कवि पद्माकर का जीवन परिचय और रचनाएं Kavi padmakar ka jivan parichay aur rachnayen पद्माकर का जीवन परिचय पद्माकर रीतिकाल के कवियों में प्रमुख स्थान रखते हैं रीतिकाल के कवियों में सहृदय समाज इन्हें बहुत श्रेष्ठ स्थान देता है .ऐसा सर्वप्रिय कवि इस काल में भीतर बिहारी को छोड़कर दूसरा नहीं हुआ .
पद्माकर का जीवन परिचय
पद्माकर का जीवन परिचय padmakar jivan parichay पद्माकर रीतिकाल के कवियों में प्रमुख स्थान रखते हैं .रीतिकाल के कवियों में सहृदय समाज इन्हें बहुत श्रेष्ठ स्थान देता है .ऐसा सर्वप्रिय कवि इस काल में भीतर बिहारी को छोड़कर दूसरा नहीं हुआ .इसकी रचना की स्मरणीयता ही इस सर्वप्रियता का एकमात्र कारण है .रीतिकाल की कविता इनकी और प्रतापसाही की वाणी द्वारा अपने पूर्ण उत्कर्ष को पहुंचकर फिर हंसोमुन्ख हुई .अतः जिस प्रकार ये अपनी परम्परा के महत्वपूर्ण कवि है उसी प्रकार प्रसिद्धि में अंतिम भी .देश में जैसा उनका नाम गुंजा वैसा फिर आगे चलकर किसी और कवि का नहीं .
पद्माकर का जीवन परिचय -
पद्माकर तैलंग ब्राह्मण थे .इनके पिता मोहनलाल भट्ट का जन्म बांदे में हुआ था .ये पूर्ण पंडित और अच्छे कवि भी
थे जिसके कारण इनका कई राजधानियों में अच्छा सम्मान हुआ था .ये कुछ दिनों तक नागपुर के महाराज रघुनाथ राव ये यहाँ रहें ,फिर पन्ना के महाराज हिन्दुपति के गुरु हुए और कई गाँव प्राप्त किया .वहां ये वे फिर जयपुर नरेश महाराजा प्रताप सिंह के यहाँ रहें जहाँ इन्हें कविराज शिरोमणि की पदवी और अच्छी जागीर मिली .उन्ही के पुत्र सुप्रसिद्ध पद्माकर जी हुए .पद्माकर जी का जन्म संवत १८१० में बांदे में हुआ .इन्होने ८० वर्ष की आयु भोगकर अंत में कानपुर गंगातट पर संवत १८९० में शरीर छोड़ा .ये कई स्थानों में रहे . अंतिम समय निकट जानकार पद्माकर जी गंगा तट के विचार से कानपुर चले आये और वहीँ अपने जीवन के शेष सात वर्ष पूरे किये .अपनी प्रसिद्ध गंगालहरी इन्होने इसी समय के बीच बनाई थी .काव्य रचना व भाषा शैली -
रामरसायन नामक बाल्मीकि रामायण का आधार लेकर लिखा हुआ एक चरित्र काव्य भी इनका दोहे चौपाइयों में हैं पर उसमें इन्हें काव्य सम्बन्धी सफलता नहीं हुई है .संभव है वह इनका न हो .मतिराम जी के रसराज के समान पद्माकर जी का जगविनोद भी काव्य रसिकों और अभ्यासियों दोनों का कंठहार रहा है .वास्तव में यह श्रृंगार रस का सार ग्रन्थ सा प्रतीत होता है .इनकी मधुर कल्पना ऐसी स्वाभाविक और हाव भाव पूर्ण मुर्तिविधान करती है की पाठक मानों प्रत्यक्ष अनुभूति में मग्न हो जाता है .ऐसी सजीव मूर्ति विधान करने वाली कल्पना बिहारी को छोड़कर किसी और कवि में नहीं पायी जाती है . ऐसी कल्पना के बिना भावुकता कुछ नहीं कर सकती या तो वह भीतर ही भीतर लीन हो जाती है अथवा असमर्थ पदावली के बीच व्यर्थ फडफडाना करती है .कल्पना और वाणी के साथ जिस भावुकता का संयोग होता है वही उत्कृष्ट काव्य में रूप में विकसित हो सकती है .भाषा की सब प्रकार की शक्तियों पर इस कवि का अधिकार दिखाई पड़ता है .