एक भिखारी की खोज Story on Reincarnation मेरी बेटियाँ चुन-चुनकर अच्छी किताबें भेंट कर जाती हैं जिससे मुझे शिवाजी सामन्त द्वारा रचित उपन्यास ‘युगन्धर’ एवं ‘मृत्युंजय’ पढ़ने का मौका मिला। इन दोनों पुस्तकों में मुख्य पात्र ही सबसे पहले स्वतः की कथा प्रारंभ करता है और तदुपरांत अन्य पात्र उस कथा का विस्तार करते हैं। इनसे प्रेरणा पाकर मैंने ईश्वर को मुख्य पात्र मानकर लिखने का विचार किया। पर इसके लिये ‘महाभारत’ जैसी कोई कथा मदद देने उपलब्ध नहीं थी।
एक भिखारी की खोज
Story on Reincarnation
मेरी बेटियाँ चुन-चुनकर अच्छी किताबें भेंट कर जाती हैं जिससे मुझे शिवाजी सामन्त द्वारा रचित उपन्यास ‘युगन्धर’ एवं ‘मृत्युंजय’ पढ़ने का मौका मिला। इन दोनों पुस्तकों में मुख्य पात्र ही सबसे पहले स्वतः की कथा प्रारंभ करता है और तदुपरांत अन्य पात्र उस कथा का विस्तार करते हैं। इनसे प्रेरणा पाकर मैंने ईश्वर को मुख्य पात्र मानकर लिखने का विचार किया। पर इसके लिये ‘महाभारत’ जैसी कोई कथा मदद देने उपलब्ध नहीं थी। ईश्वर तो अजन्मा है और वह किसी भी प्रकार के अंत से भी परे है। उसे जन्म व मृत्यु के बने कटघरे में बाँधा ही नहीं जा सकता। फिर भी लेखनी ने उकसाया और मैंने ‘ईश्वर’ (The God) पुस्तक लिखने की जिद्द ठान ली। ईश्वर से साक्षात्कार पाने मैं कल्पना के महासागर में कूद पड़ा और उसके बाद संसार की कंदराओं से अन्य पात्र खोज निकालने लगा।
इस रचना में सर्वप्रथम ईश्वर से साक्षात्कार होता है और फिर अन्य पात्र यथाः भक्त, आस्तिक, नास्तिक, वैज्ञानिक, दार्शनिक और एक आम आदमी के साथ शैतान भी अपने विचार रखने लालायित हो उठते हैं। अंत में ईश्वर स्वयं अनंत सृष्टि में मानव को अपनी भूमिका अदा करने अपनी चेतना जगाने के लिये प्रोत्साहित करने प्रकट होते हैं।
मेरे लिये इस रचना को पूरा करना एक तकनीकी प्रोजैक्ट को पूरा करने जैसा जटिल काम था। लेकिन यह एक आध्यात्मिक सफर भी था जिसने मुझे आनंदित कर दिया था। मैं ‘स्वांतः सुखाय’ लिख रहा था और पूरी रचना में विचारों को उन शब्दों में पिरोना था जिनमें एकाग्रता व मनन की भूमिका आल्हादित करनेवाली हो।
वास्तव में यह अनंत की खोज थी जो रुकने का नाम ही नहीं ले रही थी। मुझे ही रुकना पड़ा। रचना पूरी कर मैं उस रात जल्दी सोने चला गया और ठीक उस समय उठा जब सूर्य उदित होने के पहले क्षितिज पर ईशवंदना करने व्यस्त हो जाता है। दरवाजे के बाहर मंद-मंद हवा चल रही थी --- अलसायी-सी --- गुनगुनाती हुई। बगीचे में एक ओर पारिजात के फूल बिछे पड़े थे तो दूसरी तरफ मधुकामिनी के फूल बिखरे पड़े थे जो दो दिन पहले की बारिश से अचानक पेड़ पर लद गये थे।
तभी मधुकामिनी की झुरमुट से टिक-टुहुर-टिक- टिक की आवाज आई। फिर वह टी-टुहुक-टुक-टुक में बदल गई और टिप-टिप-टुहुर-टिक-टिक की मधुर राग में लिप्त हो गई। मैंने उस पक्षी को ढुँढ़ना चाहा, पर वह नहीं दिखा। वह लगातार तरह तरह की शब्द-रचना कर गाता रहा और मुझसे लुका-छिपी का खेल खेलता रहा --- न जाने कितनी देर।
अचानक गुरैयाँ फरफराकर उड़ती आ गईं और डालियों पर फुदकने लगी। उनके लिये मैंने लकड़ी का छतनूमा घर बना रखा था। वे उसपर बैठ चहकने लगी। मुझे याद आया कि कल शाम मैं उनके लिये इस घर में दाना डालना भूल गया था और मुझे याद दिलाने वे शोर मचा रहीं थी। मैं दाना लेकर उनके घर के पास आया --- पर वे डरी नहीं --- सिर्फ फुदककर ‘गोल्डन शॉवर’ की बेल पर बैठ मुझे टुकुर-टुकुर देखने लगीं। जैसे ही मैंने दाने डाले, वे उन्हें चुगने झुमट पड़ीं। उछलती-कुदती वे दाना चुगती अपने अद्भुत करतब दिखाने लगीं।
उधर आकाश पर उड़ते खगों की कतार देखते ही मैं समझ गया कि उनका रुख नर्मदा तट की ओर है। मन में आया कि मैं भी ग्वारीघाट तक घूम आऊँ। सड़क सूनी थी तो सुबह की सैर और भी अच्छी लगने लगी थी। मैं तेज कदमों से चले जा रहा था। जब ग्वारीघाट तिराहे के कुछ दूर ही पहुँच पाया था कि नजर एक पेड़ पर पड़ी। मैं रुक गया। पेड़ से टिका एक वृद्ध भिखारी बैठा था। गरीबी का घरौंदा बनी उसकी क्षीणकाया देख मैं स्तब्ध रह गया। धूल से भरी सफेद दाढ़ी और सिर के बाल, उसके चेहरे पर रेखाकिंत गरीबी को छिपाने का असफल प्रयास कर रहे थे। फटे ओठ और चकतों से खंड़ित झुर्रियों में दबी आँखें, उसकी दुर्दशा का बयान कर रहीं थी। शरीर चिथड़े हुए चिंदियों से लिपटा हड्डियों की शुष्क बनावट का पर्दाफाश कर रहा था। वर्षों नंगे पैर चलने की शिकायत फटे पैर बयाँ कर रहे थे। वहीं सूखे ओठ --- धँसी आँखें --- चेहरे पर पड़ी झाईयाँ --- माथे पर निराशा की गहरी रेखायें दर्दभरी जिन्दगी का परिहास करती नजर आ रहीं थी।
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मैं उसके और पास गया। मेरे सामने एक अस्थिपंजर-सा सीना अब भी साँसें लेने का प्रयास किये जा रहा था। हर साँस इक क्षण रुकती और पूरे शरीर को धक्का देती हुई चलने की कोशिश कर रही थी। उसकी दयनीय दशा देख मेरी आत्मा रो पड़ी।
‘हे ईश्वर, कल तक मेरी लेखनी तेरी सृष्टि का चमत्कारिक वर्णन करती रही और तेरी महिमा का गुणगान करती रुक नहीं रही थी, पर आज तुझे यह क्या सूझा कि मेरे सामने तूने यह निर्धन कंकाल रख दिया है? क्या तू मेरी आस्था को झकझोरने की कोशिश कर रहा है? या फिर क्या तू यह जानना चाहता है कि मात्र अच्छे विचारों से कर्म परिशुद्ध नहीं होते? क्या मैं यूँ ही द्रवित हो सिर्फ निठल्ला बना रहूँगा? उसकी मिटती साँसों को पुनर्जीवित करने की क्षमता तुझमें है, मुझमें नहीं है। फिर क्यों तू इस कठीन समस्या से मेरी परीक्षा लेना चाहता है? ऐसे कई प्रश्न मेरे मन में गोते लगाने लगे।
मैं उस भिखारी की तरफ बढ़ा। ‘शायद यह भूखा होगा,’ मैंने सोचा।
मैंने दूर तक नजर उठा कर देखा। सड़क सूनसान थी --- दुकानें बंद थी --- इतनी सुबह चाय का ढाबा भी नहीं खुला था।
मैंने अपनी जेब टटोली। मेरे पास मात्र 217 रुपये थे। मैंने उसकी तरफ बढ़ाये। लेकिन वह यथावत बैठा रहा --- उसका दायाँ हाथ कुछ उठा, पर कँपकपाता गिर पड़ा। भिखारी के हाथ में पैसे रखने की मैंने कोशिश की --- उसकी मुठ्ठी खुली थी खुली ही रह गई। हवा का एक झोंका आया और नोटों को झाड़ियों तरफ उड़ा ले गया। कमजोर शरीर पैसे लेने की शिथिल इच्छा को भी शक्ति प्रदान न कर सकी। पैसों को पथराई आँखें देख भी न सकीं और गर्दन विपरीत दिशा में लुढ़क गई।
फिर भी मैंने पूछा, ‘क्या भूख लगी है?’
