सन्यासी कहानी सुदर्शन

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सन्यासी कहानी सुदर्शन सन्यासी कहानी सुदर्शन संयासी Sanyasi Hindi Story By Sudarshan sanyasi story by sudarshan in hindi सन्यासी सुदर्शन जी द्वारा लिखी गयी एक आदर्शवादी कहानी है। इसमें आपने सच्चे धर्म और कर्तव्य का वर्णन किया है।सुदर्शन जी द्वारा लिखी गयी कहानी सन्यासी में पालू मुख्य पात्र है। पालू के चरित्र में मुख्य रूप में तीन बिंदु है। पहली जब वह कोई काम धंधा नहीं करता था।

सन्यासी कहानी सुदर्शन


न्यासी कहानी सुदर्शन संयासी Sanyasi Hindi Story By Sudarshan  sanyasi story by sudarshan in hindi सन्यासी सुदर्शन जी द्वारा लिखी गयी एक आदर्शवादी कहानी है। इसमें आपने सच्चे धर्म और कर्तव्य का वर्णन किया है। कहानी के प्रारंभ में लखनवाल ,गुजरात का रहने वाला पालू कई गुणों वाला समझा जाता है। सामाजिक कार्यों में वह रूचि व भाग लेता है। अपने बचपन और युवावस्था का जीवन उसने मौज मस्ती में बिताये। घर के लोग उसे निकम्मा कहते थे। उसके रूप रंग को देखकर एक चौधरी ने अपनी बेटी का उससे विवाह कर दिया। पालू का जीवन एकदम ही बदल गया। वह सदा घर में रहने लगा ,पर जिम्मेदारियों से भागता रहा। पत्नी एक बच्चे को छोड़कर हैजे के कारण चल बसी। परिणामस्वरुप उसके व्यक्तित्व में बहुत बड़ा परिवर्तन आ गया।वह अपने पुत्र को भाई भाभी को सौंप कर सन्यासी बन गया। पालू सन्यासी हो जाने के बाद स्वामी विद्यानंद के नाम से चारों ओर प्रसिद्ध हो गया। पर वह निरंतर अपने मन में अशांत रहता था।उसके अंतर्द्वंद का प्रमुख कारण यह था कि उसके लगता था कि वह अपना कोई कर्तव्य पूरा नहीं कर रहा है।उसने अपने गुरु के पास जाकर अपने मन की वास्तविक स्थिति का वर्णन किया। गुरु समझ गए कि सन्यासी का मन घर परिवार की किसी चिंता में कारण उसका मन नहीं लग रहा है। अतः उन्होंने विद्यानंद को घर वापस जाने की सलाह दी। 
सन्यासी कहानी सुदर्शन
सन्यासी

घर लौटने पर अपने बच्चे की दयनीय दशा देखकर वह दुखी होता है।रात को स्वपन में उसे समस्या का समाधान मिल जाता है कि घर बार त्यागकर सन्यासी बनने की अपेक्षा दूसरों की सेवा और अपने कर्तव्यों का पालन करना जीवन में संतोष तथा शान्ति प्रदान करता है।सबसे बड़ा कर्त्तव्य अपने परिवार की जिम्मदारियों है। अपने पुत्र के प्रति कर्त्तव्य पालन करता हुआ वह मानव मात्र के जीवन का महत्व समझने की ओर बढ़ जाता है। 

सन्यासी कहानी का उद्देश्य 

सन्यासी कहानी में सुदर्शन जी ने यह दिखाया है कि पारिवारिक जीवन ,सामाजिक जीवन और अध्यात्मिक जीवन की ओर मिलाकर ध्यान देना चाहिए।तीनों प्रकार के जीवन की अपनी ही सीमायें हैं। जहाँ वे एक दुसरे से जुड़ें  हैं वहां एक दुसरे से अलग भी हैं। मनुष्य जिस समाज में रहता है उसके प्रति उदासीन होकर जीवन बिताना असंभव है। इसी प्रकार व्यक्ति अध्यातिम्कता द्वारा मानसिक शान्ति और उत्कर्ष को प्राप्त कर सकता है। परन्तु पारिवारिक कर्तव्यों और दायित्यों को पूरा किये बिना वह न तो समाज में जी सकता है और न ही मन की शांति प्राप्त कर सकता है। उसका चित्त अशांत रहता है। लेखक ने पारिवारिक कर्त्तव्यपरायणता को महत्व दिया है।लेखक ने इस कहानी के माध्यम से सन्देश दिया है कि कोई भी गृहस्थ व्यक्ति अपने परिवार के उत्तरदायित्व को पूरा किये बिना सन्यासी शान्ति ,संतोष और मोक्ष नहीं प्राप्त कर सकता है। 

