्रुप के हाइकु हाइकु हिंदी साहित्य की नवीनतम विधा है जो कि जापान से आयातित है , यह अपने विशिष्ट रचना के कारण ख्यातिलब्ध हो गयी | तीन पंक्तियों में पाँच , सात , पाँच यानि कुल सत्रह अक्षरों की इस लघु कविता का रसास्वादन पढ़ने के दौरान होता है |
सत्रह आखर - व्हाट्स एप ग्रुप के हाइकु
हाइकु हिंदी साहित्य की नवीनतम विधा है जो कि जापान से आयातित है , यह अपने विशिष्ट रचना के कारण ख्यातिलब्ध हो गयी | तीन पंक्तियों में पाँच , सात , पाँच यानि कुल सत्रह अक्षरों की इस लघु कविता का रसास्वादन पढ़ने के दौरान होता है | यह किसी क्षण विशेष की अनुभूत हुए दृश्यों का शब्दांकन है जिसमें हाइकुकार के विचारों का भी समावेश होता है ; प्रारंभ में इसका विषय प्रकृति और आध्यात्म हुआ करते थे लेकिन बदलते दौर के साथ इसने मानवीय सरोकारों के भी विषय को आत्मसात कर लिया ; हाइकु ने सदा से ही हास्य ब्यंग्य से अपनी दूरी बनाकर रखी है |
सत्रह आखर |
इसके कठिन सेलगने वाले अक्षर विन्यास के कारण कई महान साहित्यकार इससे परहेज करते हैं और इसे अपनी पत्र – पत्रिकाओं में स्थान देने से साफ मना करने लगते हैं | इन मासूमों को शायद ये नहीं पता कि साहित्य अपनी जगह खुद ही बना ही लेता है और हिंदी तो सभी विधाओं को पर्याप्त तरजीह देना जानती है फलतः सोशल मीडिया में हाइकु ने अपना घर बसा लिया जहाँ सभी हाइकुकार अपनी अनुभूतियों को शब्द देने लगे | इन दिनों भांति – भांति के व्हाट्स एप ग्रुप , फेस बुक , ब्लॉग एवं वेब साइट्स पर इसकी गतिविधियाँ संचालित हैं जिसमें कोई साप्ताहिक तो कोई मासिक लेखन स्पर्धाओं का आयोजन कर रहे हैं | कुछ विषय आधारित लेखन को प्रोत्साहित करते हैं तो कोई खुली स्पर्धा में विश्वास करते हैं ; इस कर्म में पुराने हाइकुकार भी पीछे नहीं हैं अलबत्ता हाइकु की लघु पत्रिकाओं ने दम तोड़ दिया है और ई पत्रिकाओं का एक नया दौर आरम्भ हो गया है | ये हिंदी साहित्य के एकनए दौर का आगाज़ है जिसकी दिशा क्या होगी कोई नहीं जानता क्योंकि इन दिनों कोई भी ,कहीं भी ,कैसे भी सम्पादकीय चोला ओढ़े प्रकट हो जाता है और सहयोग आधारित अधकचरा साहित्य परोसने लगता है इससे हिंदी की अच्छी रचनाएं हाशिए पर जा रही हैं |
सत्रह आखर -
इस कर्म में एक नाम व्हाट्स एप ग्रुप में इज्जत से लिया जाता है वह है – सत्रह आखर का जिसमें मासिक हाइकु का सतत खुला लेखन होता है और इसका संपादन डॉ. सुरेन्द्र वर्मा द्वारा किया जाता है जिसमे सर्वश्रेष्ठ हाइकु का प्रकाशन उनके ब्लॉग में किया जाता है | इस लेखन ग्रुप की विशेषता है कि इसने कभी भी विषय आधारित या समय आधारित कोई बंधन लेखन को स्वीकार नहीं किया क्योंकि इनका मानना है की लेखन तो अनायास ही होता है ; जब आप विषय और समय का बंधन देते हैं तब यह सायास हो जाता है और इससे हाइकु की सुन्दरता बिगड़ जाती है |