उसकी आँखें कुछ खुलीं।
‘अब तो भूख भूखी ही मरेगी,’ उसके ये शब्द ओंठ पर आकर चुपके से कह गये।
‘ऐसा कहकर अपनी जिन्दगी पर जबरन पूर्णविराम मत लगाओ,’ मैंने समझाया, ‘सोचो, मुझे यहाँ कौन खींच लाया। एक शक्ति है --- अद्दष्य शक्ति जो दिखती नहीं है। उसपर विश्वास करना हमें शक्ति देता है।’
‘कैसी शक्ति?’ उसकी आँखें पूछ रहीं थी।
कहने को तो मैं कह गया, ‘यह वही शक्ति है जिसके अभाव में तुम अभी हो।’ पर वह अचेत पड़ा रहा --- अपने दर्द में डूबा हुआ। दर्द जब अंतः से उठता है तो मूक व बहरा दोनों होता है। उस पर सान्त्वना के शब्द असर नहीं करते।
नन्हा बच्चा चोट लगने पर चीखता है और सोचता है कि चीखने से दर्द मिट जावेगा। यहाँ भिखारी की आत्मा शक्तिहीन शरीर में तड़प रही थी। ऐसी दशा में चीखने से तो सोच के दरवाजे चरमरा जाते हैं। फलतः गरीबी अपने तरीके से दर्द सहना सिखाती है। वह मुठ्ठी भींच लेता है।
मैंने फिर पूछा, ‘क्या भूख सता रही है?’
‘बाबूजी, भूख सताती नहीं, सिर्फ साँसों को शांत कर सुलाना चाहती है। पर गरीबी तो चिरजीवी होती है। वह मौत के सुखद क्षणों का भी सत्यानाश करने में कोई कोरकसर नहीं छोड़ती।’ वह बड़बड़ाता रहा, ‘अबोध शिशु अंधेरे में प्रकाश को टटोलने अपने नन्हें हाथों से माँ के आँचल में सिमटने का प्रयास करता है। पर अब लगता है कि गरीबी अनाथ को कुछ ज्यादा ही सजा देती है।’ उसके ये शब्द मस्तिष्क की सजगता को दर्शा रहे थे।
मैंने सोचा कि मस्तिष्क के चलते रहने तक मनुष्य को जीवित रखा जा सकता है। मैं उसे और जीवित रखने लालायित हो उठा।
तभी एक कोरा कागज सड़क के उस पार पड़े कचरे से उड़ता मेरे करीब आ गया। मैंने उसे उठा लिया और भिखारी के शब्दों को लिखने लगा, ‘गरीबी तो चिरजीवी होती है। वह मौत के सुखद क्षणों का भी सत्यानाश करने में कोई कोरकसर नहीं छोड़ती।’
मैं उसके इन विचारों को कागज पर उकेरना चाह रहा था, पर उसकी गंभीर स्थिति देख करुणा अंतः में हिलोरे खाने लगी थी। मैं उसे चाय की दुकान खुल जाने तक जीवित भी रखना चाहता था। मनोविज्ञान कहता है कि सुखद यादों को जाग्रत कर जीने का हौसला बढ़ जाता है। इस द्दष्टि से मैंने उससे पूछा, ‘क्या तुम्हारी जिन्दगी में कभी ऐसी घड़ी आयी थी जिससे तुम्हें आनंद का अनुभव हुआ था?’
इस प्रश्न को सुन वह अतीत की गहराई में डूब गया। समुद्री गोताखोरों की तरह वह काफी देर विचारों की गहराई में डूबा रहा। यकायक उसके चेहरे पर खुशी की रेखायें उभर आयीं, वह बोला, ‘हाँ, याद आया वह क्षण जब मैं माँ की गोदी में पड़ा उसके चेहरे को देख रहा था। माँ एक टक मुझे देख रही थी --- ममता से ओतप्रोत आशीर्वचन देती हुई --- मुझ पर असंख्य दुआओं की बारिश करती हुई --- मुझमें जीने का उन्माद पैदा करती। याद आता है वह पल भी जब अचानक माँ की आँखों में आँसुओं की बूँदे छलक उठीं थी और मेरे गालों को चूमने टपकने लगीं थी। वे गरीबी के आँसू थे, --- गरीबी की असह्य लपट में झुलसते हुए। अचानक माँ के हाथ शिथिल हो उठे थे। मैं गोदी पर से लुढ़ककर जमीन पर गिर गया था --- माँ के प्राणपखेरू को उड़ता देखता हुआ। मैं गरीबी रेखा के नीचे उस खाई में गिर गया था जहाँ अंधकार का एकाधिकार होता है।’
इतना कह वृद्ध काफी देर तक शून्य में देखता रहा और हताश बादलों में भ्रमण करता --- उड़ान भरते एक आहत पक्षी की तरह धड़ाम से जमीन पर गिर पड़ा --- विदीर्ण पंखों को फड़फड़ाता, ‘बाबूजी, बस यही एक क्षण था जो मुझे नसीब हुआ था, सुख का अनुभव कराता जो दूसरे ही क्षण दर्दीली लहरों ने छीन लिया। इसके बाद दुख के महासागर में लाखों डुबकियाँ लेने पर भी सुख का टूटा-फूटा मोती मेरी जिन्दगी जुटा न पायी।’
मैं कागज पर उसके शब्दों को उकेरने का प्रयास करता कँपने लगा था। मेरी और उसकी आत्मा का संवाद हमें रुलाता रहा पर हम दोनों के आँसू पलकों की कोर पर शुष्क होते रहे --- धधकते हृदय में उठती चिन्गारियों की तरह --- दुर्दशा के धुऐं में तिलमिलाते।
दो आत्माओं का संवाद आध्यात्मिक होता है। शायद ईश्वर भी इसमें अवतरित हो जाते हैं, उस समय। तब आँसू, आँसू नहीं रहते --- अमृतकण बन जाते हैं। गरीब अपने आँसू पी जाने का आदी होता है --- वृद्ध इन अमृतकणों को पी रहा था और अश्कों के ये अमृतकण उसे जीवित रखने संजीवनी का काम कर रहे थे।
अब वह बिना मेरे उकसाये आगे कहने लगा, ‘माँ के गुजर जाने के बाद मैं अनाथ हो गया था। पिताजी पहले ही चल बसे थे। मुझे बताया गया कि इसके बाद मेरे पालन का प्रश्न उठा। लोग कोरी सहानुभूति दर्शाकर मुकरने लगे थे। सरपंच ने भी मेरे पालने की जिम्मेदारी नहीं ली। पड़ोसियों ने मुँह फेर लिया। आखिरकार एक वृद्ध भिखारिन ने जिम्मेदारी ली। इससे पूरे गाँव के झूठी हमदर्दी का प्रदर्शन करनेवालों को तमाचा पड़ा। वे भीतर ही भीतर घृणा करने लगे एक नन्हें शिशु से --- एक नादान बच्चे से जो अपनी मुस्कान से सबको मोहित करना ही जानता था। मानवता की कब्र पर लिटाकर मेरे बचपन को तिरस्कृत करने की जैसे सभी ने ठान लिया था। मेरी इस माँ का बड़ा प्यारा नाम था ‘जसोदा’। बेचारी भीख माँगकर गुजारा करती थी। उसे अब भीख में इने-गिने सिक्के ही मिल पाते थे। टीन के पात्र में मिले एक-दो सिक्के डालकर वह बजाया करती थी, मेरा मन बहलाया करती थी। उसका यह भीख का डिब्बा मेरा खिलौना बन गया था। जिस दिन कुछ भी ना मिलता तो वह कंकर बटोरकर उसे घुनघुना बना देती थी। मैं किलकारी भरने लगता था।
‘कालान्तर मानवता जागी --- वह भी मात्र भिखारियों के हृदय में। वे प्रयास करते थे हम दोनों की क्षुधापूर्ति का --- कभी कभी उन्हें भीख में मिला सब कुछ मेरी माँ को अर्पित करना पड़ता था। सच, भिखारियों का अपना एक संसार होता है जहाँ मानवता फलती-फूलती है --- दरिद्रता को मुस्काने का अवसर प्रदान करती हुई।
