मानवीय संबंध और राष्ट्र की त्रासदी मनुष्य भी अजीब है। पहले संबंध बनाता है। उनको सजाता-संवारता है । फिर अपने ही हाथों नष्ट करता है,फिर नया संबंध बनाता है, सजाता -संवारता है, फिर नष्ट करता है। वह ऐसा क्यों करता है ॽ
मानवीय संबंध और राष्ट्र की त्रासदी
मनुष्य भी अजीब है। पहले संबंध बनाता है। उनको सजाता-संवारता है । फिर अपने ही हाथों नष्ट करता है,फिर नया संबंध बनाता है, सजाता -संवारता है, फिर नष्ट करता है। वह ऐसा क्यों करता है ॽ सवाल यह भी है संबंध मरते कैसे हैं ॽ क्या संबंध एकदिन में खत्म हो जाते हैं या फिर तिल-तिलकर खत्म होते हैं या फिर संबंधों में तनाव आता है और एक ही झटके में संबंधों की धुरी बिखरकर चूर-चूर हो जाती है ॽक्या मानवीय संबंध के बिखरने से देश भी बिखरता है ॽ
भारत महान है,इसका हम सबसे अधिक जयगान करते हैं लेकिन कभी मानवीय संबंधों के पैमाने से भारत की महानता को मांपने की कोशिश नहीं करते, महान देश राजनेताओं के कारण नहीं बनता,बल्कि आम जनता के मानवीय संबंधों और मानवीय मूल्यों के कारण बनता है,आज फ्रांस, अमेरिका, जर्मनी आदि तमाम यूरोपीय देशों में महानता का पैमाना सरकार,विकास, राजनेता,पीएम या राष्ट्रपति का राजनीतिक कद नहीं है,बल्कि समाज में व्याप्त मानवीय संबंधों और मानवीय मूल्यों के स्तर के आधार पर किसी भी देश की महानता को मापा जाता है।
मानवीय संबंधों में आई दरार का राज
राष्ट्र के बिखरने का या दो देशों के संबंधों के बनने-बिगड़ने के साथ गहरा संबंध है। मानवीय संबंध बिखरते हैं तो परिवार,मित्र, नातेदार-रिश्तेदारों से संबंध टूटता है, उसका समूचे सामाजिक-राष्ट्रीय तानेबाने पर भी असर होता है। समाज में मानवीय संबंधों के टूटने की प्रक्रिया बहुस्तरीय,बहुवर्गीय,बहुसांस्कृतिक और बहु-धार्मिक है। यह प्रक्रिया हमारे बहस-मुबाहिसे के दायरे में कभी दाखिल ही नहीं होती, हम इस पर समग्रता में विचार ही नहीं करते। समाज-सुधार के एजेण्डे को यदि समस्त विचारधारात्मक संघर्ष के केन्द्र में लाना है तो हमें सारी प्राथमिकताएं नए सिरे से तय करनी होंगी,सर्वोच्च प्राथमिकता पर मनुष्य , मानवीय मूल्य और मानवीय संबंधों को लाना होगा। इस समय हम सबकी प्राथमिकता के केन्द्र में राष्ट्र ,धर्म और राष्ट्रहित हैं, इसके कारण मानवीय हित,मानवीय संबंध और मनुष्य की उन्नति,रक्षा और आपसी मित्रता गंभीर रूप से खतरे में पड़ गयी है।
आज हमें राष्ट्र की बजाय मनुष्य को संवाद और बहस के केन्द्र में लाना होगा, राष्ट्र जब तक बहस के केन्द्र में रहेगा मानवीय संबंध,सामाजिक संबंध, साम्प्रदायिक सौहार्द्र,जातीयताओं के बीच मित्रता वायवीय रहेगी, यह मात्र प्रचार सामग्री के रूप में ही नजर आएगी।इसे वास्तव में कहीं पर भी देख नहीं पाएंगे। समाज बनता है मनुष्यों,मानवीय मूल्य और मानवीय संबंधों से, न कि राष्ट्र से। राष्ट्र एकदम काल्पनिक चीज है।
