कल्लू चूड़ीवाला गोल-मटोल चेहरा, धुंघराले बाल, मोटी-मोटी बड़ी-बड़ी आंखे, सांवला चेहरा। सर पर सफेद गोल टोपी और सफ़ेद कुर्ता-पायजामा पहने और कंधे पर सफेद पोटली लटकाये, मध्यम कद का कल्लू चूड़ीवाला। कल्लू जब हमारे गांव पहुंचता तो घर की सभी औरतें सारे काम-काज छोड़कर सामने आ खड़ी होती और देखने लगती कि कल्लू आज अपने भानुमति के पीटारे में क्या-क्या लाया है।
कल्लू चूड़ीवाला
गोल-मटोल चेहरा, धुंघराले बाल, मोटी-मोटी बड़ी-बड़ी आंखे, सांवला चेहरा। सर पर सफेद गोल टोपी और सफ़ेद कुर्ता-पायजामा पहने और कंधे पर सफेद पोटली लटकाये, मध्यम कद का कल्लू चूड़ीवाला। कल्लू जब हमारे गांव पहुंचता तो घर की सभी औरतें सारे काम-काज छोड़कर सामने आ खड़ी होती और देखने लगती कि कल्लू आज अपने भानुमति के पीटारे में क्या-क्या लाया है।
कल्लू महीने में एक बार गांव जरूर आता था। खासकर कोई त्योहार के समय पर। 'चूड़ी वाला' 'चूड़ी वाला' की आवाज सुनकर हम बच्चे रास्ते में उसे देखने पहुंच जाते। उसके बोलने के ढंग में एक अपनापन झलकता था। धर्म से वह मुसलमान था, लेकिन वह कुमांउनी बोली भी बड़ी अच्छी तरह बोलता था। क्योंकि उसका बचपन भी नैनीताल में ही बीता था। इसी कारण उसकी भाषा में कुमाउंनी झलक दिखतो थी।
कल्लू चूड़ीवाला |
कल्लू आते ही सबसे पहले हमारी आमा को आवाज लगाकर बुलाता था, और उन्हें रंग-बिरंगी कांच की चूड़ियां, लाल बिंदी, कान की बालियां, नाक की लौंग न जाने क्या-क्या चीज दिखाता था। मेरी आमा को लाल रंग की कांच की चूड़ियां और कांच की चमकदार लाल बिंदी बहुत पसंद थी। आमा सभी बहुओं को आवाज देकर बुलाती थी और कहती थी जो भी रंग की चूड़ी लेनी हो ले लो। घर की सभो औरत अपने हाथ के साइज से कम साइज की ही चूड़ी लेती थीं उसका कारण था कि सारा दिन इन औरतों को जंगल जाकर घास काटना या खेतों में काम करना पड़ता था। जिससे छोट आकार की चूड़ी हाथों में कसी रहती थी और मौलती (टूटती) कम थी।
कल्लू जब मेरी दादी को उनकी पसंद की चूड़ीयां उनके हाथों में पहनाता था तो दादी दर्द से काफी चिल्लाती थीं, क्योंकि चूड़ी उनके हाथों के साइज से छोटी होती थीं। लेकिन वो अपनी प्यारी-प्यारी बातों में उलझाकर सारी चूड़ियां पहना देता था। मोल भाव को लेकर मेरी दादी के साथ कल्लू की मीठी सी बहस होती थी। आखिर में वो मेरी आमा को कहता था कि आमा आप से कभी कोई जीता आपको जो ठीक लगे वही दे दो।
कल्लू हम बच्चों के लिए भी प्लास्टिक की रंग-बिरंगी छोटी-छोटी चूड़ियां लेकर आता था। जिसे पहनकर हम सारा दिन अपना हाथा हिला-हिलाकर सभी को दिखाते फिरते थे कि आज हमने नई चूडोया ली है। मेरी आमा की एक आदत थी कि घर पर कोई भी आए उसे चाय पिलाये बिना या खाना खिलाये बिना नहीं भेजती थी। कल्लू को भी वो चाय पिलाये या खाना खिलाये बिना नहीं भेजती थी। कल्लू थोड़ा संकोच करता था। लेकिन मेरी आमा के जिद्द के आगे उसकी एक न चलती थी।