इस समीक्षा में मैंने पहली बार [ शायद ] किसी साहित्यिक ग्रुप की समीक्षा करने की कोशिश की है ; मैं अपने आप को रोक नहीं पा रहा हूँ क्योंकि इसकी महत्ता को लोगों तक पहुंचाना आवश्यक है | जो लोग ये सोचते हैं की हाइकु में कुछ अच्छा नहीं लिखा जा सकता उन्हें यह लेख आइना दिखाएगा | यह लेख इस ग्रुप में प्रकाशित २०१८ -१९ में प्रकाशित अलग – अलग लेखकों की हाइकु पर आधारित हैं जिसे मैं विषयवार आपके सामने प्रस्तुत कर रहा हूँ क्योंकि समीक्षा की यही रीत है -
आइये इन हाइकु की सुन्दरता को आत्मसात करें जिसने ख़्वाबों में जीना सिखाया है और जानें कि नींद के साथ इसकी क्या संधि है ; समझें रात , नींद , ख्वाब की ये सुन्दर पंक्तियाँ -
होते ही रात / चली ख़्वाबों के देश / नींद की नाव // [राजेश गोयल]
तपती रेत / नंगें पाँव दौड़ते /स्वप्न अबोध // [पुष्पा सिंघी ]
आँखों में ख्वाब / लाया था मैं गाँव से / शहर खाया // [ अमन चांदपुरी ]
ख्वाब बांटती / नींद की गलियों में / बावरी रात // [ कमल कपूर ]
आँखों ने बोये / जब नींद के बीज / उगे सपने // [ राजीव गोयल ]
चाबी ना ताले / सपनों के महल / बड़े निराले // [ बलजीत ]
वैश्विक ग्राम की अवधारणा -
वक्त की कठपुतली इंसान ने हालात के हिसाब से अपनी इंसानियत को जबसे परिभाषित करना शुरु किया है तब ये अनुभूत क्षणों के हाइकु प्रकट हुए हुए हैं ; वैश्विक ग्राम की अवधारणा ने आज इन्सान को भी हाइकु सी छोटी कोठरी में समेट दिया है | यहाँ वह सोचता है कि मेरे पर पूरी दुनिया को नाप सकते है लेकिन वह अपने पड़ोस को नहीं पहचान पाता -
कटे जंगल / बढ़ा जंगलीपन / खोया इंसान // [सुरंगमा यादव ]
बड़े शहर / छोटा होता जा रहा / इंसानी कद // [ राजीव गोयल ]
दंगे -फसाद / किराए के बाराती / खूब ही नाचे //[ पुष्पा सिंघी ]
कैसा दुर्योग / नाम पे आज़ादी के / भटके लोग // [ सूर्य नारायण गुप्त ]
रोज़ सुबह / अखबार से आए / खूनी बौछार // [ राजीव गोयल ]
बहरा हुआ / चिल्ल पों शहर में / रोज तमाशा // [ रमेश कुमार सोनी ]
मेघ की जरूरत सदियों से इंसानी सभ्यता को रही है क्योंकि हमारी कृषि आधारित आर्थिक ब्यवस्था का यह एकमात्र ठेकेदार रहा है जिसकी आँखमिचौली के प्रायः हम शिकार होते रहे हैं इसीसे अनुभूत ये हाइकु देखिये -
लौटे बादल / करके तांका – झांकी / बिन बरसे // [ सुरंगमा यादव ]
मांग में भरा / सांवली बादल ने / इन्द्रधनुष // [ राजीव गोयल ]
मेघ डोली में / बारिश दुल्हनिया / हवा कहार // [ राजीव गोयल ]
मेघ चिरौरी / भरो राम तलैया / प्यासी चिरैया // [ सुरंगमा यादव ]
हाइकु की आत्मा आध्यात्म को माना जाता है और आत्मा अमर होती है , उस अविनाशी शक्तियों के अधीन हमारी झोली सदैव फैलते रही है ; यद्यपि वह अदृशय है लेकिन यहाँ हाइकु बनकर आपके समक्ष प्रकट हैं -
नीरव वन / धुन मुरलिया की / हर्षाया मन // [ शिव डोयले ]
