हिंदी आलोचना का उद्भव और विकास Hindi Aalochana Ka Vikas हिंदी आलोचना का उद्भव और विकास हिंदी आलोचना का उद्भव और विकास पर प्रकाश डालें हिंदी के प्रमुख आलोचक हिंदी आलोचना की परंपरा का विकास hindi aalochana udbhav aur vikas आलोचना का अर्थ हिंदी में ऐतिहासिक आलोचना क्या है hindi aalochana ke vikas par nibandh hindi aalochana ka vikas aur pramukh aalochak
हिंदी आलोचना का उद्भव और विकास
Hindi Aalochana Ka Vikas
हिंदी आलोचना का उद्भव और विकास हिंदी आलोचना का उद्भव और विकास पर प्रकाश डालें हिंदी के प्रमुख आलोचक हिंदी आलोचना की परंपरा का विकास hindi aalochana udbhav aur vikas आलोचना का अर्थ हिंदी में ऐतिहासिक आलोचना क्या है hindi aalochana ke vikas par nibandh hindi aalochana ka vikas aur pramukh aalochak - आधुनिक हिन्दी आलोचना का आरम्भ भारतेन्दु-युग से मान्य है।यों तो रीतिकाल में संस्कृत काव्य-शास्त्र को उपजीव्य बनाकर अलंकार, रस, नायिका-भेद, छन्द-शास्त्र आदि का सैद्धान्तिक विवेचन किया गया था और संस्कृत की ही टीका-पद्धति का अनुगमन करते हुए 'केशव' और बिहारी-जैसे कवियों के ग्रंथों की टीकाएँ भी लिखी गयी थीं, किन्तु इन प्रयत्नों को आलोचना नहीं कह सकते।लोकप्रलित- 'सूर-सूर तुलसी ससी'- जैसी उक्तियाँ भी आलोचना नहीं थीं।इनसे कवियों के सम्बन्ध में ककमत की व्यंजना आवश्यक होती थी आलोचना नहीं थी।
भारतेन्दु युग की आलोचना
भारतेन्दु-युग में नवजागरण के परिणामस्वरूप नये विचारों को समाने लाने के लिए पत्र-पत्रिकाओं का प्रकाशन आरम्भ हुआ।इन्हीं पत्रिकाओं में उस युग की चर्चित कृतियों की समीक्षाएँ प्रकाशित हुई।चौधरी प्रेमघन ने 'आनन्दकादम्बिनी' में लाला श्रीनिवासदास कृत 'संयोगिता स्वयंवर' की विस्तृत समीक्षा प्रकाशित की थी।इसी कति की समीक्षा श्री बालकृष्ण भट्ट ने 'हिन्दी-प्रदीप' में प्रकाशित की। इन दोनों समीक्षाओं से आधुनिक समीक्षा का सूत्रपात हुआ। इस युग के अन्य समीक्षकों में प्रतापनारायण मिश्र और बालमुकुन्द गुप्त उल्लेखनीय हैं।भट्ट जी ने युग की परिवर्तित मानसिकता को ध्यान में रखकर नवीन सामाजिक चेतना की दृष्टि से समीक्षा को नया रूप दिया। चौधरी प्रेमघन ने समीक्षा के सिद्धान्त पक्ष को दृष्टि में रखकर कृति-विशेष की संरचना में लक्षित त्रुटियों की ओर ध्यान आकृष्ट किया। भट्ट जी की आलोचना को उपयोगितावादी कहा जा सकता है। उनके सामने सामाजिक और राष्ट्रीय मूल्य प्रधान थे। वे इसी दृष्टि से कृतियों की परख करते थे। श्री बालकृष्ण भट्ट और बालमुकुन्द गुप्त ने इस भूल्यवादी परम्परा को आगे बढ़ाया। भट्ट जी की 'नील देवी', 'परीक्षागुरु', 'संयोगिता स्वयंवर' और 'एकान्तवासी योगी' आदि ग्रंथों की आलोचनाएँ तत्कालीन समीक्षा-साहित्य में महत्त्वपूर्ण स्थान रखती हैं। बालमुकुन्द गुप्त द्वारा लिखित आलोचनाएँ भी इसी परम्परा को आगे बढ़ाने वाली हैं, किन्तु उनका कृतित्व बहुत कुछ द्विवेदी-युग की सीमा में आता है।
