स्ट्रीट फूड सी चटपटी हिंदी हिंदी दिवस पर विशेष हिंदी के कितने रूप देखने को मिल सकते हैं ये बडे़ आश्चर्य का विषय है। एक दिन, जैसे ही मैं हाइवे पर पहुँचा एक तेज रफ्तार ट्रक धूल के गुबार में मुझे लपेटकर आगे बढ़ गया। जब आँखें मलकर देखा तो पीछे लिखा था- ‘देखो मगर प्यार से’।
स्ट्रीट फूड सी चटपटी हिंदी
हिंदी दिवस पर विशेष
हिंदी के कितने रूप देखने को मिल सकते हैं ये बडे़ आश्चर्य का विषय है। एक दिन, जैसे ही मैं हाइवे पर पहुँचा एक तेज रफ्तार ट्रक धूल के गुबार में मुझे लपेटकर आगे बढ़ गया। जब आँखें मलकर देखा तो पीछे लिखा था- ‘देखो मगर प्यार से’। तो क्या ट्रकों के पीछे इसीलिए लिखा होता है कि हम उनकी कारस्तानियों को हँसकर झेल लें। एक पल भी न बीता था कि दूसरा ट्रक गुजरा, उसकी मजाल जैसे कि हवाई-जहाज़ चला रहा हो। उसकी तेज गति से सड़क के गड्ढ़े का कीचड़ मेरे ऊपर आ गिरा। फिर क्या! पूरा हुलिया मटियामेट। खीझकर मुँह पर से कीचड़ साफ किया तो ट्रक के पीछे पढ़ने में आया कि - ‘बुरी नज़र वाले तेरा मुँह काला’। हिंदी में लिखे इन दोनों जुमलों को पढ़कर, अब मुझे हँसी ही आ रही थी। उसके बाद बड़ी देर तक मैं आते-जाते ट्रकों, गाड़ियों, टेम्पों और लाॅरियों की तख्तियाँ पढ़ता रहा। मुझे एहसास हुआ कि अपनी मौज में रात-दिन घूमते इन बेज़ुबान वाहनों का भी अपना साहित्य और भाषा होती है।
यद्यपि ट्रकों का साहित्य नितांत गैर-साहित्यिक होता है फिर भी जबरदस्त ध्यान-खेंचू होता है। वाहनों के पीछे लिखे जाने वाली पंक्तियाँ कोई मानक साहित्य या विशिष्ट साहित्यिक सृजनात्मक वाली सामग्री नहीं होती है। इस साहित्य का स्तर ट्रक-चालकों या सड़क पर ज़िन्दगी बिताने वालों के बौद्विक स्तर से अधिक नहीं होता है। लेकिन एक बात स्पष्ट है कि इस प्रकार के सड़क-सैलानी साहित्य में हिंदी का ज़बरदस्त बोलबाला है। सड़क पर डोलते हुए, यहाँ हिंदी भी स्ट्रीट-फूड सी खूब चटपटी हो गई है। जिस प्रकार स्ट्रीट-फूड केवल जिह्वा को विभिन्न चटपटे स्वाद का अनुभव कराते हैं लेकिन स्वास्थ्य-वृद्धि में कोई योगदान नहीं देते, ठीक वैसा ही हाल इस साहित्य का है। इनसे साहित्य की दुनिया में कोई नई विधा पनपने वाली नहीं है फिर भी इसे नकारा नहीं जा सकता है।
ट्रकों का यह साहित्य किसी विद्यालय या पुस्तकालय में उपलब्ध नहीं है। इसका रसपान केवल रोड पर ही किया जा सकता है। पत्रकारिता के बारे में कहा जाता है कि यह जल्दबाजी का लेखन है तो इसके बारे में मेरा कहना है कि यह जल्दबाजी का पठन है। ये राह चलते तेजी से प्रकट होते हैं, पढ़ लिया तो ठीक, नहीं तो एक ही सेकेण्ड में धुँधले हो जाते हैं। इस अनोखे साहित्य जगत के कुछ महत्वपूर्ण विषय और प्रवृत्तियाँ होती हैं जिनको जानना हिंदी के ‘स्ट्रीट-फूड’ वाली करामात को समझने के लिए आवश्यक है।
