नागार्जुन का नाम सुनते ही हमें कितना कुछ याद आ जाता है और अगर वे सम्मुख हों तो साक्षात आँखों के सामने से गुज़र जाता है । मसलन, हिंदी ही क्यों, देश-विदेश में कवियों के साथ जुड़ी चली आ रही फक्कड़पन, मस्ती, घुमक्कड़ी और जोखिम भरे साहस की लंबी परंपरा - हिन्दी में कबीर और निराला जिसकी खूबसूरत मिसालें हैं ।
श्लोकों में गूंजेगा अब के फौजी अध्यादेश
नागार्जुन का नाम सुनते ही हमें कितना कुछ याद आ जाता है और अगर वे सम्मुख हों तो साक्षात आँखों के सामने से गुज़र जाता है । मसलन, हिंदी ही क्यों, देश-विदेश में कवियों के साथ जुड़ी चली आ रही फक्कड़पन, मस्ती, घुमक्कड़ी और जोखिम भरे साहस की लंबी परंपरा - हिन्दी में कबीर और निराला जिसकी खूबसूरत मिसालें हैं ।
उन्हें देखकर हमें इस देश के नाथ, सिद्ध, संत या जनप्रिय लोककवियों की परंपरा याद आती है, जनता के बीच यहाँ से वहाँ तक बेधड़क घूमते, डंके की चोट अपनी बात कहते या फिर ढपली लिए गाते उन्हीं में घुलमिल जाते हुए । नागार्जुन को देख हमें हमारा देश, उसकी माटी की गंध और उसमें रचे-बसे भारतीय जन-गण की वास्तविक आकृतियों का आभास होता है - बेतरतीब पहने मैले मोटे कपड़े, पैरों में घिसटती चप्पलें, सिर पर अँगोछा, अनसँवरी जंगली घास सी उग आई खिचड़ी दाढ़ी, कंधे पर थैला और सफर में हैं तो दूसरी बगल में दबी कपड़ों और कलेवे की पोटली ।
बाबा हँसते हैं बात और बेबात । अपनी ही कही बात का जैसे अचानक कोई नया अर्थ उन्हें भा गया तो बगल में चलने वाले आदमी को रोक उसका मुँह अपनी ओर घुमा प्रतिक्रिया पढ़ते हैं या पास बैठे आदमी की हथेली रगड़ते हैं, मानो पूछ रहे हों ‘कहो कैसी रही', जबरदस्ती पकड़ कर हाथ मिलाते हैं या झूमकर गले लगाते हैं ।
जिन लोगों ने बाबा को जीवन में और नजदीक से देखा है वे जानते हैं कि बाबा अपने स्वभाव और रुचियों और स्वाद और गुस्से और प्यार में बिल्कुल बच्चों जैसा व्यवहार करते हैं कभी-कभी । मुझे याद पड़ता है, मैं और सुधीश पचौरी तब साथ रहते थे । बाबा आ टपके हैं । अचानक फरमाइशें होती हैं - सेब, केला, अंडा-वंडा हो तो निकालो, चाय बनाओ । आँखें घर के गुप्त भंडारों को टटोलती हैं । लेकिन चील के घोंसले में मांस कहाँ । बाबा भूख के कच्चे हैं । बाबा दाँत किटकिटाते हैं, बात-बात पर, मानो अभी मुंह नोच लेंगे । ...आज बाबा की जेब में दस - दस के कई नोट हैं । फिर तो कहना ही क्या । बाबा साथ के लोगों को जलेबियां उड़वा रहे हैं, हर चटपटी चीज पर उनकी आँखें घूम रही हैं, मानो बाजार अब उन्हीं का है । उस दृश्य को देखकर `अकाल और उसके बाद' नामक बाबा की कविता की इन पंक्तियों का चित्र मूर्त हो जाता है मानो-
"दाने आये घर के अंदर कई दिनों के बाद
धुँआ उठा आँगन से ऊपर कई दिनों के बाद
