भोर का आनंद हम अपने बड़े बुजुर्गों से अक्सर ये सुनते आए हैं कि सुबह का बड़ा महत्त्व होता है | आपकी सुबह आपका दिन निर्धारित करती है कि आपका दिन कैसा रहने वाला है | एक आनंददायक सुबह आपके पूरे दिन को आनंदमय बना देती है और एक बेकार सुबह पूरा दिन बिगाड़ देती है | जब वातावरण , प्रभात आदि ऐसे विषयों की बात निकल कर आती हो तो हमारे मन में पहला ध्यान गाँव का आता है |
भोर : एक आनंद
(संस्मरण)
हम अपने बड़े बुजुर्गों से अक्सर ये सुनते आए हैं कि सुबह का बड़ा महत्त्व होता है | आपकी सुबह आपका दिन निर्धारित करती है कि आपका दिन कैसा रहने वाला है | एक आनंददायक सुबह आपके पूरे दिन को आनंदमय बना देती है और एक बेकार सुबह पूरा दिन बिगाड़ देती है | जब वातावरण , प्रभात आदि ऐसे विषयों की बात निकल कर आती हो तो हमारे मन में पहला ध्यान गाँव का आता है | और क्यों न आए शायद ही किसी गाँव से बेहतरीन सुबह कहीं ओर ही होती होगी | शहरी भाग दौड़ और हर समय रहने वाला ध्वनि प्रदुषण अक्सर हमारे व्यवहार को तो प्रभावित करता ही है, साथ ही साथ हमारी सुबह को भी बिगाड़ देता है |
मैं जब भी कभी अपनी बेहतरीन सुबहों को याद करता हूँ तो मुझे मेरे कस्बे डग की याद आ जाती है | राजस्थान
के झालावाड़ जिले का एक छोटा क़स्बा जो अपने आप में ही अलग है | जहाँ मेरे और मेरे भाई बहन का सुनहरा बचपन बीता | जिसकी हर सुबह खुशियाँ देने वाली , दिन अक्सर दोस्तों के साथ खेल में बीतने वाला और हर शाम अपनों का साथ लिए चली आती थी | एक अनोखा अनुभव जो शायद ही अब कभी मिल जाए , लेकिन संभव नहीं | हमारा घर दो मंजिला डग के बीच , और एक विशेष परिस्थिति जिसमे सामने ही जगदीश भगवान का मंदिर , घर के पीछे की ओर माँ डगेश्वरी का अनोखा मंदिर है , स्थित है |
अब मैं आपको हमारे डग की उस प्रभात का वर्णन करता हूँ जिसे पड़कर आपको भी एक आनंद दायक अनुभूति अवश्य होगी | हमारा कमरा पहली मंजिल था जिसमे सामने की तरफ एक खिड़की है जिसे खोलते ही नीचे का बाज़ार और सामने का जगदीश मंदिर दिखाई देता तथा जो ठंडी हवाओ के प्रवेश का मार्ग है | कमरे में एक पलंग था जिस पर मैं अक्सर सोया करता था | मुझे मेरे तीन अलार्म के बारे में भी ध्यान आता है | जिनका में इसमें वर्णन करूँगा |
प्रातः 4 बजते ही गायत्री मंदिर की आवाज़ आने लग जाती जिसे सुनकर भी गाँव के कई लोग उठ जाते थे, कुछ बुजुर्गो का तो यह नियम भी होता है कि ब्रह्ममुहूर्त में जागरण ही श्रेष्ठ है | लेकिन शायद उसकी आवाज़ इतनी अच्छी लगती थी कि मेरी नींद ओर भी गहरी हो जाती थी | सामने जगदीश मंदिर के पंडित जी का एक नियम था की वे 6 बजे के लगभग मंदिर के माइक में भजन बजाने लग जाते थे , उस समय लोग मंदिरों की ओर पूजा करने और भगवान् के दर्शन करने के लिए चल पड़ते थे | जिनके पास गाय, भैंस आदि पशु है वे उन्हें खेत पर , चराने हेतु घरो से निकल जाते थे | हम अक्सर पशुओं के गले की घंटियों की आवाज़ भी सुना करते थे | ये था मेरा पहला अलार्म जिससे में कभी-कभार उठ भी जाता था | लेकिन अधिकतर समय सोया ही रह जाता था | 6 बजे के लगभग आकाश में सूर्योदय से पहले की लालिमा दिखाई देने लागती थी | मेरे दूसरे अलार्म के रूप में काम करने वाली सामने दूर नीम के पेड़ पर बैठी कोयल थी जो हमेशा