हिमालय की आत्मकथा

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हिमालय की आत्मकथा


हिमालय की आत्मकथा मै हिमालय बोल रहा हूँ आत्मकथा मै हिमालय बोल रहा हूँ पर निबंध हिमालय की आत्मकथा निबंध in hindi essay on himalaya ki atmakatha in hindi himalay ki atmakatha hindi nibandh main himalaya bol raha hoon nibandh hindi mein himalay ki atmakatha hindi nibandh mai himalaya bol raha hu nibandh himalay ki atmakatha in hindi हिमालय की आत्मकथा इन हिंदी - मैं पर्वतराज हिमालय हूँ।मुझे लोग नगराज और गिरिराज भी कहते हैं।मेरे सम्बन्ध में किसी कवि ने कहा है - 

यह है भारत का शुभ्र मुकुट
यह है भारत का उच्च भाल,
सामने अचल जो खड़ा हुआ
हिमगिरि विशाल, गिरिवर विशाल!

मेरी महिमा किससे छिपी है ? यदि मैं भारत का प्रहरी हूँ तो चीन ,जापान तथा भारत के बीच मध्यक्ष भी करता हूँ। ये पंक्तियाँ इस बात का साक्षी है - 

इस जगती में जितने गिरि हैं
सब झुक करते इसको प्रणाम,
गिरिराज यही, नगराज यही
जननी का गौरव गर्व-धाम!
इस पार हमारा भारत है,
उस पार चीन-जापान देश
मध्यस्थ खड़ा है दोनों में 
एशिया खंड का यह नगेश!

मैं भारत का साक्षात ,विशाल गौरव मुकुट हूँ।मेरे पौरुष के सम्बन्ध में किसी को जब संदेह न रहा तो मुझे पौरुष का पूंजीभूत ज्वाला कहा गया। मेरा स्वर देश की रक्षा हेतु तरुणाई का आवाहन करता है। मैं अपने कर्तव्य से देश रक्षा का पाठ पढाया करता हूँ। 




मैं महिमा मंडित और सुन्दरता की खान हूँ।देश विदेश के पर्यटक मेरी सुषमा राशि पर मोहित होकर मेरे पास
हिमालय
हिमालय
आते रहते हैं। मैं कश्मीर से लेकर बंगाल के दार्जिलिंग तक सुन्दरता की वृद्धि करता रहता हूँ।मेरी इस सुन्दरता पर मुग्ध होकर हिंदी के कवियों ने मेरे सम्बन्ध में अनेक उत्तम रचनाएँ लिखी।राष्ट्र कवि रामधारी सिंह दिनकर ने विदेशी दासता और मातृभूमि की रक्षा के लिए मेरा ही आवाहन किया है।उनकी दृष्टि में मैं भले ही मौन हूँ।परन्तु सम्पूर्ण भारत की रक्षा में सतत प्रयत्नशील हूँ। भारत रक्षा का मेरा संकल्प अटूट और अजेय है। चिंता मुझे मात्र उन नेताओं से है जो स्वार्थ में आकर मेरे विभाजन करना चाहते हैं। भारतवर्ष की यह हरी भरी धरती मेरी ममता का आँगन है। इसीलिए जयशंकर प्रसाद ने अपनी भारतवर्ष कविता में लिखा है -


हिमालय के आँगन में उसे, प्रथम किरणों का दे उपहार 
उषा ने हँस अभिनंदन किया और पहनाया हीरक-हार 
जगे हम, लगे जगाने विश्व, लोक में फैला फिर आलोक 
व्योम-तम पुँज हुआ तब नष्ट, अखिल संसृति हो उठी अशोक

वर्षा ऋतू में मेरी सुन्दरता में चार चाँद लग जाते हैं। यदि मैं न होता तो कविवर सुमित्रानंदन पन्त को काव्य दिशा न मिली होती। मेरी सुरम्य घाटी में बैठकर पन्त जी काव्य सृजन करते थे।इसी घाटी में कभी सुमित्रानंदन पन्त जी के मुख से सुना था - 

पावस ऋतु थी, पर्वत प्रदेश,पल-पल परिवर्तित प्रकृति-वेश।
मेखलाकर पर्वत अपार अपने सहस्‍त्र दृग-सुमन फाड़,
अवलोक रहा है बार-बार,नीचे जल में निज महाकार,
जिसके चरणों में पला ताल,दर्पण सा फैला है विशाल! 

मैंने जलप्लावन के समय आदि पुरुष मनु को अपने अंग में आश्रय दिया था।कामायनीकार प्रसाद इसके साक्षी है। भूतनाथ शंकर ने अपनी साधना के लिए मुझे ही चुना था।मैं असंख्य ऋषियों मुनियों की आज भी तपस्थली बना हुआ हूँ।आज भी तटस्थ भाव से मैं कहता फिरता हूँ जिसको कहीं शरण न मिले वह निर्भर होकर मेरी शरण ग्रहण करें। 

मैं हरा भरा हूँ। मेरे अंग से अनेकानेक सरिताएँ कल कल ध्वनि से प्रवाहित होती रहती है। इन्ही नदियों से भारत के खेत मैदान हरे भरे झूम रहे हैं। यदि मैं अपना स्त्रोत बंद कर दूँ तो इसका क्या परिणाम होगा ? भारत भूमि मरुस्थल में बदल जायेगी। गंगा का जो गौरव है वह मेरे कारण है। इन महान नदियों का कर्ताधर्ता केवल मैं ही हूँ। मैं हिमालय भारत देश का रक्षक हूँ।एक सजग प्रहरी की तरह न जाने कितनी शताब्दीयों से इसकी रक्षा का संकल्प पूर्ण कर रहा हूँ।कोई देश मेरे कारण भारत पर आक्रमण करने का साहस नहीं कर पाता है। मैं कई प्रकार से देशवासियों की सेवा व्रत का निर्वाह कर रहा हूँ।मेरे एकांत प्रान्त में व्याप्त जंगलों के अनेकानेक औषधियों प्राप्त होती हैं।गृह निर्माण तथा कल कारखानों के लिए भी मैं निरंतर लकड़ियाँ प्रदान करता हूँ।मैं हिन्द महासागर से उठने वाली भाप भरी मानसूनी हवाओं को रोकर इन्हें वर्षा के लिए बाध्य करता हूँ।इस रूप में मैं विस्तृत भूमि को रेगिस्तान बनने से रोकता हूँ। इन्ही कारणों से मैं जननी का गौरवधाम हिमालय कहा जाता हूँ। अतः यही मेरी आत्मकथा है। 

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हिमालय की आत्मकथा
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