ईश्वर के अस्तित्व की दोषपूर्ण अवधारणा ईश्वर के अस्तित्व की दोषपूर्ण अवधारणा दुनियाँ के तमाम धर्म,इस सम्पूर्ण अनंत, असीम, ब्रह्मांड के रचयिता को भिन्न नाम देकर, उसकी पूजा आराधना करते हैं।यह भी सत्य कि आखिर कोई तो शक्ति होगी ही, जिसने इसकी रचना की है
ईश्वर के अस्तित्व की दोषपूर्ण अवधारणा
ईश्वर के अस्तित्व की दोषपूर्ण अवधारणा दुनियाँ के तमाम धर्म,इस सम्पूर्ण अनंत, असीम, ब्रह्मांड के रचयिता को भिन्न नाम देकर, उसकी पूजा आराधना करते हैं।यह भी सत्य कि आखिर कोई तो शक्ति होगी ही, जिसने इसकी रचना की है,जिसके रंग-रूप आकार प्रकार की मात्र कल्पना ही की जा सकती है,पूरे विश्वास के साथ कुछ भी नहीं कहा जा सकता।वह शक्ति जो भी है,एक विवेकशील प्राणी होने के नाते हर मनुष्य को उसका कृतग्य होना चाहिए, क्योंकि उसने न सिर्फ हमें जीवन दिया है,बल्कि जीने योग्य प्राकृतिक संसाधन के साथ-साथ, इस सृष्टि को देखने,समझने हेतु विवेक दिया है।इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि, उस अग्यात शक्ति को हम क्या नाम देते हैं,या किस पद्धति से उसकी आराधना करते हैं,किंतु हाँ, हर व्यक्ति को उसका कृतग्य अर्थात आस्तिक होना ही चाहिए।जो व्यक्ति उसका कृतग्य नहीं है,वह व्यक्ति पशुप्रवृत्ति का ही माना जायेगा, जिनमें कृतग्यता/कृतघ्नता जैसी भावनाओं हेतु विवेक नहीं होता।पशु भी अपने ऊपर उपकार करने वालों से प्रेम करते हैं और अपनी क्षमता भर, उसे अपने तरीके से व्यक्त करने का प्रयास भी करते हैं।नास्तिक व्यक्ति,ऐसे पशुओं से भी गया बीता है।
विचारणीय बात -
अनंत ब्रह्मांड के रचयिता,सर्वशक्तिमान,परमपिता परमेश्वर की कल्पना करके, उसके प्रति कृतग्यता और उसकी
ईश्वर |
ईश्वर की जबाबदारी-
कई बार धर्म स्थलों की रक्षार्थ अनगिनत जाने गयीं,कभी कोई धर्मस्थल बचा, तो कभी किसी धर्म स्थल को तोड़कर उसके आकार प्रकार को दूसरे धर्मस्थल का रंगरूप आकार प्रकार दे दिया गया।ऐसा दावा कि ईश्वर की मर्जी के बगैर संसार में कुछ भी नहीं होता, उचित नहीं है।ऐसा दावा करके हम अनजाने ही,दुनियाँ में होने वाले सभी प्रकार के अपराधों में उसकी संलिप्तता(मर्जी) को उस पर थोप देते हैं।इसका मतलब यह भी हुआ कि, एक प्रकार के धर्मस्थल को तोड़कर, दूसरे प्रकार के धर्म स्थल को बनने देने में भी,उसकी मर्जी शामिल थी।यदि ऐसा है,तो किसी भी धर्म स्थल के टूटने की घटना को,ईश्वर की मर्जी मानकर लोग, शिरोधार्य क्यों नहीं कर लेते? दुनियाँ में जितनी भी बलात्कार की घटनाएं होती हैं,जिसमें मासूम दूधपीती बच्चियां भी शामिल हैं,क्या उसमें ईश्वर की मर्जी शामिल हो सकती है?यदि यह मान लिया जाये, कि पीड़िताओं के साथ जो कुछ हुआ,यह उनके पूर्व जन्मों का फल(दण्ड)है,तो क्या यह दण्ड, ईश्वर की गरिमा के अनुरूप है कि,ईश्वर खून का बदला खून,बलात्कार के बदले बलात्कार का दण्ड दे?