कृति जीवन का स्रोत है और पर्यावरण के समृद्ध और स्वस्थ होने से ही हमारा जीवन भी समृद्ध और सुखी होता है। वे प्रकृति की देवशक्ति के रूप में उपासना करते थे और उसे परमेश्वरी भी कहते थे। उन्होंने जीवन के आध्यात्मिक पक्ष पर गहरा चिंतन किया, पर पर्यावरण पर भी उतना ही ध्यान दिया।
पर्यावरणीय चिंतन
यत्ते भूमे विखनामि क्षिप्रं तदपि रोहतु।
मां ते मर्म विमृग्वरी या ते हृदयमर्पितम्॥'
अर्थात्, हे भूमि माता! मैं जो तुम्हें हानि पहुंचाता हूं, शीघ्र ही उसकी क्षतिपूर्ति हो जावे। हम अत्यधिक गहराई तक खोदने में (स्वर्ण-कोयला आदि) में सावधानी रखें। उसे व्यर्थ खोदकर उसकी शक्ति को नष्ट न करें।
भारतीय संस्कृति का अवलोकन करने से ज्ञात होता है कि यहां पर्यावरण संरक्षण का भाव अति पुराकाल में भी मौजूद था , पर उसका स्वरूप भिन्न था। उस काल में कोई राष्ट्रीय वन नीति या पर्यावरण पर काम करनेवाली संस्थाएं नहीं थीं। पर्यावरण का संरक्षण हमारे नियमित क्रिया-कलापों से ही जुड़ा हुआ था। इसी वजह से वेदों से लेकर कालिदास , दाण्डी , पंत , प्रसाद आदि तक सभी के काव्य में इसका व्यापक वर्णन किया गया है। भारतीय दर्शन यह मानता है कि इस देह की रचना पर्यावरण के महत्वपूर्ण घटकों- पृथ्वी , जल , तेज , वायु और आकाश से ही हुई है। समुद्र मंथन से वृक्ष जाति के प्रतिनिधि के रूप में कल्पवृक्ष का निकलना , देवताओं द्वारा उसे अपने संरक्षण में लेना , इसी तरह कामधेनु और ऐरावत हाथी का संरक्षण इसके उदाहरण हैं। कृष्ण की गोवर्धन पर्वत की पूजा की शुरुआत का लौकिक पक्ष यही है कि जन सामान्य मिट्टी , पर्वत , वृक्ष एवं वनस्पति का आदर करना सीखें। श्रीकृष्ण ने स्वयं को ऋतुस्वरूप , वृक्ष स्वरूप , नदीस्वरूप एवं पर्वतस्वरूप कहकर इनके महत्व को रेखांकित किया है।
हमारी धरती माता वर्तमान में पर्यावरण संबंधी चिंताओं का सामना कर रही है। ग्लोबल वार्मिंग, एसिड रेन, वायु प्रदूषण, शहरी फैलाव, अपशिष्ट निपटान, ओजोन परत की कमी, जल प्रदूषण, जलवायु परिवर्तन जैसी कई
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भारतीयता का अर्थ ही है-हरी-भरी वसुंधरा और उसमें लहलहाते फूल, गरजते बादल, नाचते मोर और कल-कल बहती नदियां। यहां तक कि भारतीय संस्कृति में वृक्षों और लताओं का देव-तुल्य माना गया है। जहां अनादिकाल से इस प्रार्थना की गूंज होती रही है- 'हे पृथ्वी माता तुम्हारे वन हमें आनंद और उत्साह से भर दें।' पेड़-पौधों को सजीव और जीवंत मानने का प्रमाण भारतीय वाङ्मय में विद्यमान है।
ऋग्वेद में यही बताया गया है- कि शुद्ध वायु कितनी अमूल्य है तथा जीवित प्राणी के रोगों के लिए औषधि का काम करती है। शरीर को स्वस्थ रखने के लिए आयुवर्धक वायु मिलना आवश्यक है। और वायु हमारा पालक पिता है, भरणकर्ता भाई है और वह हमारा सखा है। वह हमें जीवन जीने के योग्य करें। शुद्ध वायु मनुष्य का पालन करने वाला सखा व जीवनदाता है।