मिटी ना प्यास / हो गयी है जिन्दगी / खाली गिलास // [सूर्यनारायण गुप्त ]
कान्हा है भोला / कोई भी बहका ले / डरे राधिका // [ राजीव गोयल ]
माया का मोह / गुड़ में लगा चींटा / जीवन बीता // [ सुशील शर्मा ]
चार दिन की जिंदगी में शिकवा – शिकायतों के अलावा अंत में कुछ बचता ही कहाँ है ? इसी जिंदगी को इन हाइकु ने अपने लफ्जों में समेट कर सुन्दर दृश्य उत्पन्न किया है -
सफ़ेद पुष्प / नागफनी पौधे पे / बैठी विधवा // [ विष्णु प्रिय पाठक ]
भोर से आस / सांझ से शिकायत / यही जिंदगी // [ नरेंद्र श्रीवास्तव ]
मृत्यु खिलाड़ी / लपकने को खड़ी / जीवन गेंद // [ सुरंगमा यादव ]
कभी ना पटी / प्रीत ,नींद सौतन / भूखे ही सोये //[रमेश कुमार सोनी ]
जीवन क्या है / उड़ी , चढ़ी ,लो कटी / गिरी पतंग // [ सुरंगमा यादव ]
जिंदगी में भोर भी होती है और शाम भी लेकिन ब्यक्ति को सदा दिन की ही चाहत होती है और सोचते रहता है कि उसकी वो सुबह कब आएगी जबकि उसका पूरा परिवार शाम के धुंधलके में उनके आने की राह ताकते रहता है कुछ ऐसा ही बयाँ करती इन पंक्तियों पर गौर कीजिए -
उड़ा ले गयी / दिन के आभूषण / चोरनी शाम // [ अभिषेक जैन ]
भोर का फेरा / उजाला नहीं रुका / रोज का डेरा // [ रमेश कुमार सोनी ]
नभ के गाल / उषा करे ठिठोली / मले गुलाल // [सुरंगमा यादव ]
सांझ पुकारे / सूर्य शर्म से लाल / चाँद जो झाँके // [ रमेश कुमार सोनी ]
ओढ़ रजाई / मीठे सपने देखे / निशा बावरी // [ शिव डोयले ]
पी रही रात / चाँद के सकोरे से / चाँदनी जाम // [ राजीव गोयल ]
श्रम की महानता सदैव से ही इंसानों ने पायी है , क्योंकि हमारा सिर्फ कर्म पर ही अधिकार होता है फल पर नहीं | श्रम के स्वाद चखने का हुनर श्रमिक जानते हैं तो उसे बयाँ करने की ताकत इन हाइकु में है -
चख रही हूँ / थकान के दौर में / श्रम का स्वाद // [ प्रियंका वाजपेयी ]
स्वेद की स्याही / श्रम का महाकाब्य / रचे किसान // [ सुरंगमा यादव ]
राख में उगे / आशा के दूब हरे / श्रम का भाग्य // [रमेश कुमार सोनी ]
मिट्टी का दिया / कुम्हारिन का दर्द / किसने जिया // [ सुशील शर्मा ]
उत्सव का भारतीय संस्कृति में विशेष महत्व है यह हमारी खुशियों का प्रकटीकरण होता है इन्हीं उत्सवों की खुशबु लिए ये हाइकु आपको पुकार उठे हैं -
पलाश फूल / धरा पर बिखरा / होली का रंग // [ विष्णु प्रिय पाठक ]
उत्सव बेला / फूलों से सजी खड़ी / बसंत सेना // [ रमेश कुमार सोनी ]
फागुनी फाग / झुर्रीदार गाल पे / खिला गुलाल // [ विष्णु प्रिय पाठक ]
मनुष्य का प्रकृति से अटूट नाता रहा है इसलिए विविध हाइकुकारों ने भी इसके अच्छे – बुरे दौर को अपने लेखनी से जीवंत रूप प्रदान किया है | इसमें पतझड़ के साथ बसंत का सौन्दर्य है , प्यासी गौरैया है , पलाश की लाली है , जवाँ होते अम्बिया की चटख है , थिरकती डालियों के साथ महकते मोगरे की खुशबु भी है ; आइए देखें -