कहीं तो इनकी भाषा स्निग्ध ,मधुर पदावली द्वारा एक सजीव भावभरी प्रेममूर्ति खड़ी करती हैं ,कहीं भाव या रस की धारा बहाती है ,कहीं अनुप्रासों की मिलित झंकार उत्पन्न करती है ,कहीं वीर्दार्प से क्षुब्ध वाहिनी के समान अकड़ती और कड़कती हुई चलती है और कहीं प्रशांत सरोवर के समान स्थिर और गंभीर होकर मनुष्य जीवन की विश्रांति की छाया दिखाती है .सारांश यह कि इनकी भाषा में वह अनेकरूपता है जो एक बड़े कवि में होनी चाहिए .भाषा की ऐसी अनेकरूपता गोस्वामी तुलसीदास जी में दिखाई देती है .अनुप्रास के प्रवृति तो हिंदी के प्रायः सब कवियों में आवश्यकता से अधिक रही है .पद्माकर जी भी उसके प्रभाव से नहीं बचे हैं .पर थोडा ध्यान देने पे यह प्रवृत्ति इनमें अरुचिकर सीमा तक कुछ विशेष प्रकार के पद्यों में ही मिलेगी जिनमें ये जानबूझकर शब्द चमत्कार प्रकट करना चाहते हैं .अनुप्रास की दीर्घ श्रृंखला अधिकतर इनके वर्णनात्मक पद्यों में पायी जाती है .जहाँ मधुर कल्पना के बीच सुन्दर कोमल भावतरंग का स्पंदन है वहां की भाषा बहुत ही चलती ,स्वाभाविक और साफ़ सुथरी है ,वहां भी अनुप्रास भी है तो बहुत संयत रूप में हैं .
महाकवि पद्माकर की रचनाएँ -
महाकवि पद्माकर की रचनाएँ निम्नलिखित हैं -
- हिम्मतबहादुर
- विरुदावली,
- पद्माभरण,
- जगद्विनोद,
- रामरसायन (अनुवाद),
- गंगालहरी,
- आलीजाप्रकाश,
- प्रतापसिंह विरूदावली,
- प्रबोध पचासा,
- ईश्वर-पचीसी,
- यमुनालहरी,
- प्रतापसिंह-सफरनामा,
- भग्वत्पंचाशिका,
- कलि-पचीसी,
- रायसा,
- हितोपदेश भाषा (अनुवाद),
- अश्वमेध
आदि प्रमुख हैं .
Nice Info sir ...............
जवाब देंहटाएंNice
जवाब देंहटाएंInformative
जवाब देंहटाएंbest post
जवाब देंहटाएंएहो नंदलाल! ऐसी व्याकुल पड़ी है वाल
जवाब देंहटाएंmuje inki yah doha pasand hai
आपकी जानकारी बहुत अच्छी थी अच्छा लगा पढ़ कर
जवाब देंहटाएंरीति काल के ब्रजभाषा कवियों में पद्माकर (1753-1833) का महत्त्वपूर्ण स्थान है। वे हिंदी साहित्य के रीतिकालीन कवियों में अंतिम चरण के सुप्रसिद्ध और विशेष सम्मानित कवि थे। मूलतः हिन्दीभाषी न होते हुए भी पद्माकर जैसे आन्ध्र/ तमिलनाडु के अनगिनत तैलंग-ब्राह्मणों ने हिन्दी और संस्कृत साहित्य की श्रीवृद्धि में जितना योगदान दिया है वैसा उदाहरण अन्यत्र दुर्लभ है।
जवाब देंहटाएंजन्म और कुल-परिचय
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मूलतः तमिलभाषी इनके पूर्वज दक्षिण के आत्रेय, आर्चनानस, शवास्य-त्रिप्रवरान्वित, कृष्ण यजुर्वेद की तैत्तरीय शाखा के यशस्वी तैलंग ब्राह्मण थे। पद्माकर के पिता थे- मोहनलाल भट्ट जो मध्यप्रदेश सागर में बस गए थे। यहीं पद्माकर जी का जन्म सन् 1753 में हुआ। परन्तु 'हिंदी साहित्य का इतिहास' में आचार्य रामचंद्र शुक्ल और 'बाँदा डिस्ट्रिक्ट गजेटियर' के अलावा कुछ विद्वान मध्यप्रदेश के सागर की बजाय उत्तर प्रदेश के नगर बांदा को पद्माकर की जन्मभूमि कहते हैं- शायद इसलिए भी क्योंकि बहुत से वर्ष उन्होंने बांदा में ही बिताए थे । मेरे अनुसार उनका जन्म सागर में मानना चाहिए !