ओम द्योः शांतिरंतरिक्षम् शांतिः पृथिवी शांतिरापः शांतिरोषधयः शांतिर्वनस्पतयः शांति विश्वे देवाः शांतिरेधि।(-शुक्ल, यजुर्वेद, 36/1711)
इस प्रकार द्युलोक से लेकर पृथ्वी के सभी जैविक और अजैविक घटक संतुलन की अवस्था में रहे। अदृश्य आकाश (द्युलोक) नक्षत्र युक्त दृश्य आकाश (अंतरिक्ष), पृथ्वी एवं उसके सभी घटक जल, औषधियां, वनस्पतियां, संपूर्ण संसाधन (देव) एवं ज्ञान संतुलन की अवस्था में रहे, तभी व्यक्ति शांत एवं संतुलित रह सकता है)
दशकूपसमावापी दशवापी समो ह्रदः।
दशह्रदसमः पुत्रो दशपुत्रसमो द्रुमः।।
दस कुओं के बराबर एक बावड़ी होती है, दस बावड़ियों के बराबर एक तालाब, दस तालाबों के बराबर एक पुत्र है और दस पुत्रों के बराबर एक वृक्ष होता है
पर्यावरण चिंतन की अवधरणा के पीछे एक लम्बा सक्रमंणकालीन दौर रहा है। जिसके बीज यूरोप की औद्योगिक क्रान्ति, विश्व युद्ध , शीत युद्ध , अरब युद्ध , ओजोन क्षरण, परमाणु बम के परीक्षणों, वायु प्रदुषण से होने वाली मौतों की संख्या में बढ़ोतरी, जनसंख्या में अप्रत्याशित वृद्धि, तथा विकास की अंधी दौड़ की पूर्ति हेतु संसाधनो का अधाधुंध उपभोग आदि में खोजे जा सकते हैं।प्रकृति ने मनुष्य को अनूठी प्रतिभा, क्षमता, सृजनशीलता, तर्कशक्ति देकर विवेकशील, चिंतनशील एवं बुद्धिमान प्राणी बनाया है। अतः मनुष्य का दायित्व है कि वह प्राकृतिक संसाधनों में संतुलित चक्र को बनाए रखते हुए स्वस्थ वातावरण का निर्माण कर अपना पुनीत कर्तव्य समझे। आज का मानव अपने उत्तरदायित्वों से मुंह मोड़ रहा है, क्योंकि भौतिकवाद व औद्योगीकरण ने उसे स्वार्थी बना दिया है। भारत में पर्यावरण की समस्या अत्यधिक औद्योगीकरण का परिणाम नहीं, बल्कि विकास का अपूर्णता का द्योतक है।
परम्परागत ज्ञान ने लंबे समय से माना है कि पर्यावरणीय गुणवत्ता के लिए व्यापक नागरिक चिंता अमीर देशों तक सीमित है। शिक्षाविदों और नीति निर्माताओं दोनों का मानना है कि गरीब राष्ट्रों के निवासियों को पर्यावरण संरक्षण के "भौतिकवादी मूल्य का समर्थन कर उन्हें को संतुष्ट करने के लिए बहुत पूर्वाग्रह है। 1992 में आयोजित गैलप के 24-राष्ट्र "हेल्थ ऑफ द प्लैनेट" (HOP) सर्वेक्षण के परिणामों से इस दृष्टिकोण को चुनौती दी गई थी, क्योंकि HOP ने राष्ट्रीय समृद्धि और पर्यावरणीय चिंता के बीच अत्यधिक असंगत और अक्सर नकारात्मक सहसंबंध पाया। इस तरह की चिंता राष्ट्रीय समृद्धि के साथ असंगत रूप से संबद्ध है। कुल मिलाकर परिणाम बताते हैं कि पर्यावरण के लिए नागरिक चिंता राष्ट्रीय समृद्धि पर निर्भर नहीं है, न ही समृद्धि-आधारित भौतिकवादी मूल्यों पर।
भारतीय ऋषि चिंतन ने सृष्टि के प्राणीमात्र के लिए तीन आवश्यताएं स्वीकार कर उनको महत्वत: रेखांकित किया। ये हैं : वृष्टि, वायु और वन।यही नहीं, इन तीनों पर केंद्रित चिंतन को निरंतरता देते हुए समय-समय पर विचारों का प्रवर्तन किया। परीक्षित, वैज्ञानिक, व्यावहारिक मत दिए। पश्चिम में जबकि इस संबंध में जागरण ही न था, भारत में अग्निहौत्र, अगर-धूपादि से पर्यावरण के संरक्षण के विचार को देवरूप स्वीकार कर उपासित किया जा रहा था।
