रीढ़ की हड्डी एकांकी Reedh ki Haddi Ekanki रीढ़ की हड्डी एकांकी रीढ़ की हड्डी एकांकी का उद्देश्य रीढ़ की हड्डी एकांकी की समीक्षा रीढ़ की हड्डी एकांकी का सारांश रीढ़ की हड्डी सारांश रीड की हड्डी एकांकी के प्रतिपाद्य पर प्रकाश डालिए रीढ़ की हड्डी कहानी का सारांश reedh ki haddi ka saransh short summary of reedh ki haddi reedh ki haddi chapter summary in hindi reedh ki haddi extra questions reedh ki haddi answers reedh ki haddi summary in hindi class 9 reedh ki haddi extra questions and answers reedh ki haddi class 9 solutions reedh की हड्डी सवाल और जवाब रीढ़ की हड्डी extra question answers
रीढ़ की हड्डी एकांकी
Reedh ki Haddi Ekanki
रीढ़ की हड्डी एकांकी रीढ़ की हड्डी एकांकी का उद्देश्य रीढ़ की हड्डी एकांकी की समीक्षा रीढ़ की हड्डी एकांकी का सारांश रीढ़ की हड्डी सारांश रीड की हड्डी एकांकी के प्रतिपाद्य पर प्रकाश डालिए रीढ़ की हड्डी कहानी का सारांश reedh ki haddi ka saransh short summary of reedh ki haddi reedh ki haddi chapter summary in hindi reedh ki haddi extra questions reedh ki haddi answers reedh ki haddi summary in hindi class 9 reedh ki haddi extra questions and answers reedh ki haddi class 9 solutions reedh की हड्डी सवाल और जवाब रीढ़ की हड्डी extra question answers - रीढ़ की हड्डी श्री जगदीशचन्द्र माथुर का एक सामाजिक व्यंग्य है जो कि एक पढ़ी-लिखी लड़की उमा के विवाह के सम्बन्ध में लिखा गया है।एक सामान्य नागरिक रामस्वरूप की पुत्री बी० ए० तक शिक्षा प्राप्त कर चुकी है। वह कालेज छात्रावास में रह चुकी है। वह विचार से सीधी किन्तु सिद्धान्तों की कटु समर्थक है।इसी कारण वह ऐसे लड़के के पिता की आलोचना करती है जो स्त्री-शिक्षा के विरोधी हैं।गोपाल प्रसाद का लड़का शंकर लखनऊ मेडिकल कालेज का छात्र है जो प्रत्येक कक्षा में कम से कम एक बार अवश्य फेल होता है।वह लडकियों के छात्रावास का चक्कर लगाता है जिसके कारण कई बार पीटा भी जा चुका है।
प्रस्तुत एकांकी का प्राण उमा के विवाह के लिए आने वाले गोपाल, उनके पुत्र शंकर तथा उमा के पिता रामस्वरूप जी का आपसी संवाद है।रामस्वरूप अपनी पुत्री की उच्च शिक्षा को छिपाते हैं।जब उमा पान लेकर बैठक में जाती है तो उसकी आँखों पर सुनहला चश्मा देखकर गोपाल चौंक पड़ते हैं।कई बार के आग्रह के बाद उमा मुंह खोलती है और लडकियों को भेंड-बकरी की तरह मानने वाल गोपाल प्रसाद को वह आडे हाथों लेती है।जब गोपाल प्रसाद अपनी बेइज्जती का हंगामा करना चाहते है तो वह उनके पुत्र शंकर का लडकियों के छात्रावास का चक्कर काटने की आदत का पोल खोलती है।वह कहती है कि शंकर महोदय फरवरी माह में छात्रावास के इर्द-गिर्द घूमने के कारण बुरी तरह से पीटे गये जिसमें उनकी रीढ़ की हड्डी टूट गई थी।वह बड़ी मुश्किल से नौकरानी के पैरों पड़कर जान बचा सके थे।
