महर्षि अरविन्द का शिक्षा दर्शन महर्षि अरविन्द का शिक्षा दर्शन मानव की उच्चतर अवस्था ही अतिमानव या 'सुपर-ह्यूमन' कहलाती है। आध्यात्मिक दृष्टि से यदि देखा जाये तो मानव का अर्थ ही साधक है, क्योंकि प्रत्येक मानव अपन में कमी पाता है और उसकी पूर्ति के लिए अनेक उपाय करता है। यह एक बहुत बड़ा भ्रम है, क्योंकि इच्छाओं की निवृत्ति तो हो सकती है, परन्तु उनकी पूर्ति नहीं हो सकती।
महर्षि अरविन्द का शिक्षा दर्शन
महर्षि अरविन्द का शिक्षा दर्शन मानव की उच्चतर अवस्था ही अतिमानव या 'सुपर-ह्यूमन' कहलाती है। आध्यात्मिक दृष्टि से यदि देखा जाये तो मानव का अर्थ ही साधक है, क्योंकि प्रत्येक मानव अपन में कमी पाता है और उसकी पूर्ति के लिए अनेक उपाय करता है। यह एक बहुत बड़ा भ्रम है, क्योंकि इच्छाओं की निवृत्ति तो हो सकती है, परन्तु उनकी पूर्ति नहीं हो सकती। जब मनुष्य को इस बात का ज्ञान हो जाता है कि - सभी जीव परमात्मा के अंश होते हैं। यही चैतन्य है, यही सुख राशि है, यही अमल करता है, उससे अविनाशी की प्राप्ति नहीं हो सकती। मनुष्य को जो कुछ मिला हुआ है, उसके द्वारा वह जगत् के हित के लिए तो कार्य कर सकता है, परन्तु स्वयं के लिए उसे कुछ नहीं करना चाहिए, तो वह मानवीय प्रवृत्ति से ऊपर उठ जाता है और 'अतिमानव' की कोटि में आ जाता है। श्री अरविन्द द्वारा प्रतिपादित अतिमानसीकृत अतिमानव के इस आदर्श में वेदान्त और नीत्शे के विचारों का मिश्रण परिलक्षित होता है।
नीत्शे ने सर्वप्रथम अतिमानव सम्बन्धित अपने विचारों को स्पष्ट करते हुए कहा है कि अतिमानव आक्रामक शक्ति-सम्पन्न तथा अतिबौद्धिक प्राणी है, जबकि रैनन ने अपनी रचनाओं में इस दृष्टि (अतिमानव) को भ्रूणावस्था में विद्यमान माना है। अरविन्द का विचार इससे भिन्न है।उनके अनुसार अतिमानव एक ऐसा रूपान्तर व्यक्ति है, जो अपने जीवन में उच्चतर दैवी सक्तयों तथा आनन्द की अभिव्यक्ति करता है। अतः स्पष्ट होता है कि अरविन्द मानव प्राणी के अनुभवातीत आध्यात्मिक गुणों की महत्ता को स्वीकार करते हैं। इसके अतिरिक्त पाश्चात्य के फलस्वरूप वे समष्टि करते हैं कि राष्ट्र की भी आत्मा होती है।
अतिमानव की अवधारणा को स्पष्ट करते हुए श्री अरविन्द कहते हैं कि जिस प्रकार पशु से मानव प्रकट हुआ है, उसी प्रकार मानव से अतिमानव प्रकट होता है, क्योंकि न तो जन्म और मृत्यु का या जीवन या मरण का क्रम-विकास समाप्त हआ है और न ही तक-बुद्धि अन्तिम शब्द है और न ही बुद्धिमान पशु प्रकृति का सर्वश्रेष्ठ रूप ही। श्री अरविन्द का कहना है कि जो भौतिक पदार्थ को देखने वाली इस टूटी-फटी मानसिक इकाई से ऊपर उठकर, दिव्य शक्ति, दिव्य प्रेम और दिव्य ज्ञान पर आधिपत्य जमाकर अपने आप वैश्य और देव रूप बन सके, वह ही अतिमानव है।
अरविन्द के अनुसार विकास की महान् प्रक्रिया के मार्ग द्वारा ही आदर्श और विचारों की अराजकता से विश्व को ऊपर ले जाया जा सकता है अर्थात् विकास की प्रक्रिया के द्वारा ही मानव को महान् बनाया जा सकता है, क्योंकि
महर्षि अरविन्द |
अतिमानव की कल्पना क्या है ? इस सम्बन्ध में स्पष्ट रूप से कुछ भी नहीं कहा जा सकता। इस अवधारणा को समझना आसान नहीं है। श्री अरविन्द के अनुसार यह वह अवस्था है जब मनुष्य की जानकारी सूचना की स्थिति से ऊपर उठ जायेगी, जब मनुष्य तर्कों के स्थान पर प्रत्यक्ष रूप से किसी बात को समझने में सक्षम हो जायेगा, जैसे- जो चीज हम अपनी आँखों से देखते हैं उस चीज को बुद्धि की प्रक्रिया को समझने की आवश्यकता का अनुभव नहीं करते हैं। श्री अरविन्द ने यह भी कहा है कि अतिमानव के उदय होने पर मानव का अस्तित्व समाप्त नहीं होता। मनुष्य जड़ से निकल कर ही जीव की कोटि में आता है और फिर सोचने-समझने की शक्ति पाकर वह जीव-कोटि से मानव कोटि में आता है। फिर भी जड और जीव दोनों ही उसके साथ हैं, क्योंकि जड़ उसके साथ रहती है और जीवरूप में वह स्वयं होता है। किन्तु सोचने-समझने की शक्ति के कारण उसका व्यक्तित्व पशुओं से भिन्न हो जाता है, क्योंकि पशुओं में सोचने की शक्ति का अभाव होता है। उनके अनुसार यह सोचने की शक्ति ही मानस है और इसी कारण मानस, अतिमानस के भी साथ रहेगा। किन्तु मानस और अतिमानस में अन्तर यह होता है कि मानस (मानव) की शक्तियाँ सीमित होती हैं और उसका मन अज्ञान की दिशा में भी सोचने का आदी रहा है, जबकि अतिमानस (अतिमानव) की सार्थकता यह होती है कि वह मानस की भाँति सोचने की गलती नहीं करता।उसके मन को भल या गलती करने का अवसर ही नहीं मिलेगा। इसी स्थिति की ओर श्री अरविन्द संकेत करते हुए कहते है कि- "व्यक्तियों में सर्वथा नवीन चेतना का संचार करो, उनके अस्तित्व को समय रूप को बदलो जिससे पृथ्वी पर नये जीवन का शुभारम्भ हो सके।"
इससे स्पष्ट होता है कि श्री अरविन्द ने अतिमानव की अवधारणा में मानव को अतिमानव की ओर अग्रसर होने की बात कही है। मानव को मानव से अतिमानव की ओर बढ़ने के लिए आध्यात्मिक जगत् में आगे बढ़ना होगा। शरीर नश्वर है। सभी जीव परमात्मा के अंश हैं, सुख-दुःख एक सिक्के के दो पहल हैं, अपना कुछ भी नहीं है और सब कुछ अपना है। ईश्वर ही कर्ता-धता है, विकास और विनाश उसी के हाथ में है। मानव के अन्तर्मन में जब ऐसी धारणा विकसित हो जाती है, तब अतिमानव का उदय होता है और वह मानव अतिमानव बन जाता है।
बढ़िया लेख
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