हमारे ऋषि-मुनि जानते थे कि प्रकृति जीवन का स्रोत है और पर्यावरण के समृद्ध और स्वस्थ होने से ही हमारा जीवन भी समृद्ध और सुखी होता है। वे प्रकृति की देवशक्ति के रूप में उपासना करते थे और उसे परमेश्वरी भी कहते थे। उन्होंने जीवन के आध्यात्मिक पक्ष पर गहरा चिंतन किया, पर पर्यावरण पर भी उतना ही ध्यान दिया। जो कुछ पर्यावरण के लिए हानिकारक था, उसे आसुरी प्रवृत्ति कहा और जो हितकर है, उसे दैवीय प्रवृत्ति माना।ऊर्जा की अंधाधुंध खपत व वनों की बेशुमार कटाई, अनायास बढ़ती हुई जनसंख्या, तेजी से फैलते हुआ प्रदूषण और उसके बीच संसाधनों का निर्मम शोषण यहीं बदला चुकाया मनुष्य ने प्रकृति की अनुकंपा का। फसलों की लालच ने पृथ्वी के गर्भ को चीरकर रासायनिक खाद से भरने को मजबूर किया, विलासिता के दृष्टिकोण ने मिलों, फैक्ट्रियों, कारखानों और संयंत्रों के माध्यम से चारों ओर प्रदूषण फैलाया।
जिस तरीके से देश को विकास की ऊंचाई पर खड़ा करने की बात कही जा रही है और इसके लिए औद्योगीकरण को बढ़ावा दिया जा रहा है, उससे तो लगता है कि प्रकृति, प्राकृतिक संसाधनों एवं विविधतापूर्ण जीवन का अक्षयकोष कहलाने वाला देश भविष्य में राख का कटोरा बन जाएगा। हरियाली उजड़ती जा रही है और पहाड़ नग्न हो चुके हैं। नदियों का जल सूख रहा है, कृषि भूमि लोहे एवं सीमेन्ट, कंकरीट का जंगल बनता जा रहा है। महानगरों के इर्द-गिर्द बहुमंजिले इमारतों एवं शॉपिंग मॉल के अम्बार लग रहे हैं। उद्योगों को जमीन देने से कृषि भूमि लगातार घटती जा रही है। नये-नये उद्योगों की स्थापना से नदियों का जल दूषित हो रहा है, निर्धारित सीमा-रेखाओं का अतिक्रमण धरती पर जीवन के लिये घातक साबित हो रहा है।
आज मनुष्य यह समझता है कि समस्त प्राकृतिक संपदा पर सिर्फ उसी का आधिपत्य है। हम जैसा चाहें, इसका उपभोग करें। इसी भोगवादी प्रवृति के कारण हमने इसका इस हद तक शोषण कर लिया है कि अब हमारा अपना अस्तित्व ही संकट में पड़ने लगा है। वैज्ञानिक बार-बार चेतावनी दे रहे हैं कि प्रकृति, पर्यावरण और परिस्थिति की रक्षा करो, अन्यथा हम भी नहीं बच सकेंगे।आज हमारे सामने सबसे बड़ी समस्या प्रदूषण एवं शुद्ध पर्यावरण की उतनी नहीं है, जितनी पश्चिम की भौतिकवादी सभ्यता के फलस्वरूप होने वाले दुष्परिणामों की है, जिन्हें अपनाकर भारतीय मूल्य, परंपराओं एवं संस्कृति के मूलभूत आयामों पर चोट पहुंचाई जा रही है, जिसके फलस्वरूप चराहगाह नष्ट हो रहे हैं, पशुपालन उजड़ रहे हैं, जलाऊ लकड़ी का संकट निरंतर बढ़ता जा रहा है, खनिज उत्पाद से फसल और वन चौपट होते जा रहे हैं, झीलें सूख रही हैं, नदी के पानी के प्रदूषण के फलस्वरूप मछुआरों का जीवन अनिश्चित हो रहा है।
