काव्य की आत्मा kavya Ki Atma काव्य की आत्मा kavya ki aatma काव्य की आत्मा क्या है काव्य की आत्मा ध्वनि kavya ki aatma kise kehte hain काव्य की आत्मा किसे कहते है काव्य आत्मा की संकल्पनात्मक अनुभूति है - काव्य के सन्दर्भ में 'आत्मा' शब्द का प्रयोग सर्वप्रथम वामन ने किया।
काव्य की आत्मा
kavya Ki Atma
काव्य की आत्मा kavya ki aatma काव्य की आत्मा क्या है काव्य की आत्मा ध्वनि kavya ki aatma kise kehte hain काव्य की आत्मा किसे कहते है काव्य आत्मा की संकल्पनात्मक अनुभूति है - काव्य के सन्दर्भ में 'आत्मा' शब्द का प्रयोग सर्वप्रथम वामन ने किया।भारतीय काव्य शास्त्र में वामन को रीति सम्प्रदाय का प्रवर्तक माना जाता है।उनके अनुसार काव्य की आत्मा 'रीति' है- 'रीतिरात्मा काव्यस्य।' वामन के इस कथन 'काव्य ग्राह्यमलंकरात् सौन्दर्यमलंकारः' की व्याख्या करते हुए विद्वानों ने यह निष्कर्ष निकाला है कि प्रकारान्तर से वामन 'सौन्दर्य' को ही काव्य की आत्मा स्वीकार करते हैं। यदि इस तरह का निष्कर्ष ग्रहण करना उचित है, तो इसे वामन की बहुत बड़ी देन स्वीकार करना पड़ेगा।
आचार्य दण्डी ने 'काव्यादर्श' में 'पदावली' को काव्य का शरीर और 'वैदर्भमार्ग' को उसका प्राणतत्त्व स्वीकार किया है।प्राण भी सामान्यतः आत्मा अथवा सारभूत तत्व के लिए ही ग्रहण किया जाता है।
ध्वन्यालोककार आनन्दवर्धन ने ध्वनि को काव्य की आत्मा सिद्ध किया है- 'काव्यस्यात्मा प्वानः ।' उसके अनसार-जिस प्रकार स्त्रियों के शरीर में अंग-प्रत्यंग के सौन्दर्य के अतिरिक्त लावण्य नाम की एक अनिर्वचनीय वस्त होती है, उसी प्रकार काव्य में वाच्यार्थ से भिन्न एक प्रतीयमान अर्थ होता है, जिसे 'व्यंग्यार्थ' कहते हैं। यही व्यंग्यार्थ काव्य का सारभूत तत्त्व आत्मा है-
'प्रतीयमानं पुनरन्यदेव वस्त्वस्ति वाणीसु महाकवीनाम्
यत्तत्प्रसिद्धा वयवातिरिक्तं विभाति लावण्यमिवांगनासु।
आनन्दवर्धन के पश्चात् कुन्तक ने, जो वक्रोक्ति सम्प्रदाय के प्रवर्तक माने जाते हैं, वक्रोक्ति को काव्य का जीवित अर्थात् प्राण सिद्ध किया है- 'वक्रोक्तिः काव्य जीवितम्।' कुन्तक द्वारा प्रतिपादित वक्रोक्ति सिद्धान्त, 'वक्रोक्ति अलंकार' से सर्वथा भिन्न एक नवीन वस्तु है।पदों अथवा शब्दों को असाधारण क्रम में संयोजित करने से कविता में जो लोकोत्तर चमत्कार उत्पन्न होता है, कृन्तक के अनसार वही वक्रोक्ति है। वक्रोक्ति को काव्य की आत्मा कहकर कुन्तक ने काव्य में कला का विशष महत्त्व प्रदान किया है।
रीति, ध्वनि, वक्रोक्ति को समय-समय पर आचार्यों द्वारा काव्य की आत्मा के रूप में प्रतिष्ठित करने के प्रयास अवश्य होते रहे, किन्तु उन्हें अन्तिम रूप से वह प्रतिष्ठा कभी प्राप्त न हुई। सर्वसम्मति से 'रस' की व्याख्या अवश्य की लेकिन उसे आत्मा का गौरवपूर्ण स्थान उन्होंने नहीं प्रदान किया। अलंकार सम्प्रदाय के आचार्यों ने अलंकार को काव्य का सर्वप्रमुख तत्त्व स्वीकार करने के ' बावजूद महाकाव्य के लिए रस की आवश्यकता को स्वीकार किया।
