नए दिन की शुरुआत नए दिन को अब एक नया शुरुआत देने के लिए वो तैयार हो गई।नारी अबला थी ही नहीं उसे बनाया गया था। बेटियां बेटों से कम थी ही कब? ये तो बस लोगों की सोच थी। आखिर शक्ति प्रदर्शन को मर्दानगी पुरस्कार से कब से नवाजा जाने लगा
नए दिन की शुरुआत
नए दिन की शुरुआत शाम का पहर था । आंखों से आंसू मन में चल रहे विचारों की धारा प्रवाह को बाधित किय जा रहे थे। तभी अंदर से एक आवाज़ आयी " नहीं रोना है, बिल्कुल नहीं है क्युकी इससे आपकी कमजोरी ज़ाहिर होती है। पर लड़कियां तो रोया करती हैं तो क्या नारी ही कमजोर है? परन्तु पिताजी तो कहा करते थे कि दिल अगर बोझिल हो जाए तो अश्रु के बेहने से मन का सारा विकार निकलता है। " गहरी सोच में इन सारी बातों की उलझनों में एक टक महारानी लक्ष्मी बाई की तस्वीर को देखते हुए उन आंखों को शीशे की तरफ मोड़ दिया। अब खुद को निहारते हुए अपेक्षा अपने स्वर्गवासी पिता की बातों में कहीं गुम हो गई थी।
बाल उम्र में अपनी माता की खोने के बाद पिताजी ने ही उसे पाला था और अनेकों सीख दी थी। उनमें से सबसे महत्वपूर्ण थी नारी शक्ति। लक्ष्मी बाई से लेकर राजिया सुल्तान , कल्पना चावला से लेकर संद्र सैमुएल, इंदिरा गांधी से लेकर मेरी कोंम जैसी अनगिनत वीरांगनाओ के जीवन की संघर्ष उसे मुंह ज़ुबानी याद थी। पिताजी का जीवन अपनी बिटिया को खुद पर निर्भर करने में और उसका आत्मविश्वास बढ़ाने में निकल गया।
ना जाने वह कों सी मनहूस घड़ी थी जब किस्मत ने अपेक्षा से उसके एकमात्र सहारे को उससे छीन लिया। पांच वर्षों से वह बिल्कुल अकेली थी। परिवार वालों ने ये कहकर उसे अपनाने से इंकार कर दिया कि लड़की है, को बोझ उठाए? बचपन से अपेक्षा ने अन्याय के खिलाफ आवाज़ उठाना सीखा था , सहनशक्ति तो बस परिवार वालों के लिए थी।
आकांक्षा मिश्रा |
ज़िन्दगी ने अब एक नया मोड़ ले लिया था। सप्ताह भर से अपेक्षा के चाहने वालों में वृद्धि आ गई थी। रिश्तेदार भी उसे अपनाने के लिए अब तैयार थे। चंद दिनों पहले की बात थी, कुछ गुंडे एक पिता के सामने उसकी नाबालिग बच्ची को सरेआम छेड़ रहे थे और लोगों की फौज चुपचाप तमाशा देख रहे थे। कुछ तो उस नज़ारे को कैमरे में कैद कर अपनी नज़रों में महान बन रहे थे। भला हो उस मोटरसाइकिल की जो समय पर खराब हुई और अपेक्षा को ये मंज़र देखने को मिला। सामने वह लोग थे जो अनहोनी होने के बाद ' हमें न्याय चाहिए का मोर्चा लेकर निकलते हैं ' । पर अब ये सब सोचते का वक्त नहीं था। कराहती बच्ची के पास खड़े उस लाचार बाप की कांपती आवाज़ उसके दिल के घाव को और गहरा कर रही थी। बीते कल की चोट में मलहम लगने को ही था के ज़िन्दगी ने फिर से वही सब दोहरा दिया। अगर आज वह हाथ पे हाथ धरे बैठी रहती तो शायद ५ वर्ष पूर्व जिस तरह उसने अपने पिता को खोया था , वह बच्ची भी अपने बाप को को देगी। सूझ - बूझ, आंतरिक शक्ति और आत्मविश्वास के साथ वह उन दोनों को बचाने में कामयाब हुई। अपनी जान दाव पर लगाकर उन तीनों गुंडों से भिड़ने में उसने देर नहीं की। चोटें तो आयिं पर पहले के मुताबिक ये काफी छोटी चोट थी। आज उसकी समझदारी से दोषी कटघरे के पीछे थे।
अख़बार से लेकर दूरदर्शन तक हर तरफ अपेक्षा के ही चर्चे थे। पूरे शहर में उसकी वाह वाही हो रही थी। जो रिश्तेदार उसका मुंह तक देखना नहीं चाहते थे , आज उसे अपने परिवार का बताकर गौरवान्वित हो रहे थे। एक तरफ जहां अपेक्षा के कारनामे से हर तरफ खुशी की लहर थी, वहीं दूसरी तरफ वह खुद को कमरे में बंद किए किसी गहरे खयालों में मग्न थी। अख़बारों में स्वर्ण अक्षरों में लिखे शीर्षक उसे दुख पहुंचा रहे थे। "लड़की होकर दिखाई हिम्मत", "अबला नारी बनी सबला", "आज बेटियां बेटों से कम नहीं", " जब नारी ने दिखाई मर्दानगी"। लड़की ने हिम्मत दिखाई तो इतना आश्चर्य क्यों? आखिर बच्चे पैदा करते वक्त वह अक्सर हिम्मत दिखाया करती है। नारी अबला थी ही नहीं उसे बनाया गया था। बेटियां बेटों से कम थी ही कब? ये तो बस लोगों की सोच थी। आखिर शक्ति प्रदर्शन को मर्दानगी पुरस्कार से कब से नवाजा जाने लगा?
अपने ही प्रश्नों के जाल में उलझती ही जा रही थी कि तक कर उसकी आंखें लग गईं। अचानक से किसी के आने की आहट मिली। पीछे घूमी तो पिताजी मुख में चांद सी मुस्कान लेकर खड़े थे। कहने लगे " मेरी बिटिया ने गर्व से आज मेरा सिर ऊंचा कर दिया। इतनी उलझनों में ना फस कर बा अपने व्यक्तित्व को प्रभावशाली बनाने के प्रयासों में जुटी रहो। इससे प्रभावित होकर बहुत सारी लड़कियां तुम्हारे पदचिन्ह पर आगे बढ़ेंगी और वो दिन दूर नहीं जब तुम्हारे सपनों की दुनिया हकीकत में सबके आंखों के सामने होगी।"इतना कहकर वे अंधेरे में कहीं विलुप्त हो गए। अपेक्षा चीखती हुई जैसे ही नींद से जागी तो समझ आया कि यह एक सपना था। पर उसे अब अपने सारे उलझनों से आजादी मिल गई थीऔर उसके चेहरे पर खुशी वापस से झलक उठी। नए दिन को अब एक नया शुरुआत देने के लिए वो तैयार हो गई।
- आकांक्षा मिश्रा
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