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‘बाबूजी, भिखारियों के हाथ में टीन के डिब्बे होते हैं जिनमें सिक्के गिरकर शोर मचाते हैं, दान का ओहदा पाकर उत्सव मनाते हैं। हम भिखारी भी इन सिक्कों का सम्मान करते हैं क्योंकि इनके पात्रों की खासियत यह कि वे अलग-अलग हाथों में होकर भी आपसी लगाव बनाये रखते हैं --- सभी प्यार से लबालब भरे होते हैं। हमारे डिब्बों में जितने सिक्के गिरते हैं, प्यार उतना ही हमारे हृदय से उमड़कर बाहर आता जाता है।
‘अगर ईश्वर वह है जिसमें प्यार भरा होता है तो हर भिखारी एक फरिस्ते से कम नहीं होता। फरिस्तों के पंखों पर प्यार के नग लगे होते हैं जो दमकते हैं।’
‘मेरी माँ जसोदा ने बताया था कि मेरी खिलखिलाहट ने ही हम दरिद्रों की बस्ती में मुझे नाना-नानी ढूँढ़ निकालने में मदद की थी। वे मुझे गाँव की पाठशाला में दाखिला के लिये ले गये थे। वहाँ नंदू मास्टरजी ने मुझे गोदी में लेकर अपनी सहमति भी जता दी थी। लेकिन दूसरे ही दिन गाँववालों ने अपने बच्चों को पाठशाला भेजना बंद कर दिया। पाठशाला बंद होने के कगार पर आ गई। मेरे नाना जिस भीख का कटोरा लेकर पाठशाला गये थे, वह खाली ही रह गया।
‘पर दया जब अंकुरित हो ही जाती है, तो उसे कुचलना नामुमकिन हो जाता है। नंदू मास्टर ने मुझे अलग से पढ़ाने का जिम्मा ले लिया। पर गाँव के सरपंच को यह बात गवारा नहीं हुई। उनका कहना था कि भिखारी का बच्चा पढ़-लिखकर दरिद्रता का अर्थ समझने लगेगा तो उसे अपनी जिन्दगी बोझ लगने लगेगी। सच, दरिद्रता से अज्ञानी बने रहनेवाले को ही दरिद्रता से प्यार होने लगता है।’
यह कहकर वृद्ध भिखारी चुप हो गया। न जाने किन ख्यालों में खो गया। ‘बाबूजी,’ उसने कहा, ‘दरिद्रता कोई व्याधि नहीं है। वह तो हम जैसे लोगों के लिये संजीवनी का काम करती है। उससे हम गरीबों की रगों में रक्त का संचारण संतुलित बना रहता है और हम गरीबी का कष्ट सहने लंबी उम्र पाते हैं।’
फिर कुछ सोचकर बोला, ‘हमारा मानना है कि हम मृत्यु को लाँधकर ही जिन्दगी पाते हैं। रोज मरते हैं और रोज जी उठते हैं। गरीबी की सेज सदा मृत्यु से ही सजी होती है।’
उसने आँखें मूँद ली और न जाने किन कल्पनाओं के कटीली झुरमुटों में बिंध गया, मैं समझ नहीं पाया। वह सो गया था या मृत्यु की शैय्या का आनंद ले रहा था, मैं समझ नहीं पाया।
‘पर सच कहूँ,’ वह यकायक बोल पड़ा, ‘मैं काफी कुछ पढ़-लिख चुका था --- नंदू मास्टर के सपनों की क्यारियों को महकाने --- अपने चहूँओर की घटनाओं को समझने। पर ईश्वर कुछ और ही धुन में था। वह एक घटना थी या सोच-समझकर किया हुआ हादसा --- नंदू मास्टर एक कार की चपेट में आकर स्वर्गारोहण कर गये। गाँव में किसी के पास कार नहीं थी। वह शहर से आयी थी। सरपंच के घर जाकर रुकी और वहीं से लौट गई। एक घटना घटी और समय के पर्दे के पीछे विलुप्त हो गई।
‘गरीबी एकांत चाहती है --- अपने आँसुओं को छिपाने --- हृदयाघात से उठे दर्द का कचूमर बनाने। मुझे भी एकांत मिल गया। नंदू मास्टर चले गये। नाना-नानी गुजर गये। जशोदा माँ भी आँसू बहाती चिरनिंद्रा में विलीन हो गई। जो कुछ पढ़ना-लिखना सीखा था उससे भीख माँगने का रोजगार ही मिल सका --- प्रमाणपत्रहीन शिक्षा होती ही है, किस काम की।
‘बाबूजी, फिर भी मैंने हार नहीं मानी। मैंने अपने साथियों को पढ़ाना प्रारंभ कर दिया। रात के समय सड़क बत्ती के नीचे मैं उन्हें ले आता। वे सभी मेरी बातों को ध्यान से सुनते थे। वे पढ़ना सीख गये थे। उन्हें बहुत कुछ लिखना भी आने लगा था। लेकिन लोगों की सोच यह सब बर्दास्त न कर सकी।
‘एक दिन पुलिस मुझे पकड़कर ले गई। लोगों को बरगलाने का दोष मुझ पर मढ़ा गया। मैं गिड़गिड़ाता रहा, ‘साहब, मैं अपने लोगों का पढ़ा रहा था। हाथ जोड़कर विनंति करता हूँ, ‘शिक्षा का अधिकार हम भिखारियों से मत छीनो।’
‘सरकारी वकील दहाड़ पड़ा, ‘सुना आपने, इस भिखारी की हिम्मत देखिये। वह अपने अधिकार की बात करने लगा है। यह एक संगठन बनाने की सोच रहा है। आगे वह जुलूस निकालने के लिये लोगों को भड़कायेगा। यह दंगे-फसाद की शिक्षा भी देगा। इसने ‘अपने लोग’ शब्द का इस्तमाल किया है। क्या भिखारियों के ‘अपने लोग’ कुछ विशेष होते हैं। मुझे तो इसमें देशद्रोह की बू आती है।’
‘मैं सिर्फ इतना ही कह पाया, ‘हजूर, मुझे मौका दीजिये। मैं जो पढ़ाता हूँ उसका परिणाम भी देखिये। जिसे ये महानुभाव ‘देशद्रोह’ कहते हैं, वह समाजसेवा है।’
‘वकील और तैश में आ गया, ‘महोदय, अब हमारे देश में भिखारी हमें समाजसेवा करना सिखाने लगे हैं। ये आगे चुनाव लड़ेंगे। यह भिखारी परिणाम आने तक हमें निठ्ठल्ला बैठे रहने देना चाहता है। महोदय, आग भड़क जाने पर बेकाबू हो जाती है।’
‘‘तुम्हारा कोई वकील है?’ मुझसे पूछा गया।
‘‘हजूर, हम भिखारियों का कौन वकील बनना चाहेगा?’ मैंने कहा।
‘‘न्यायालय व्यवस्था करेगा।’
‘पर इसके बाद अरसा बीत गया। हवालात की लंबी कैद मुझे बीमार कर गई। डॉक्टरों ने इसे मानसिक बीमारी करार कर दिया। मुझे सड़क पर बाहर ढकेल दिया गया। पर सजाव्याफ्ता भिखारी वापस अपनों के बीच नहीं आ पाता है। वह दर-दर ठोकर खाता भटकता फिरता है। मेरा वह सपना जिससे मैं अपनों को पढ़ाना-लिखाना चाहता था, मिट गया। बाबूजी, आप जैसा लिख रहें हैं, वैसा अगर हम गरीब लिखना सीख जाते तो हमारे दर्द के किस्सों से संसार के सारे पुस्तकालय भर जाते।’
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उसको इन पीड़ायुक्त विचारों से दूर ले जाने के लिये मैंने पूछा, ‘तुम्हारे मन में क्या कभी यह विचार नहीं आया कि अचानक धन मिल जावे और तुम समृद्ध संपन्न कहलाने योग्य बन जावो, खासकर जब तुम जवानी के आगोश में थे?’