उमा के मुंह से यह भेद खुलते ही शंकर की हवाइयाँ उड जाती हैं और वह चुपचाप वहां चल देता है।गोपाल प्रसाद उमा की योग्यतापूर्ण बातें सुनकर अपना सन्तुलन खो देता है और उपहास मय स्थिति में ही नाटक का अन्त हो जाता है।
रीढ़ की हड्डी एकांकी की समीक्षा
कथावस्तु
इस एकांकी का कथानक समाज में फैली एक मिथ्या धारणा का उद्घाटन है।समाज में ऐसे अनेक पिता हैं जो अपनी पुत्री की योग्यता को छिपाकर अपना स्वार्थ सिद्ध करते हैं।रामस्वरूप ऐसे ही लोगों का प्रतिनिधि है। लड़के के पिता गोपाल प्रसाद लड़की वाले को हेय समझते हैं। लड़की उमा को वह भेड़-बकरी की तरह मोल-तोल करता है। उसे अपने लड़के शंकर की रीढ़ की हड्डी के टूटने का पता नहीं है। उमा द्वारा साहसपूर्ण भण्डाफोड़ एक साहसिक कदम किन्तु काल्पनिक वस्तु है। पूरे कथानक में यही एक अनुकरणीय तथ्य है।
रीढ़ की हड्डी एकांकी |
कथोपकथन
एकांकी का कथोपकथन पात्रानुकूल एवं सजीव है। उसमें परिस्थिति के अनुसार मोड़ तथा आरोह-अवरोह है। रामस्वरूप के संवाद में हीन भावना और गोपाल प्रसाद की बातों में अकड़ है। शंकर अपने को सुयोग्य सिद्ध करता है। उमा को अपने पिता जी की इज्जत का ध्यान है। परन्तु परिस्थिति की वास्तविकता को जानकर वह उबल पड़ती है। जी हाँ ! जाइये, लेकिन घर जाकर जरा यह पता लगाइयेगा कि आपके लाडले बेटे की रीढ़ की हड्डी भी है या नहीं यानी बैक बोन। उमा का यह कथन एक ओर गोपाल की शेखी दूर करता है और दूसरी ओर समाज की दकियानुसी प्रवृत्तियों के मुख पर सीधा तमाचा मारता है।
पात्र
इस एकांकी में एक ओर रामस्वरूप, उसकी पत्नी प्रेमा और बेटी उमा तथा दूसरी और गोपाल प्रसाद और उनका पुत्र शंकर है। गोपाल प्रसाद वकील होकर भी रूढिवादी है।वह लड़कियों की शिक्षा 10वीं के ऊपर नहीं चाहता है।इसमें सभी पात्र एक वर्ग का प्रतिनिधित्व करते हैं।रामस्वरूप रो-धोकर लड़की की शादी करना चाहता है।उमा की माँ मध्यमवगीय-माताओं की प्रतिनिधि है।उमा आधुनिक शिक्षित लडकी है।उसकी तरह साहस दिखाना प्रायः सभी लड़कियों के लिए संभव नहीं है।
देशकाल
इस दृष्टि से यह एकांकी सफल है। ऐसी घटनाएँ प्रायः मध्यवर्गीय परिवार में दिखाई पड़ती है। पूरा एकांकी एक ही अंक में ,एक ही रंगमंच पर और एक ही घटना को लेखक प्रदर्शित होता है।
भाषा शैली
इसमें एकांकीकार ने व्यंगात्मक शैली अपनाई है। इसमें पर्याप्त अभिनयशीलता का आदर्श निहित है। इसकी भाषा बड़ी सरल प्रचलित और पात्रानुकूल है।वकील होकर भी गोपाल चलती सीधी भाषा का प्रयोग करते हैं।
रीढ़ की हड्डी एकांकी का उद्देश्य
प्रस्तुत एकांकी में नाटककार का उद्देश्य समाज की उस प्रवृत्ति का खंडन है ,जिसमें लड़कियों को शादी के लिए भेड़ बकरियों की तरह तौला जाता है। लेखक ने आधुनिक पढ़ी - लिखी स्वालंबी और आत्म गौरव से परिपूर्ण बालिका उमा के माध्यम से रूढ़िवादी लोगों को बुरी तरह लथाड़ा है। अपने पुत्र के दोषों को न देखने वाले मनुष्य भी लड़की के गुण दोषों की कितनी छानबीन करते हैं ऐसे ही लोगों का प्रतिनिधित्व गोपाल प्रसाद करते हैं। उमा के व्यक्तित्व के समक्ष शंकर नगण्य है। फिर भी गोपाल प्रसाद उसकी योग्यता की सराहना करते हैं। इस प्रकार लेखक ने विवाह की रूढ़िवादी व्यवस्था और व्यावसायिक मनोवृत्ति का उपहास किया है। लेखक अपने उद्देश्य में सफल है।