सन्यासी कहानी में शीर्षक की सार्थकता 

सन्यासी कहानी में सुदर्शन जी ने सन्यासी शीर्षक का पालन उचित ढंग से किया है। कहानी में दिखाया गया है कि सभी मनुष्यों को मानव मात्र के प्रति अपने कर्तव्यों में अध्यात्मिक उच्चता के दर्शन की प्रेरणा देना है। मनुष्य आत्मा को ऊँचा उठा कर शान्ति और मुक्ति पाना चाहता है। अध्यात्मिक के द्वारा मनुष्य मानसिक शान्ति और उत्कर्ष को प्राप्त कर सकता है। लेकिन पारिवारिक दायित्वों को पूरा किये बिना सन्यास ग्रहण करना पलायन है। सन्यास धारण कर वनों की ख़ाक छानने से गृहस्थ जीवन का उत्तरदायित्व निभाना और मानवता की सेवा करना जीवन का उद्देश्य होना चाहिए।अतः कहानी का शीर्षक सन्यासी सार्थक संक्षिप्त व उचित है और कहानी का उद्देश्य पूरा करता है। 

सन्यासी कहानी में पालू का चरित्र चित्रण 

सुदर्शन जी द्वारा लिखी गयी कहानी सन्यासी में पालू मुख्य पात्र है। पालू के चरित्र में मुख्य रूप में तीन बिंदु है। पहली जब वह कोई काम धंधा नहीं करता था। परन्तु अपने जीवन का उद्देश्य बना रखा था। अपने गुणों के द्वारा निस्वार्थ भाव से गाँव भर का मनोरंजन करता था।विवाह के बाद उसकी स्थिति में परिवर्तन हुआ। पत्नी के साथ रहकर उसे जीवन बड़ा खुशहाल लगने लगा। पत्नी की मृत्यु के बाद फिर वह उद्देश्यविहीन जीवन जीने लगता है। पुराने दुनिया दारी में उसे कोई सार्थकता नज़र नहीं आती है।इसके बाद वह सन्यासी बन जाता है। लेकिन सन्यासी बनने के बाद भी वहां भी उसे शान्ति नहीं मिलती है।अतः वह घर लौट आता है।घर लौटने पर अपने बच्चे की दयनीय दशा देखकर वह दुखी होता है। रात को स्वपन में उसे समस्या का समाधान मिल जाता है कि घर बार त्यागकर सन्यासी बनने की अपेक्षा दूसरों की सेवा और अपने कर्तव्यों का पालन करना जीवन में संतोष तथा शान्ति प्रदान करता है।सबसे बड़ा कर्त्तव्य अपने परिवार की जिम्मदारियों है।अपने पुत्र के प्रति कर्त्तव्य पालन करता हुआ वह मानव मात्र के जीवन का महत्व समझने की ओर बढ़ जाता है।

इस प्रकार पालू के जीवन में कई परिवर्तन आते हैं।हर घटना द्वारा उसके चरित्र का नया रूप उभरकर सामने आता है। वह गुणों की खान ,भावुक ,बेफिक्र ,कुशल प्रबंधक ,स्वाभिमानी ,अच्छे कद काठी वाला व्यक्ति था।सन्यासी बन कर भी उसके प्रसिद्ध में इजाफा होता है।वह शान्ति पाना चाहता था।शांति और मुक्ति के लिए कर्त्तव्य पालन की आवश्यकता थी। घर पहुँच कर वह पुत्र की दशा देखकर दुखी होता है और पुत्र की सेवा को ही अपना सबसे बड़ा कर्त्तव्य समझता है।मनुष्य यदि चाहे तो अपने चरित्र को ऊँचा उठा सकता है। पालू में विलासिता से लेकर आध्यात्मिकता आदि सभी गुण है। 


