चप्पल एक समय था जब टी. वी. का नया - नया प्रचलन हुआ तब गांव में एक या दो टीवी हुआ करते थे। ठीक समय पर गांव के सभी लोग सुविधानुसार उनके घरों में एकत्र हो जाया करते। देहली के आगे से सीढ़ियां तो थी, पर नजर नहीं आती थीं। जूते - चप्पलों से भरी सीढ़ियां बड़ी ही रंगबिरंगी दिखाई देती।
चप्पल
एक समय था जब टी. वी. का नया - नया प्रचलन हुआ तब गांव में एक या दो टीवी हुआ करते थे। ठीक समय पर गांव के सभी लोग सुविधानुसार उनके घरों में एकत्र हो जाया करते। देहली के आगे से सीढ़ियां तो थी, पर नजर नहीं आती थीं। जूते - चप्पलों से भरी सीढ़ियां बड़ी ही रंगबिरंगी दिखाई देती। एक ओर से काली नीली रंग बिरंगी चप्पल । कोई थोड़ा घिसी, किसी का फीता टूटा हुआ, उस टूटे हुए फीते को काम चलाने के लिये किसी कपड़े से बांध दिया जाता। कपड़े के साथ बंधी वह चप्पल जबरन किसी बंधन में बांध दी गई गाय हो, उसे अपने मालिक के साथ चलना ही है। अब वह सम्मान के साथ सर उठा कर नहीं चल सकती। गर्दन झुकाए थोड़ा बदली चाल के साथ चलती। जो चलने वाले की भी चाल बदल देती। किन्तु वह कुछ ऐसे चलता कि मानों किसी राज्य का राजकुमार अपपनी शाही सवारी में चला आ रहा हों।
चप्पल |
उन चप्पलों में कोई चप्पल सामने से थोड़ी ठीक और पीछे से घिसी हुई। जब वह शायद नई आई होगी तो घर के किसी बड़े के पैरों पर विराजमान हुई होगी। समय बीतता गया और उम्र के साथ उसकी कमर घिस गई । अब उसके पास इतना सामर्थय नहीं रहा कि वह उन मजबूत पेैरों का वजन उठा सके। अब वह परिवार के उस सदस्य के पैरों में आ टिकी जिसके कदम चप्पल की कमर के कुछ उपर ही पहुंच सके , और वह पुनः कार्य में लग गई। चलते समय वह चलने वाले के पैरों में ऐसे टकराती जैसे कह रही हो, अब मुझमें इतना सामथ्र्य नहीं रूको आराम से चलो; पैरों में टकरा - टकरा के चेतावनी दे रही हो। कभी - कभी गिरा भी देती , बच्चे उठते और जोर - जोर से उसे पटकते , फिर पहनते और चल देते।
कुछ घिसी - घिसी चप्पलों मंे उनकी उम्र के निशां नजर आने लगते। चप्पल अपने निशांनों से बता दिया करती कि वह दांये पैर में पहनी जाएगी अथवा बांए में। उन निशांनों में उनके घिसने की, पिटने की उनकी तकलीफों की दांसतां नजर आती। दिल में धंसे ज़ख्मों की तरह उनके निशां उनके चेहरों पे नजर आते है। चलते - चलते किसी चप्पल की कमर ही टूट चूकी होती है। कटे-फटे अेगों के साथ वह अब भी चल रही होती है। किसी चप्पल का आकार चलने वाले की चाल के आधार पर ढल जाता , दांये अथवा बांए छोर से ही घिसी रहती। चाहे अथवा न चाहे उसे चलने वाले की चाल पर ढलना ही पड़ता है। घिस - घिस कर अब वह एक प्रकार से विकृतांग बन चुकी होती है।
ऐसे ही समाज में एक वर्ग निर्मित हो गया जिसे प्रचीन काल में चप्पल की संज्ञा दे डाली। समय बदल गया चप्पलों के आकार प्रकार बदल गये किन्तु उस समाज की दशा लंबे समय तक न बदल सकी। राम वन को गए भरत ने उनकी चप्पल को शिरोधार्य किया , तो राम ने समाज के दबे कुचले पिछड़े वर्ग को अपनाया। अपनी चप्पल उतार कर दूसरों को संवारा।
आज समाज वदल गया। सोच बदल गई। पहनने वालों की चप्पलें बदल गई। आज थोड़ा ही घिसने पर नई चप्पल खरीद ली जाती है, पर चप्पल सी सोच............विचार करना होगा।
- चंचल गोस्वामी
ग्राम-सन्न,
पो0 ऑ0- वडडा,पिथौरागढ़
उत्तराखण्ड
COMMENTS