एक लंबी साँस खींचकर वह कुछ सीधा होकर बैठ गया और कहने लगा, ‘जवानी तो हवालात पी गई थी। बाहर आया तो जिन्दगी कुबड़ी-सी लगने लगी थी। खैर, जब आप जानना ही चाहते हैं तो कहूँ, गरीबी नरक नहीं है। वह स्वर्ग का वह कोना है जहाँ ईश्वर तक विश्राम करने आ जाता है। गरीबों की जिन्दगी हमेशा वर्तमान में गुजर-बसर करना जानती है। हमारी झोपड़ी एक तीर्थस्थल है जहाँ समय तक रुक जाता है और ईश्वर यहाँ आकर सृष्टि के मोह से मुक्ति पाने लगता है।
‘गरीब पुण्यवान होता है क्योंकि वह उन पापों से मुक्त होता है जो संपन्नता कराती है। फिर भी अगर किसी गरीब को अपनी जिन्दगी नरक सी लगती है तो भी वह स्वर्ग पाने की कल्पना नहीं करता। यदि वह स्वर्ग पाने की चाह के झाँसे में आ जावे तो पहले उसे अपने कर्मों को निष्कृष्ट करना होता है। उसे चोरी-चपाटी, लूट-पाट आदि कर अपने आप को गिराना होता है। इस तरह वह अपनी जिन्दगी को सच में नारकीय बनाने में सफल हो जाता है।
‘बाबूजी, विपत्तियाँ तो आती रहती हैं। उनके आने से जिन्दगी उतनी आहत नहीं होती, जितनी वह अपने को पापों से अर्थहीन बनकर होती है। निराशा की गोदी में मुस्कानेवाली जिन्दगी कभी आशा की मरीचिका का पीछा नहीं करती।
‘बाबूजी, गरीबों की जिन्दगी दौड़ती नहीं --- रेंगती है --- एक विषधर की तरह नहीं --- एक पंखहीन पंछी की तरह जो घायल हो जमीन पर दिशाहीन-सा किसी भी तरफ रेंगने का प्रयास करता है और जिस तरफ जाता है कुचला जाता है, पर मरता नहीं --- अधमरा-सा तड़पता रहता है। मृत्यु उसकी तरफ देखती तक नहीं। यमराज का भेंसा उसे कुचलता आगे भाग जाता है। गरीब मरता नहीं है --- मृत्यु ही उसमें आकर अमरत्व पाती है।’
मृत्यु के विचार मनुष्य को मृत्यु के पास ले जाते हैं। मैं उसकी उदासीन मनःस्थिति ताड़ गया था, इसलिये मैंने अपना पुराना प्रश्न नये तरीके से किया, ‘क्या जिन्दगी के इस लंबे सफर में कभी, कहीं तुम्हें सुख की आहट सुनाई नहीं पड़ी?’
इस प्रश्न के उत्तर में उसने बताया कि माँ उसे एक बार मेले ले गई थी। उसे माँ ने बताया था कि मेला याने वह जगह जहाँ ईश्वर मनुष्य का मुखौटा पहने अवतरित होते हैं, जिससे हरेक की आत्मा में निखार आ जाता है। प्यार और अपनापन लिये सब पवित्र मन के हो जाते हैं। तब वे भीख नहीं देते, दान देते हैं। भीख देते समय लोग अपनी जेब खाली नहीं करते, सिर्फ कुछ सिक्के देकर जेब खाली होने का स्वाँग रचते हैं। दान देते समय उनकी जेब कुबेर का खजाना बन जाती है। वे खुले दिन से देते हैं और जितना देते हैं उससे अधिक हमारी दुआ पा जाते हैं। गरीब जो दुआ देते हैं, वह ईश्वरीय होती है। मेले में भीड़ भी इन दुआओं को पाने की तैयारी करके आते हैं।’
इतना कह वह कुछ रोष में आ गया और कहने लगा, ‘बाबूजी, तब मैं छोटा था। माँ का आँचल पकड़े उछलता-कूदता मस्ती में चल रहा था। वहाँ वो सारी चीजें थीं जो माँ खरीद नहीं सकती थी। दुकानों में रखे खिलौने हमें देख बोलने लगे थे, नाचने लगे थे, हमें इशारे से बुला रहे थे। आप माने या न माने एक गुड़िया उछलकर मेरे पास आ गिरी। मैंने उसे उठा लिया --- उसे उलट-पलटकर देखा कि उसे कहीं चोट तो नहीं लगी। तभी एक झन्नाटेदार तमाचा मुझे गाल पर लगा। मारनेवाला, एक सिपाही के साथ था। सिपाही मुझे माँ के साथ घसीटता थाने ले गया। हम तीन दिन वहीं कैद रहे। माँ वहाँ हरदम रोती रहती थी।
‘क्या हुआ, मैं पूछता तो वह और रो पड़ती थी पर कुछ भी नहीं कहती थी। एक बार बस इतना बोली थी, ‘ये सब दरिंदे हैं।’ मैं इस शब्द का अर्थ नहीं समझ पाया। लेकिन जब उस रात सिपाही उसे खींचकर ले जा रहा था तो मैंने उसके हाथ पर जोर से काटा। वह तिलमिला उठा। कुछ और सिपाही दौड़कर आये। सबने चमड़े के बैल्ट से हमें खूब पीटा। माँ बेहोश हो गई। उसके मुँह से खून निकलने लगा। उन्होंने तुरंत उसे उठा कर थाने के पीछे के दरवाजे से बाहर फेंक दिया। मैं चिल्लाता माँ की तरफ दौड़ा। उन्होंने मुझे भी उठाकर बाहर फेंक दिया और दरवाजा बंद कर दिया। माँ कब होश में आयी और मुझे कहाँ ले भागी, मैं जान न सका। कुछ देर बाद मुझे होश आया तो देखा कि नाना-नानी सब रो रहे थे। आगे की बात, बाबूजी, मत पूछिये। मुझे सब भूल जाने दीजिये।’
इसके बाद वह चुप ऐसा हो गया कि मैं घबरा उठा। चाय की दुकान खुल चुकी थी। मैं दौड़कर गया और शुक्र कि दुकानवाले ने चाय का कुल्हड़ मुझे यूँ ही मुफ्त में पकड़ा दिया।
मैंने देखा कि बुझते दीपक की तेज होती लौ की रोशनी में वह वृद्ध अपने जीवन को दलदल से निकालने की कोशिश कर रहा था। दरिद्रता में डूबे इंसान के घिनौने अनुभवों को जो दुनिया उसे देती है, आप क्या कहेंगे? उसे मैं दलदल ही कहूँगा। ऐसा दलदल जिसमें ढकेलकर ये दुनिया घायल जिन्दगी को छुरी से टोंच-टोंचकर उसकी तड़पती हरकतों को देख खुश होती है और कहती है, ‘देखो, यह अभी मरा नहीं, इसमें अभी भी जान है।’