इंसानी फितरत के अनुसार, जिस ट्रक-मालिक को जो मुद्दा महत्वपूर्ण लगता है, ट्रकों के पीछे वही छपा होता है। बड़े आकार वाले इन ट्रकों की सोच भी बड़ी लगती है। नैशनल परमिट पर देशभर का चक्कर लगाते हुए इनका देश के कोने-कोने से इनका जुड़ाव हो जाना भी स्वाभाविक है। भारत दर्शन करने वाले इन भारी वाहनों के पीछे अक्सर राष्ट्रवादी बातें लिखी मिलती हैं। ‘मेरा भारत महान’ तो एक सर्वप्रसिद्ध नारा है। राष्ट्रवादी सुरों में ‘गंगा तेरा पानी अमृत’, ‘माँ का आशीर्वाद’ एवं ‘जय जवान, जय किसान’ प्रमुख हैं। कुछ छोटी-मोटी शेरो-शायरियाँ भी इसमें शामिल होती हैं-
‘जश्न आजादी का मुबारक हो देश वालों को,
फन्दे से मोहब्बत थी वतन के मतवालों को।’
कभी-कभी ओजस्वी स्वर भी पढ़ने में आता है ‘दूध मांगोगे तो खीर देंगे, कश्मीर मांगोगे तो चीर देंगे’।
जिस तरह ट्रक का बड़ा आकार होता है वैसे ही उसकी सोच भी परिलक्षित होती है।
इन वाहनों की रफ्तार के साथ कभी जवानी की रफ्तार भी मिल जाती है। इसलिए ट्रकों के पीछे हिंदी में इश्क, आशिकी और दिल्लगी की बातें भी दिखाई देती हैं। पर ये ज्यादातर छिछोरे चालकों के छोटे वाहनों पर दिखाई देती हैं। ये बेसबब किसी को भी कह देते हैं ‘आती क्या खंडाला’ और कहीं पढ़ने वाले ने थोड़ा सा मुस्कुरा दिया तो जवाब हाज़िर है-‘हँस मत पगली! प्यार हो जाएगा।’ और कहीं बात बन गयी तो हर गली में कहता फिरेगा कि -‘गोरी! तेरा साजन आ गया’।
इन ट्रकों की भाषा में, एक महत्वपूर्ण कार्य यह भी रहा है कि देश की बढ़ती जनसंख्या को काबू में करने के लिए
ट्रकों का साहित्य |
स्ट्रीट-फूड सी हिंदी में सड़क सुरक्षा के जुमलों का महत्वपूर्ण स्थान है। सड़क पर सुरक्षित यात्रा का महामंत्र है ‘सावधानी हटी, दुर्घटना घटी’। हाइवे पर हर ट्रक यह समझाते हुए चलता है कि ‘तेज गति, जीवन क्षति’ है। सही समय पर बजाया गया हाॅर्न 70 प्रतिशत दुर्घटनाओं को टाल देता है इसलिए लगभग 90 प्रतिशत वाहनों के पीछे हिंदी में लिखा मिलता है-‘हाॅर्न प्लीज़’। लेकिन कई चालक इसकी अनदेखी करते हैं तो उनके लिए भी समझाइश दी गई है कि ‘बच के ओवरटेक कर, लगे न तेरी गाड़ी को नज़र’। पर रात के समय तो ट्रकों की चकाचैंध वाली हेडलाइटों से होने वाली दुर्घटनाओं से बचने के लिए ‘रात के समय डीपर का प्रयोग करें’ जैसी हिदायतें भी हिंदी में लिखी होती हैं।
ट्रकों का साहित्य केवल इतने के कारण ही स्ट्रीट-फूड सा चटपटा नहीं हो जाता है बल्कि जुमलेबाज़ी भी इनमें खूब होती है। ऐसे ही जुमलेबाज़ी के कारण इस साहित्य का रस बढ़ जाता है। इनके संदेश बात-बे-बात ऐसे सामने आते हैं जैसे हमसे उलझ रहे हों। आप अपनी मौज में जा रहे होते हैं तो अचानक से ‘बाबूजी! मैं आ गई।’ का संदेश छापे कोई टैक्सी बिलकुल आपके सामने आ जाती है। क्षणभर उसे देखते ही रहे कि दूसरी आ टपकी और बोली ‘तू 13 देख’। हालांकि यह पढ़ने में कठिन लगा पर झन्नाटेदार था, मानो बेइज्जती की गई हो। दोबारा से नज़र उठाकर देखा तो पढ़ने को नया मिला कि ‘चला जाऊंगा मैं धुँध के बादल की तरह, ढूँढ़ते रह जाओगे मुझे पागल की तरह’। इसी तरह और जुमलेबाजियाँ भी मिलीं, किसी ने कोड में कहा कि ‘1 तेरा 7’ तो दूसरा बोला कि ‘तू चल मैं आई’। राह में रश्क का मंजर भी देखने को मिला जो इन चुटीले वाक्यों में ज़बरदस्त पिरोया होता है- ‘हमारी चलती है लोगों की जलती है’ तो किसी को कहते सुना कि ‘इराक का पानी और कितना पिएगी रानी’। पर कुछ की बातें दूरदर्शी भी लगीं जब एक छोटे से डाले पर पढ़ा कि ‘मैं भी बड़ा होकर ट्रक बनूँगा।