लूट ले गया /दरख्तों का वैभव / ये पतझड़ // [ राजीव गोयल ]
बिना विवाद / छोड़ देते आसन / पात पुराने // [ सुरंगमा यादव ]
नन्हीं कोपलें / कंकाल दरख़्त पे / नई ग़ज़ल // [ विष्णु प्रिय पाठक ]
लाल चुनर / गदराया सेमल / युवा बसंत // [राम कृष्ण त्रिवेदी,मधुकर]
गहन वन / भूलती पगडण्डी / अपना पथ // [ शिव डोयले ]
प्यासी गौरैया / नदी के तट पर / सकोरा ढूंढे // [ नरेंद्र श्रीवास्तव ]
कांक्रीट वन / छाँव बरगद की / ढूंढते खग //[ राजीव गोयल ]
बदली ऋतु / धूप बदहवास / आँगन रोए // [ नरेंद्र श्रीवास्तव ]
गरम हवा / अम्बिया को छू कर / करती जवाँ //[ सूर्य किरण सोनी ]
फूलों की बातें / हवा हौले से सुने / बुने कहानी // [ पुष्प सिंघी ]
धन्य है वर्षा / खेतों में कविताएँ बोते किसान // [डॉ भगवत शरण अग्रवाल ]
साल -पलाश / रसवंती कामिनी / महुआ गंध // [ सुशील शर्मा ]
शाखों में झूमे / बसंती गुजरिया / मन बहके // [ रमेश कुमार सोनी ]
चुरा के भागी / सुगंध बगिया की / चोरनी हवा // [ राजीव गोयल ]
हवा की धुन / थिरकती डालियाँ / पाँव के बिन //[ सुरंगमा यादव ]
गोरे सजीले / सुरभि के टोकरे / श्वेत मोगरे // [ कमल कपूर ]
नारियाँ भारतवर्ष में सदा से पूज्यनीय रही हैं तथा इन्हें श्रृंगार के ज्यादा करीब वर्णित किया गया है | इन हाइकु में नारी की शक्ति , पीड़ा , प्रेम की अनुभूति , विरह का दर्द सहित वर्तमान दौर में उन्हें सचेत करते हुए हाइकु प्रस्तुत हुए हैं -
अपराजिता / हर पल प्रिय से / हारती रही // [ सुशील शर्मा ]
नारी की ब्यथा / द्रौपदी,मीरा,राधा / सीता की कथा // [ सूर्य नारायण गुप्त ]
सचेत सीते / कितने ही मारीच / आज घूमते // [ सुरंगमा यादव ]
आंसू की स्याही / औरत लिख रही / आग का गीत // [ शिव डोयले ]
हँसी में छिपे / जाने कितने राज / सोच से परे // [ शिव डोयले ]
डाली का फूल / नाजुक सी जिंदगी / करे कबूल // [ बलजीत सिंह ]
घरों में उठीं / लालच की लपटें / बहुएं जलीं // [ राजीव गोयल ]
खिल ना पायी / मन की पूर्णमासी / लगा ग्रहण // [ प्रियंका वाजपेयी ]
बाबा उदास / चंचल नदी दौड़ी / सिन्धु के पास // [ पुष्पा सिंघी ]
लूट ले गया / एक नर पिशाच / कुँवारे ख्वाब // [ राजीव गोयल ]
जल से रिक्त / कटि पर गागर / लम्बी कतार //[तुकाराम पुंडरिक खिल्लारे]
बच्चे हरेक घरों को पूर्णता प्रदान करते हैं उनकी खिलखिलाहट के बिना मन का आँगन भी सूना – सूना लगता है | इन्हीं बच्चों की सुन्दरता एवं शरारत को वर्तमान परिदृश्य से जोड़ते हुए हाइकु सुन्दर बन पड़े है -
ताली बजाती / जूतों का चित्र बना / बेपैर बच्ची // [ पुष्पा सिंघी ]
नन्हा दुलारा / छिपा पर्दे के पीछे / कहता ढूंढो // [ सुरंगमा यादव ]
सागर तट / बालक बना रहा / रेत का घर // [ विष्णु प्रिय पाठक ]