ईश्वर केवल मानव जाति के प्रति ही जवाबदेह नहीं है,बल्कि उन मूक पशु-पक्षियों के प्रति भी जवाब देह है,जो अब भोजन, पानी ,आवास के अभाव में अपना अस्तित्व खो रहे हैं,या खो चुके हैं।ईश्वर उन निरपराधों पर दया करके, उनके अस्तित्व की सुरक्षा हेतु कुछ उपाय क्यों नहीं करता?चमचमाती सड़कें हम मनुष्यों को भले ही बहुत अच्छी लगती हों,किंतु लावारिस घूमते, बेजुबान पशु समझ ही नहीं पा रहे हैं कि, ईश्वर ने आखिर उस धरती पर उन्हें जन्म क्यों दिया, जहाँ की एक इंच जमीन पर भी, उनका अधिकार नहीं है? ऐसी सोच कि, जब अत्याचार,अधर्म अपने चरम पर पहुंच जायेगा, तब ईश्वर स्वयं अपराधियों को दण्ड लेने के लिये अवतार लेंगें,वास्तव में कायरता भी है और खामखयाली भी।
ईश्वर ने स्वयं न तो कोई पुस्तक लिखी और न लिखवायी।यह कार्य, विलक्षण बौद्धिक क्षमता वाले महापुरुषों का ही है।जहाँ तक अवतारों का प्रश्न है,ईश्वर कभी अवतार नहीं लेता,अपितु कभी कभार कुछ महामानव श्रेष्ठता के इतने उच्च स्तर तक पहुँच गये कि,उन्हें मानव मानना ही अविश्वसनीय सा था।ऐसे विलक्षण, दुर्लभ महामानव कल भी समाज के लिए अनुकरणीय थे,और आज भी हैं,और हमेशा बने रहेंगे।इसी प्रकार ऐसी कहानियां कि, जिनके अनुसार, ईश्वर के स्थान को किसी नारी के सतीत्व से खतरा रहा हो,जिसके चलते उन्हें स्वयं किसी नारी के सतीत्व को भंग करने को विवश होना पड़ रहा हो,एक तरफ तो ईश्वर पद की गरिमा को मलिन करती हैं,तो दूसरी तरफ हम अनजाने नारी जाति के सतीत्व पर भी प्रश्नचिन्ह खड़ा करते हैं अर्थात मात्र गिनी चुनी नारियां हीं शुद्ध, पवित्र थीं ,जोकि नारी जाति का अपमान है।सतीत्व, मानव जाति की सोच है,ईश्वर मानवीय कमजोरियों,आकर्षण से पूर्णतः मुक्त है।ईश्वर कभी नहीं कह सकता कि,जो व्यक्ति आपकी विचारधारा,जीवन पद्धति स्वीकार न करे,तो उसे कत्ल कर दो,या अपनी जीवन पद्धति जबरन किसी पर थोपो।ईश्वर ने सम्पूर्ण मानव प्रजाति को एक समान बनाया है,न किसी को ऊँचा और न किसी को नीचा।ऊँचा-नीचा, श्रेष्ठ-निकृष्ट,मनुष्य को उसके कर्म, योग्यता और आचरण बनाते हैं।
मानवीय गुणों का विकास -
अब प्रश्न उठता है कि,ईश्वर को मनुष्य प्रजाति से अपेक्षा क्या हो सकती है।मेरे 52 वर्षीय अध्ययन, चिंतन, मनन से मैं इस निष्कर्ष पर पहुँचा हूँ कि,सर्वाधिक विवेकशील प्राणी होने के नाते, मनुष्य से ईश्वर की यही अपेक्षा होगी कि ,सम्पूर्ण मनुष्य जाति परस्पर प्रेम, शांति, सहयोग के साथ जीवन व्यतीत करे।तप,इच्छा शक्ति के बल पर मानवीय दुर्गुणों, कमियों पर विजय प्राप्त करे और मानवीय गुणों को अधिक से अधिक ऊँचाई तक ले जाये।इस सम्पूर्ण सृष्टि को अक्षुण्ण न सही,तो वैग्यानिक युग में भी,कम से कम इस हालात में अवश्य बनाए रखे,कि उसमें प्रकृति निर्मित, सभी प्राणी और वनस्पतियों का अस्तित्व बना रहे।
-राजीव प्रकाश
ग्राम-लाल्हापुर पो०-गोला जिला-खीरी(उ०प्र०)
मो०नं०-9473505157
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