आनन्दवर्धन ने प्रत्यक्षतः ध्वनि को काव्यात्मा का गौरव प्रदान किया, फिर, भी अपेक्षा रूप से रस को काव्य में सर्वातिशायी महत्त्व प्रदान करने का श्रेय उन्हीं को दिया जाना चाहिए। ध्वनि के अनेक भेदों में असंलक्ष्य क्रम व्यंग्यध्वनि भी एक है, जिसे दूसरे शब्दों में रसादिध्वनि कहा गया है और उसको ध्वनि का सर्वोत्कृष्ट रूप बताया गया है। इस तरह आनन्दवर्धन के मतानुसार काव्यों में श्रेष्ठ ध्वनिकाव्य और ध्वनियों में श्रेष्ठ रस ध्वनि है। अतः सर्वश्रेष्ठ काव्य वही हुआ, जिसमें रस की पूर्ण निष्पत्ति हुई हो।
आनन्दवर्धन के अनुकरण पर मम्मट ने भी रस ध्वनि के प्रकरण में रस निष्पत्ति और साधारणीकरण का विस्तृत विवेचन किया है, जिससे यह संकेत प्राप्त होता है कि वे भी रस को काव्य का सर्वोत्तम और सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण तत्त्व स्वीकारते हैं। आनन्दवर्धन और मम्मट दोनों ही रसानभूति से उत्पन्न लोकोत्तर आनन्द को काव्य की सर्वोत्तम उपलब्धि मानते हैं। उनके अनुसार
'सकल प्रयोजन मौलिभूतं समानान्तरमेव रसास्वादन समुद्भूतं विगलित वेदान्तरम् आनन्दम्।
अग्निपराण में 'रस' को काव्य का जीवित कहा गया है। औचित्य सम्प्रदाय के प्रवर्तक क्षेमेन्द्र, यद्यपि, औचित्य को काव्य का प्राणतत्त्व मानते हैं, किन्तु काव्य में रस के सर्वोपरि महत्त्व को वे भी अस्वीकार नहीं करते।
साहित्यशास्त्र के विद्यार्थियों में विश्वनाथ के 'साहित्य दर्पण' का सबसे अधिक सम्मान है उसमें काव्य की परिभाषा 'रस' को ध्यान में रखकर निश्चित की गयी है। 'वाक्यं रसात्मकं काव्यं से स्पष्ट है कि वे रसविहीन रचना को काव्य मानने के लिए तत्पर नहीं हैं। इससे स्वयमेव सिद्ध है कि उनकी दृष्टि में रस ही काव्य का सारभूत अथवा प्राणतत्त्व है।
हिन्दी में आचार्य रामचन्द्र शुक्ल और डॉ० नगेन्द्र प्रभृत महान आलोचकों ने रस को काव्य में सर्वाधिक महत्त्व प्रदान किया है और काव्य के अन्य उपादानों को उसी का पोषक अथवा संवर्द्धक बताया है।
'काव्य की आत्मा' पर कवि द्वय सुखमंगल सिंह और कवि अजीत श्रीवास्तव मे हुई वार्ता से निष्कर्ष मे आया कि कविता स्यम अपने आप मे रस अलंकार आदि विश्लेषणों के ऊपर है | रस अलंकार से कविता नहीं है | कविता से रस अलंकार है | काव्य सर्वोपरि था काव्य सर्वोपरि है और काव्य ही सर्वोपरि रहेगा भी | काव्य ही जीवन का प्राणवायु है | रस- अलंकार तत्व को कविता से अलग नहीं जा सकता |
जवाब देंहटाएंकाव्य सर्वोपरि उसी प्रकार से है जैसे नारी सर्वोपरि है न कि उसका शृंगार |
टिप्पणी प्रकाशित करने के लिए हिन्दी कुंज काम टीम के प्रति आभार ।
जवाब देंहटाएंकाव्य की आत्मा को लेकर कितने सम्प्रदाय है।
जवाब देंहटाएंReal
जवाब देंहटाएंधन्यवाद
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