महिला सशक्तिकरण योजनाओं की हकीकत लॉक डाउन के दौरान महिला हिंसा के आंकड़ों में वृद्धि इस बात का सबूत है कि हमारा समाज वैचारिक रूप से भले ही विकसित हो गया हो लेकिन जमीनी हकीकत इसके विपरीत है। ऐसा नहीं है कि सरकार द्वारा इस दिशा में गंभीरता से प्रयास नहीं किये जाते हैं। सरकार की महिला सशक्तिकरण योजनाएं जैसे सुकन्या समृद्धि योजना, बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ, महिला ई-हाट, उज्जवला योजना, महिला प्रशिक्षण एवं रोजगार योजना एवं अन्य योजनाएं भले ही महिलाओं के स्वाभिमान व सशक्तिकरण में सहायक हों, लेकिन स्वयं सरकार द्वारा जारी किये जाने वाले लिंगानुपात आंकड़े इन योजनाओं के सफलता पर सवाल बन कर उभरते रहे हैं।
महिला सशक्तिकरण योजनाओं की हकीकत
लॉक डाउन के दौरान महिला हिंसा के आंकड़ों में वृद्धि इस बात का सबूत है कि हमारा समाज वैचारिक रूप से भले ही विकसित हो गया हो लेकिन जमीनी हकीकत इसके विपरीत है। ऐसा नहीं है कि सरकार द्वारा इस दिशा में गंभीरता से प्रयास नहीं किये जाते हैं। सरकार की महिला सशक्तिकरण योजनाएं जैसे सुकन्या समृद्धि योजना, बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ, महिला ई-हाट, उज्जवला योजना, महिला प्रशिक्षण एवं रोजगार योजना एवं अन्य योजनाएं भले ही महिलाओं के स्वाभिमान व सशक्तिकरण में सहायक हों, लेकिन स्वयं सरकार द्वारा जारी किये जाने वाले लिंगानुपात आंकड़े इन योजनाओं के सफलता पर सवाल बन कर उभरते रहे हैं। यदि हम आंकड़ों पर नजर डाले तो देखेंगे कि वर्ष 1901 में जहां देश में लिंगानुपात प्रति एक हजार पर 972 था, वहीं वर्ष 2011 में यह घटकर 940/1000 हो गया। जिसका सीधा अर्थ है कि महिलाओं की संख्या में गिरावट हो रही है।
इस गिरावट के पीछे लड़कियों की तुलना में लड़कों को तरजीह देना रहा है। अफसोस की बात यह है कि 21वीं सदी के इस आधुनिक दौर में भी जबकि लड़कियां अंतरिक्ष में जाने से लेकर पनडुब्बियां तक चला कर अपनी काबलियत का लोहा मनवा रही हैं, ऐसे आज भी समाज के कुछ क्षेत्रों में उन्हें जन्म लेते ही कचरे में फेंक दिया जाता है। सवाल यह है कि यदि हमारी सोच आधुनिेक हो रही है तो क्यों कचरों के ढ़ेर में नवजातों को फैका जा रहा है? फैके जाने वाले नवजातों में 99 प्रतिशत लड़कियां ही क्यों होती हैं? लड़के क्यों नहीं होते हैं? सिर्फ इसलिए कि वंश को बढ़ाने वाला लड़का होता है? मगर इस संकीर्ण सोंच वाले यह भूल जाते हैं कि वंश का बीज महिलाओं की कोख में ही पनपता है। आखिर क्यों समाज की संकुचित सोंच का खामियाजा महिलाओं को ही भुगतनी पड़ती है?
यदि भारत के 27वें राज्य उत्तराखण्ड की बात करें तो यहां भी महिलाओं की स्थिति भी सराहनीय नहीं है। देश के अन्य राज्यों की तरह यहां भी महिलाएं निर्णय लेने की अधिकारी नहीं होती क्योंकि उन्हें इस लायक नहीं समझा
महिला सशक्तिकरण |
राज्य की महिलाएं यदि आगे बढ़ने का प्रयास भी करें तो अशिक्षा इस मार्ग में सबसे बड़ी रुकावट है। एक आंकड़े के अनुसार राज्य में प्रति 100 में 45 महिला ही शिक्षित है, जो महिला शिक्षा के प्रति पहाड़ी समाज की उदासीनता को दर्शाता है। इन क्षेत्रों में आज भी महिलाओं को घरेलू माना जाता है। अक्सर कम उम्र में विवाह जैसी बड़ी जिम्मेदारी उन्हें सौंप दी जाती है। आंकड़ों के अनुसार आज भी राज्य के 65 प्रतिशत गांव में लड़कियों की 16 से 18 वर्ष की आयु में ही विवाह करा दी जाती है। इस गैर कानूनी कृत्य के पीछे पूरे समाज की मौन स्वीकृति होती है। कई बार इसके नकारात्मक परिणाम सामने आते हैं। कम उम्र में विवाह से महिलाएं शारीरिक व मानसिक रूप से प्रताड़ित होती हैं। यदि देखा जाए तो कम उम्र में विवाह होने से महिलाओं को सबसे नुकसान उनकी शिक्षा को लेकर होता है। वह उच्च शिक्षा से वंचित हो जाती हैं जिससे वह अपने अस्तित्व को समझ ही नहीं पाती या ऐसा कार्य करने में सक्षम नहीं हो पाती जिससे वे सशक्त हो पाएं।
इस संबंध में जिला अल्मोड़ा के ही ठाट गांव में संचालित वैष्णवी स्वयं सहायता समूह से जुड़ी महिलाएं बताती हैं
नरेन्द्र सिंह बिष्ट |
यदि पर्वतीय क्षेत्रों में महिला सशक्तिकरण को कामयाब बनानी है तो सबसे पहले सरकार को महिला कार्य बोझ में कमी लाने के प्रयास करने चाहिए जिससे वह अपने आप को समय दे सकें, अपने भविष्य के लिए सोच सकें, स्वास्थ्य के प्रति जागरूक हो पायें। पर्वतीय क्षेत्रों में महिलाएं एक दिन में 15 से 16 घण्टे अपने दैनिक कार्यो को करने में लगा देती है जब उनके पास अपने लिए समय होगा तो वह अन्य सकारात्मक कार्यों को कर पाने में सक्षम होंगी। जिनमें आजीविका संवर्धन कार्य भी होंगे। महिला शिक्षा पर विशेष घ्यान देना होगा क्योंकि शिक्षा एक मात्र बाण है जो किसी के लिए भी आजीविका या संतोषजनक जीवन जीने में सहायक साबित होता है। महिला अस्तित्व को बचाना और उन्हें सशक्त बनाना हम सबकी नैतिक जिम्मेदारी होनी चाहिए। समाज को यह सुनिश्चित करने की आवश्यकता है कि महिलाओं को भी पुरुषों के बराबर सभी अधिकार मिले। पर्वतीय क्षेत्रों में सरकारी दावे भले ही कागजों में महिलाओं की स्थिति और उनकी भागीदारी को शत् प्रतिशत दिखा रहा है लेकिन वास्तविकता कागजों में नहीं बल्कि घरातल पर स्वयं अपनी कहानी बयां करती नजर आनी चाहिए। (यह आलेख संजॉय घोष मीडिया अवॉर्ड 2019 के अंतर्गत लिखा गया है)
-नरेन्द्र सिंह बिष्ट
नैनीताल, उत्तराखण्ड
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