चमक उठीं घर भर की आँखें कई दिनों के बाद
कौए ने खुजलाई पाँखें कई दिनों के बाद ।"
लोग जानते हैं और कइयों ने लिखा भी है कि बाबा के पैरों में चक्कर है बचपन से ही । बचपन में ही जब शादी हो गई तो बाबा घर छोड़कर जो उड़न्छू हुए तो फिर दस साल बाद ही लौटकर सूरत दिखाई । न जाने कहाँ-कहाँ की खाक नहीं छानी, कितने पापड़ नहीं बेले । सिंहल जाकर बौद्ध धर्म में दीक्षित हो गए । इससे घूमने को और बढ़ावा तो मिला ही सार्थकता भी मिली । पालि के पंडित बने । केलानिया में तीन साल रहे, अंग्रेजी भी सीखी कामचलाऊ । संस्कृत पर अधिकार था ही और मैथिली तो अपनी जबान ठहरी । इसी घुमक्कड़ी और पिपासा का परिणाम है कि बाबा संस्कृत, पालि, प्राकृत, अर्धमागधी, अपभ्रंश, सिंहली, तिब्बती, मराठी, गुजराती, बंगाली, पंजाबी, सिंधी के साहित्य को रुचि से पढ़ते हैं और उनके साहित्य से लाभ उठाते हैं ।
प्रभाकर माचवे ने इस ज्ञान-पिपासा के प्रसंग में लिखा है-"बाबा के पास कल के भोजन के पैसे नहीं हैं पर वे दिल्ली में सेंट्रल न्यूज एजेंसी से दस नई बंगाली, मराठी, पंजाबी पत्र-पत्रिकाएं खरीद कर ले जा रहे हैं । ऐसा भी मैंने देखा है । ऐसी ज्ञान पिपासा एक छियासठ वर्ष के, शरीर से रोगग्रस्त और निरंतर चिंताकुल व्यक्ति में दुर्लभ पाई जाती है । उनकी जीवट अद्भुत है ।"
जो भी उनके संपर्क में जरा भी आया होगा उसे बाबा के हाथ की लिखी संक्षिप्त सी चिट्ठियाँ वक्तन-बेवक्तन मिलने का अवश्य अनुभव होगा । "प्रिय, विदिशा में भाई विजयबहादुर के यहाँ ठहरा हूँ । तीन दिन और रहूँगा फिर इलाहाबाद में कुछ दिन भूमिगत होने का इरादा है । अधूरा उपन्यास थैले में पड़ा लातें जड़ रहा है । फिर पटना और कलकत्ता होकर दो एक महीने में दिल्ली आना होगा । फिर लिखूँगा । विजय, गुगलू और गुड़िया को प्यार । तुम्हारा...ना. ।"
बाबा नियम से १५-२० खत रोज लिखते हैं । ढेरों पते लिखे खाली पोस्टकार्ड उनके थैले में हमेशा पड़े रहते हैं ।
नागार्जुन |
बाबा जिससे भी मिलते हैं उसे जन्म-जन्मांतर का मित्र बना लेते हैं । लेकिन बाबा का स्नेह सर्वाधिक उन नवोदित साहित्यकारों, कालेज के नवयुवक छात्रों और युवा अध्यापकों को मिलता है जो साहित्य और जीवन में अभी प्रवेश ही कर रहे हैं । यही कारण है कि वे सहज ही युवा लेखकों के सबसे प्रिय रचनाकार, मार्गदर्शक और मित्र हैं ।
मुझे याद है शायद वे१९७०-७१ के दिन थे । हम लोग नए-नए प्राध्यापक बने थे और विश्वविद्यालय संगठनों से लेकर मजदूर संगठनों तक में सक्रिय थे । उन्हीं दिनों बाबा अक्सर यह कविता आकर सुनाया करते थे जो उन्होंने बच्चों की तोतली बोली में वियतनाम का नारा लगाते सुनने पर लिखी थी :
"सुने इन्हीं कानों से मैंने तुतलाहट में गीले बोल
तीन साल वाले बच्चों के प्यारे बोल : रसीले बोल