रीड की हड्डी एकांकी के प्रतिपाद्य पर प्रकाश
दहेज आदि की कुप्रथाओं के कारण समाज में लड़कियों का विवाह एक समस्या बनी हुई है। लड़कियों के माता-पिता लडकियों को भार समझते है। लड़के वालों का दिमाग ढूँढे नहीं मिलता। लड़का चाहे कितने दुर्गुणों से युक्त क्यों न हो किन्तु लड़की उसे सद्गुणालंकृत ही चाहिए। प्रस्तुत एकांकी में एकांकीकार ने इसी समस्या को पुष्पित और पल्लवित किया है।
लड़की देखने वालों की तैयारी :
उमा साधारण स्थिति के गृहस्थ बाबू रामस्वरूप की लडकी है। पिता ने उसे उच्च शिक्षा दी।अब वह विवाह योगय हो गई है। बाबू रामस्वरूप उसके विवाह के लिए चिन्तित हैं। लड़की को देखने के लिए लड़के के पिता लड़के के साथ आने वाले हैं। वे कमरे को सजाकर तैयार कर देते हैं और लड़के तथा उसके पिता के स्वागत की यथाशक्ति सभी तैयारियाँ कर लेते हैं। दावत में केवल मक्खन की ही कमी है जिसे लेने के लिए वे अपने नौकर रतन को बाजार भेज देते हैं। बाबू रामस्वरूप अपनी पत्नी प्रेमा से उमा को तैयार करने के लिए कहते हैं, जिससे वह उनके सामने सलीके में जाय। समस्त तैयारियाँ सम्पन्न कर ली जाती हैं।
शंकर के पिता का उमा को देखने आना :
शंकर अपने पिता गोपाल प्रसाद के साथ उमा को देखने आता है। बाबू रामस्वरूप आवश्यक शिष्टाचार के साथ उनका स्वागत करते हैं। बातचीत के बीच में बाबू रामस्वरूप.शंकर से उसकी शिक्षा के सम्बन्ध में पूछते हैं। शंकर कहता है कि उसे पढाई समाप्त करने में वैसे तो दो साल बाकी हैं लेकिन कम से कम दो साल का मार्जिन भी चाहिए क्योंकि वह फेल भी तो हो सकता है।नाश्ता समाप्त करने के पश्चात् बाबू गोपाल प्रसाद उमा की पढ़ाई-लिखाई के बारे में बातचीत करते हुए कहते हैं कि उन्हें अधिक पढ़ी-लिखी बहू नहीं चाहिए। नाश्ता समाप्त होने पर बाबू रामस्वरूप पान लाने को आवाज देते हैं।
उमा द्वारा स्वागत :
उमा सादे वस्त्र पहने हुए है। वह पान लेकर आती है। पिता-पुत्र दोनों उसे देखते हैं। उमा की आँखों पर चश्मा देखकर बाप-बेटे दोनों चौंक पड़ते हैं। बाबू रामस्वरूप स्पष्ट कहते हैं कि पिछले माह में आँखें दुखने के कारण कुछ समय के लिए उमा को चश्मा लगाना पड़ा। गोपाल प्रसाद के कहने से उमा तख्त पर बैठ जाती है। गोपाल प्रसाद उससे गाने-बजाने के सम्बन्ध में पूछते हैं।उमा मीरा का एक गीत गाती है। उसके पश्चात् गोपाल प्रसाद उससे सिलाई-कढ़ाई आदि के सम्बन्ध में भी पूछते हैं। उमा को यह सब अच्छा नहीं लगता। वह कोई उत्तर नहीं देती। उमा शंकर की पोल खोलते हुए विवाह से इन्कार करती है।उमा के पिता जबान देने का आग्रह करते हैं। इस पर उमा दृढ़ता के साथ कहती है -
