योग साधना के लिए मानव शरीर योग साधना क्या है योग मात्र व्यायाम अथवा शरीर को हृष्ट-पुष्ट रखने के लिए नहीं होता है|योग कल्पना से परे जीवन को आनंद देने वाला और सुख -शान्ति प्रदान करने वाला भी होता है | मनुष्य को योग में स्थिर होकर कर्म करना चाहिए |
योग साधना के लिए मानव शरीर
योग साधना क्या है yog sadhna kya hai योग मात्र व्यायाम अथवा शरीर को हृष्ट-पुष्ट रखने के लिए नहीं होता है|योग कल्पना से परे जीवन को आनंद देने वाला और सुख -शान्ति प्रदान करने वाला भी होता है | मनुष्य को योग में स्थिर होकर कर्म करना चाहिए |योग गणित दर्शन और धर्म से भी कुछ ज्यादा ही है | यह प्राचीन हिन्दू सभ्यता का योग गौरवमयी महत्वपूर्ण तत्व है | योग से शरीर ,मन और आत्मा को परमात्मा से जोड़ने का एक माध्यम है|योग मन और शरीर को निरोग रखने के साथ ही साथ अध्यात्म की तरफ अग्रसर करता है और मन मस्तिष्क तथा भावनाओं में समन्वय स्थापित करने का कार्य करता है | योग का प्रथम कार्य है कि शरीर को स्वास्थ्य और ऊर्जावान बनाये |
मनुष्य को जन्मों का भोग भोगना ही पड़ता है | जब मनुष्य कई जन्मों का भोग भोगते हुए मनुष्य योनि में जन्म लेता है यो इस जन्म को शुभ कर्मों ,शुभ संस्कारों एवं ईश्वर की परम कृपा होने पर योग साधना के लिए मनुष्य शरीर को प्राप्त करता है |
योग साधना के प्रकार
योग की क्रिया में 'कर्म योग' का अपना अलग स्थान है|कर्म योगी फल की इच्छा नहीं करता है वह परमात्मा में ही तल्लीन रहता है |यही मानव की आवश्यकता भी है कि प्रतिपल किसी भी स्थिति में हों ईश्वर को याद करते रहें |जो कार्य हो रहा हो उसे ईश्वर का दिया हुआ समझें | सुख प्राप्ति ,दुःख निवृत्ति रुपी फल को योग विभूति समझना चाहिए | उपाय व अनुष्ठान ही योगाभ्यास है|
- वैयक्तिक योग - वैयक्तिक योग की दशा तब उत्पन्न होती है जब बालक सुषुप्ति अवस्था को प्राप्त करता है| उस समय माँ के प्यार का बच्चा अनुभव नहीं कर पाता जबकि माँ प्यार से उसे दुलारती है | योग के प्रभाव से मनुष्य को भूख -प्यास नहीं सताती यथा - कण्ठं कूपं श्रति पिपासा निवृत्ति : | (योग दर्शन )भगवान ने योग के विषय में कहा - योग: कर्मसु कुशलं !योग को प्रमुख रूप नसे चार प्रकार का बताया गया है - कर्म योग ,राज योग ,भक्ति योग और ज्ञान योग | योग का क्षेत्र ,अर्थ अत्यंत व्यापक है |
- कर्म योग - कर्म योग को प्रखर कर्मनिष्ठा जीवन साधन कहा गया है | इसमें सेवा भाव निहित है | मनुष्य को भविष्य को भी संवारने के लिए सत कर्म करना होता है जिससे भविष्य काल शुभ फल देने वाला हो जो कर्म योग से संभव होता है |
- राज योग - राज योग योग की प्रथम क्रिया और सरल भी होती है | इसमें आसन का अधिक स्थान माना गया है | इस योग को अष्टांग योग भी कहते हैं | इसके प्रकार निम्न लिखित हैं-यम (शपथ लेना ) ,नियन ,प्राणायाम ,आसन ,प्रत्याहार (इन्द्रिय पर नियंत्रण ),एकाग्रता ,धारणा और समाधि |
- भक्ति योग - भक्ति योग में भावनाओं को भक्ति की तरफ केंद्रित करना कहा गया है | भक्ति ब्रह्मसत्ता ,भक्तिभाव से जुड़े रहने की जीवन पद्धति है जी संसार के रचयिता से हो |