ट्रकों के पीछे फिल्मों का नाम लिखवाने का चलन भी खूब है लेकिन ये फिल्मों के नाम भी बहुत अर्थपूर्ण और सटीक लगते हैं। फिल्मी नामों में बेवफा सनम, मेरे हमसफर, आया सावन झूम के, हम साथ-साथ हैं, आए दिन बहार के, दिल तो पागल है इत्यादि खूब छाये रहे।
ट्रकों के इस तफरीह वाले साहित्य में सुझाव व सूचना का भी समावेश होता है। कभी-कभी इन पर लिखी भोली-भाली मनुहारों में बड़ी कोमलता छिपी होती है। ‘पप्पा जल्दी घर आना’, ‘फिर मिलेंगे’, ‘जलो मत बराबरी करो’, ‘वह तो सब धोखा है, पढ़ाई कर लो बेटा! अभी मौका है’, ‘कर्म ही पूजा है’ इसी श्रेणी की बातें हैं। कुछ हिदायतों वाली बातें भी ट्रक-साहित्य का हिस्सा बनती हैं। ‘जल ही जीवन है’, ‘अपनों से बचो गैरों से निपट लेंगे’, ‘समय से पहले भाग्य से ज्यादा कभी नहीं मिलता’ ये सभी कटु परन्तु सत्य हैं।
इन ट्रकों की भाषा में ड्राइवरी हिदायतें बड़ी जबरदस्त तरीके से पेश होती हैं। एक सबसे बड़ी हिदायत तो यही है कि -‘सावधान! आगे वाला कभी भी खड़ा हो सकता है।’ तुरन्त ही आपके मन को आशंका से भर देता है। कई बार गाडियों की आपस में रेस हो जाया करती है, बिना बोले ही पहिए एक-दूसरे को पछाड़ने पर आतुर हो जाते हैं, तब उस रस्साकशी को हमारी हिंदी बडे़ ही झकास अंदाज में बयाँ करती है। आप अपने आगे की गाड़ी पर पढ़ेंगे कि ‘जगह मिलने पर पास दिया जायेगा’ और जो ज़रा सी ज़ोर लगायी कि उसके भी आगे वाले ट्रक का संदेश मिल जाता है कि ‘दम है तो क्रॉस कर वरना बर्दाश्त कर’। ऐसी लताड़ पर हम ढ़ीले हो जाते हैं और खुद को एक सदाबहार शायरी से समझाते हैं कि ‘चलती है गाड़ी उड़ती है धूल, जलते हैं दुश्मन खिलते हैं फूल’। लेकिन कुछ इनसे जुदा तबियत वाले ट्रकों पर अलग बात होती है वे चुपचाप एक रमे गृहस्थ की तरफ सड़क पर आते-जाते हैं। उनका संदेश कुछ यूँ होता है-‘एक फूल दो माली सुबह भरो शाम को खाली’, ‘धीरे चलोगे तो घर बार मिलेगा, तेज चलोगे तो हरिद्वार मिलेगा।’, ‘फूल है गुलाब का खुशबू लिया करो गड्डी है गरीब की साइड दिया करो’।
गाडियाँ अपने पीछे चल रहे ड्राइवरों की क्लास भी लेते हुए चलती रहती हैं। इस श्रेणी के कुछ शानदार जुमले प्रस्तुत हैं-‘ना किसी के हाथ पैर तोड़ें, ना अपने तुड़वाँं कृपया गाड़ी धीरे और लिमिट में चलाएँ।’, ‘मैं खूबसूरत हूँ मुझे नजर ना लगाना, जिंदगी भर साथ दूँगी पीकर मत चलाना।’, ‘लटक मत टपक जाएगा जल्दी मचाएगा तो ऊपर जाएगा।’ ट्रकें घूम-घूमकर बहुत कुछ सीख दे जाती हैं इसीलिए उनका यह कहना भी सही लगता है कि ‘कीचड़ में पैर रखोगे तो धोना पड़ेगा, ड्राइवर से शादी करोगी तो रोना पड़ेगा’।