बेचारा भिखारी अपने बदकिस्मति के किस्से सुनाता थकने लगा था। उसे ढाढ़स देने मैंने एक और मनोवैज्ञानिक तरीका अजमाया। ‘दुनिया में शैतानों को देखकर ही विश्वास होने लगता है कि ईश्वर भी कहीं अवश्य होगा। अगर शैतान है तो ईश्वर भी है। यह बात सच है ना?’ मैंने पूछा।
मेरी बात सुन वह पुनः सजग हो उठा और बोला, ‘जहाँ मंदिर है वहाँ ईश्वर भी है। पर बाबूजी, हम भिखारियों को तो मंदिर के बाहर ही बैठना होता है। बादल को देख बारिश होने की उम्मीद तो जागती है, बाबूजी, पर बादल यूँ ही उड़ जावें तो उसे आप क्या कहेंगे? वे यूँ ही बिन बरसे उड़ गये तो सूखा पड़ जाता है। खूब बरसे तो बाढ़ आ जाती है।
‘सब ईश्वर का करिश्मा है। वह सर्वत्र है पर उसे हम पायें कहाँ और कैसे? समुद्र तट पर बिखरी रेत में एक टूटी सीप भी मिल जाती है तो बच्चे किलकारी भरते उसे उठाने दौड़ पड़ते हैं। पर हमारे कडुवे अनुभव दलदल बनाते हैं, रेत नहीं बिछाते। दलदल सूखने का नाम नहीं लेती --- हमेशा आँसुओं से भींगती रहती है। आहें उठती है तो उनमें भी दर्द के वाष्पिकृत नमी होती है। दलदल से छुटकारा मिलता ही कहाँ है!
‘बाबूजी, माफ करना, हम अनपढ़ हैं। पढ़े-लिखे ज्ञानी दूसरों की तपती छाती पर अहं की रोटी सेंकना जानते हैं --- रोटी फूलती है और उसके फूटते ही अहं की गंध अहंकार की भूख को और बढा़ती जाती है।
‘गरीबों के पास लाचारी के इतने गर्म तवे होते हैं जिसपर जिन्दगी रोटी सेंक तक नहीं सकती। वह तुरंत जल जाती है। बचती है मात्र गर्म राख-सी कुंठाऐं जिसे ज्ञानी लोग भभूत कहते हैं। इस भभूत से मात्र साधू-संत ही स्वाँग रचना जानते हैं। हम गरीबों को इस राख में सुख की चिन्गारी तक नहीं दिखती।’
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वह यूँ ही बहुत कुछ बड़बड़ाता रहा, ‘कडुवे अनुभव मलाई की परत नहीं जमाते। वे पतेली के नीचे जलते रहते हैं --- बदबू का भभूखा उड़ाते हुए।’
मैं आश्चर्यचकित-सा गुमसुम सुनता बैठा रहा। मुझे चुप देख, उसने मेरा ध्यान खींचना चाहा। ‘बाबूजी, एक बात कहूँ,’ उसने मंद मुस्कान की रेख अपने चेहरे पर खींचने का प्रयास करते हुए कहा, ‘अभी अभी मुझे अहसास हो रहा है मेरी जिन्दगी को सुख देनेवाले दूसरे क्षण का। वह है आपका यूँ मेरे पास आना --- मेरे दुख-दर्द के किस्सों को अपनी गोद में बिठाकर चूमना। मेरी माँ भी मेरे दुख-दर्द इसी तरह सुन लिया करती थी।’
क्ुछ रुककर वह पुनः बोला, ‘सबसे बड़ी समस्या यह है कि गरीब उस तरह नहीं जी पाता, जैसा वह चाहता है। आज मुझे इस बात की खुशी है कि आप उस समय मेरे पास आये हैं जब जिन्दगी की तमन्ना मुस्काते हुए संसार को त्यागने की थी। कहते है, जो मृत्यु समय मुस्काता है, वही मोक्ष पाता है।’
इतना कह वह मुझे एकटक देखने लगा। उसकी स्थिर द्दष्टि दिल दहलानेवाली लग रही थी।
एक साँस --- अंतिम साँस हिचकी में तबदील हो गई --- एक अंतिम मुस्कान की रेख चट्टान से मृत शरीर पर खींचती हुई। साँस के चरखे की चरमराहट रुक गई और चहूँओर निस्तब्धता छा गई।
अंतिम बिदाई के लफ्ज प्रार्थना का स्वरूप ले मेरे कंठ में उभर आये। पर ग्वारीघाट की तरफ सिर उठा ‘माँ नर्मदे’ के सिवा मेरी प्रार्थना के सारे शब्द मेरे ही अंतः में प्रतिध्वनित होकर रह गये।
‘क्यों क्या बात है,’ कह, सड़क पर चौकसी करता सिपाही भी ठिठक गया।
‘बेचारा चल बसा,’ मैंने कहा।
‘आपका कोई करीबी था, क्या?’ सिपाही ने प्रश्न किया। मैं उसे कैसे बताता कि यह एक अजूबी आत्मा थी जो मुझे अभी अभी अपना घनिष्ट मित्र बनाकर चल बसी है --- मेरी आत्मा को झकझोरकर --- रुलाती हुई और स्वतः मुस्काती हुई बिदा कह गई है।
मेरी आँखों की अश्रूधारा को देख सिपाही की आत्मा भी द्रवित हो उठी, वह बोला, ‘जानता हूँ वह कई रात से यहीं लेटा हुआ था। मैं डयूटी निभाता कई बार इस तरफ आता रहा हूँ। मैं, मैं हूँ और आप, आप हैं। अपने उसे अंतिम बिदाई देने की कृपा की। एक अनाथ को अनाथ होने की विभित्सता से मुक्ति आपने ही दी है।’
फिर रुककर वह बोला, ‘मैं हूँ यहाँ पर। आप जाईये। जरूरत पड़ी तो बयान देने बुला लूँगा।’
मैं नर्मदा तट की ओर चल पड़ा। सूरज अब भी क्षितिज पास ठहरा हुआ था। वह एकाक्ष सूर्य अपनी अश्रूधारा थामे अपने एकमात्र रक्तनयन को नर्मदा की जलधारा में धो रहा था।
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मैंने घर आकर उन चिंदियों को देखा जिसमें दरिद्र नारायण की वाणी मैंने लिखी थी। मैं उसे वाणी ही नहीं, दिव्यवाणी कहूँगा क्योंकि उसमें कटु सत्य निहित था। वह ऐसी वाणी थी जिसके प्रतिध्वनित्व होने पर सत्य की किरणें अवतरित हो दमकने लगती हैं। एक एक शब्द दरिद्रता की चासनी में डूबा, अमृतकणों से परिपूर्ण।
एक अथक प्रयास कर मैं उन्हें लिपिबद्ध कर कहानी का स्वरूप दे पाया। सोचा, इसे प्रकाशक को दिखाऊँ यद्यपि मैं ‘स्वांतः सुखाय’ ही लिखने का आदी हूँ।
अपनी कृति किसी को दिखाने पर सुझाव तो कम पर निरुत्साह करनेवाले प्रवचन ज्यादा मिलते हैं। फिर भी हिम्मत बटोरकर मैं एक प्रकाशक के पास गया। वह पढ़ने लगा और मैं चुपचाप बैठा उसके चेहरे पर उकरती प्रतिक्रियाओं को समझने का असफल प्रयास करता रहा।