- ज्ञान योग - ज्ञान योग ज्ञान साधना द्वारा सर्वव्यापी सत्ता की अखण्ड अनुभूति है | यह योग की कठिन शाखा है | इस क्रिया में मनुष्य को ग्रंथों का अध्ययन करना और मौखिक रूप से बुद्धि को ज्ञान मार्ग में लगाना होता है | इस योग से बुद्धि को विकसित किया जाता है |
- मन्त्र योग - मन्त्र योग में ,मन्त्र जप द्वारा आत्मचेतना का ब्रह्मचेतना से समरसता प्राप्त करने का प्रयास किया जाता है | मन्त्र जप में ध्यान देने की विशेष आवश्यकता होती है कि' ॐ 'मन्त्र उच्चारण के पूर्व और पश्चात में में होना चाहिए |
- हठ योग - हठ योग यानी पूर्ण स्वस्थता के लिए की जाने वाली विशिष्ट शारीरिक ,मानसिक क्रियाओं का साग्रह अभ्यास है |
- धारणा - योग का प्रमुख प्रथम अंश है | ध्यान में इस प्रकार मग्न हो जाय ,ध्येय पदार्थ में ले हो जाय | इसका जन साथारण नाम संयम है | धारणा ,ध्यान और समाधि से ज्ञान की शुद्धि होती है | यह एक सुगम मार्ग है जिसे लोगों ने दुर्गम बना डाला है ,मन में लगन ,तन्मयता ,तत्परता की आवश्यकता होती है | इस क्रिया में दूसरों के सहारा , सहायता के बिना श्रद्धा ,साहस हो ! श्रद्धा प्रथम बाद में साहस आ जाने से चरम कोटि तक जातक पहुंच सकता है .
योग के आधारभूत तत्व
श्रीमद भागवत में, योगी और योग के स्वरुप को कुछ इस प्रकार दर्शाया गया है - जिससे आत्मचेतना - ब्रह्मचेतना के मिलन से आनंद -उल्लास सक्रियता -स्फूर्ति ,कर्मनिष्ठा -चरित्रनिष्ठां के स्वरुप प्रत्यक्ष रूप में देखे जा सकते हैं |
गीता में कहा गया है कि - 'समत्वं योग उच्चते ' अर्थात समस्त बुद्धि संतुलन, मनः स्थिति ही योग है | समदर्शी भावना से सर्वत्र परमात्मा को देखने वाले व्यक्ति योगयुक्त होते है | कुंडलनी जागरण और ऊर्ध्वारोहण इसका दूसरा नाम है | इन क्रियाओं के उपरांत क्रियाशीलता ,स्फूर्ति ,उल्लालास ,उत्फुलता तथा आनंद फूट पड़ता है |आत्मसत्ता दिन -प्रतिदिन प्रखर -विशुद्ध होती जाती है | यही मोक्ष ,मिलन ,विलय -विसर्जन , शुद्ध सत्ता ,महान सत्ता का योग मात्र है |
योग साधना के नियम
श्रीमदभागवत में भगवान ने कहा है- 'यह मनुष्य शरीर ,मेरे स्वरुप ज्ञान की प्राप्ति का साधन है ,इसे पाकर जो मनुष्य सच्चे प्रेम से मेरी भक्ति करता है वह अंतः करण में स्थित मिझ आनंद स्वरुप परमात्मा को प्राप्त करता है | बुद्धिमान पुरुष को सत्पुरुषों का सत्संग करना चाहिए | सत्संग से आसक्ति मिटती है और मन मुझमें लगता है | मेरी कथा मनुष्यों के लिए परम हितकर है उसे जो श्रवण करते हैं उनके सारे पाप -पापों को धो डालते हैं | 'यही भक्ति योग की श्रेणी है | हमें अपने को प्रभु के ध्यान में मन लगाने की आवश्यकता है | मनुष्य को सत्पात्र बनने का प्रयास करने में रत रहना चाहिए और फिर देखिये उस भगवान् की अनुपम कृपा हम पर कैसे बरसाती है |
-सुखमंगल सिंह ,
अवध निवासी
आलेख को प्रकाशित किया ,हार्दिक आभार पाठकों को इससे लाभ हो यही भगवान से शुभकामनायें
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