मैदान खाली / मोबाइल ले गया / बच्चों की गेंद // [ दिनेश चन्द्र पाण्डेय ]
चार दिन की जिंदगी में रिश्तों की पीड़ा और साथ निभाने के वादे , वक्त पर काम आने की ख़ुशी के बीच माता जी की भूमिका का महत्व बताते हुए यहाँ हाइकु प्रस्तुत हैं -
मिट्टी ना धूल / विश्वास से महके / रिश्तों के फूल // [ बलजीत सिंह ]
ह्रदय चीर / नयनों से निकली / रिश्तों की पीर // [ सूर्य किरण सोनी ]
धूप में छाँव / माँ ,जाड़ों में अलाव / सुहानी शाम // [ राजीव गोयल ]
कैसी हो मम्मी ? / बड़े बच्चे भटके / पूछना भूले // [ रमेश कुमार सोनी ]
मैया सिकुड़ी / संसार फैलाकर / कोने में पड़ी //[ अभिषेक जैन ]
रिश्ता महँगा / जीवन के बाजार / अकेला लौटा // [ रमेश कुमार सोनी ]
प्रेम के बिना ये जग सूना है , थोथा हैइसके दोनों पहलू उतने ही महत्व रखते हैं – संयोग और वियोग | प्रेम की चर्चा , पत्रों का आदान – प्रदान , ज़माने की दुश्मनी मोल लेना इसे बखूबी आता है -
ख़त तुम्हारा / सिरहाने पे रखा / सपनों भरा // [ सुरंगमा यादव ]
आँखों में अश्रु / अधरों पर हास / वर्षा में धूप // [ सुरंगमा यादव ]
प्रेम कस्तूरी / मन मृग भीतर / ढूंढे बाहर // [ सुरंगमा यादव ]
प्रेम की पीर / पहाड़ भी रो देता // पवित्र नीर // [ रमेश कुमार सोनी ]
प्रीत के पाँव / बिन पायल बाजे / सुनता गाँव // [ सुरंगमा यादव ]
नए वर्ष का स्वागत करने निराशा का दामन झटकारकर आशा की ऊँगली थामे चलना होता है वहीँ यादों को भी साथ चलने की आदत होती है किसी साये की तरह , देखिए -
भूला हताशा / चल पड़ा डगर / लेकर आशा // [ सूर्य नारायण गुप्त ]
सूखी नदियाँ / भूखे – प्यासे बगुले / टूटी उम्मीदें // [ नरेंद्र श्रीवास्तव ]
अभी जन्मा है / जैसा चाहो ढाल लो / साल बच्चा है // [ राजीव गोयल ]
गुजरा वर्ष / भर गया तिजोरी / यादों से फिर // [ राजीव गोयल ]
मौसम की सुगंध सभी लेना चाहते हैं लेकिन इसकी खफ़ा कोई भी बर्दाश्त नहीं करना चाहता | लोग यह भी चाहते हैं की मौसम बदले लेकिन यह भी चाहते हैं की वह उनके अनुकूल ही रहे फिर बोर होकर कहीं और हवा खाने निकल पड़ते हैं | शीत , गर्मी , बारिश का मजा दिखाते ये हाइकु आपको रिफ्रेश करने खड़े हैं -
शीत त्यौहार / अलाव के सम्मुख / ठण्ड कथाएं // [ नरेंद्र श्रीवास्तव ]
फुटपाथ पे / ढूंढ रही शिकार / सर्दी डायन // [ राजीव गोयल ]
सूरज डरे / कोहरे के भय से / कैसे उतरे // [ सूर्य नारायण गुप्त ]
शीत काँटे सी / मौसम गुलाब सा / मन तितली // [ नरेंद्र श्रीवास्तव ]
हुई सयानी / ओढ़े चुनर धानी / झूमे सरसों // [ सुरंगमा यादव ]
नोक ना तीर / कलेजा देता चीर / चुभती शीत // [ सुरंगमा यादव ]
जेठ की धूप / मध्यान्ह में अकेली / क्रोध से जली // [रमेश कुमार सोनी]