पूरा पढ़ने के बाद उन्होंने चश्मा उतारकर एक तरफ रखा और गंभीर मुद्रा धारणकर कहा, ‘आपको इसके लिये प्रकाशक की जरूरत नहीं है।’ इतना कह वे मुस्कराये और मैं उनके इस छोटे से वाक्य को एक कूटनीतिपूर्ण ;कपचसवउंजपबद्ध नकारात्मक प्रतिक्रिया मान बैठा रहा। मेरे पास और कुछ कहने को नहीं था।
‘आपको इसके लिये किसी निर्माता को तलाशना होगा,’ उन्होंने निस्तब्धता को भंग करते हुए कहा। पर मैं उनके शब्दों को समझ न सका और अपने आप में असहजता का अनुभव करने लगा, जिसे वे तुरंत भाँप गये। ‘आपको चिंतित होने की जरूरत नहीं है,’ इतना कह उन्होंने अपना मोबाइल उठाया।
‘हैलो, प्रकाश,’ उन्होंने कहा और कमरे से उठ बाहर चले गये। मैं अकेला बैठा कक्ष पर नजरें घुमाने लगा।
प्रकाशक की मेज पर बिखरे कागज बटोरे हुए गोल पत्थरों के नीचे दबे रखे थे जैसे अभी अभी कुश्ती पूरी कर --- कागजों पर लिखी कथा, लेख आदि को पछाड़कर ---विजयी बने उन्हें दबोचे बैठे हों। कमरे के एक कोने पर कचरे का डिब्बा रखा था --- कुड़मुड़ाये कागजों से भरा हुआ। इसकी ऊपरी सतह पर के कागजाद बाहर झाँक रहे थे। ‘क्या मेरी कहानी भी इसी डिब्बे में फेंक दी जावेगी,’ मैं सोचने लगा --- शायद वह सोच कुछ ऊँची आवाज की थी।
‘ऐसा मत सोचिये,’ जोशीजी ने कमरे में दाखिल होते ही कहा, ‘मैंने माथुरजी से बात कर ली है। मैं कहानी उन तक पहुँचा दूँगा। उनका निर्णय मिलने पर आपको इत्तला करूँगा। शायद इस बीच में वे आपसे भी बात करें। मैंने आपका नंबर उन्हें दे दिया है।’
मैं नमस्कार कर बाहर जाने लगा तो देखा कि मेरी कहानी पर रखा पत्थर हटा दिया गया है और जोशीजी उसे एक लिफाफे में रख रहे थे।
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कहानी अब मेरे लेपटॉप में सुरक्षित है। जोशीजी से कोई खबर नहीं मिली। माथुरजी ने भी फोन नहीं किया।
खैर, इसमें निराश होने जैसी कोई बात नहीं थी। मेरी बहुत सारी रचनायें लेपटॉप में हैं। हर सुबह मेरी पत्नी चाय का प्याला लेपटॉप के पास रख जाती है। मैं लिखने में व्यस्त रहता हूँ। मेरी रचनाओं में इजाफा होता रहता है। इसे ‘स्वांतः सुखाय’ का नशा कहो या ‘टॉनिक’ मैं चिन्तामुक्त हूँ --- बस यही काफी है।
एक सुबह मैं लेपटॉप के पास बैठा था। पत्नी चाय के प्याले की जगह मोबाईल पकड़ा गई। ‘किसी माथुरजी का फोन आया है,’ उसने कहा।
‘हैलो --- हैलो का लेन-देन हुआ। उन्होंने बताया कि कहानी पढ़ ली है। बस, एक समस्या है --- एक भिखारी की खोज करना --- ऐसा भिखारी जो कहानी में ‘फिट’ बैठता हो।’
पूरी बात हो जाने पर मैं सोचता रहा कि क्यूँकर दरिद्र नारायण पुनः अवतरित होंगे। अवतरित हो भी गये तो जगह जगह भिखारियों की बढ़ती भारी-भरकम भीड़ में कौन उनको ढुँढ़ने जावेगा। किसे फुर्सत है कि गाड़ी से उतरकर फुटपाथ तक जावे और कमर झुकाकर कटोरों में स्क्किे डाले। इसके बाद दुआ देनेवाले भिखारी का चेहरा गौर से देखे और दरिद्र नारायण से उसकी मिलान करे। दरिद्र नारायण के दर्शन मात्र मुझे मिले थे। दूसरे भला उन्हें कैसे ढूँढ़ पाते!
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फिर भी इत्तिफाक से एक बार कोर्ट के पास सड़क किनारे बैठे भिखारियों की भीड़ में अपनी कहानी के पात्र लायक वृद्ध देख, मैं ठिठक गया। तभी किसी ने मेरी पीठ पर हाथ रखकर कहा, ‘अरे मियाँ, यूँ बीच में क्यूँ खड़े हो? भिखारियों की कतार में बैठना हो तो कहीं भी बैठ जावो। इसमें सोचना क्या है?’
मैंने पलटकर देखा तो एक सिपाही था जो भीड़ पर नियंत्रण करने भिखारियों को हटने के लिये तैनात किया गया था। उसके हाथ पर हिलते डंडे को देख सभी भिखारी एक साथ उठकर जाने लगे। भगदड़-सी मच गई। जिस भिखारी पर मेरी नजर थी वह अपनी लकड़ी के सहारे धीरे-धीरे चल रहा था। तभी उसे किसी का धक्का लगा। लाठी उसके हाथ से छूट गई और वह ओंधे मुँह नीचे गिर गया। अब आगे उसकी और दुर्दशा देखने का साहस मैं बटोर न सका और वहाँ से हट गया।
भीड़ छटने के बाद मैं उसी जगह पर से गुजर रहा था। देखा कि जमीन पर खून छितरा पड़ा था। कुछ सिक्के तब भी खून से चिपके कराह रहे थे। आसपास खून से सने पैरों के निशान भी दिख रहे थे।
लेखकों की यही परेशानी है कि उन्हें कहानी के लिये पात्र भीड़ में आसानी से मिल जाते हैं लेकिन उसके बाद उन्हें अपनी कहानी के हू-ब-हू पात्र समाज मेें लाख कोशिश पर भी नहीं मिलते। मेरे ‘एक भिखारी की खोज’ के अभियान का भी यही हाल था।
आज जमाना बदल गया है। भिखारी दरवाजे पर भीख माँगने नहीं आते। जो आते हैं उन्हें खदेड़ दिया जाता है। गलती लोगों की नहीं है। कई बदमाश घर में झाँकने आते हैं सिर्फ यह देखने के लिये कि कहाँ से सेंध लगाकर चोरी की जा सकती है।
मैं ‘एक भिखारी की खोज’ करीबन त्याग चुका था कि एक दिन अनायास मेरी जोशीजी से मुलाकात हो गई। बात उन्होंने ही छेड़ी। मुझसे पूछा, ‘क्या आपकी माथुरजी से कुछ बात हुई थी?’