मेरी आमा घर आये सभी का सम्मान करती थी फिर चाहे वह कोई साधु-सन्यासी हो या गांव का कोई सदस्य। गांव के लोग भी मेरी आमा से उनका हाल-चाल पूछे बिना शहर को नहीं जाते थे। हमारा घर गावं का सबसे आखिरी घर होता था और वो भी रास्ते के नजदोक। इसलिए गांव से शहर को जाने वाले या शहर से गांव को आने वाले सभी लोग मेरी आमा से जरूर मिलते थ। फिर कल्लू तो मेरी आमा का चहेता था। उनक लिए उनकी पसंद की चूड़ी जो लाता था। मेरी आमा ने मुसलमान हाने के नाते उससे कोई भेदभाव नहीं किया वो कहतो थी कि इंसान को उसकी नेकी से पहचानना चाहिए। कल्लू एक सीधा-साधा नेक इंसान है।
कल्लू जब भी आता एक समा बांध देता था। उसके बोलने में लखनवी और कुमांउनी भाषा का मिश्रण होता था। हमें भी वो बड प्यार से चूड़ी पहनाता था। उसका कुमाउनी मं बोलने का अंदाज बहुत अच्छा लगता था। लेकिन जब वो कुमाउनी भाषा के शब्द बोलता था तो हम सभी को बहुत हंसी भी आती थी।
कल्लू हमारे गांव के साथ आस-पास के गांवों में भी जाता था। इसलिए सभी गांव क लोग उस जानते थे। हर कोई उसस अपनी पसंद को चीजें मंगवाता था। जिसे वो अपने अगले फेरे पर जरूर लाकर दता था। पहले समय में घर की औरतों को बाजार तभी जाना होता था जब वे बीमार होती थीं या छाट बच्चों को डॉक्टर को दिखाना हो। एक कारण ये भी था कि पहाड़ों में शहर गांव से काफी दूर होते हैं और जाने के लिए पहाढ़ो रास्तो पर पैदल ही जाना पड़ता था। आर जहां से सड़क होती भी थी तो वहां से भो गाड़ी की कोई सुविधा नहीं होती थी। इसलिए गाव में कल्लू का आना तो ऐसा होता था कि जैसे मन की कोई मुराद पूरी हो गयी हो। क्योंकि औरतो का गहना ही उसका साज-श्रृंगार होता है।
वो भी कांच की खनखनाती रंग-बिरंगो चूड़ियां। वो अलग बात है कि समय के साथ चूड़ियों का फैशन भी बदला है, लेकिन कांच की चूड़िया तो आज भी औरतों पहली पसंद है। कल्लू भी शायद सबकी पसंद जानता था, और जब भी आता था सभी के लिए उनकी पसंद की चोजें जरूर लाता था। वह अपन सामान को बचने की कला में निपुण था। वैसे कल्लू की अपनी एक छोटी -सी दुकान शहर में थी। लेकिन फिर भी वह महीन मं एक बार गांव जरूर आता था। शायद कल्लू को भी गांव के लोगों से लगाव सा हो गया था।
सालों बीत गये कल्लू चूड़ीवाला को देखे सोचा एक बार उससे जरूर मिलगी। लकिन संकोचवश कभी मिलना ही नहीं हुआ, कि क्या पता वो अब हमें पहचानेगा भी या नहीं। लेकिन कुछ समय पहले पता चला कि कल्लु अब इस दुनिया में नहीं रहा उसके बेटे उस दुकान को चलाते हैं लेकिन शायद वो दुकान अब चूड़ियों की नहीं है।
आज भी लाल कांच की चूड़ियों को देखते कल्ल का वही सांवला चेहरा आंखों के सामने आता है और उसकी वही मीठी सी मुस्कान चहरे पर लाते हुए कहना आमा आपको पसंद की लाल चूड़ियां लाया हूं। आज हमारी आमा हमारे बीच नहीं है और न ही कल्लू। लेकिन उनकी प्यारी सी नोक-झोंक भरी बातें काफी याद आती हैं।
- सुनीता कटारिया (गोस्वामी)
पता- ब्रिज विहार, गाजियाबाद
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