धर्मराज की अनुज भीमसेन से गुफ्तगू कलयुग आने वाला मान, घोर निशा और अन्धकार, चंचल -चपल बह रही बयार, सबके सब संसय दुःखहाल | भाग्य का झटका पटका, कवि हूँ मैं सरयू-तट का ! सूर्य - किरणों का पता नहीं, अंधकार गहन छटा नहीं, द्वारिकापूरी अर्जुन को भेजा, उनकी खबर मिली नहीं।
धर्मराज की अनुज भीमसेन से गुफ्तगू
कलयुग आने वाला मान,
घोर निशा और अन्धकार,
चंचल -चपल बह रही बयार,
सबके सब संसय दुःखहाल |
भाग्य का झटका पटका,
कवि हूँ मैं सरयू-तट का !
सूर्य - किरणों का पता नहीं,
अंधकार गहन छटा नहीं,
द्वारिकापूरी अर्जुन को भेजा,
उनकी खबर मिली नहीं।
बीता कइयों मॉस उनका,
कवि हूँ मैं सरयू-तट का!
क्रोध- लोभ -असत्य बढ़ा,
क्रिया कर्म सब उलटा -पुल्टा,
पापपूर्ण व्यापार बढ़ा - चढ़ा,
झगड़ा सबके सर पर चढ़ा|
हाल ज्ञात न उस नटखट का,
कवि हूँ मैं सरयू-तट का !
भाई -भाई,पति -पत्नी लड़ते,
आस-पास में सभी झगड़ते,
बढ़ा लोभ - मोह - अत्याचार,
अपशकुन खड़ा सबके द्वार|
शब्द -अर्थ भी हुए खट पट का,
कवि हूँ मैं सरयू-तट का !
लोभ -दम्भ अधर्म बढ़ा,
क्रिया की गति विकराल कड़ी,
ऋतुओं की चाल अनपढ़ी,
घर परिवार में अनबन खार,
जीव जंतु का मन भटका,
कवि हूँ मैं सरयू-तट का!
मित्रों से मिलने गया था पार्थ,
श्री कृष्ण का लेने हाल -चाल,
धर्मराज ने अनुज से बोला,
भीमसेन बात सुनो अकेला|
युधिष्ठिर का मन भटका भटका,
कवि हूँ मैं सरयू-तट का!
प्रकृति अरिष्ट को सूचित करती,
अपशकुन दीखता डगर नगर ,
अब तो लगने लगा है मुझको,
सांप और विच्छू से डर |
मोह में बुद्धि, से होगा खटका,
कवि हूँ मैं सरयू-तट का!
वायीं आँख फड़क रही ,
लगेगा माना कोई झटका,
भुजाओं में धड़कन भारी ,
बढ़ा जगत में बड़ा लटका|
राज्य और राजा को खटका,
कवि हूँ मैं सरयू-तट का !
सूर्य उदय में कुछ अड़चन पड़ा,
हवा का झोके पर झोका चला,
कुत्ता रट में रोते हुए खड़ा,
घोर अन्धेरा माथे पर चढ़ा |
नर - नारी का जीवन अटका,
कवि हूँ मैं सरयू-तट का!
मूर्ती रो रही देवताओं की,
हिलती - डुलती चाल हाल,
श्री हीन आश्रम हो रहे ,
शहर बगीचे और गांव |
दिख रहा कुदरत का झटका,
कवि हूँ मैं सरयू-तट का !
भयंकर उत्पातों पर मनन ,
युधिष्ठि करने लगे चिंतन,
देखकर उत्पात बढ़ी उलझन,
देखते लोग दूसरे का तन मन |
ध्यान- ज्ञान सबका भटका,
कवि हूँ मैं सरयू-तट का!
कुत्ता निर्भय हो खुद से,
मेरी ओर देख चिल्लाता,
लगने लगा है मुझको ,
कुदरत कहर बरसने वाला|
लगेगा इससे सभी को झटका,
कवि हूँ मैं सरयू-तट का!
गाय और अच्छे पशु भी,
मुझे वायें करके चलते,
दाएं रखते है वे पशु ,
जो गधे जैसे ही हों |
सोच यह मन उलझा खटका,
कवि हूँ मैं सरयू-तट का !
घोड़े - वाहन देख मुझे रोते,
और सियारिन मुझे देख रोती,
उल्लू और प्रतिपक्षी कौआ,
रात में कठोर शब्द सुनाते|
सुख - दुःख सबका घट अटका,
कवि हूँ मैं सरयू-तट का !
बादल गरज रहे जोर -शोर ,
काँप उठी पृथ्वी - पहाड़ ,
विजली गिरती धरा पर ,
धूलि का चारो ओर अम्बार |
गृह का अनकहा यह झटका
कवि हूँ मैं सरयू-तट का
ग्रह -नक्षत्र की टकराहट घोर
मचा रहा दुनिया में शोर
सूर्य की प्रभा मंद पड़ रही
आंगन अन्धेरा और रोर
आफत का बड़ा है लटका,
कवि हूँ मैं सरयू-तट का !
सूर्य -चन्द्रमा के चारो ओर,
मंडल -तारों का फैला जोर ,
दिशाएँ हुईं धुंधली धुंधली,
मुह से निकलती है आग |
विवेकी मानव भी भटका,
कवि हूँ मैं सरयू-तट का !
भूतों की घनी भीड़ में पृथ्वी,
नदी नद तालाब छुब्ध हो रहे,
अंतरिक्ष में लगी आग ,
भयंकर काल कलिकाल ?
हालत देख सबका मन खटका ,
कवि हूँ मैं सरयू-तट का !
घी से आग नहीं जलती,
बछड़े भी दूध नहीं पीते,
और गौवें दूहने नहीं देती,
बैल बैठे हुयेसभी उदास |
प्रकृति का लटका - झटका ,
कवि हूँ मैं सरयू-तट का !
उत्पात से उलझन सबको ,
शहर बगीचे गाँव ,
श्री चरण कमल बिना,
भाग्यहीन भूमि, गगन, ठाव |
कलिकाल चढ़ा शर था,
कवि हूँ मैं सरयू-तट का!
लटका मुख और व्यथित ,
लौटे द्वारिका से अर्जुन,
कान्ति विहीन वह खड़ा ,
नारायन का यह गढ़ा |
सर धर्मराज के पाँव पे पटका,
कवि हूँ मैं सरयू-तट का !
कुदरत की मनशा को जान ,
मन से युधिष्ठिर किए ध्यान
योग और विज्ञान महान,
नारद की बातें आयीं ज्ञान |
लोभ -मोह सब झटका- पटका,
कवि हूँ मैं सरयू-तट का !
-सुखमंगल सिंह ,
अवध निवासी(स्वरचित रचना )
हिंदीकुंज काम का आभारी हूँ आपने मेरी स्वरचित रचना को प्रकाशित किया |
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