हमारे साहित्य में भी पर्यावरण की चिंता केंद्रबिंदु में रही है। प्रेमचंद जैसे युग प्रवर्तक साहित्यकार के साहित्य मे भी पर्यावरणीय संवेदना के दर्शन होते है ‘‘पूस की रात’’ कहानी में अपने ‘प्राकृतिक परिवेश का पर्दा खोलते हैं- ‘‘रात को शीत ने धधकना शुरू किया।’’ प्रेमचंद ने ‘दो बैलों की कथा’ के माध्यम से प्रकृति के उदात्त संवेदनात्मक पक्ष को उभारा है। यात्रा वृत्तांतों के अतंर्गत निर्मल वर्मा के ‘‘चीड़ों पर चाँदनी’’ अज्ञेय के ‘‘अरे यायावर रहेगा याद’’ महत्वपूर्ण रचनाएँ है। निर्मल वर्मा के यात्रा वृतांत प्रकृति के साथ गहरे संवेदनशील रिश्तों का खाका प्रस्तुत करते हैं। ‘अज्ञेय’ ने ‘अरे यायावर रहेगा याद?’ में प्रकृति का स्थूल वर्णन न करके, प्रकृति के स्पंदक का सूक्ष्म अंकन किया है। प्रकृति के छिपे हुए इतने सौंदर्य स्तरों की खोज की है जो उनकी बौधिकता का ही नहीं उनकी रागात्मकता का भी परिचायक है।अस्तित्वमूलक एकता (Existential Oneness) का विचार महात्मा गांधी के चिंतन का प्रस्थान बिन्दु है। यही प्रस्थान बिंदु वैज्ञानिक नियम के रूप में अहिंसा को अभिव्यक्त करता है। गांधीजी के पर्यावरण प्रकृति संबंधी विचार ऊपरी तौर पर सहज एवं सरल प्रतीत होते हों परन्तु उनमें विकास और पर्यावरण, गांव और शहर जैसे कई विमर्श अन्तर्भूत हैं। इन्हें नजरअंदाज करना गांधीजी के पर्यावरण/प्रकृति संबंधी विचारों को एकांगी बनाना होगा।पर्यावरणवाद की सम्पूर्ण अवधारणाएँ प्रकृति को मनुष्य द्वारा दिये घावों पर निर्भर हैं. प्रकृति को इतने घाव दिये जा चुके हैं कि अब उन्हें भर पाने में हमें अपने असामर्थ्य का बोध होने लगा है. जैसे–जैसे पूँजी का वर्चस्व और निजी संपत्ति की प्रवृत्ति बढ़ती गई, प्राकृतिक पर्यावरण दूषित होता गया. यह एक खुली हुई स्पष्ट और सरल-सहज बात है. भौतिकशास्त्री और ब्रह्मांडविद् स्टीफन हॉकिंग ने यहाँ तक कह दिया कि अगले सौ वर्षों के पश्चात हमें दूसरी पृथ्वी की ज़रूरत होगी.
आज आवश्यकता है व्यक्ति को व्यक्तिगत स्वार्थ को त्यागकर सामाजिक स्वार्थ को मान्यता देनी चाहिए। प्रकृति एवं मनुष्य में सह-अस्तित्व की भावना का विकास हो, सांस्कृतिक मूल्यों को सर्वोपरि समझते हुए कथनी व करनी में एकरूपता हो, आत्मावलोकन व आत्मनिरीक्षण का विकास, सामाजिक मूल्यों के संदर्भ में करते हुए मानव-समाज के हित में समर्पित भाव रखने से सामाजिक, राजनीतिक ही नहीं, प्राकृतिक प्रदूषण पर भी रोक लगेगी तथा पर्यावरण संतुलन की संभावनाएं स्वतः ही बढ़ जाएगी और वायु, जल, मिट्टी, वनस्पति अथवा भौतिक जलीय, वायु और आकाशीय रिश्तों में संतुलन स्थापित हो सकेगा।पर्यावरण अवनयन न केवल हमारी जैविकी को प्रभावित करता है बल्कि वह हमारी मानसिकता को आतंकित भी करता है. सौंदर्यबोध के निर्माण में प्राकृतिक परिवेश का भी योगदान रहता है. हम सभी बदलते हुए पर्यावरण से प्रभावित होते हैं। . अवनयित पर्यावरण हमें आतंकित करता है, भले ही हम इसको नज़रअंदाज़ करते हैं।
- डॉ सुशील शर्मा
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