सब मिलाकर कहा जा सकता है कि भारतेन्दु-युग में आधुनिक हिन्दी-आलोचना का सूत्रपात तो हो गया था,किन्तु तत्कालीन समीक्षकों में न तो सूक्ष्म काव्य-सौन्दर्य-विधायक तत्त्वों को पहचानने की क्षमता थी और न रचना में निहित जीवन-मूल्यों को सौन्दर्य-तत्त्व से जोड़कर व्याख्यायित करने की शक्ति।
द्विवेदी युग में आलोचना
द्विवेदी-युग में हिन्दी-आलोचना का गम्भीर एवं तात्त्विक रूप तो नहीं दिखा,किन्तु उसकी कई महत्त्वपूर्ण पद्धतियाँ अवश्य विकसित हुईं।सामान्यतः इस युग में हिन्दी-आलोचना के पाँच रूप लक्षित किये जा सकते हैं- शास्त्रीय आलोचना अर्थात् लक्षण-ग्रन्थों की परम्परा में काव्यांग-विवेचन, तुलनात्मक मूल्यांकन एवं निर्णय, अन्वेषण एवं अनुसंधानपरक आलोचना परिचयात्मक आलोचना तथा व्याख्यात्मक आलोचना।संस्कृत आचार्यों की पद्धति पर लक्षण ग्रन्थ प्रस्तुत करने की परम्परा रीति-काल की एक प्रमुख प्रवृत्ति थी।आलोच्य-युग में भी इस परम्परा में जगन्नाथ प्रसार 'भानु' ने काव्य-प्रभाकर (1910) तथा 'छन्द-सारावली' (1917) और लाला भगवानदीन ने 'अलंकार-मंजूषा' (1916) की रचना की। 'भानु' जी ने भूमिका अँगरेज़ी में लिखी है और हिन्दी के अनेक पारिभाषिक शब्दों के अँगरेज़ी पर्याय भी दिये हैं। उन्होंने यथास्थान हिन्दी-अलंकारों के समकक्ष फारसी, अरबी और अँगरेज़ी अलंकारों का भी उल्लेख किया है। इससे प्रकट है कि अँगरेजी पढ़े-लिखे पाठकों का ध्यान दोनों ही लेखक को रहा है।
तुलनात्मक मूल्यांकन
तुलनात्मक मूल्यांकन आलोच्य युगीन समीक्षा की प्रमुख प्रवृत्ति कही जा सकती है। तलनात्मक आलोचना का आरम्भ सामान्यतः 1907 ई० में पद्मसिंह शर्मा द्वारा 'बिहारी' और 'सादी' की तुलना से माना जाता है, किन्तु यह सही नहीं है। बाबू शिवनंदन सहाय ने सन् 1905 ई० में भारतेन्दु बाब हरिश्चन्द्र की कविता की विस्तृत समीक्षा करते हुए उनकी तुलना 'शेखर', 'पद्माकर', 'तुलसीदास आदि कवियों से की है और उन्हें एक प्रकृत कवि के रूप में प्रस्तुत किया है। यह तुलना बहुत ही संयत और सारगर्भित है। इसलिए श्री पद्मसिंह शर्मा को तुलनात्मक आलोचना का पुरस्कर्ता नहीं कहा जा सकता। यह अवश्य है कि उन्होंने तुलना को ही समीक्षा का पर्याय मान लिया और 1908 ई० से 1912ई० तक वे 'सरस्वती' में संस्कृत और हिन्दी-कविता के बिम्ब-प्रतिबिम्ब भाती परीक्षा करते रहे। इसके बाद 1910 ई० में मिश्रबन्धुओं का 'हिन्दी-नवरत्न' प्रकाशित हुआ। इस भी तुलनात्मक आलोचना की धूम मच गयी। 'लाला भगवान दीन' और 'कृष्णबिहारी मिश्र' ने देव और बिहारी की विशद तुलना करते हुए एक को दूसरे से बड़ा सिद्ध करने का प्रयत्न किया।
अन्वेषण और अनुसन्धानपरक आलोचना