"मेले नाम तेले नाम
बिएनाम बिएनाम"
मुक्तिबोध के शब्दों में कहूँ तो बाबा शायद हमेशा यही महसूस करते हैं कि "बहुत बहुत कर सकते थे किया बहुत कम । मर गया देश अरे जीवित रह गए तुम ।" इसीलिए उन्हें जहाँ भी सुगबुगाहट दिखाई पड़ती है, नई लगन और जोश दिखाई पड़ता है वे एक आल्हादमई आशावादी ललक से उसके पास पहुँचते हैं - स्वयं को और अपनी कविता को उसे समर्पित कर देते हैं ।
मुझे अच्छी तरह याद है बाबा उन दिनों हमारे विचारों और काम में बड़ी गहरी दिलचस्पी लेते थे, ध्यान से सब सुनते थे, अभिभूत हो उठते थे और कभी-कभी तो उठकर गले लगा लेते थे । उन्हीं दिनों उन्होंने "मैं तुम्हें अपना चुंबन दूंगा" कविता लिखकर पूरी की थी-
"मैं तुम्हीं को अपनी शेष आस्था अर्पित करूंगा
मैं तुम्हारे लिए ही जिऊँगा, मरूँगा
मैं तुम्हारे ही इर्द गिर्द रहना चाहूँगा
मैं तुम्हारे ही प्रति अपनी वफादारी निबाहूँगा
आओ, खेत-मजदूर और भूदास किसान
आओ, खदान-श्रमिक और फैक्ट्री वर्कर नौजवान
आओ, कैंपस के छात्र और फैकल्टियों के नवीन-प्रवीण प्राध्यापक
हाँ, हाँ, तुम्हारे ही अंदर तैयार हो रहे हैं
आगामी युगों के लिबरेटर ।"
लेकिन इस जिंदगी से अलग भी बाबा की एक व्यक्तिगत जिंदगी है जहाँ अन्तरालों में वे लौटते हैं । चिंताओं, जिम्मेदारियों और व्यक्तिगत संघर्ष की दुनिया । जैसे पिछले कई सालों से बाबा ने दिल्ली में टैगोर पार्क में रहने के लिए तो एक कमरानुमा जगह डेढ़ सौ माहवार किराए पर ले रखी थी । इस शहर में इतने किराए के कमरे की कल्पना आप सहज ही कर सकते हैं । आप आकर देखिए इस खूबसूरत बस्ती में शायद यह एकमात्र मकान है जिसके बारे में जितना कहा जाय उतना ही कम है ।
मकान क्या है दर्जनों लघुतम घरेलू उद्योग-धंधों का एक केंद्र है और उनमें लगे तमाम लोगों का आश्रय भी । छोटी-सी बीड़ी-सिगरेट, दाल-आटे की दुकान है, भैंसों के दूध का कारोबार है, धोबी का धंधा है...और भी कई कुछ इस दो-तीन कमरों वाले मकान में चलता है ।
उसी में किताबों से अटी कोठरिया में, एक पैर सिकुड़ी धँसी चारपाई पर बाबा लेटे हैं अपना सारा माल-आसबाब समेटे । रह रहकर दमा उभरता है, रजाई में मुँह दिए बाबा खाँसी से काँप रहे हैं और सोच रहे हैं कि फलाँ प्रकाशक चार चक्कर लगवा चुका लेकिन अभी तक धेला नहीं दिया । सालों से कई किताबें अनुपलब्ध हैं लेकिन उन्हें छापने की बजाय वे चाहते हैं कि फरमाइश पर एक टैक्स्टबुक लिख दूं तो कुछ एडवांस दे दें । पिछली बरसात में गाँव का घर गिर गया, अबकी फिर बनवाना है । न जाने बुढ़िया कैसे दिन काटती होगी वहाँ । लड़कियों की शादी करनी है, मिसिरों के चोंचले । तीन लड़के लगभग बेकार हैं, उन्हें अपने जीते जी किसी धंधे से लगाना है ।...किसी छोटे-बड़े प्रकाशक से बात करूँगा । सौ-डेढ़ सौ की नौकरी दे ही दे पसीज कर । छोटे लड़के को तो चलो गुजारे लायक मिल गई अब बड़े शोभाकांत को भी ले आते हैं, भागदौड़ कर किताबें बेचकर सौ दो सौ बचा ही लेगा, फिर बाद में गाँव से बीवी बच्चे भी यहीं ले आयगा ।...बिचले को प्रेस का काम सिखाना है कुछ दिन बाद अपना पेट भरने लगेगा ।