सुबह की प्रभातियाँ गाकर मुझे जगाती | उस कोयल का बोलना इतना मीठा रहता कि खुली खिड़की से आने वाली मंद-मंद ठंडी हवाओ के साथ वो एक तरह की लोरी का काम करती जो कई बार जागने के बाद भी सुला दिया करती थी | कोयल के साथ साथ कई तोते भी छत पर अपना डेरा लगाते थे | और कई पक्षी भी अपनी-अपनी तरह से प्रभातियाँ गाने में पीछे नहीं रहते थे | मैं अधिकतम इनसे उठ जाया करता था | लेकिन इनके द्वारा जगाने पर भी यदि मैं नहीं उठता तो मेरी माताजी और दादी जी द्वारा दी जाने वाली आवाज़ कि “ अब तो उठ जा , सूर्यनारायण सिर पर आ गए है ” से मैं उठ ही जाता था | क्योकि ये मेरे तीसरे अलार्म के रूप में काम करते थे जो की अंतिम था जिसके बाद मुझे उठना ही पड़ता था | नहीं तो सुबह सुबह पिताजी की डाट कौन खाएगा | गर्मियों में कई बार हम दादाजी के साथ इस प्रभात के सुन्दर वातावरण में गाँव के दक्षिण में अमराइयों के बीच सामुखाल की पंचकुइया पर नहाने भी जाया करते थे | वहां का ठंडा और अमृत जैसा पानी तन तथा मन प्रफुल्लित कर देता था | सर्दियों में तालाब पर ही नहाया करते थे | हालांकि तैरना तो सिख नहीं पाए थे लेकिन पानी में खेलने में बड़ा आनंद आता था | कभी कभी खेत की ओर भी चले जाया करते थे | खेत में लहराती हरी फसलें अपने आप में ही एक अनोखा दृश्य रहती थी जो मन जो सुकून देने वाली होती थी |
ऐसी सुबह होने के बाद दिन हमेशा की तरह ही बेहतरीन बीतता था | शहर में आने के बाद ऐसी सुबह चाह कर भी नहीं मिलती , अब तो सिर्फ यांदे ही शेष है | कोयल की आवाज़ को अब गाड़ियों के तीखे हॉर्न ने दबा दिया है , मंदिर में बजने वाले भजन तो अब खुद ही मोबाईल में लगा कर सुनने पड़ते है , हां गायत्री मंदिर के भजनों की आवाज़ जल्दी सुबह आ जाती है, सूर्योदय की लालिमा को भी प्रदुषण अपने जाल में फंसा लेता है | खैर छोडो समय था बीत गया | अब चाह कर भी दोबारा नहीं आ सकता | लेकिन आज भी गाँवो की दिनचर्या ऐसी देखी जा सकती है | पशुओं के गले की घंटियों की आवाज़ आज भी सुनाई देती है | लेकिन परिस्थितियां काफ़ी बदल गयी है | आज भी गाँव की बड़ी याद आती है |
लेकिन मैं आप सभी से उम्मीद करता हूँ की आपको मेरे गाँव की प्यारी सुबह का वर्णन पढने में आनंद आया होगा आपको गाँव की सुबह की झलक भी मिली होगी |
धन्यवाद
मैं जब भी कभी अपनी बेहतरीन सुबहों को याद करता हूँ तो मुझे मेरे कस्बे डग की याद आ जाती है | राजस्थान
भोर का आनंद |
अब मैं आपको हमारे डग की उस प्रभात का वर्णन करता हूँ जिसे पड़कर आपको भी एक आनंद दायक अनुभूति अवश्य होगी | हमारा कमरा पहली मंजिल था जिसमे सामने की तरफ एक खिड़की है जिसे खोलते ही नीचे का बाज़ार और सामने का जगदीश मंदिर दिखाई देता तथा जो ठंडी हवाओ के प्रवेश का मार्ग है | कमरे में एक पलंग था जिस पर मैं अक्सर सोया करता था | मुझे मेरे तीन अलार्म के बारे में भी ध्यान आता है | जिनका में इसमें वर्णन करूँगा |
