फाग लोकगीत

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पीर भीर मैं धीर धरहूं को नहिं आवै। रहै लोक की लाज चहै जावै मन भावै। करि योगिनी को भेष भ्रमब अब सखि रंगपाल वलि जाय पिया कारने। झूमर फाग के कुछ छन्द प्रस्तुत है। – अति धूमधाम की आज होरी ह्वै रही। डारहिं केसर रंग झपट भरि भरि पिचकारी झमकि अबीर की झोरि झेलि देवै किलकारी। मेलहिं मूठ गुलाल परसपर , क्वउ रहत नहीं कुछ बाज होरी ह्वै रही

रंगपालजी के फाग गीत


रंगपाल नाम से विख्यात महाकवि रंग नारायण पाल जूदेश वीरेश पाल का जन्म सन्तकबीर नगर (उत्तर प्रदेश) के नगर पंचायत हरिहरपुर में फागुन कृष्ण 10 संवत 1921 विक्रमी को हुआ था। उनके पिता का नाम विश्वेश्वर वत्स पाल तथा माता का नाम श्रीमती सुशीला देवी था । उनके पिता जी राजा महसों के राज्य के वंशज थे। वे एक समृद्धशाली तालुक्केदार थे। उनके पिता जी साहित्यिक वातावरण में पले थे तथा विदुषी मा के सानिध्य का उन पर पुरा प्रभाव पड़ा था। उनकी मां संस्कृत व हिन्दी की उत्कृष्ट कवियित्री थीं। रंग पाल जी उनकी मृत्यु 62 वर्ष की अवस्था में भाद्रपद कृष्ण 13 संवत 1993 विक्रमी में हुआ था। माताजी से साहित्य का अटूट लगाव का पूरा प्रभाव रंगपाल पर पड़ा, जिसका परिणाम था कि स्कूली शिक्षा से एकदम दूर रहने वाले रंगपाल में संगीत की गहरी समझ थी। ‘बस्ती जनपद के छन्दकारों का सहित्यिक योगदान’ के भाग 1 में शोधकर्ता डा. मुनिलाल उपाध्याय ‘सरस’ ने पृ. 59 से 90 तक 32 पृष्ठों में विस्तृत वर्णन प्रस्तुत किया गया है। इसे उन्होने द्वितीय चरण के प्रथम कवि के रुप में चयनित किया है। वह एक आश्रयदाता, वर्चस्वी संगीतकार तथा महान कवि के रुप में प्रतिस्थापित हुए थे। उनके आश्रय में कवि महीनों उनके सानिध्य में रहते थे और उन्हे बहुत सामान तथा पैसा के साथ वे विदा करते थे। उनकी शादी 18 वर्ष की उम्र में हुई थी। युवा मन, साहित्यिक परिवेश, बचपन से ही तमाम कवियों व कलाकारों के बीच रहते-रहते उनके फाग में भाषा सौंदर्य श्रृंगार पूरी तरह रच-बस गया था। महाकवि रंगपाल लोकगीतों, फागों व विविध साहित्यिक रचनाओं में आज भी अविस्मरणीय हैं। दुनिया भर में अपने फाग गीतों से धूम मचाने वाले महाकवि रंगपाल अमर हैं। फाल्गुन मास लगते ही सखि आज अनोखे फाग , बीती जाला फाल्गुन आए नहीं नंदलाला से रंगपाल के फाग का रंग बरसने लगता है। हालांकि आज रंगपाल की धरती पर ही, फाग विलुप्त हो रहा है। इक्का-दुक्का जगह ही लोग फाग गाते हैं। महाकवि के जन्म स्थली पर संगोष्ठी के साथ फाग व चैता का रंग छाया रहा।
श्री राधेश्याम श्रीवास्तव श्याम हरिहरपुरी संत कबीर नगर द्वारा संपादित तथा चैहान पब्लिेकसन सैयद मोदी स्मारक गीताप्रेस गोरखपुर से ‘रंगपालके फाग’ नामक पुस्तक प्रकाशित हुआ है, जिसमें रंग उमंग भाग 1 व भाग 2 तथा रंग तरंगिणी का अनूठा संकलन किया गया है। इसमें विविध उमंगों में फाग के विविध प्रकारों को श्रेणीबद्ध किया गया है। डा. सरस जी ने अपने शोध ग्रंथ बस्ती के छन्दकार में रंग उमंग के दोनों भागों का प्रकाशन की सूचना दी है। यह हनुमानदास गया प्रसाद बुकसेलर नखास चैक  गोरखपुर से प्रकाशित हुआ है। रंगपाल जी के लोकगीत उत्तर भारत के लाखों नर नारियों के अन्र्तात्मा में गूंज रहे थे। फाग गीतों में जो साहित्यिक विम्ब उभरे हैं वह अन्यत्र दुर्लभ हैं।