...चारों प्राणी उसी कोठरी में बैठे हैं, स्टोव पर चाय, चपाती, दाल बनती है, कमरा तपता है - अगले महीने हो सका तो किराए पर एक टेबल फैन का जुगाड़ करना है । तेल और धुएं से आँखें चुचुआती हैं । बेटों को चिंता है बाबूजी की, ऐसे कितने दिन चलेंगे ? और बाबा को बेटों की, गांव में पड़ी पत्नी की, शोभाकान्त के बीवी-बच्चों की । बाबा मुर्गी की तरह अपने पंखों में ढके-दाबे बैठे हैं परिवार और उसकी परेशानियों को ।
यह भी बाबा की जिंदगी का एक पक्ष है । और यह पक्ष ऐसा क्रोध उत्पन्न करने वाला है, ऐसी जुगुप्सा और घृणा जगाने वाला है - इस पूरी व्यवस्था के प्रति, उसके कर्णधारों के प्रति और उसके तमाम छोटे-बड़े पायों के प्रति जिनमें प्रकाशक भी आते हैं । जिसके नाम पर मोटी रकम कमाते हैं, जिसका उल्लेख साहित्य के इतिहास में स्वर्णाक्षरों में करते हैं उसके साथ सुलुक इस तरह का करते हैं । यह व्यवस्था रीढ़ हीन, बौनों और बटमारों को प्रश्रय देती है, ईमानदार, जिंदादिल और साबुत आदमी को उसने तिल-तिल कर मारा है ।
बाबा पर आरोप लगाया जाता है `सम्पूर्ण क्रांति' और आपातकाल के दौर में उनके व्यवहार को लेकर ।अधिकांश में तो यह आलोचना उन लफ्फाज क्रांतिकारियों और जनपक्षधरता के पाखंडियों की तरफ से होती है जो सत्ता, व्यवस्था, संस्थाओं और संस्थानों के तमाम सुख-भोग का आनंद लेते हुए विचारधारा के तर्कों में प्रवीण होते हैं ।
आपातकाल से पहले इस देश में असहिष्णुता का जो माहौल पैदा हो रहा था, राजनीतिक एकाधिकार वाद और भ्रष्टाचार जो बढ़ रहा था, नागार्जुन की उस समय लिखी तमाम रचनाएं इस बात की गवाह हैं कि वे उन पर बहुत तीखे और जमकर प्रहार कर रहे थे । केवल कुछ प्रमाण देना ही पर्याप्त होगा । १९७२ में जब प. बंगाल में सत्तादल ने गुंडागर्दी के बल पर चुनाव जीते तो उन्होंने एक ललकार भरी कविता "अब तो बंद करो हे देवी यह चुनाव का प्रहसन" लिखी और आगे आने वाले दिनों के बारे में लोगों को आगाह किया-
"तानाशाही रंगमंच है प्रजातंत्र का अभिनय"
तथा-
"श्लोकों में गूंजेंगे अबकी फौजी अध्यादेश"
बाबा की भविष्यवाणी सच हो रही थी । ऐसे में जयप्रकाश तरुणों के बल पर संपूर्ण क्रांति का नारा लेकर सामने आए । बाबा, जिन्होंने जीवन भर जयप्रकाश का विरोध किया था उस आंदोलन में तन-मन से कूद पड़े, इस हालत और उम्र में जेल गए ।