"क्या जवाब दूं बाबू जी ! जब कुर्सी मेज-बिकती है, तब दुकानदार कुर्सी-मेज से कुछ नही पूछता सिर्फ खरीदार को दिखला देता है। और पसन्द आयेगी तो अच्छा, वरना....। पिता से इतना कहने के पश्चात् उमा गोपाल प्रसाद और शंकर को सुनाती हुई कहती है -
“अब मुझे कहने दीजिए बाबूजी ! ये जो महाशय मेरे खरीदार बनकर आये हैं, इनसे जरा पूछिए. क्या लड़कियों के दिल नहीं होते ? क्या उनको चोट नहीं लगती ? क्या वे बेबस भेंड-बकरियों है, जिन्हें कसाई देख-भाल कर खरीदता है।
बाबू गोपाल प्रसाद उमा की खरी बातों से तिलमिला उठते हैं। वे उमा के पिता से कहते है कि क्या मुझे अपमानित करने के लिए ही बुलाया गया है। इस पर उमा और भी दृढता से कहती है।
“जी हाँ, और हमारी बेइज्जती नहीं होती।जो आप इतनी देर से नाप-तोल कर रहे हैं और जर अपने इन साहबजादे से पूछिये कि अभी पिछली फरवरी में लड़कियों के हॉस्टल के इर्द-गिर्द क्यों घूम रहे थे और वहाँ से कैसे भगाये गये थे।
गोपाल प्रसाद को यह भी पता लग जाता है कि उमा बी० ए० पास है। वे गुस्से में उठकर हो जाते हैं और उमा के पिता से कहते हैं कि उन्हें लड़की को मैट्रिक पास बतला कर धोखा दिया गया है। इतना कहकर वे शंकर से चलने को कहते हैं। उमा उन पर व्यंग्य करती हुई कहती है -
जी हाँ जाइये। लेकिन अब जाकर यह पता लगाइयेगा कि आपके लाडले बेटे की रीढ़ की हड्डी भी है या नहीं। यानी बैक, बोन, बैक बोन ।
गोपाल प्रसाद बेबसी का क्रोध लेकर चले जाते हैं।उमा की खरी-खरी बातों के प्रहार से शंकर भी रूआँसा सा चेहरा लेकर चल देता है।उमा शान्त हो जाती है और उसके पिता धम्म से कुसा पर बैठ जाते हैं। उमा की हँसी जाती रहती है।उसकी सिसकियाँ बँध जाती है। इसी समय नौकर रतन मक्खन लेकर आता है जैसे वह अन्त में मक्खन लगाने आया हो। यहीं कथानक समाप्त हो जाता है।
जगदीशचन्द्र माथुर का जीवन परिचय
श्री जगदीशचन्द्र माथुर का जन्म खुर्जा (उत्तर प्रदेश) के पास शाहजहाँपुर गाँव में 16 जुलाई, 1917 को हुआ। आपने सन् 1939 में इलाहाबाद विश्वविद्यालय से अंग्रेजी साहित्य में प्रथम श्रेणी में एम.ए. पास किया सन् 1941 में आप इण्डियन सिविल सर्विस के लिए चुने गये। छः वर्ष तक आप बिहार प्रशासन में शिक्षा सचिव रहे। सन् 1955 से 1962 तक नई दिल्ली में आकाशवाणी के महानिदेशक रहे। इसी प्रकार आप कई उच्च पदों पर प्रतिष्ठित रहे। 14 मई, सन् 1978 को आपका स्वर्गवास हो गया।
साहित्य के प्रति माथुर जी का विशेष लगाव रहा। बारह वर्ष की अवस्था में आपने 'बाल सखा' पत्रिका के लिए “मूर्खेश्वर राजा” प्रहसन लिखा । “मेरी बांसुरी" एकांकी को माथुरजी के साहित्यिक जीवन का वास्तविक प्रारम्भ माना गया है।
हिन्दी नाटक और एकांकी के क्षेत्र में माथुरजी का विशेष योगदान रहा है। 'भोर का तारा', 'ओ मेरे सनम', 'मेरे श्रेष्ठ एकांकी', 'रीढ़ की हड्डी', 'कलिंग विजय' माथुरजी के बहुचर्चित एकांकी रहे हैं। एकांकियों के अतिरिक्त माथुर जी ने 'कोणार्क', 'शारदीया', 'पहला राजा' और 'दशरथनंदन' शीर्षकों से चार नाटक भी लिखे हैं।