संन्यासी कहानी के प्रश्न उत्तर

प्र. पालू किस बात में उस्ताद था ?
उत्तर : पालू के भीतर कई गुणों का समावेश था। होली की झांकी, दीवाली के जुए का आयोजन, दशहरे में रामलीला का प्रबंध हो अथवा बाँसुरी और घड़ा वादन | सबमें पालू उस्ताद था। इसके साथ ही हीर-रांझा के किस्से सुनाने में भी उसने । महारथ हासिल कर रखी थी।
 
प्र.  पालू मन ही मन क्यों कुढ़ता था? 
उत्तर : पूरे गाँव में पालू के गुणों की प्रशंसा होती थी, उसके बगैर गाँव का एक भी आयोजन संभव नहीं था। जबकि उसके परिवार के लोग उसके गुणों की कदर नहीं करते थे। घर पहुँचने पर उसके सामने ठंडी रोटी रखी जाती थी और साथ में माँ की चुभने वाली गालियाँ तथा भाभी के तीव्र ताने मिलते थे। इस तरह के व्यवहार से पालू क्षुब्ध हो जाता था और मन-ही-मन में कुढ़ता रहता था ।
 
प्र. पालू के जीवन में किस तरह का परिवर्तन आ गया? 
उत्तर : पालू पहले एकदम से उन्मुक्त रहने वाला व्यक्ति था। दिनभर भाग-दौड़ और विभिन्न आयोजनों, सामाजिक कार्यों, मनोरंजन और मित्रों के साथ गप्पबाजी में व्यस्त रहता था। घर में उसके पाँव थोड़ी देर के लिए नहीं टिकते थे। लेकिन विवाह के बाद वह एकदम से बदल गया। अब घर की चहारदीवारी उसके लिए सुगंधित प्रेम-वाटिका बन गयी थी, जिसमें वह दिन-रात निमग्न रहता था। उसका सारा आयोजन – प्रेम, मित्र-प्रेम, बाँसुरी-प्रेम, पत्नी-प्रेम तक सीमित हो गया।

प्र. स्वामी प्रकाशानंद के पास स्वामी विद्यानंद क्यों गए? 
उत्तर : संन्यास ग्रहण करने के दो साल बाद दुनिया विद्यानंद को धर्मावतार समझने लगी थी, लेकिन वे भीतर-भीतर बहुत ही अशांत थे। उन्हें कोई बात खाये जा रही थी। वे बैठे-बैठे चौंक जाते थे, मानों किसी ने काँटा चुभा दिया है। अपनी व्याकुलता, बेचैनी और अशांति का हल ढूँढ़ने के लिए स्वामी विद्यानंद स्वामी प्रकाशानंद के 
पास गए।

प्र.  सुखदयाल का कलेजा क्यों काँप गया? 
उत्तर : सुखदयाल के ताई ताया उस पर जघन्य अत्याचार किया करते थे। अपनी मासूमियत और भोलानाथ का पितृ-स्नेह पाकर उसने अपने ताया-ताई के कुकृत्यों को भोलानाथ के सामने बयान कर दिया। लेकिन जाने कैसे उसकी यह शिकायत उसके ताया- ताई तक पहुँच गई और सुखदयाल को समझ में आ गया कि उसने शिकायत करके अपराध कर दिया है। अतः अब उसके ताया-ताई जाने कौन-सी सजा देंगे, वह नही जानता था। सजा की भयावहता के विषय में सोचकर उसका कलेजा काँप गया।
 