इनका संदेश प्रभावी और भाषा झटकेदार होती है। सेकेण्ड भर के समय में, ट्रकों को जीवन का पूरा फलसफा रखना होता है। यूँ तो ये सब बातें हर भारतीय भाषा में होती हैं पर उनका प्रसार अधिक नहीं हो पाता है। पंजाब से माल लादकर एक ट्रक जब हैदराबाद के लिए निकलता है तो रास्ते में ट्रक ड्राइवर के पास कोई साहित्य नहीं होता है। उसकी निगाह बस अपने रास्ते पर होती है तो इसी रास्ते पर ट्रकों के पीछे उसे उसकी समझ के मुताबिक सरल-सहज और चुटीला साहित्य मिल जाता है। यहाँ भी हिन्दी मोर्चा सँभाले हुए मिलती है। यही तो है हिंदी का स्ट्रीट-फूड अवतार, तुरन्त आया/तुरन्त खाया और चटखारा लिया। गज़ब है हिंदी की प्रस्तुति, ग्राह्यता, और स्वीकार्यता।
मानव सभ्यता के विकास यात्रा में कृषि, आग व पहिये के अविष्कार और धातुओं के ज्ञान ने जितना योगदान नहीं दिया है उससे अधिक भाषा ने दिया है। कृषि के अभाव में, मानव का जीवन जंगली और प्राकृतिक रूप से उपलब्ध वनस्पतियों पर अवलंबित रह सकता था या फिर आग के बिना वह फल-फूल या जल-जीवों को खाकर काम चला सकता था। इंसान की जरूरतें उसे बिना पहिए के मीलों दूर तक की सैर भी करा सकती थीं अर्थात् मानव विकास की कड़ी में यह सभी चीजे़ं गौण नज़र आती हैं। यह भाषा ही थी जिसने खनाबदोशों को संगठित किया, सामाजिकता सिखायी और संवाद पैदा कराया। यदि इसके पहले यदि कोई सांकेतिक संवाद रहा भी होगा तो वह स्वार्थपूर्ति के लिए महज संकेत रहे होंगे। उनमें चर्चा, तर्क और निष्कर्ष जैसी चीज़ों का अभाव रहा होगा। इसलिए जहाँ तक भाषिक संवाद की बात है तो मानव सभ्यता को सर्वाधिक गति इसी ने दी है। कालान्तर में, धरती पर भाषिक संवाद स्थापित होने पर, अलग-अलग क्षेत्रों में कई तरह की भाषायें पैदा हुईं। वे सभी प्राचीन आद्य-भाषायें शास्त्रीय भाषायें कहलायीं। इन शास्त्रीय भाषाओं में संस्कृत, लैटिन, ग्रीक और अरबी प्रमुख हैं। दक्षिण एशियाई क्षेत्र में संस्कृत का अधिक बोलबाला रहा।संस्कृत से विकसित हुई कई भाषायें भारतीय उपमहाद्वीप में प्रचलित हैं। इनमें सर्वाधिक प्रसार हिंदी का हो सका है जिसका सबसे बड़ा कारण है हिंदी की समावेशी प्रवृत्ति। हिंदी की इस विलक्षण योग्यता को हम अज्ञानवश खो रहे हैं। हिंदी की शब्द-संपदा, शब्द-निर्माण, अर्थ-व्यापकता एवं वैज्ञानिकता केवल कहने की बात नहीं हैं। वास्तव में यह अद्भुत है अगर आज की भाषाएं स्वयं को अत्याधुनिक और प्रौद्योगिकी-सम्पन्न मर्सिडीज की तरह मानते हैं तो हिंदी आज मर्सिडीज के नवीनतम माॅडल से 10 गुना आगे है। केवल एक बार हिंदी के होकर देखिए! दुनिया आपको कन्धों पर उठा लेगी।
-डाॅ. जय प्रकाश
अनुवादक
मोबाइल-8855942405
सर जी! पूरी सड़क की जिंदगी का साहित्य पढ़वा दिया। शानदार!
जवाब देंहटाएंअद्भुत
जवाब देंहटाएंबेहतरीन लेख ,अंत तो शानदार है ,पढ़ते समय आनन्द की अनुभूति हुई ।धन्यवाद आपका
जवाब देंहटाएं