पद्मा पटाल के पत्थरों का आंगन कुछ उधड़ी हुई सी सीढ़ियां । पास ही दीवार के सहारे चढ़ी हुई लौकी की बेल, आंगन में एक किनारे पर बरतन धोती वो छोटी सी लड़की। शायद कुछ चौदह या पंद्रह साल की होगी। चेहरा सुंदर पर मलीन, बाल बिखरे हुए, गोल गले का मटमैला कुर्ता और सलवार सर पर दुपट्टा।
पद्मा
पटाल के पत्थरों का आंगन कुछ उधड़ी हुई सी सीढ़ियां । पास ही दीवार के सहारे चढ़ी हुई लौकी की बेल, आंगन में एक किनारे पर बरतन धोती वो छोटी सी लड़की। शायद कुछ चौदह या पंद्रह साल की होगी। चेहरा सुंदर पर मलीन, बाल बिखरे हुए, गोल गले का मटमैला कुर्ता और सलवार सर पर दुपट्टा। बाल्यावस्था के वैधव्य ने चेहरे की चमक ही छीन ली थी। जब हाथों में कलम और खिलौने होने थे तब कष्ट की और पीड़ा की बड़ी बड़ी रेखाऐं उभर आई थी हाथों में भी और पैरों में भी। कम उम्र में विवाह फिर पति की मृत्यु वैवाहिक सुख और सन्तान सुख क्या होता है इसकी तो समझ भी नहीं थी उसे। ससुराल वालों को पालन-पोषण करना और आजीवन देखभाल करना ठीक न समझा और वापस भेज दिया पिता के घर।
आ तो गई थी ,रोती बिलखती पर अपने घर लौटने का संतोष भी हृदय में था। भाग्य कहो अथवा समय का फेर अपना होकर भी आज वह घर अन्जाना सा हो गया था। माता-पिता के दुख के साथ अब भाभियों की चिंता भी सम्मिलित हो गई थी। कुछ दिन चिंता मिश्रित सांत्वना में बीते फिर परिवार का प्रेम दुख सब जाता रहा और अब
रह गया केवल काम और काम। एक चाही सी और थोड़ा अनचाही सी मजदूर मिल गई थी सभी को। अब किसी के भी मुंह से स्नेह के शब्द भी कठिनाई से नकलते। बूढ़े माँ-बाप की प्रतिष्ठा तो पहले ही कम सी हो चली थी। वह केवल घर पर रहने वाले चलते फिरते प्राणी मात्र ही थे। जैसे-जैसे समय बीतता गया भाभियों की बोलचाल में अब रांड हो चुकी थी वह, बिन मारे पति की हत्यारन और बिन कलंक रांड। अपना नाम सुने हुए शायद वर्ष बीत गया था। अब यौवन के उभार स्पष्ट नजर जो आने लगे थे।
रह गया केवल काम और काम। एक चाही सी और थोड़ा अनचाही सी मजदूर मिल गई थी सभी को। अब किसी के भी मुंह से स्नेह के शब्द भी कठिनाई से नकलते। बूढ़े माँ-बाप की प्रतिष्ठा तो पहले ही कम सी हो चली थी। वह केवल घर पर रहने वाले चलते फिरते प्राणी मात्र ही थे। जैसे-जैसे समय बीतता गया भाभियों की बोलचाल में अब रांड हो चुकी थी वह, बिन मारे पति की हत्यारन और बिन कलंक रांड। अपना नाम सुने हुए शायद वर्ष बीत गया था। अब यौवन के उभार स्पष्ट नजर जो आने लगे थे।
एक दिन बड़े भाई का मित्र घर पर आया सीधा सरल ;‘’पद्मा चाय ला ,पकौड़ी भी बनाना’’। भाई के मुंह से बड़े दिनों बाद जो अपना नाम सुना तो फूली न समाई बिजली सी दौड़कर झटपट ही सब कुछ बना कर ले आई।, बड़े दिनों बाद अच्छे से पुकारा था किसी ने ,दबे स्वर पड़े कानों में ’’रांड चली गई इतराते हुए ,अब जवानी चढ़ने लगी है ;तन कर आदमियों के आगे जाती है। जाने कहॉं मुंह मारेगी ये पता नहीं ’’। कानों में जैसे गर्म लावा डाल दिया हो। आंसू आँखों के किनारों तक आकर रूक गए, भावनाओं का उबाल कंठ में ही घुट गया। चाय रखकर थके से कदमों से लौट गई ,ऐसी सोच तो कभी जन्म भी न ले सकी थी उसके भीतर। यौवनावस्था में कदम रखने पर रूप निखर आया था तो किसका दोष? चुपचाप अपने कोठरी से कमरे में जाकर जी भर कर रो ली। मोहन गांव में नया आया था फिर भी ग्रामीण मानसिकता को जानता था। स्वर कानों में उस युवक के भी पड़े पर वह सिर झुकाए अपने घर लौट आया।
मोहन का पद्मा के घर अक्सर आना जाना होता पर कभी बातचीत नहीं हुई। वह तो उसके भाई से मिलता अपने काम से और लौट जाता। पद्मा , वह तो कभी किसी की ओर आंख उठाकर नहीं देखती बस दिन भर अपने काम में लगी रहती और रात्री अपनी कोठरी में। दो रोटी के साथ समय - समय पर गालियां और ताने मिलते ही रहते। अब तो वह आदि भी हो चुकी थी उन सब की, कभी कभी तो लगता कि उसका नाम रांड ही है। यह शब्द अब चुभता भी नहीं था।
