वैसे ना थी मैं जैसे हू अब, वैसे ना थी मैं, मुस्काने हुआ करती थी साँसे लगन होती थी राहें, कोई मुसीबत इन्हे बदल दे, वैसे ना थी मैं, अपनी सोच को जिया और जिंदगी को सोचा किसी को सोच साबित करनी पड़े वैसे ना थी मैं, उमीदों का सहारा काइिओं की मुसीबतों का किनारा थी
स्मृतियाँ
स्मृतियाँ घुलती नही समय के जल में,
घुलकर और निखर जाती है
स्मृतियाँ धुँधलाती नही समय के धुन्ध में,
धुन्द हटाकर और उभर आती है,
समय के आँधियरे में छिपती स्मृतियाँ
खलिख में सितारे सी चमक जाती है
समय की दीवारे रोक नही पाती उनको,
मन आँगन में गौरिया सी उतार जाती है,
स्मृतियाँ रेत नही जो झर जाए हाथ की मुट्ठी से,
हीरे की कनी है वो अंगूठी में जड़ी रहती है.
सपने
अधूरे सपने, पलकों पर सो गये
जगाना मत, दुखियरे है,
कुछ समय के मारे है
खुद से कुछ हारे है
नाव कालिका से झूरे नही,
वो घायल है मारे नही,
जो मन में मचला करते थे,
पलकों पर इठलाया करते थे,
मुझको धीर बँधाया करते
आकाश चूम आया करते,
आगत को सजाया करते,
उत्साह से भरे भरे,
क्या है ऐसा जो वो ना करे,
सब कुछ परा नख तले घरे,
धरती तो क्या, अंबर भी तरे
सुख-शांति के तोरण कलश्धरे,
अब आकर यातार्थ से टकराए.
सोच
वादो के विवादो से होकर मुक्त,
स्वचंद बिहारने लगी
छंद्धो के बंधन से निकालकर,
उन्मुक्त विचारने लगी,
अलंकार उतार कर किसी लाकर में
बंदकर रखे गये
गंभीर शब्द के टोकरे,
सिर से सरक गए
क्या हुआ मुक्त से उन्मुक्त हुई
कभी अर्थी, कभी द्विअर्थि हुई,
हर के पर जाने लगे,
लौटना नही ह भले ही बड़ना है पर,
कुछ है जिसे भूलना भी नही है.
वैसे ना थी मैं
जैसे हू अब, वैसे ना थी मैं,
मुस्काने हुआ करती थी साँसे
लगन होती थी राहें,
कोई मुसीबत इन्हे बदल दे,
वैसे ना थी मैं,
अपनी सोच को जिया
और जिंदगी को सोचा
किसी को सोच साबित करनी पड़े
वैसे ना थी मैं,
उमीदों का सहारा काइिओं की
मुसीबतों का किनारा थी
किसी की बातें रुला दे
वैसे ना थी मैं,
मजबूती थी सोच में
सोचा बेपनाह जिसके लिए
अब अपनी सोच को सही साबित करू
ऐसे तो ना थी मैं,
दिमाग़ में रख सकती थी सारी बातें
अब लिखती हू अनगिनत
शब्दो के सहारे खुद को समझा रही
वैसे ना थी मैं.
काश
वो महकी सी मिठास,
वो उलझानो की खराश
कुछ पूरे, कुछ अधूरे
मेरे ही बनाए दायरे
भर देती खुशियाँ दोनो हाथों से,
हो जाते सब तुम्हारे
ए जिंडाई काश तू ऐसे होती,
थोड़ी सुन लेती मेरे भी कभी
ये या डब्ल्यू, कभी हा कभी ना
इनमे से कुछ तोड़ा और वक़्त जोड़ पाती
वक़्त चुरा लेती मैं से
और मा को दे पति.
क्या काहु
क्या काहु इस दिल का हाल,
साक्षी भी तुम और साक्ष्या भी तुम
बता कर भी बता नही पाती
वाक्य भी तुम और वाक़या भी तुम
लगता है जैसे हो गये बरसों अब तो,
नज़र में भी तुम और नज़रिया भी तुम
लगता नही ये शब्द कुछ समझा पाए तुम्हे,
इस दुनिया के दिए शब्द, और मेरी दुनिया ही तुम
इस का नही, काई जन्मो का है ये रिश्ता
खोया भी तुम्हे और जो पाया वो भी तुम
हो गये इस तरह से एक,
तुम हो जाना मैं, और अब तो मैं भी तुम
प्यार में हिसाब रखा नही जाता,
नुकसान भी तुम, और ऩफा भी तुम
दुआ भी तुम, और खुदा भी तुम
शिकायत भी तुम्ही से और फरियाद भी तुम
भुला नही सकती कभी, हर याद भी तुम.
स्नेहा एक युवा लेखक है, और ज़्यादातर फिक्शन और कविताएँ लिखने में रूचि रखती है. उनकी लेखन में जिंदगी के रंग और रिश्तों के ढंग केंद्र में होते है. उनके आस पास के लोग और रोजमर्रा की चीज़ें ही उनके प्रेरणा का स्त्रोत है.
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