प्रातः 4 बजते ही गायत्री मंदिर की आवाज़ आने लग जाती जिसे सुनकर भी गाँव के कई लोग उठ जाते थे, कुछ बुजुर्गो का तो यह नियम भी होता है कि ब्रह्ममुहूर्त में जागरण ही श्रेष्ठ है | लेकिन शायद उसकी आवाज़ इतनी अच्छी लगती थी कि मेरी नींद ओर भी गहरी हो जाती थी | सामने जगदीश मंदिर के पंडित जी का एक नियम था की वे 6 बजे के लगभग मंदिर के माइक में भजन बजाने लग जाते थे , उस समय लोग मंदिरों की ओर पूजा करने और भगवान् के दर्शन करने के लिए चल पड़ते थे | जिनके पास गाय, भैंस आदि पशु है वे उन्हें खेत पर , चराने हेतु घरो से निकल जाते थे | हम अक्सर पशुओं के गले की घंटियों की आवाज़ भी सुना करते थे | ये था मेरा पहला अलार्म जिससे में कभी-कभार उठ भी जाता था | लेकिन अधिकतर समय सोया ही रह जाता था | 6 बजे के लगभग आकाश में सूर्योदय से पहले की लालिमा दिखाई देने लागती थी | मेरे दूसरे अलार्म के रूप में काम करने वाली सामने दूर नीम के पेड़ पर बैठी कोयल थी जो हमेशा सुबह की प्रभातियाँ गाकर मुझे जगाती | उस कोयल का बोलना इतना मीठा रहता कि खुली खिड़की से आने वाली मंद-मंद ठंडी हवाओ के साथ वो एक तरह की लोरी का काम करती जो कई बार जागने के बाद भी सुला दिया करती थी | कोयल के साथ साथ कई तोते भी छत पर अपना डेरा लगाते थे | और कई पक्षी भी अपनी-अपनी तरह से प्रभातियाँ गाने में पीछे नहीं रहते थे | मैं अधिकतम इनसे उठ जाया करता था | लेकिन इनके द्वारा जगाने पर भी यदि मैं नहीं उठता तो मेरी माताजी और दादी जी द्वारा दी जाने वाली आवाज़ कि “ अब तो उठ जा , सूर्यनारायण सिर पर आ गए है ” से मैं उठ ही जाता था | क्योकि ये मेरे तीसरे अलार्म के रूप में काम करते थे जो की अंतिम था जिसके बाद मुझे उठना ही पड़ता था | नहीं तो सुबह सुबह पिताजी की डाट कौन खाएगा | गर्मियों में कई बार हम दादाजी के साथ इस प्रभात के सुन्दर वातावरण में गाँव के दक्षिण में अमराइयों के बीच सामुखाल की पंचकुइया पर नहाने भी जाया करते थे | वहां का ठंडा और अमृत जैसा पानी तन तथा मन प्रफुल्लित कर देता था | सर्दियों में तालाब पर ही नहाया करते थे | हालांकि तैरना तो सिख नहीं पाए थे लेकिन पानी में खेलने में बड़ा आनंद आता था | कभी कभी खेत की ओर भी चले जाया करते थे | खेत में लहराती हरी फसलें अपने आप में ही एक अनोखा दृश्य रहती थी जो मन जो सुकून देने वाली होती थी |
ऐसी सुबह होने के बाद दिन हमेशा की तरह ही बेहतरीन बीतता था | शहर में आने के बाद ऐसी सुबह चाह कर भी नहीं मिलती , अब तो सिर्फ यांदे ही शेष है | कोयल की आवाज़ को अब गाड़ियों के तीखे हॉर्न ने दबा दिया है , मंदिर में बजने वाले भजन तो अब खुद ही मोबाईल में लगा कर सुनने पड़ते है , हां गायत्री मंदिर के भजनों की आवाज़ जल्दी सुबह आ जाती है, सूर्योदय की लालिमा को भी प्रदुषण अपने जाल में फंसा लेता है | खैर छोडो समय था बीत गया | अब चाह कर भी दोबारा नहीं आ सकता | लेकिन आज भी गाँवो की दिनचर्या ऐसी देखी जा सकती है | पशुओं के गले की घंटियों की आवाज़ आज भी सुनाई देती है | लेकिन परिस्थितियां काफ़ी बदल गयी है | आज भी गाँव की बड़ी याद आती है |
लेकिन मैं आप सभी से उम्मीद करता हूँ की आपको मेरे गाँव की प्यारी सुबह का वर्णन पढने में आनंद आया होगा आपको गाँव की सुबह की झलक भी मिली होगी |
धन्यवाद
- रचित वर्मा
अनंत विहार कॉलोनी ,
भवानीमंडी , जिला झालावाड
(राजस्थान) पिन – 326502
मोबाईल - 8094513761, ई-मेल – rachitverma025@gmail.com
आपका संस्मरण बेहद रोचक और जीवंत है । बहुत खूब लिखा आपने ।
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