‘बात तो हुई थी,’ मैंने कहा, ‘वे कह रहे थे कि उन्हें एक ऐसे भिखारी की तलाश है जो मेरी कहानी के पात्र के उपयुक्त हो।’ जोशीजी मुस्काये। बेचारे क्या कहते? बस निर्माता से संपर्क बनाये रखने की सलाह दे सके।
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मैं इसे इत्तिफाक कहूँ या और कुछ, पर जोशीजी से इस मुलाकात के दूसरे ही दिन मेरे पास माथुरजी का फोन आया। वे जानना चाहते थे कि क्या मैंने जिस भिखारी का चित्रण अपनी कहानी में किया है, वह वाकई में मुझसे मिला था या उसे मेरी लेखनी ने स्वयं रूप दिया था? उनके इस प्रश्न पर मुझे हँसी आई। मुझे कहना पड़ा कि कहानी का पात्र काल्पनिक नहीं है। कहानी के प्रत्येक कथन पर उसी की वाणी प्रतिध्वानित होती है। उसकी गरीबी का चित्रण भी उसी के शब्दों की तूलिका से किया गया है। तब उन्होंने एक और प्रश्न किया, ‘क्या आपने फोटो खींची थी?’
‘नहीं,’ मेरी इस छोटी-सी ना पर वे बिफर पड़े और बोले, ‘मोबाइल के इस युग में ऐसे प्रभावी व्यक्तित्व की फोटो किल्क करने की गल्ती एक मूर्ख ही कर सकता है।’ उन्होंने चिढ़कर तुरंत मोबाइल ‘आफ्’ कर दिया।
‘उफ्,’ मेरे मुख से हताशा का यह शब्द सुन मेरी पत्नी ने पूछा, ‘क्या हो गया?’
‘कुछ नहीं, बस एक भूल हो गई जो मूर्खता में बदल गई। वे उस भिखारी की फोटो माँग रहे थे। काश, मैं मोबाइल लेकर गया होता।’
‘बस, इतनी सी बात,’ पत्नी ने आदतन सहजता से कहा, ‘आप एक स्कैच बनाकर भेज दीजिये।’
कहने को तो पत्नी ने सरल-सा उपाय बता दिया पर वह इतना सहज नहीं था। फिर भी मैंने प्रयास किया। कई भिखारियों की तस्वीर मोबाइल से उतारी। कागज-पेन्सिल ले स्कैच तैयार किये। पर इन प्रयासों से मैं ही संतुष्टी नहीं पा सका। मैंने जिस भिखारी पर कहानी रची थी वह सामान्य व्यक्ति नहीं था। उसका प्रभामंड़ल ईश्वरीय था जो मैं स्कैच में प्रतिबिंबित नहीं कर पा रहा था। सच, आत्मा की तस्वीर खींचने की तकनीकी अभी तक विज्ञान खोज नहीं पाया है। आत्मा और ईश्वर को निराकार कहकर सभी वैज्ञानिक अपनी विफलता पर पर्दा डाल देते हैं।
लेकिन मैंने तो मन में ठान लिया था कि स्कैच बनाना है, तो बनाना है। रात-दिन मैं इसी एक काम में लगा रहा। मेरी पत्नी को मेरी सेहत की चिंता तक होने लगी थी। बेचारी हर वक्त मेरे इर्द-गिर्द घूमती और उत्साहित करती रहती। पूजा-पाठ तो वह नियमित रूप से करती ही थी, पर अब वह उसमें इतना खो जाने लगी कि मुझे उस पर तरस आने लगा था।
आखिरकार मैंने एक स्कैच बनाकर माथुरजी के पास भेज दिया।
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मुझे ज्यादा दिन इंतजार नहीं करना पड़ा। माथुरजी ने स्क्ैच पर आश्चर्य प्रकट करते हुए कहा, ‘अब काम बन गया, समझो।’
पास खड़ी मेरी पत्नी उछल पड़ी, ‘अब आप साहित्यकार ही नहीं, पक्के कलाकार भी बन गये हैं।’
उधर जोशीजी ने भी मुझसे बात कर खुशी जताई। वे कहने लगे, ‘माथुरजी फिलम निर्माता ही नहीं अच्छे निर्देशक भी हैं। उन्होंने स्क्रीप्ट भी तैयार करवा लिया है। वे उत्कृष्ट कला ही प्रस्तुत करेंगे।’
मैं चिंतामुक्त था क्योंकि मैंने कोई अनुबंध माथुरजी से नहीं किया था। सबकुछ माथुरजी के जिम्मे था। समय की भी कोई पाबंदी नहीं थी। प्रोजेक्ट उनका था --- फिल्म बनना भर मेरा सपना था।
कुछ अर्स के बाद माथुरजी का फोन आया। फोन पर सबसे पहला उनका वाक्य था, ‘फिल्म तैयार हो चुकी है, बस, आपकी एक मदद की जरूरत है।’ मैं असमंजस की स्थिति में पहुँच गया। अब क्या मुसीबत आन पड़ी है, मैं सोचने लगा।
‘कुछ नहीं,’ उन्होंने कहा, ‘मैं चाहता हूँ कि अंतिम सीन में फिल्म सजीव हो उठे और यह अंतिम ‘शॉट’ पर ही निर्भर है।’ वे चाहते थे कि मैं अपने हाथ से भिखारी को उसके महताने का चेक दूँ और इस अंतिम ‘शॉट’ को जबलपुर में लिया जावे।
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निर्धारित दिन निर्धारित समय पर माथुरजी पूरे तामझाम के साथ जबलपुर आये। उनकी टीम नवयुवकों की थी जो उसकी वेषभूषा पर परिलिक्षित हो रही थी। मुस्काती स्फूर्ति सभी के चेहरे से छलक रही थी। माथुरजी से मेरी यह पहली मुलाकात थी। कार से मैंने जिसे सबसे पहले उतरते देखा, वे ही थे प्रकाश माथुरजी। उत्सुकता उनके चेहरे पर झलक रही थी। मुझे उनके व्यवहार में अदब का स्पष्ट प्रतिबिंब दिख रहा था। वे मिलनसार और हँसमुख भी थे, यह बाद में पता चला। आज के नवजवानों की तरह उनने दाढ़ी अपने चेहरे पर लॉन की तरह बिछा रखी थी, जिसे छूकर वे दार्शनिक की मुद्रा सजा लिया करते थे।
मुझे कार में बिठाकर, उन्होंने ड्राइवर को आगे बढने का इशारा किया। ‘ग्वारीघाट रोड़ पर किस जगह रुकना है, बता दीजिये,’ उन्होंने मुझ से कहा।
‘आप निश्चिंत रहिये,’ मैंने कहा। वह जगह मेरे दिल-दिमाग में चित्रित थी।
मैंने कार रोकने का इशारा किया। सामने ही वह पेड़ था जिससे टिके वृद्ध की धुँधली परछाईं मुझे दिखने लगी थी --- वही ऊगते सूरज की किरणों पर झूलती --- धीरे धीरे ओझल होती हुई। प्रकृति पेड़ के सौन्दर्य से खिलवाड़ नहीं करती, उसे यथावत बनाये रचाती है। ये हम हैं जो उसकी डालों को काट-छाँटकर बेढ़ब बना देते हैं। इस पेड़ पर भाग्यवश किसी की कुद्दष्टि नहीं पड़ी थी।
कार से उतरते ही माथुरजी आकाश की तरफ देखने लगे। मौसम यथोचित लगा। उन्होंने जगह का मुआयना किया और मेरी ओर मुखातिब हो कहा, ‘आपकी लेखनी में तो कमाल की दक्षता है। इस जगह का वर्णन आपने हू-ब-हू वैसा ही किया है, जैसा मैं अब देख रहा हूँ।’