फाग लोकगीत
फाग लोकगीत
मंगलाचरण :- फाग गीतों के संयोग और वियोग दोनो पक्षों को उजागिर किया गया है। दोनों के प्रारम्भ में दो-दो दोहों में मंगलाचरण प्रस्तुत किया गया है। 
आनन्द मंगल रास रस हसित ललित मुख चंद।
रंगपाल हिय ललित नित , ध्यान युगल सुखचन्द।
रंग उमंग तरंग अंग , रस अमंग सारंग।
रंगपाल पाल बाधा हरण, राधा हरि नव रंग।।
रंग उमंग भाग 1 में 32 पृष्ठ है। कुछ छन्द प्रस्तुत है-
ऋतु कन्त बिन हाय, लगो जिय जारने।
बिरहिन बौरी कान आम ये बौरे बौरे।
गुंजत भुंग गात मत्त मधु दौरे मधु दौरे भौरे।
बैरी विषय पपीहा पिय पिय 
यह लागी शोर मचाय -बानसो मारने।।1।।
फूले टेसु अनार और कचनार अपारे। 
दहके जन चहुं ओर जो निरपूम अंगारे।
बीर समीर सुगंध बगारत, 
बिरहांगिनियां थपकाय लगे अब बारने।। 2।।
अमित पराग उड़ात जात लखि चित्त उड़ाई।
करि चहचही चकोर देत् हठि चेत भगाई।
कारी कोइलिया दई मारी, 
दिन रतियां कूक सुनाय लगी हिय फारने।।3।।
पीर भीर मैं धीर धरहूं को नहिं आवै। 
रहै लोक की लाज चहै जावै मन भावै।
करि योगिनी को भेष भ्रमब अब 
सखि रंगपाल वलि जाय पिया कारने।
झूमर फाग के कुछ छन्द प्रस्तुत है। – 
अति धूमधाम की आज होरी ह्वै रही।
डारहिं केसर रंग झपट भरि भरि पिचकारी 
झमकि अबीर की झोरि झेलि देवै किलकारी।
मेलहिं मूठ गुलाल परसपर , 
क्वउ रहत नहीं कुछ बाज होरी ह्वै रही।।1।।
कहहिं कबीर निशंक झूमि झुकि बांह पसोरी।
उछल विछलि मेड़राय विहंसि देवै करतारी।
नाचत गावत भाव बतावत, 
बहु भांति बजावहिं बाज होरी रही।।।2।।
विविध स्वांग रचि हंसि हंसाय देवैं होहकारी।
फूले अंग न समहिं नारि गन गावै गारी।
पुलकित आनंद छाक छके सब, 
सजिनिज निज साज समाज होरी ह्वै रही।
ढपटि लपटि मुख चूमि लेहि घूुघट पर टारी।।
रोरी मलहिं कपोल भजहिं कुमकुमा प्रहारी।
रंगपाल तजि लाज गई भजि , 
मदन को राज होरी ह्वै रही।।4।। अति0।।
चैताली झूमर फाग के कुछ छन्द प्रस्तुत है -
यह कैसी बानि तिहारी अहो प्रीय प्यारी।
बैठी भोहें तानि जानि क्यों होहु अनारी।
आपुते लीजे जानि बिरह दुख कैसो भारी।
लेति बलाय एक तूहि बलि , 
जियरा की जुड़ावन हारी अहो पिय प्यारी।।1।।
केती इत उत करहिं  अनैसी झूठी चोरी। 
मुख पर चिकनी बात, देहिं पीछे हंसि तारी ।
आगे आगि लगाये कुटिल पुनि , 
बनि जांहि बुझावन हारी अहो पिय प्यारी।।2।।
रंग उमंग भाग 1 के एक उदाहरण में सर्वोत्कृष्टता देखी जा सकती है-
ऋतुपति गयो आय हाय गुंजन लागे भौंरा।
भयो पपीहा यह बैरी, नहि नेक चुपाय।
लेन चाहत विरहिनि कैजिमरा पिय पिय शोर मचाय।
हाय गुंजन लागे भौंरा।
टेसू कचनार अनरवा रहे विकसाय।
विरहि करेज रेज बैरी मधु दिये नेजन लटकाय।
हाय गुंजन लागे भौंरा।
अजहुं आवत नहीं दैया, मधुबन रहे छाय।
रंगपाल निरमोही बालम, दीनी सुधि बिसराय।
हाय गुंजन लागे भौंरा। 
रंग उमंग भाग 2 :-
प्रथम भाग की तरह रंग उमंग भाग 2 फाग गीतों की बासंती छटा विखेरता है। वे ना केवल रचयिता अपितु अच्छे गायक भी थे। सारे गीत बड़े ही मधुर हैं। कुछ के बोल इस प्रकार हैं- 
हाय बालम  बिनु दैया।
पिय बनही से बोलो उनहीं के घूघट खोलो,
कहो कौन की चोरी  फगुनवा में गोरी ,
दोउ खेलत राधा श्याम होरी रंग भरी,
सखि आज बंसुरिया बाला, गजब करि डाला,
कहां बालम रैनि बिताये भोर भये आये।।
आदि गीत मनको बरबस हर लेते हैं।  रंगपालजी द्वारा लिख हुआ मलगाई फाग गीत हजारों घरों में फाग गायकों द्वारा गाया जाता है। एक उदाहरण प्रस्तुत है-
यहि द्वारे मंगलचार होरी होरी है।
राज प्रजा नरनारि सब घर सुख सम्पत्ति बढ़े अपार।
होरी होरी है।
बरस बरस को दिन मन भायो, 
हिलि मिलि सब खेलहुयार।
होरी होरी है।
रंगपाल असीस देत यह सब मगन रहे फगुहार।
होरी होरी है।
यहि द्वारे मंगलचार होरी होरी है।
‘रंगपालके फाग’ नामक पुस्तक के उमंग भाग 4 एक उदाहरण में सर्वोत्कृष्टता देखी जा सकती है। यह गीत रंगपालके फाग’ नामक पुस्तक प्रकाशित हुआ है-
सखि आज अनोखे फाग खेलत लाल लली।
बाजत बाजन विविध राग,गावत सुर जोरी।।
रेलत रंग गुलाल-अबीर को झेलत झोरी।
कुमकुम चोट चलाय परस्पर ,
अति बिहंसहिं युत अनुराग, 
बरसहिं सुमन कली ।।1।।
तिहि छल छलिया छैल बरसि रंग करि रस बोरी ।
प्यारी की मुख चूमि मली रोरी बरजोरी ।
तबलौं आतुर छमकि छबीली,
छीनी केसरिया पाग लीनी पकर अली।।2।।
चुनि चूनरि पहिराय दई रोरी अंजन बरजोरी ।
नारि सिंगार बनाया कपोलन मलि देई रोरी ।
तारी दै दै हंसति कहति सब,
बोलहुं किन श्याम सभाग सुनियत रामबली।।3।।
अपनों करि पुनि छोड़ि कहति नन्द किशोरी ,
भूलि न जइयो बीर रंगीली आज की होरी ।
रंगपाल वलि कहहिं देवगन,
धनि धनि युग भाग सुहाग-अली प्रेम पली।। 
सखि आज0।।
रंग उमंग भाग 1 व 2 की तरह गीत सुधा निधि में डा. सरसजी ने 200 फाग व होरी गीतों तथा कजली गीतों के प्रकाशन की सूचना दी हैं। यह ग्रंथ प्रथम बार पूना बाद में गोरखपुर से प्रकाशित हुई है। सम्पूर्ण पुस्तक में प्रकृति के परिप्रेक्ष्य में वर्णन का वियोग और संयोग पक्ष अपने में न्यारा है। एक छन्द प्रस्तुत है-
गरजत मंद मंद घन घेरे,
बरसत झर झर सलिलि दामिनी दम कि रही  चहुं फेरे।
झिल्ली गन दादुर धुनि पूरित पिय पिय पपिहन टेरे।
मत्त मुरैलिन मध्य मोर नचि कूकत धाम मुड़ेरे। 
झूलत मुदित प्रिया अरु प्रीतम, दोउ मणि मंदिर मेरे।
अलि मडराहिं सहस सौरभ लहि देति चंबर अलि फेरे।
रंगपाल बारत रति कामहिं उपमा मिलत न हेरे।