अन्वेषण और अनुसन्धानपरक' आलोचना का विकास 'नागरी प्रचारिणी पत्रिका' (1897) के प्रकाशन से हुआ। 'मिश्रबन्धु विनोद' (1913) में भी शोधपरक दृष्टि को महत्त्व दिया गया था और कवियों के वृत्त-संग्रह के साथ उनकी प्राप्य-अप्राप्य कृतियों की सूचना तथा उनक काव्य क सम्बन्ध में मत-प्रकाश भी किया गया था। मिश्रबन्धुओं के अतिरिक्त शोधपरक आलोचना के उन्नायकों में बाबू श्यामसुन्दरदास, राधाकृष्ण दास, जगन्नाथ 'रत्नाकर' और सुधाकर द्विवेदी उल्लेखनीय हैं। इन सभी का समबन्ध 'नागरी-प्रचारिणी-पत्रिका' से रहा। 1902 ई० में चन्द्रधर शमा गुलरा का प्रारणा स जयपुर से 'समालोचक' पत्र का प्रकाशन आरम्भ हुआ। यह गम्भीर आलोचना का पत्र था। इस पत्र में समालोचनाएँ व्यक्ति-विशेष के नाम से न छपकर 'समालोचना-समिति' के नाम से प्रकाशित होती थीं। 'समालोचना-समिति' में श्री दुर्गाप्रसाद मिश्र, महावीरप्रसाद द्विवेदी, राय देवीप्रसाद, बाबू तोताराम, श्रीधर पाठक, विश्वनाथ शर्मा, गंगाप्रसाद अग्निहोत्री, शिवप्रसाद शर्मा, बाबू मुन्नीलाल जैसे साहित्यकार थे। इस पत्र का प्रकाशन अधिक दिनों तक नहीं हो सका, किन्तु इससे आलोचना का स्तर निश्चित रूप से ऊँचा हुआ था।
परिचयात्मक आलोचना
परिचयात्मक आलोचना का आरम्भ भारतेन्दु-युग में ही हो गया था। आलोच्य युग में 'सरस्वती' के माध्यम से इस समीक्षा-पद्धति में स्थिरता और गम्भीरता आयी तथा समीक्षा का आदर्श स्थिर हुआ। परिचयात्मक आलोचनाएँ आलोच्य कृति के सामान्य परिचय, उसकी प्रशंसा, निन्दा, आलोच्य विषय या कृति के सम्बन्ध में स्वतन्त्र लेख, कृति-विशेष को किसी परम्परा ऐतिहासिक सन्दर्भ में रखने की प्रवृत्ति तथा आलोच्य-विषय के प्रति भावात्मक लगाव व्यक्त करते हुए प्रभावाभिव्यंजन के रूप में लिखी गयीं। 'सरस्वती' में प्रकाशित परिचात्मक आलोचनाएँ प्रायः महावीरप्रसाद द्विवेदी द्वारा ही लिखी गयी हैं। द्विवेदी जी समालोचक का कर्त्तव्य निर्धारित करते हुए कहा था- 'किसी पुस्तक या प्रबन्ध में क्या लिखा गया है, वह विषय उपयोगी है या नहीं, उससे किसी का मनोरंजन हो सकता है या नहीं, उससे किसी को लाभ पहुँच सकता या नहीं, लेखक ने कोई नयी बात लिखी है या नहीं, यही विचारणीय विषय है। समालोचक को प्रधानतः इन्हीं बातों पर विचार करना चाहिए'। द्विवेदी जी ने विषय-विवेचना के साथ ही भाषा सम्बन्धी त्रुटियों की ओर भी ध्यान आकृष्ट किया। आलोचना के क्षेत्र में उनके महत्त्व को स्वीकार करते हुए आचार्य शुक्ल ने कहा है “यदि द्विवेदी जी न उठ खड़े होते तो जैसी अव्यवस्थित, व्याकरण-विरुद्ध और ऊटपटाँग भाषा चारों ओर दिखायी पड़ती थी, उसकी परम्परा जल्दी न रुकती।"
व्याख्यात्मक आलोचना
व्याख्यात्मक आलोचना किसी रूढ़ि का अनुसरण न करके आलोच्य विषय की व्यापक उपयोगिता को दृष्टि में रखकर नैतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, राष्ट्रीय एवं सौन्दर्यपरक मूल्यों के आधार पर की जाती थी। कभी-कभी परिचयात्मक आलोचना विशद और गम्भीर होने पर व्याख्यात्मक आलोचना का रूप ले लेती थी। इस प्रकार की आलोचना का सूत्रपात बदरीनारायण चौधरी प्रेमघन' ने 'आनन्द कादम्बिनी' में लाला श्री निवासदास के नाटक 'संयोगिता स्वयंवर' की आलोचना से कर दिया था। बालकृष्ण भट्ट ने 'हिन्दीप्रदीप' में 'नील देवी', 'परीक्षागुरु' और 'संयोगिता स्वयंवर' की गम्भीर आलोचना करके इस पद्धति को पुष्ट किया था।