प्र. पालू के चरित्र की प्रमुख विशेषताओं को लिखिए। 
उत्तर : पालू के चरित्र की विशेषताओं को निम्नलिखित रूप में देखा जा सकता है- 
  • कला-निपुण : पालू विविध कलाओं में निपुण था । गीत-संगीत से उसे विशेष लगाव था। किस्से-कहानियों का वाचन भी उसकी प्रमुख विशेषता थी। 
  • सामाजिकता : पालू व्यक्तिगत जीवन के प्रति लापारवाह होने के बावजूद भी सामाजिक कार्यों में बहुत दिलचस्पी रखता था। यही कारण था कि होलिका दहन, दशहरा, रामलीला, दीवाली का जुआ जैसे आयोजनों में वह बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेता था। 
  • मनोरंजन-प्रिय: पालू के जीवन में मनोरंजन का विशेष महत्व है। जनप्रियता के कारण ही वह विविध आयोजनों में हिस्सा लेता था । गीत-संगीत, किस्सागोई प्रवृत्ति उसकी मनोरंजनप्रियता और रसिकता का उदाहरण है। विवाह के बाद दिनभर - रातभर पत्नी के प्रेम में निमग्न होना भी उसके इसी गुण का उदाहरण है। 
  • लापरवाह : भले ही पालू जितना भी सामाजिक कार्यों में रुचि लेता था, लेकिन परिवार और अपनी जिम्मेदारियों के प्रति लापरवाह था। इस कारण घर में भी वह खरी-खोटी सुनता था। संन्यासी बनने का विचार भी उसकी जिम्मेदारियों से भागने की प्रवृत्ति को दर्शाता है।
 
प्र. 'संन्यासी' कहानी से क्या शिक्षा मिलती है? 
उत्तर : 'संन्यासी' नामक कहानी एक आदर्शपरक कहानी है, जो जीवन के वास्तविक मर्म को समझाती है। जीवन केवल माया-मोह, भोग-विलास और आनंद-मनोरंजन का नाम नहीं है और न ही जीवन की समस्त गतिविधियों से भागकर संन्यास ग्रहण करने में जीवन की पूर्णता है। जीवन का वास्तविक आनंद और शांति जीवन को सही तरह से जीने में है। इस जीवन को न तो पूरी तरह से मोह-माया और विलासिता को सौंपना चाहिए और न अपनी जिम्मेदारियों से भागना चाहिए। जीवन अनमोल है, अतः अपने जीवन के समस्त जिम्मेदारियों का निर्वहन करते अतिशय माया से विरक्त रहना ही जीवन और कहानी का उद्देश्य है।

प्र.  पिता से अलग रहने वाले सुखदयाल पर होने वाले अत्याचार से आपको कैसी पीड़ा होती है? अपना मनोभाव प्रकट कीजिए। 
उत्तर : सुखदयाल कम उम्र का बालक था। उसकी माँ बहुत पहले ही मर चुकी थी और पिता ने संन्यास ग्रहण कर लिया था। ऐसे समय में वह बिल्कुल अनाथ हो चुका था। इसके बावजूद जिन ताया-ताई पर उसके पालन-पोषण की जिम्मेदारी थी, वे उसके प्रति इतने विरक्त थे कि उस पर अत्याचार किया करते थे। उनके अत्याचारों से उस बालक पर जाने क्या बीतती होगी, इसकी कल्पना करना भी मुश्किल है। शारीरिक अत्याचार से ज्यादा वह मानसिक प्रताड़ना का शिकार होता होगा। माँ- बाप के स्नेह से वंचित बच्चे की मानसिक स्थिति वैसे ही खराब होती है, उस पर इस तरह की प्रताड़ना भीतर तक एक भय और असंतुलन पैदा करती होगी। 

प्र.  पितृहीन बच्चों के साथ कैसा व्यवहार होना चाहिए? अपनी राय प्रकट कीजिए । 
उत्तर : पितृहीन बच्चों के साथ बहुत ही प्रेम, स्नेह और दया के साथ पेश आना चाहिए। ऐसे बच्चे वैसे ही माता-पिता के स्नेह से वंचित होने के कारण न सिर्फ अनाथ होते हैं, बल्कि शारीरिक और मानसिक रूप से भी कमजोर हो जाते हैं। अतः उनकी भावनाओं की कद्र करते हुए उनके साथ बहुत ही स्नेहयुक्त और कोमल व्यवहार किया जाना चाहिए। 

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  1. सन्यासी कहानी का चित्रण इतना सटीक है पड़ते वक्त दिमाग में चलचित्र की भांति दर्शित होने लगती है। बचपन में मैंने इसे अपनी माध्यमिक शिक्षा के दौरान पढ़ी थी जिसका प्रभाव मेरे मानस पटल पर आज भी अंकित है। आज के परिवेश में अत्यंत शिक्षाप्रद एव पालनयोग्य है।

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