डा. मुनिलाल उपाध्याय सरस :-
“रंगपालजी ब्रज भाषा के प्राण थे। श्रंगार रस के सहृदयी कवि और बीर रस के भूषण थे। उन्होने अपने सेवाओं से बस्ती जनपद छन्द परम्परा को गौरव प्रदान किया। उनके छन्दो में शिल्प की चारुता एवंकथ्य की गहराई थी। साहित्यिक छन्दों की पृष्ठभूमि पर लिखे गये फाग उनके गीत संगीत के प्राण हैं। रीतिकालीन परम्परा के समर्थक और पोषक रंगपालजी की रचनाओं में रीतिबद्ध श्रंगार और श्रंगारबद्ध मधुरा भक्ति का प्रयोग उत्तमोत्तम था।......आपकी रचना भारतेन्दु जी के समकक्ष है।..... आपका युगान्तकारी व्यक्तित्व साहित्य के अंग उपांगों को सदैव नयी चेतना देगा एसा विश्वास है।”(स्रोत : डा. मुनिलाल उपाध्याय कृत “बस्ती जनपद के छन्दकारों का साहित्यिक योगदान” भाग 1) उत्तर प्रदेश संस्कृतिक विभाग के माध्यम से उनकी रचनाओं को संग्रहित व संकलित कर परीक्षण कराने का प्रयास हो रहा है। अपने कार्यकाल के दौरान रंगपाल की कृतिया और उनसे जुडे साज सामान को सांस्कृतिक धरोहर बनाने का प्रयास किया जा रहा है। पाल सेवा संस्थान तथा उत्तर प्रदेश संस्कृति विभाग प्रति वर्ष पाल जी के जन्म का उत्सव बड़े धूम धाम से मनाया जाता है। पाल सेवा संस्थान के अध्यक्ष बृजेश पाल ने कहा कि रंगपाल जी की समाधि स्थल जो कष्टहर्णी नदी के स्थल पर है काफी जीर्णशीर्ण अवस्था में है। मरम्मत कराने के साथ ही संग्रहालय बनाने की जरूरत है। 


- डा. राधेश्याम द्विवेदी

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