प्रकृति की ओर पेड़ो के शाखाओं पर एक आत्मा ने अवतार लिया, फूट पड़े अण्डज जब द्रिज नें जीवन का सम्मान लिया। प्रकृति से धूप मिला, मिला उसको छाया। बँध गई तब आँखों में उसके यह विचित्र माया। अंग प्रतिअंग बने पंख सजीले सज गये। संसार रूपी आँगन में घूमने उसके नस तन गये। पहली बार उड़ान चली असीमित गगन के दामन में।
प्रकृति की ओर
पेड़ो के शाखाओं पर एक आत्मा ने अवतार लिया,
फूट पड़े अण्डज जब
द्रिज नें जीवन का सम्मान लिया।
प्रकृति से धूप मिला, मिला उसको छाया।
बँध गई तब आँखों में उसके यह विचित्र माया।
अंग प्रतिअंग बने पंख सजीले सज गये।
संसार रूपी आँगन में घूमने उसके नस तन गये।
पहली बार उड़ान चली असीमित गगन के दामन में।
बहुत कुछ देखा उसने,
किया संचित अनुभव आकाश के आँगन में।
कुछ वक्त ठहरा पंख उसके ठहरा गये।
जब लगा उसे माँ का आँचल छा गये।
तब वह पंक्षी नीड़ अपने जा बैठ गया,
सवालों के अंधेरे में माँ के सामने खो गया।
पूछ द्रिजममतामयी माँ ने पुत्र तुम्हें क्या हो गया।
अभी खुश हो उड़ गया था,फिर क्यों चुप हो गया।
माँ से छलक गई ममता तब बेटे ने मुख खोला।
पूछा अपनी माँ से माँ प्रकृति का किसने यह रहस्य खोला।
प्रकृति की ओर |
माँ यह धूप किसने बनाई
यह संसार किसने सजाई
माँ यह छांव क्यों आता है।
जीवन का सुख-दुःख दे जाता है।
यह फूल,बाग,बगीचे,
देखो कितना जीवन ठहरा है,
इस आसमां के नीचे।
देखो न माँ यह झील,नदी,झरने।
कब से यह तट,शैलो से प्रवहित हो लगे गिरने।
फूलों के रंग से दुनिया का रंग ज्ञात हुआ।
मधुमय भौरों की सुर,धुन पर,
प्रकृति नें हँसकर इनपर आत्मसात हुआ।
माँ देखो न यह सावन अमृत धार बहाकर।
पेड़,पौधे,कुंज,बगीचे और जीवन प्राणी में,
कितना हर्षित है इनमें जीवन का सार बहाकर।
खुश हो कर जीवन का तार मेघ सुनाते है।
पीकर सावन का झीर,
संदेश धरा का भेंक सुनाते है।
माँ सुनों न झींगुरों का झुंड,
किसके तान में अकुलाते है।
जैसे जुदाई के गीत में सब,
अपना दर्द छुपाते है।
किसके स्वागत में पेड़ो की टहनियाँ,
खुद लचक झूल गये।
संसार देखो इस रागिनी में क्या-क्या भूल गये।
कैसे राहगीर के मन में,
आम की बौरें की सौरभ कस जाती है।
मन चितवन में उसके,
कोयल की तान धँस जाती है।
देखो न माँ खरी दोपहरी में आम जन आते है।
पेड़ो की मुग्ध छाया में असीम विश्राम पाते है।
जेठ,घाम क्या अपनी रंगत लाया है।
उठ भोर पगडंडियों से चलकर,
किसान खेत में जन्नत पाया है।
गेहूं की धार काट-काटकर फूले न समाता है।
बस रम जाये मेरा लहू इन खेतों में,
अपना मन रमाता है।
माँ देखो न ये पीपल,बरगद किसका स्वागत करते है।
कुछ खोल उमंग जीवन का सबको पास बुलाते है।
जब तप जाती है यह धूप अनल तापो से,
तब ठड़क देते यह नदी,झीले पनहारी के सासों से।
ठंडी रातों में क्या ओढ़ यह पर्वत समय बिताते है।
कमल चुनते झीलों में हंस कौन गीत गाते है।
यह नीम,छाल,शीशम,जामुन एक परिवार बनाते जब।
खुल जाते है हम बच्चों का स्वर मंद पवन सहराते जब।
माँ यह मृग,मोर किस बात पर आन्नंदित,
चंचल मन ठहराते है।
किस आगत के जश्न में यह जंगल में मौज मनाते है।
जब हो जीवन का आरम्भ तो,
प्रकृति क्यों शोर मचाती है।
पेड़ो की झुरमुट से फूलों में राग सुनाती है।
माँ यह प्रकृति कैसा सम्बल देती है।
जब हो उदास मन तब यह बल देती है।
एक बात बताओ माँ भौरों का कारवां कहां से आता है।
माँ यह बेहद संसार जीवन कहां से पाता है।
माँ यह देखो कौन मनुज गायों का दल चराता है।
पर माँ एक बात बतला देना,
जो देती है प्रकृति हमको ममता।
क्या हम रक्षा करते है इसकी?
जो देती है हमको इतनी समता।
कृत्रिम हुआ यह संसार पांव पंख थक जाते है।
बारिश की बुंदो में क्या माँ आसमां रो जाते है।
अब माँ पीपल तले कौन बांसुरी बजाता है।
अब कहां डोली उठती अब कौन खड़ा पछताता है।
माँ मनुज स्वार्थी होकर कृत्रिम भवन बनाते है।
अब कहां वह छाया शीत अब कहां गोद में आते है।
माँ हम कहां जायेगें हम तो पेड़ो पर जीवन पाते है।
जिन हाथो ने संसार रचा,यह मनुज उसे मौत की नींद सुलाता है।
सब कुछ खो कर कहां कोई कुछ पाता है।
कहां गई वो नीम की छईया,जीव जहां सुहाते थे।
थक हार जहां निर्मल छाया में सब आनंद पाते थे।
यह समय का वाहन सबको कहां लेकर जाता है माँ!
जो छूट गये वे प्रकृति जीवन,
जो छूट गये वे बाग-बगीचे,
अब जीवन कहां पाता है माँ!
अब जीवन कहां पाता है माँ!
- राहुलदेव गौतम
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