जिंदगी में सुख और दुःख का चोली – दामन का साथ माना गया है , एक आया और एक गया | जहाँ सुख के वक्त जल्दी बीत जाने की शिकायत है वहीँ दुःख की बेला देर तक ठहरने का दर्द है ; शिकायत दोनों और से है | इसकी सखी बनकर आँसू, सिसकियाँ और धोखा जरुर संग – संग चलते हैं इन हाइकू की ऊँगली थामे -
कोई ना सगा / साथी बन सुख का / सबने ठगा // [सूर्य नारायण गुप्त]
सत्य का पाँव / भटक गया आ के / झूठ के गाँव // [ सूर्य नारायण गुप्त ]
खो गयी मस्ती / वक्त ने दे दी मुझे / दर्द की बस्ती // [[सूर्य नारायण गुप्त]
अश्रु से भरी / दर्द नदी बहती / बंजर मन // [ रमेश कुमार सोनी ]
मन की रेत / कुरेदी तनिक सी / नमी ही नमी // [ सुरंगमा यादव ]
आँखों के घड़े / अंसुअन से भरे / कंठ हैं प्यासे // [ रमेश कुमार सोनी ]
देशभक्ति का पर्याय -
युद्ध इन दिनों देशभक्ति का पर्याय बन चुका है लोग इसकी विभीषिका को समझे बगैर बदले को भावना से ग्रसित हैं ; कोई ये क्यों नहीं सोचता की हार – जीत सिर्फ सत्ता की होती है , हारते तो सर्फ रिश्ते हैं | कोई कैसे युद्ध के बाद श्मशान पर शासन करेगा ; सभी को कलिंग युद्ध की और कुरुक्षेत्र की विभीषिका को याद रखना होगा -
जीत के जंग / सरहद से लौटे / सिर्फ बदन //[ राजीव गोयल ]
मिलिट्री स्कूल / छोटे का फार्म भरे / शहीद की माँ // [ अभिषेक जैन ]
उपरोक्त हाइकु इतने सशक्त हैं कि इनको पढ़ते ही पूरा दृश्य सम्मुख प्रकट हो जाता है , इनमें एक काब्य के सारे गुण मौजूद हैं जो पाठकों को प्रिय लगेंगे | सभी हाइकुकारों को बधाई , सम्पादक , एडमिन को शुभकामनाएं कि आपकी मेहनत रंग लाई है | इस ग्रुप ने सभी हैकुकारों की लेखनी को यथासमय पूरा सम्मान दिया है और उन्हें अच्छा लिखने को भी प्रेरित किया है इस हेतु हिंदी साहित्य सदैव आपको स्मरण रखेगा |
मेरी शुभकामना ||
सत्रह आखर , व्हाट्स एप ग्रुप के हाइकु [ २२.११.२०१५ से आरम्भ , ३५ सदस्य ]
संपादक – डॉ. सुरेन्द्र वर्मा [इलाहाबाद ]
- समीक्षक - रमेश कुमार सोनी [ ब्याख्याता एवं साहित्यकार ]
जे.पी. रोड - बसना , जिला – महासमुंद [ छत्तीसगढ़ ] ४९३५५४ , मोबाइल – ७०४९३५५४७६
सोनी जी आपने बहुत सुन्दर समीक्षात्मक आलेख लिखा है। खूबसूरत रचनाओं पर बल देते हुए उन्हें चिह्नित किया है । बधाई ।
जवाब देंहटाएंकहो श्याम घन कब छाएंगे..,
जवाब देंहटाएंप्यासी धरती तड़प रही कब पानी बरसाएंगे..,
बरखा रानी कब बरखाएगी बूँद.....
कहो श्याम घन कब छाएंगे..,
बादल गरज गरज कब मेघ मल्हारा गाएंगे..,
कब बुँदे छम छम बरसेंगी.....
यह कैसा युग परिवर्तन है..,
जवाब देंहटाएंरही कहाँ राम की वह मर्यादा अब..,
यहाँ रहे राम आदर्श कहाँ.....
गगन मैं स्याम घणा बिराज्यो..,
जवाब देंहटाएंपिचरंगी पुरट को पटको रे काँधेन देइ..,
कारो काजलियो सों नैनन साज्यो.....
इस प्रयास की जितनी भी सराहना की जाये ... कम है ।
जवाब देंहटाएंआदरणीय सोनी जी को अत्यंत लाभकारी समीक्षा हेतु बधाई व साधुवाद...
---निगम राज़