राख राख की वेसे अपना कोई पहचान नहीं है। वह पहले किसी न किसी रूप में रही होगी। कहते हैं न कि प्रकृति की कोई भी वस्तु जलने के बाद राख ही हो जाती है। लकड़ी जलने क बाद राख होती हैं , कोई जंगल जले वो भी राख यहां तक कि इंसान का शरीर भी जलने के राख बन जाता है।
राख
राख की वेसे अपना कोई पहचान नहीं है। वह पहले किसी न किसी रूप में रही होगी। कहते हैं न कि प्रकृति की कोई भी वस्तु जलने के बाद राख ही हो जाती है। लकड़ी जलने क बाद राख होती हैं , कोई जंगल जले वो भी राख यहां तक कि इंसान का शरीर भी जलने के राख बन जाता है। जिसकी अपनी कोई पहचान या अस्तित्व नहीं रह जाता। आप भी सोचते होंगे कि राख शब्द का इस्तेमाल मैं इतना क्यों कर रही हूं, जिस शब्द की अपनी कोई पहचान ही नहीं ता उसके बारे में में क्यों बता रही हूं। जब भी राख को देखती हूं तो बचपन की कुछ यादें ताजा हो जाती हैं। 'राख' यानि बूस'। बूस शब्द कुमाउनी भाषा का शब्द है। जिसका अर्थ होता है राख। इस शब्द को हमने बचपन में बार-बार सुना था जब भी हमारा परिचय किसी को दिया जाता था, तब एक जुमले की भांति ये शब्द जोड़ दिया जाता था।
बात मेरे बचपन की है, मेरा जन्म उत्तराखंड की सुंदर पहाड़ियों से घिरी एक घाटी के बीच छोटे से गांव में हुआ
था। मैं परिवार में सबसे बड़ी रही तो काफी लाडली रही थी। लेकिन मेरे बाद मेरी और बहनों का भी जन्म हुआ। मेरी मां से कोई बेटा नहीं पैदा हुआ था। हम बहन ही थी। लड़कियों का होना हमारे समाज में आज भी एक बोझ की तरह ही रहता है। एक लड़के की चाहत घर के सभी सदस्यों में रहती है। हर बच्चे के साथ उन्हें उम्मीद रहती है कि शायद इस बार लड़का ही होगा।
लेकिन सभी लड़कियां होने के बाद जब उम्मीद भी चली जाती है तो उसका सारा दोष लड़की की मां पर या फिर उन लड़कियों पर मढ़ दिया जाता है जो पैदा हो चुकी हैं, जो जानती भी नहीं हैं कि उनके होने या न होने का किसी पर कभी फर्क पडता भी है या नहीं।
बचपन में हमारा परिचय भी ऐसे ही दिया जाता है। जब भी कोई हमारे बढ़े-बढ़े लोगों से पूछता कि आप के बेटे के कितने बच्चे हैं तो जवाब दिया जाता कि ये तीन बेटियां हैं- बूस हैं बूस। आगे वंश चलाने के लिए कोई बेटा ही नहीं है। तब शायद हमें इसका अर्थ नहीं पता था ना हम जानना चाहते थे क्योंकि हम तो सोचते थे कि हमें इतना प्यार दिया जाता है। धीरे-धीरे घर में जब परिवार में लड़कों का भी जन्म हुआ तब थोड़ा अंतर हमें महसूस होने लगा। लेकिन तब भी हम उतना नहीं समझ सके जितनी हमारी मां को अपनी बेटियों और बाकी बेटों में अंतर समझ आ गया।
आज भी ये सोचती हूं कि हमारे बढ़े-बूढ़े लोग शायद अनपढ़ थे वो उतना नहीं समझ पाये। लेकिन आज तो अधिकतर लोग पढ़े-लिखे अच्छे सभ्रांत परिवारों से होते हैं पर उनकी भी लड़के होने वाली सोच हमारे घर के बुजुर्गों से उन्हें छोटा कर देती है। क्या लड़की की पहचान एक बूस की तरह है जिसका अपना कोई अस्त्तिव नहीं है। उसकी अपनी कोई पसंद कोई उम्मीद नहीं होती। आज शायद मेरे परिवार के बुजुर्ग लोग हमारे बीच जिंदा होते तो पूछती कि हमारे नामों के साथ ये शब्द' बूस' क्यों लगा दिया गया। क्या हम इतने बोझ थे कि इस बोझ तल पूरा परिवार दब-सा गया था। या फिर वंश को चलाने के लिए एक लड़का ही चाहिए। लेकिन ये सब बातें हमारे अंतर्मन में दब सी गई हैं। जिसका जवाब देने के लिए आज कोई नहीं हैं।
आज हमारे आनी वाली पीढ़ियों में हमारी बेटियां हैं। हम उन्हें उनके नामों से ही पुकारते हैं जो हमने उन्हें दिये हैं। क्योंकि लड़कियां तो अपने आप में पूरी सृष्टि है, फिर हम क्यों उन्हें एक निर्जीव सा नाम दें।
वास्तव में उनका नाम तो इंद्रधनुषी रंगों की तरह होना चाहिएया फिर प्रकृति की खूबसूरत वादियों की तरह। या कल-कल करती नदियों की तरह या फिर रंग-बिरंगीतितलियों की तरह। वो एक जीती-जागती सजीव इंसान हैं। उनका नाम तो कल-कल करते झरनों के संगीत जैसा होना चाहिए, जब हम उन्हें पकारे तो हमारा मन उत्साह और उमंग से भर जाये। क्योंकि वास्तव में समाज की वास्तविक पहचान ही यही बेटियां हैं।
- सुनीता कटारिया
ब्रिज विहार, गाजियाबाद
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