गम्भीर विषय को सुन्दर ढंग से प्रस्तुत करना माथुर जी की विशेषता रही है। 'रीढ़ की हड्डी' एकांकी में माथुरजी ने एक सामाजिक समस्या से जूझते एक मध्यमवर्गीय परिवार का अपनी लेखनी के माध्यम से अति सुन्दर दृश्य प्रस्तुत किया है।
रीढ़ की हड्डी एकांकी का सारांश
धनी वर्ग अपनी स्वार्थपूर्ति के लिए भावनाओं को ताक पर रखकर विवश वधू पक्ष पर किस सीमा तक हावी होता है यह 'रीढ़ की हड्डी' एकांकी में स्पष्ट रूप से परिलक्षित होता है। आज के उपभोक्तावाद ने मनुष्य को अत्यन्त निर्मम बना दिया है, लेखक ने इसका स्पष्ट चित्रण किया है।
निर्धन और उच्च धनी वर्ग के बीच त्रिशंकु की भाँति अधर में लटका मध्यवर्ग दुविधा की स्थिति में किस प्रकार कसा है इसी तथ्य को समझाने का माथुर जी ने प्रयास किया है। एकांकी का उद्देश्य स्वार्थी और हृदयहीन लोगों पर सीधा प्रहार है जो दूसरों की भावनाओं का सम्मान न करके परिस्थिति का लाभ उठाना चाहते हैं ।
एकांकी के नपे-तुले और सटीक संवाद एकांकी के प्रभाव में सहायक सिद्ध होते हैं। लड़के के पिता का लोभ और स्वार्थ संवादों में स्पष्ट झलकता है। लड़की के संवाद बहुत तीक्ष्ण और कटु हैं जो वरपक्ष को अपमानित करने के लिए पर्याप्त हैं। माथुरजी की भाषा पात्रानुकूल है। सुन्दर व सटीक शब्दों का चयन और उनका वातावरण के अनुरूप प्रयोग माथुर जी की शैली की विशेषता है। यही कारण है कि इनके एकांकी इतने चर्चित और प्रिय रहे हैं।
वर्तमान संदर्भ में माथुरजी के एकांकी सर्वश्रेष्ठ रहे हैं। 'रीढ़ की हड्डी' उन नवयुवकों पर व्यंग्य है जो शादी ब्याह के निर्णय स्वयं नहीं ले पाते और अपनी अक्षमता छिपाने के लिए मौन बने रहते हैं। लड़के का पिता अपने पुत्र की त्रुटियों को बड़े नाटकीय ढंग से छिपाने का प्रयास करता है। समय के साथ पढ़ी-लिखी स्त्रियाँ भी अब खुलकर सामने आने लगी हैं, लड़की द्वारा लड़के और उसके पिता को दी जाने वाली फटकार से यह स्पष्ट होता है। नारी मुक्ति, नारी सशक्तिकरण, नारी उत्थान का खुला संदेश इस एकांकी की विशेषता है ।
रीढ़ की हड्डी एकांकी का संदेश
'रीढ़ की हड्डी' एक हास्य और व्यंग्य प्रधान एकांकी है। लड़की उमा का. पिता रामस्वरूप नौकर के साथ मिलकर घर सजा रहा है, क्योंकि उसकी लड़की को देखने के लिए गोपालप्रसाद अपने पुत्र शंकर के साथ आनेवाला है। एकांकी कन्यापक्ष की दयनीय अवस्था को दर्शाता है जहाँ लड़की को सजा-धजाकर ऐसे लाया जाता है मानो दूकान में रखी किसी वस्तु की बिक्री के लिए उसका सौदा किया जाता है, जहाँ खरीदी जाने वाली वस्तु को खूब जाँचा परखा जाता है। लड़की को लड़के वाले पसंद कर लें इसके लिए झूठी शान, आडम्बर का सहारा लिया जाता है। शिक्षा, संगीत, कला में प्रवीण दिखाने के लिए झूठे प्रमाणपत्र प्रस्तुत किये जाते हैं। लड़का चाहे जितना भी निकम्मा हो, लड़की उसे सर्वगुणसम्पन्न चाहिए, वह सुन्दर हो, गाने बजाने में निपुण हो, अत्यन्त सुन्दर हो व समस्त गुणों की खान हो। बेटी यदि समय पर विदा