राष्ट्र का कोलाहल जितना बढ़ेगा,राष्ट्रीय कलह उतने ही बढ़ेंगे। राष्ट्र की बजाय मनुष्यों को देखने की आदत डालने की जरूरत है। इससे भी बडी बात यह कि मनुष्यों के आपसी संबंध छोटी –छोटी चीजों और बातों पर टूटते हैं,मानवीय जीवन में छोटी-छोटी वस्तुओं और बातों की बड़ी अहमियत है,उनको कम करके नहीं देखना चाहिए। आज कश्मीर और असम में जो हो रहा है वह स्वतंत्र भारत की सबसे बड़ी त्रासदी है,इस त्रासदी का स्रोत न तो 370 है और न वैध नागरिकता। बल्कि इसका स्रोत है मनुष्य और मानवीयता का राष्ट्र के स्तर पर पैदा हुआ अभाव।राष्ट्रीय शासकवर्गों में पैदा हुए मानवीयता के अभाव और राष्ट्र के अहंकार ने देश में इस तरह की त्रासदियों को जन्म दिया है। आजकल राष्ट्र अहंकार को हमारा मीडिया राष्ट्रप्रेम कह रहा है,मानवीय विद्वेष को कानून का पालन कह रहा है। यह एकदम नए किस्म की भाषा है जो विभाजन,उत्पीड़न और मानवाधिकारों के उल्लंघन से भरी है।अफसोस की बात यह कि भारतीय न्यायालय इस अवस्था को वैधता प्रदान कर रहे हैं।
हम सबके जीवन में संबंधों के टूटने और बनने-बिगड़ने का सिलसिला चलता रहता है। कभी किसी
मित्र,नातेदार,रिश्तेदार,पड़ोसी ,परिचित से संबंध बने फिर अचानक कुछ ऐसा घटा कि वे बिखर गए या संबंधों में दूरी आ गयी और सारा जीवन और संबंधों की ऊष्मा ठंडे बस्ते के हवाले कर दी गयी। संबंधों को ठंडे बस्ते के हवाले करने के अलावा कुछ लोग यह भी करते हैं कि संबंधों को तोड़ते हुए,तनाव में रहते हैं,तनाव और झगड़े या फिर मुकदमेबाजी के जरिए संबंध को जीते हैं। साल-दर-साल तलाक या घरेलू हिंसा के बहाने मुकदमेबाजी करते हैं और कागजी संबंध बनाए रखते हैं, सवाल यह है यथार्थ मानवीय संबंध महत्वपूर्ण हैं या कागजी संबंध महत्वपूर्ण हैं ॽ कागजी संबंधों के नाम पर संतान के जरिए आर्थिक वसूली ,सम्पति वसूली एक आम रिवाज है। आए दिन अभिभावक इसके लिए अपनी संतान की शिकायतें करते रहते हैं कि बेटा-बेटी देखभाल नहीं करते लेकिन संपत्ति हथिया ली है या फिर संपत्ति पाना चाहते हैं, 26साल की बेटी है ,जो स्नातक है या उससे अधिक शिक्षित है,वह कभी अपने पिता को शक्ल नहीं दिखाती या उसने कभी शक्ल नहीं दिखायी, पिता की कभी सेवा-सुश्रूषा नहीं की,खबर तक नहीं ली,कभी फोन तक नहीं किया, लेकिन बेकारी की अवस्था में वो कानूनन पिता से अपने खाने-पीने का खर्चा पाने की हकदार है।कानून उसे मदद करता है,यह एक तरह से अमानवीयता को कानूनी मदद कही जाएगी। इस तरह की अवस्थाएं निजी जीवन से लेकर व्यापक राष्ट्रीय स्तर की समस्याओं में सहज ही देखी जा सकती हैं,असम में नागरिक रजिस्टर तो सुप्रीम कोर्ट के फैसले के अंध पालन का साक्षात नमूना है, दिलचस्प बात यह है संत रविदास के मंदिर को बनाने के लिए सुप्रीम कोर्ट का फैसला बुनियादी आधारों को बदलकर पंक्चर किया जा सकता है लेकिन नागरिक रजिस्टर में निहित अमानवीयता को खत्म करने के लिए कोई सटीक कदम नहीं उठाया जा सकता,बल्कि 19लाख से अधिक लोगों की नागरिकता के विवाद के निपटारे के लिए 400 ट्रिब्यूनल बनाए जा रहे हैं, आप उनमें जाएं ,चक्कर काटें,अदालत में जाएं चक्कर काटें,अंत में त्रासदी झेलने को तैयार रहें। न्यायालयों की यही स्थिति मानवीय संबंधों के प्रति है। इसे समाज में चारों ओर सहज ही देखा जा सकता है।
जगदीश्वर चतुर्वेदी |
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-जगदीश्वर चतुर्वेदी
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