लेकिन संपूर्ण क्रांति के झंडे के नीचे एकत्र हुए लोगों और दलों की कारगुजारियों से जनता का मोहभंग तो बाद में हुआ, बाबा ने जेल में ही काफी कुछ समझ लिया था । वे इन लोगों और दलों के चेहरों को बखूबी पहचानते थे । इसलिए वे उनसे अलग हो गए । जनता सरकार बनी । लोगों ने नई सरकार में पहुँच बनाना शुरू किया लेकिन बाबा फिर अपने अभियान में जुट गए ।
जो आदमी एक सरकार के भ्रष्टाचार, अन्याय और तानाशाही को बर्दाश्त नहीं कर सकता वह दूसरे की क्यों करेगा भला । बाबा उन कुछेक लोगों में से थे जिन्होंने अपनी आपातकाल की शहादत को भुनाया नहीं बल्कि जनता के बीच से इस नई सरकार को भी ललकारा । मोरारजी के पुत्र का मामला आया तो जो नागार्जुन संजय प्रसंग पर एक जमाने में लिख चुके थे-"पार्लियामेंट पर चमक रहा है मारुति का ध्रुवतारा" या "देवी तुम तो काले धन की बैसाखी पर खड़ी हुई हो"- उन्होंने मोरारजी को साबुत बचकर नहीं जाने दिया । जनता सरकार के एक बरस पर जब कुछ लोग सालगिरह मना रहे थे तो बाबा ने पूछा-
"कुर्सियों पर जमे तुमको
फाइलों में रमे तुमको
क्रांति पथ पर थमे तुमको
हो गये बारह महीने, हो गये बारह महीने ।"
इसी काल में हरिजनों पर हुए अत्याचारों के खिलाफ उन्होंने एक लंबी कविता लिखी `हरिजन गाथा' ।
नागार्जुन की कविता सच्चे और ठोस अर्थों में समकालीन, स्थानीय और देशज रही है । अपने समय में घट रही हर छोटी-बड़ी घटना पर उनकी नजर है । कितनी ही भाषाओं के पत्र-पत्रिकाएं वे एक सिरे से घोखते हैं रोज-कई समाचारों और पंक्तियों पर उनकी नजर ठहर-ठहर जाती हुई । वे पंक्तियों के बीच में भी पढ़ते हैं और सामान्य अर्थों के पीछे छिपे बड़े संदर्भों को साकार कर देख लेते हैं ।
यही कारण है कि अधिकांश लेखक जब काव्य की गहरी बहसों में उलझे होते हैं और अनुभव के आस-पास कविता बुन रहे होते हैं या चालू मुहावरे को स्वीकार या नकार कर कुछ नया गुल खिला रहे होते हैं तो बाबा इन सब से अलग देश में घट रही घटनाओं के चश्मदीद गवाह बनते हैं । कोई चीज उनकी नजर से छूटती नहीं वे उसे या तो यथातथ्य वर्णनात्मकता में, या व्यंग्य में या चुनौती और आक्रमण की भाषा और मुहावरे में ढाल रहे होते हैं । जब से उन्होंने लिखना शुरू किया है तब से आज तक यह उनकी रचना का मुख्य धर्म बना हुआ है । हम जब तक चीजों को सपाट न्यूज की पंक्तियों में ही पढ़ रहे होते हैं कि बाबा उस पर एक सशक्त रचना लेकर सामने आ जाते हैं । चाहे फिर वह महारानी एलिजाबेथ का भारत में आगमन हो या बिहार में हरिजनों पर हो रहे अत्याचार या आसाम का मामला । वे एक सजग और सम-कालीन रचनाकार के नाते इस सबको वर्चस्व देना अपना कर्तव्य मानते हैं ।