बालमुकुन्द गुप्त ने 'हिन्दी बंगवासी' में 'अश्रुमती' नामक बँगला नाटक के हिन्दी अनुवाद (मुंशी उदितनारायण-कृत) का आलोचना द्वारा इस परम्परा को आगे बढ़ाया, किन्तु ये मात्र प्रारम्भिक प्रयास थे।आलोचना की इस शैली का विशद वैज्ञानिक स्वरूप आगे चलकर आचार्य रामचन्द्र शुक्ल की समालोचनाओं में प्रतिष्ठित हुआ।
वस्तुतः, आलोच्य-युग की उपर्युक्त सभी प्रकार की आलोचनाओं में प्रतिमान के रूप में दो दृष्टियाँ लक्षित होती हैं- एक तो परम्परागत शास्त्रीय दृष्टि जिसके आधार पर आलोच्य कृति का गुण-दोष विवेचन करके उसकी उत्कृष्टता या हीनता प्रमाणित की जाती थी, दूसरी नैतिक-सांस्कृतिक मूल्यों की दृष्टि, जो आलोच्य कृति के व्यापक प्रभाव के परिणाम को दृष्टि में रखकर उसकी श्रेष्ठता या हीनता घोषित करती थी। जिस-तुलनात्मक आलोचना ने आलोच्य युग में सबसे अधिक प्रतिष्ठा प्राप्त की थी, उसका मूल आधार शास्त्रीय दृष्टि से गुण-दोष विवेचन ही था। इस आलोचना से प्राचीन कवियों की ओर सामान्य शिक्षित जनता का ध्यान आकृष्ट हुआ। तुलनात्मक समीक्षकों में पद्मसिंह शर्मा का महत्त्व शृंगार-वर्णन की दीर्घकालीन परम्परा का निदर्शन करते हुए उसके बीच बिहारी का मूल्यांकन करने के कारण, कृष्णबिहारी मिश्र का महत्त्व प्राचीन शास्त्रीय समीक्षा को सच्चे रूप में प्रतिष्ठित करने के कारण और लाला भगवानदीन का महत्त्व बिहारी की बारीकियों को लक्षित करने में है। इन सभी समीक्षकों ने आलोच्य कृतियों का गम्भीर अध्ययन किया था। इसलिए इनके कथनों में तत्त्व और प्रभावोत्पादन चाहे, पद्मसिंह शर्मा की उल्लसित भाव-तरल दृष्टि, चाहे मिश्रबन्धुओं की लचीली और अस्थिर सौन्दर्य-दृष्टि हो, चाहे लाला भगवानदीन और कृष्णबिहारी मिश्र की स्थिर शास्त्रीय दृष्टि, प्राचीन रस-दृष्टि से किसी का विरोध नहीं था।अपनी सीमाओं के बावजूद ये सभी आलोचक रसात्मक कविता को ही महत्त्व देते रहे।
शुक्ल युग की आलोचना
द्विवेदी-युग के अन्तिम चरण में आचार्य शुक्ल का आलोचना के क्षेत्र में आगमन हुआ।उन्होंने तुलनात्मक आलोचना के स्थान पर विवेचन और व्याख्या-मूलक आलोचना पर बल दिया। इनकी समीक्षा में पारम्परिक शास्त्रीय दृष्टि और सामाजिक मूल्यों को महत्त्व देने वाली नैतिक दृष्टि का संश्लिष्ट रूप विकसित हुआ।आचार्य शुक्ल हिन्दी-आलोचना के शिखर पुरुष के रूप में प्रतिष्ठित हुए।इनके आलोचक व्यक्तित्व का पूरा उत्कर्ष छायावादी-युग में हुआ इन्होंने 'छायावाद' के सकारात्मक पक्ष को स्वीकार किया और उसके महत्त्वपूर्ण आधार-तत्त्वों को हिन्दी-साहित्य में छायावादी युग आया।आलोचना भी छायावाद की सौन्दर्य-दृष्टि के अनुकूल होने लगी। इसीलिए उसे छायावादी-आलोचना कहा जाने लगा।
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