कविता की पुकार बेचैन यमुना डरी हुई है, है सहमी निर्मल गंगा आज जनतंत्र अभिशप्त है, बिलख रहा है तिरंगा ऊषा की प्रभा सिसकती, निर्वाक खड़ा हिमालय आज दानवी प्रहारों से , गूंज रहा है देवालय चारों ओर धुंधली काली, क्यों छा रहा कुहासा क्यों आज शिखा मुर्छित है, अंबर धुंआ धुंआ सा धरती को प्रभा देनेवाली, क्यों आज मौन खड़ी है क्यों रश्मि से विहीन छिप, तिमिर में हुई पड़ी है हे देव, प्रार्थना है मेरा, संदीप्ति तुम जीवित कर दे
कविता की पुकार
बेचैन यमुना डरी हुई है, है सहमी निर्मल गंगा
आज जनतंत्र अभिशप्त है, बिलख रहा है तिरंगा
ऊषा की प्रभा सिसकती, निर्वाक खड़ा हिमालय
आज दानवी प्रहारों से , गूंज रहा है देवालय
चारों ओर धुंधली काली, क्यों छा रहा कुहासा
क्यों आज शिखा मुर्छित है, अंबर धुंआ धुंआ सा
धरती को प्रभा देनेवाली, क्यों आज मौन खड़ी है
क्यों रश्मि से विहीन छिप, तिमिर में हुई पड़ी है
हे देव, प्रार्थना है मेरा, संदीप्ति तुम जीवित कर दे
शिखा को संजीवनी दे, दिव्य प्रभा पल्वित कर दे
चारों ओर बेचैनी छाया, बेवस वायु दम तोड़ रहा
कोई बता मेरा किश्ती, किस ओर गति को मोड़ रहा
तूफानों में ज्वार मचलता, या कोई पास किनारा है
सर्वनाश के मेघ गरजते, या सौभाग्य सितारा है
आसमान में अंगारों से, अंकित कर दे मेरा अदृश्य
हे देव, कहीं भरमा न दे, ये घोर तिमिर तरी का पृष्ठ
तम का वेधन करने वाला, तेज किरण संधान चाहिए
अनाचार के गह्वर में गूंजे, ऐसा ही विज्ञान चाहिए
आगे मार्ग में पर्वत देखो, चंचल धारा को रोक रहा है
चक्रव्यूह में कला दिखाते, अभिमन्यु को टोक रहा है
हा पौरुष रो रहा अधीर हो, जवानी गुम हुई अंधेरा है
रज की अग्नि बुझ ढेर हुई, और दानव लिया बसेरा है
निस्तब्धता नई सुवह की, दिन में भरी पड़ी हुई है
प्रभा की विवश आपदा में, बल पौरुष मरी हुई है
तुर्यनाद महाभीषम दो, और विकराल पताका
हां सर्वनाश जड़ता हेतु, चाहिए भुचाल लड़ाका
मन की सभी बंधी उमंगे, लाचार कुंठित हो जलता है
और पला अरमान आस का, सड़ती लाश निकलता है
भींगी-भींगी खुली आँखों में, नित्य सारी रात गुजरा है
तब सोती हुई वसुंधरा देखो, फिर से तुम्हे ललकारा है
इस जगती के लिए कहीं से, निर्भीक तेज प्रकाश ला देना
और पिघले हुए कनक का, अमृत का थोड़ा घूँट पिलाना
उमस, उन्माद और विश्वास का, नव निर्माण को मांग रहा हूँ
पार्थ के मोहक विस्फोटों का, संचित तुफान को मांग रहा हूँ
हिमतन, प्राण में हे दाता, स्वच्छ अंगार को तुम भर देना
तनकर खड़े हुए सीनों में, गोली तुम , आर पार कर देना
ठहरे रुके हुए कदमों को, कसकर थोड़ा ठोक लगाना
और अंधियारी राहों में मेरे, ज्योतिर्मय नव दीप जलाना
आमर्ष को जागृत करने वाला, एक तप्त ज्वाला दे देना
अनुभूतियों के वृहत कक्ष में, अलमस्ती शोख हवा दे देना
निरंतर लहु में विष हलाहल, अविरल संचार को भर देना
बदहवास, बेचैन जीवन में, एक अमर प्यार को पर देना
जीवन गति में प्रभंजनों का, तू नुतन आवेग सबल देना
जांच की कठिन परीक्षा में, न्यायनिष्ठा अति अचल देना
मैं दूँगा अपना लहु विधाता, तु स्वर्णिम मुखर विभा देना
दे अंचल से आग विशिख, नभ को फिर जगमग कर देना
जिन आंखों में आँसू बहता, चिंगारी से उसे सजा दे
तुम मेरे श्मशान में आकर, सृंगी का झंकार बजा दे
छोड़ो प्रेम की बातें अब, प्रलय पुकार रहा है
वसुंधरा के गर्भ से देखो, कविता हुंकार रहा है
अपने प्यारे स्वदेश हित, आज मुझे अंगार दे देना
चढ़ती जवानी का दाता, मुझको आज सृंगार दे देना
~सुरेन्द्र प्रजापति
असनी, गया (बिहार)
7061821603
Very nice poetry
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