न हो तो परिवार वालों पर वह बोझ बन जाती है। जब भी कोई रिश्ता आता है, माता-पिता का प्रयास होता है कि किसी भी रूप में बात न बिगड़े, कभी-कभी लड़की के घरवाले बिना लड़की की राय जाने उसे गलत घर में भेज देते हैं जिससे लड़की का जीवन नर्क के समान हो जाता है। इस एकांकी का उद्देश्य यह दर्शाना है कि इतनी उन्नति के बाद अभी भी हम पुरानी सामाजिक परम्परा का पालन कर रहे हैं जहाँ अभी भी लड़की माँ-बाप की इच्छा से विवाह के लिए विवश होती है।
एकांकी पुरुष प्रधान समाज पर भी व्यंग्य है जहाँ सदा पुरुष का शासन रहा है जो अपनी इच्छाओं और आवश्यकताओं को महिलावर्ग पर थोपता आया है। गोपालप्रसाद का पुत्र शंकर न तो पढ़ा लिखा है, न ही उसका कोई व्यक्तित्व है। जब वह बैठता है तो झुका हुआ, ऐसा लगता है मानो उसकी रीढ़ की हड्डी न हो । 'रीढ़ की हड्डी' एकांकी लड़के की इस त्रुटि को भी दर्शाता है कि लड़का स्वयं अपने जीवन का निर्णय नहीं ले सकता, उसके जीवन का निर्णय उसके पिता लेते हैं जो लड़की में दोष निकाल रहे हैं। लड़के में चाहे कितने भी अवगुण हों, कोई भी व्यसन हो, उसे सुन्दर और सुशील लड़की ही चाहिए।
प्रस्तुत एकांकी यह भी दर्शाता है कि समय के साथ हमारी लड़कियों की सोच में भी बदलाव आया है। अब लड़की अपना अच्छा-बुरा सोचने में सक्षम है और वह अन्याय के विरुद्ध आवाज उठा सकती है। उमा से जब लड़केवाले बहुत अधिक पूछताछ करते हैं तो उसके धैर्य का बाँध टूट जाता है और वह भी मुँह बन्द नहीं रखती और शंकर और उसके पिता को बुरी तरह फटकारती है। वह शंकर की पोल खोलते हुए बताती है कि किस प्रकार लड़कियों के होस्टल के आस-पास चक्कर लगाते हुए उसे भगाया गया था। एकांकी यह भी दिखाता है कि भावनाएँ और संवेदनायें सबकी समान होती हैं चाहे वह लड़का हो या लड़की।
रीढ़ की हड्डी शीर्षक की सार्थकता
रीढ़ की हड्डी एकांकी एक सामाजिक कुप्रथा को दिखाता है जहाँ वर वधू को विवाह के लिए पसंद करने आया है। स्वयं अयोग्य होते हुए भी वह चाहता है कि उड़की उसे सर्वगुणसम्पन्न मिले । विवाह सम्बन्धी इस सौदेबाजी में वर यानी शंकर आरम्भ से अंत तक मूक बना बैठा है और सारी बातचीत उसका पिता ही करता है। इसलिए जब लड़की बाप-बेटे को खरी-खोटी सुनाती है तो बेटा वहाँ से चलने की बात करता है। बेटा अपने निर्णय स्वयं नहीं ले सकता है। उसका स्वयं कोई आधार नहीं है। उमा का कथन कि “घर जाकर जरा पता लगाइएगा कि आपके लाड़ले बेटे की रीढ़ की हड्डी भी है या नहीं" शत-प्रतिशत उचित और तर्कसंगत है जिससे शीर्षक की सार्थकता उपयुक्त सिद्ध होती है।
रीढ़ की हड्डी एकांकी मुख्य पात्र का चरित्र चित्रण
रीढ़ की हड्डी एकांकी जगदीशचन्द्र माथुर जी द्वारा लिखित एक प्रसिद्ध एकांकी है। जिसके प्रमुख पात्रों का चरित्र चित्रण निम्नलिखित है -
गोपालप्रसाद का चरित्र चित्रण