हमारे बाद आई कारों में बाकी सहयोगी भी आ गये। माथुरजी में अचानक स्फूर्ति आ गई। वे हरेक को निर्देशित करने में व्यस्त हो गये। कैमरे कहाँ होंगे, किस दिशा पर केन्द्रित होंगे, कितनी ऊँचाई पर होंगे वे बताते जाते और स्वयं जाकर परीक्षण करते, वे थक नहीं रहे थे। सब काम शांति से बिना नोेंक-झोंक के हो रहा था। बड़े बड़े ‘पेडेस्टल’ पंखों को लगाने बिजली की व्यवस्था करनी थी। ‘ये किस लिये?’ मैंने प्रश्न किया तो वे बोले नोटों को उड़कर झाड़ियों में छिपना भी तो है।’
सारी व्यवस्था करीब करीब पूरी होने को थी कि वह कार आयी जिसमें भिखारी बैठा था। माथुरजी ने मुझे बताया कि भिखारी का रोल अदा करनेवाला वास्तव में एक भिखारी ही था। बड़ी नम्रता से उन्होंने आगे बताया, ‘वह वयोवृद्ध अत्यंत कमजोर अवस्था में पहुँच चुका है। रास्ते में उसका स्वास्थ एकदम बिगड़ गया था। मैंने उन्हें स्टेशन से ही आस्पताल भेज दिया था। इतनी सुबह अस्पताल में डॉक्टरों को उपस्थित रहने की हिदायत मैंने पहले ही दे रखी थी।’
हम कार की तरफ बढ़े। दो सहयोगियों ने दौड़कर दरवाजा खोला और भिखारी को उतरने में मदद की। कार से
उतरते ही वह लड़खड़ा गया पर मुझे देखते ही उसका चेहरा दमक उठा। ऐसा लगा जैसे वह मुझे पहले से ही जानता हो। मैं किं-कर्तवय-विमूढ़ सा उसे निहारता रहा।
भूपेन्द्र कुमार दवे |
अचानक मेरे सामने सब कुछ एक चलचित्र-सा घटित होने लगा। एक मधुर मुस्कान की रेख जो सूर्य की प्रथम किरण आकाश में खींचती है, वह उस वृद्ध के मुख-मंड़ल पर आकार लेने लगी। मेरे सामने प्रकट होने लगी वह मूरत जिसे मैं मन ही मन ‘दरिद्र नारायण’ मानकर पूजता रहा हूँ।
मुझे स्तब्ध देख माथुरजी हमारा परिचय कराने आगे बढ़े, ‘आईये, आपका परिचय कार दूँ।’
भिखारी की तरफ हाथ कर वे मुझसे बोले, ‘आप है...।’ पर भिखारी ने बीच में ही टोक दिया, ‘इस औपचारिकता को दूर रखें। भिखारियों के नाम नहीं होता। उनका परिचय तो गरीबी ही करा देती है। रहा कथा लेखक का परिचय तो मैं जानता हूँ कि उनकी विद्वता उनके माथे पर दूर से ही उकेरी दिखती है।’
उसके इन शब्दों ने मेरी आँखें नम कर दी। मैंने आगे बढ़ उसके पैर छूने का प्रयास किया। पर वह वृद्ध लाठी फैंक मुझसे लिपट गया। ‘मेरे पैर छूकर मुझे शर्मिंदा मत करो,’ उसने मेरे कान में कहा। उसका शरीर थर थर कँप रहा था। उसके आँसू मेरे कंघे को नम कर रहे थे।
‘आईये,’ माथुरजी ने कहा।
वृद्ध लाठी टेकता पेड़ की तरफ गया और उससे टिक कर बैठ गया। माथुरजी ने उसे कोई निर्देश नहीं दिये थे, बल्कि मुझे ही बताते रहे कि कहाँ, कैसे खड़ा होना है आदि। उन्होंने एक चेक मुझे दिया और कहा, ‘यह उस वृद्ध को देना है।’
मैंने चेक देखा, वह दो करोड़ सत्रह लाख का था, मेरे 217 रुपये से दस हजार गुना। माथुर मुझे देख मुस्काये, ‘क्यों ठीक है, ना।’
मैं क्या कहता?
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शूटिंग चालू हो गई।
मैं चुपचाप पेड़ की तरफ जाने लगा। पेड़ के पास आकर मैंने भिखारी की तरफ चेक बढ़ाया। लेकिन वह यथावत बैठा रहा --- उसका दायाँ हाथ कुछ उठा, पर कँपकपाता गिर पड़ा। भिखारी के हाथ में चेक रखने की मैंने कोशिश की --- उसकी मुठ्ठी खुली थी खुली ही रह गई। हवा का एक झोंका आया और चेक को झाड़ियों तरफ उड़ा ले गया। कमजोर शरीर चेक लेने की शिथिल इच्छा को भी शक्ति प्रदान न कर सकी। चेक को पथराई आँखें देख भी न सकीं और गर्दन विपरीत दिशा में लुढ़क गई।
फिर भी मैंने पूछा, ‘क्या भूख लगी है?’
उसकी आँखें कुछ खुलीं।
‘अब तो भूख भूखी ही मरेगी,’ उसके ये शब्द ओंठ पर आकर चुपके से कह गये।
‘ऐसा कहकर अपनी जिन्दगी पर जबरन पूर्णविराम मत लगाओ,’ मैंने समझाया, ‘सोचो, मुझे यहाँ कौन खींच लाया। एक शक्ति है --- अद्दष्य शक्ति जो दिखती नहीं है। उसपर विश्वास करना हमें शक्ति देता है।’
‘कैसी शक्ति?’ उसकी आँखें पूछ रहीं थी।
कहने को तो मैं कह गया, ‘यह वही शक्ति है जिसके अभाव में तुम अभी हो।’ पर वह अचेत पड़ा रहा --- अपने दर्द में डूबा हुआ। दर्द जब अंतः से उठता है तो मूक व बहरा दोनों होता है। उस पर सान्त्वना के शब्द असर नहीं करते।
वह मुझे एकटक देखने लगा। उसकी स्थिर द्दष्टि दिल दहलानेवाली लग रही थी।
एक साँस --- अंतिम साँस हिचकी में तबदील हो गई --- एक अंतिम मुस्कान की रेख चट्टान से मृत शरीर पर खींचती हुई। साँस के चरखे की चरमराहट रुक गई और चहूँओर निस्तब्धता छा गई।
अंतिम बिदाई के लफ्ज प्रार्थना का स्वरूप ले मेरे कंठ में उभर आये। पर ग्वारीघाट की तरफ सिर उठा ‘माँ नर्मदे’ के सिवा मेरी प्रार्थना के सारे शब्द मेरे ही अंतः में प्रतिध्वनित होकर रह गये।
माथुरजी दौड़कर आगे बढ़े। वृद्ध के पैर छूकर रोने लगे। ‘दरिद्र नारायणाय नमः’ उनके मुख से आवाज निकली।
शूटिंग पूरी हो गई।
मैं दूर खड़ा सोचता रहा कि कौन कहता है कि ईश्वर पुनः अवतरित नहीं होते।
यह रचना भूपेंद्र कुमार दवे जी द्वारा लिखी गयी है। आप मध्यप्रदेश विद्युत् मंडल से सम्बद्ध रहे हैं।आपकी कुछ कहानियाँ व कवितायें आकाशवाणी से भी प्रसारित हो चुकी है। 'बंद दरवाजे और अन्य कहानियाँ', 'बूंद- बूंद आँसू' आदि आपकी प्रकाशित कृतियाँ है।संपर्क सूत्र - भूपेन्द्र कुमार दवे, 43, सहकार नगर, रामपुर,जबलपुर, म.प्र। मोबाइल न. 09893060419.
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