बाबा ने कविता में बर्जुआ वर्ग की किसी भी नामी हस्ती को नहीं बख्शा है । यह प्रारंभ से ही उनका प्रिय विषय रहा है । व्यक्तियों पर लिखी इन कविताओं का स्वर चेहरों से नकाब उठाने वाला, गरिमा के पीछे छिपे पाखंड का उद्घाटन करने वाला, तीखा व्यंग्य लिए मारक रहा है । यह एक सच्चाई है कि बाबा के व्यंग्य की मार को बर्दाश्त करना हरेक के बूते की बात नहीं । वही झेल सकता है इस मार को जिसकी चमड़ी बहुत मोटी हो या जो निहायत संवेदनशून्य हो गया हो । जिस पर भी यह मार पड़ी है वह इसके असर को जानता होगा । उन्होंने बख्शा किसी को नहीं है - न सुभाष को, न गाँधी को, न नेहरू को, न विनोबा को, न राजगोपालाचारी को, न जयप्रकाश को, न इन्दिरा गाँधी और संजय को - यहाँ तक कि अपने कामरेड डाँगे को भी नहीं । इन कविताओं की खूबी है कि इनमें ये व्यक्ति व्यक्ति होते हुए भी इस भ्रष्ट तंत्र के प्रतिनिधि नजर आते हैं । इन रचनाओं में ये व्यक्ति भ्रष्ट, जन विरोधी व्यवस्था के पाखंडी प्रतिनिधि के रूप में सामने आ खड़े होते हैं ।
बाबा एक जमाने तक कविता से आंदोलन का काम लेते रहे हैं । ढपली पर गाँव-गाँव में `चना जोर गरम' की लोक धुन पर फौरी राजनीति के चित्र जनता के बीच खींचना – इस सबसे हम परिचित हैं । इसलिए बाबा सीधे जनता तक पहुँचने के लिए उसी की जबान और लहजे में अपनी कविता की भाषा और रूप को ढालने के कायल रहे हैं । यही कारण है कि बाबा की कविता हमारे देश की जातीय संस्कृति के ठेठ रंग-रूपों का सुन्दर प्रतिनिधित्व करती है । हममें से कितने ही लोगों ने आम लोगों के बीच बाबा को पूरे हावभाव और अभिनय से अपनी कविताओं का पाठ करते देखा होगा जिससे श्रोता भाव विभोर भी हैं और कविता-पाठ में शरीक भी ।
सामाजिक यथार्थ के प्रति साम्यवादी और जनवादी दृष्टिकोण ने जहाँ एक ओर नागार्जुन की रचना की विषयवस्तु के चुनाव को प्रभावित किया है, उनके सौंदर्यबोध का निर्माण किया है वहीं उनके भाषा, रूप, अप्रस्तुत-विधान, लय, छंद आदि पर भी निर्णायक प्रभाव डाला है । अपने एक साक्षात्कार में उन्होंने कहा कि-"एक नब्बे-सौ साल की जो वृद्धा है तो उसको यदि हम सौ वर्षों को झेले हुए व्यक्तित्व की दृष्टि से देखें तो हमको वो खूबसूरत दिखाई पड़ेगी । लेकिन जिसकी आँखों को नरम नरम, कोमल कोमल वस्तुएँ देखने की आदत पड़ी हुई है उसको वो वीभत्स लगेगा कि भाई, जो कब्र में पाँव लटकाए हुए हैं उसको रूपायित करने की क्या अनिवार्यता थी । लेकिन ये है कि हम उसे वैरागी संतों की भाँति सृष्टि को मिथ्या समझने की भावना में नहीं ढकेलेंगे...गौतम बुद्ध को जब ये लगा कि वो भी बूढ़े हो जाएँगे, तो उनको वैराग्य हुआ । लेकिन ये है कि भई, पूरा जीवन जीने वाली जो ये वृद्धा है उसके चेहरे पर जो संघर्षों की महागाथा अंकित है उस दृष्टिकोण से उसमें सौंदर्य दिखाई पड़ेगा ।"