गोपालप्रसाद लड़के का पिता है जो उन असंख्य पिताओं का प्रतिनिधित्व करता है जिन्होंने आज समाज और देश को कलंकित किया हुआ है। ऐसे लोग अपने पुत्रों का विवाह कराने के लिए दहेज के नाम पर बड़े से बड़ा मुँह खोलते हैं। इनकी लालची प्रवृत्ति और स्वार्थपरता के सामने लड़की पक्ष असहाय और निराश-सा या तो समर्पण करता है या अपनी बेटी को बिनब्याही रखता है। गोपालप्रसाद लड़कीवालों से बहुत ऊँची अपेक्षा करता है जैसे लड़की में सारे गुण हों, कला संगीत का उसे ज्ञान हो, सुन्दरता में भी कोई कमी न हो। वह अपने लड़के की कमजोरियों पर बराबर पर्दा डालता है जो उसकी लोक चतुराई को दर्शाता है। गोपालप्रसाद स्थिति की गंभीरता को नहीं समझता और उमा की आँखों पर चढ़े चश्मे को देखते ही उस पर टिप्पणी करता है जो सर्वथा अनुचित है।
रामस्वरूप का चरित्र चित्रण
लड़की का पिता है। वह बेबस है और हर पिता की भाँति वह भी चाहता है कि उसकी पुत्री का विवाह एक अच्छे परिवार में हो और वह सदा सुखी रहे। वह स्वभाव से विनम्र है। वह कुछ भी ऐसा नहीं कहता जिससे कहीं मनमुटाव की स्थिति उत्पन्न हो। वह एक आदर्श पिता की भूमिका का निर्वाह भी करता जिसका कर्त्तव्य अपनी बेटी का विवाह करके उसे सुखी देखना है । आर्थिक रूप से सम्पन्न न होते हुए भी वह मेहमानों के स्वागत में कोई कसर नहीं छोड़ता । चित्रकारी, सिलाई, कढ़ाई, संगीत आदि गुणों से सम्पन्न दिखाकर वह अपनी बेटी को अच्छे घर में ब्याहना चाहता है। इस उपयोगितावादी स्वार्थी समाज में कन्या का पिता कितना असहाय और विवश है यह रामस्वरूप के चरित्र में पूर्णतया परिलक्षित होता है।
उमा का चरित्र चित्रण
उमा मध्यवर्गीय परिवार का प्रतिनिधित्व करने वाली वह युवती है जो नित्य प्रति विवाह की सौदेबाजी के परीक्षणों से गुजरती है जिसमें वर पक्ष के लोग उसका बारीकी से निरीक्षण करते हैं और जहाँ स्त्री के आदि का पूरा मापदण्ड किया जाता है। उमा एक आज्ञाकारी पुत्री के समान माता-पिता की हर आज्ञा सद्गुण का पालन करती है। शालीनता और सौम्यता उसके व्यवहार में भरपूर दिखाई देती है। चित्रकारी व सिलाई-कढ़ाई वह भली प्रकार जानती है। लड़के के पिता की टीका-टिप्पणी भी वह धैर्यपूर्वक सुनकर चुप रहती है। जब उमा देखती है कि लड़के के पिता पूरी तरह खरीद-फरोख्त की प्रवृत्ति पर उतर आये हैं जिन्हें अपने बेटे के दुर्गुण तो दिखाई नहीं देते उल्टे वे उमा से बड़ी-बड़ी अपेक्षाएँ कर रहे हैं तो उमा के धैर्य का बाँध टूट जाता है। वह लड़के के पिता को खरी-खोटी सुनाती है, जिससे यह सिद्ध होता है कि आत्मसम्मान सबमें होता है और अब वह समय नहीं रहा जब लड़की चुपचाप आँख बंद करके माता-पिता की इच्छा के अनुकूल लड़के का हाथ थाम लेती थी। उमा आधुनिक युग की उन असंख्य लड़कियों की आवाज है जो अब शिक्षित होकर समाज में अपना स्थान पहचानती हैं जो पुरुष-प्रधान समाज में मूक पशुओं की भाँति कदापि समर्पण नहीं करेंगी ।
बहुत सुंदर वस्तुनिष्ठ समीक्षा।
जवाब देंहटाएंWah , Nobody can explain better than this explanation
जवाब देंहटाएंFANTASTIC
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