चंचल गोस्वामी |
क्या ऐसा भी हो सकता है ? हतप्रभ सी उसका मुंह तकने लगी, दिमाग सुन्न सा पड़ गया जीवन जीने के लिये भी होता है? यह समझने से पूर्व ही वह एक मशीन बन गई थी। अनमने से भाव से मोहन को देखा और दौड़ पड़ी घर की ओर। घर नहीं गई कहीं दूर झाड़ियों में छिप कर बैठ गई। सांझ होने तक भी जब कुछ समझ नहीं आया तो लौट गई घर की ओर थके से कदमों के साथ।
इधर मोहन भी कुछ समझ नहीं पा रहा था, क्या उसने सही किया? वह भी अजीब सी उधेड़बुन और भय के साथ घर लौट गया। हैरान सी पदमा घर लौटी, अभी तक उसकी समझमें कुछ आ ही नहीं पाया। दूसरी ओर खेत पर न पहुचने और बिन काम करे लौटने पर कानों में जहर घोलने वाली आवाजें गूंजने लगी थी। ’’ आज रांड जहां मुह काला कर आई है? खेत पर भी नहीं पहुची, अरें जवानी की आग इतनी ही लगी है तो जा डूब मर’’, घरवाले के साथ चिता में क्यों नहीं जा बैठी? मर गई होती तो आज हमारे सर पर बैठ कर नाचती तो नहीं कम से कम। सुनती रही और आंसू बहाती रही। आज खाना भी नहीं खाया, भाभी सुनाती रही जवानी की आग लगी है खाना कहां भाएगा? कोई पूछता क्यों नहीं कि कहां गई थी मुंह काला करने? जब चेहरे ताकने लगी तो सबकी अविश्वसनीय सी निगाहें देख कर हृदय कांप सा उठा लगा बहुत बड़ा पाप कर दिया है। अपराध बोध के साथ चली गई कोठरी में कुछ न बोली ,बोले भी क्या? और किससे ?जहर में दूबे तीर सी आवाजें बन्द होने का नाम नही ले रही थी। चाह रही थी कि वाकया बताए किसी को मां से कहे , पर आज तो किसी की भी आंखों में विश्वास नजर नहीं आया। कोठरी में बैठ रोती रही।
मां आई रात में ’चेली के ने सोच तसी छ तेरी बोजी , मन में के नै राखये। तेरी चिंता छ। दिलासे के शब्दों से मन कुछ शांत सा होने ही लगा था कि मां के शब्दों में भी जहर घुल आया तु किसी से मिलती तो नही ंना? किसी के साथ कहीं गई तो नही ना ? ऐसा मत करना हां अपने बाप भाई की इज्जत का खयाल रखना????????.....कानों से सर तक सन्नाटे की गूंज उठी और फिर बंद न हुई लगा, अब मृत्यु के अतिरिक्त और कोई मार्ग शेष न रहा है। कोई उत्तर न पाकर मां भी लौट गई। अब केवल सन्नाटा था उसके चारों ओर मृत्यु सा सन्नाटा। एकदम शांत भयावह सा......।
खुली आंखों में ही पूरी रात बीत गई। सुबह सहज भाव से उठी और नहा- धो कर घर क काम निपटा कर खेतों की ओर चल दी। प्रश्नवाचक सी निगाहों से हर कोई उसे देख रहा था पर वह सदा की तरह सहज रूप से घर के काम निपटा कर खेतों में काम करने चली गई। दोपहर तक काम करती रही। सब घर को लौटने लगे पर वह काम करती रही कुछ लोंगों ने पूछा भी घर चलने को ,पर उसने मना कर दिया। दोपहर में मोहन डरा हुआ सा प्रश्नवाचक दृष्टि के साथ आया ?कुछ न बोली। सीधे घर की ओर लौट गई।
कई दिनों तक यह चलता रहा वह प्रतिदिन की तरह काम करती , ताने सुनती भोजन कभी करती कभी नहीं। अब रोती भी नहीं। मृत्यु की सी खामोशी धारण कर ली थी। कई दिन बीतने पर भी मोहन को कोई उत्तर ना मिलने से झुंझलाया सा खेत पर आया और बोला; मैं जा रहा हूं शहर सदा के लिये,तू क्या चाहती है मुझे बता दे। अब भी वह न बोली, उठी; और पगडंडी के रास्ते शहर के मार्ग में धीरे-घीरे चल दी। मोहन भी उत्तर पाने की लालसा में पीछे- पीछे चलता रहा, पर जब शहर को जाने वाला मार्ग देखा तो वह उसकी चुप्पी में छिपे खमोश उत्तर को समझ गया और वह दोनों बदन में पहने हुए कपड़ों में चंद पैसों के साथ अपना गांव छोड़ चुके थे। अब पद्मा को न तो किसी की गालियों की फिक्र थी और न ही किसी के आंसुओं का मोह। उस परिवार के लिये मृत्यु का वरण तो वह बहुत दिन पहले कर चुकी थी। अब जो पदमा निकली थी वह तो कोई और ही थी। अब वह एक नई राह चुन चुकी थी एक नये संघर्ष के लिये।
-चंचल गोस्वामी
ग्राम-सन्न,
पो0 ऑ0- वडडा,पिथौरागढ़
उत्तराखण्ड
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