जीवन के प्रति दृष्टिकोण, इस नवीन सौंदर्यबोध के तकाजों और साहित्य की सार्थकता और सोद्देश्यता के कारण ही बाबा आज भी कविता के लिए छंद और लय की अनिवार्यता पर बल देते हैं बार-बार । किसी भी नए रचनाकार से उनकी यह सहज माँग होती है कि अनगढ़ रूप में रचने के साथ अगर कभी-कभी छंद और तुक भी मिला लें तो लोगों के बीच में वह ग्राह्य बन सकती है ।
बाबा जैसी सादगी और जीवंतता रचना में लाना बहुत बड़ी बात है । लेकिन इसका यह अर्थ कतई नहीं कि बाबा की रचनाओं में कोई परंपरित रूप या छंद और अप्रस्तुत विधान का ही पिष्टपेषण हुआ है, या कि उस स्तर पर नई सीखने की चीज उसमें है ही नहीं । सही है कि वे प्राचीन मिथकों का गजब का उपयोग करने के साथ-साथ हिंदी साहित्य की संपूर्ण रचना-परंपरा के स्वर को अपने काव्य में सँजोते हैं । लेकिन यह भी एक सच्चाई है कि रचाव और रूप के स्तर पर नागार्जुन की कविता ने हिंदी में जितने प्रयोग किए हैं वे निराला के अलावा अन्यत्र किसी एक कवि में एकत्र नहीं मिलेंगे । इसके उदाहरण के रूप में `शासन की बंदूक' और `अकाल और उसके बाद' से लगाकर `मंत्र कविता' तक की दर्जनों कविताएँ मुझे याद आ रही हैं ।
अब अंत में एक और बात । नागार्जुन की कविता की विचारधारात्मकता की चर्चा में जो एक सबसे प्रमुख बात ओझल रह जाती रही है वह है उसका फैलाव । शब्द, रूप, रस, गंध, स्पर्श के जितने भी शेड्स हो सकते हैं बाबा की रचनाएँ उसका अद्भुत उदाहरण हैं । यही है बाबा के पूर्ण मानवीय मनुष्य होने का प्रमाण । इसी को रेखांकित करते हुए विष्णुचंद शर्मा ने अपनी एक कविता में कहा है-
"अक्सर मैं बाबा को शब्द, रूप, रस, गंध, स्पर्श का पांच दरवाजा खोले सहस्र नेत्र भारतवर्ष कहता हूँ ।"
जो लोग इसको नहीं देख पाते वे `बादल को घिरते देखा है' या बारहमासों पर लिखी कविताओं या गुड्हल के लाल फूल के रंग या मिट्टी की सोंधी गंध अथवा आम की महक को पकड़ लेने वाली कविताओं और सामयिक राजनीतिक स्थितियों पर लिखी कविताओं के आंतरिक संबंधों को न पहचान पा भूलभुलैया में ही पड़े रहते हैं और कहे-सुने मुहावरों के बल नागार्जुन को परिभाषित करने की कोशिश करते रहते हैं ।
१९८१ में नागार्जुन की ७०वीं वर्षगांठ पर दिया वक्तव्य
नागार्जुन पर हो रही सामयिक टिप्पणियों के संदर्भ में एक पुराना भावनात्मक हस्तक्षेप जो उनके होते हुए लिखा गया और सभा में पढ़ा गया । आज विचारधारा के नाम पर जिस लफ्फाज क्रांतिकारिता और जनवाद-लोकवाद वगैरह के नाम पर कुलीनतावादी पाखंड का बोलबाला है, उसमें इस ‘एप्रीसियेशन’ को देना आवश्यक लग रहा है । किसी कवि की एक या एकाधिक कविताओं का विश्लेषण, उसके व्यक्तित्व और आचरण के स्खलनों की चर्चा एक विषय है और उसका एप्रीसियेशन अलग और व्यापक
- कर्ण सिंह चौहान
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