निष्कासित बच्चे अवश्य ही उनका परिचय पाना चाहते हैं किन्तु उनकी माताऐं ऐसा होने नहीं देतीं। प्रश्नों के उत्तर तलाश्ता सा जब वह अपने ही जीवन को दोहराने का प्रयास करता है। तो पाता है कि ,माता - पिता तो बहुत पूर्व गुजर गये। रिश्तेदारों से लड़- झगड़ कर संबंध खराब कर दिये। घर की देखभाल करने को भी कभी आया ही नहीं। जब किसी से मिला नहीं , किसी से परिचय नहीं, तो कोई पहचाने कैसे ?
निष्कासित
दिन भर उछलकूद शैतानी करता छोटा मनुवा। नाम तो मोहन था लेकिन प्यार से सभी मनुवा ही कहकर पुकारा करते।दिन भर खेल कूद ,गवाला, जंगल यही काम रहते मनुवा के। ‘‘ऐ....... मनुवा कभी पढ़ भी ले ....... कौन आएगी तेरे लिये? एक तो काला उपर से अनपढ़ ......कोई तेरे संग ब्याह करेगी ही नहीं।’’ ‘‘आ......हा....हा......हा, देखना हेमा मालिनि से भी सुंदर बहू लाउंगा....., देखते ही रह जावोगे.......।’’ ‘‘अरे पढ़ तो सही तभी तो हेमा मालिनी धर्मेन्दर को छोड़ेगी, अनपढ़ के थोड़े ही आएगी?.........हाहा......हा.......हा....।’’
मनुवा की दिनचर्या तो ग्वाल बने रहने , हिसालु, काफल खाने में ही व्यतीत होती। हर दिन कोई न कोई मनुवा को चिढ़ाता अवश्य। बढ़ती उम्र के साथ मनुवा को अब लोगों की बात बुरी लगने लगी। गायें चराते हुए विद्यालय की
निष्कासित |
विद्यालय में नाम लिखा गया मोहन । अब जो मोहन विद्यालय गया तो फिर उसने पलट कर न देखा पढ़ता ही रहा शहर जाकर भी पढ़ाई की एम0एस0 सी0 , पी0 एच0 डी0 । गांव में सबसे अधिक पढ़ा लिखा।
गांव में मनुवा के ही पढ़ने की मिसाल दी जाती। संयोग से जल्द ही मनुवा को शहर में नौकरी भी मिल गई। ‘‘मां , पिताजी आप भी साथ चलो.....अरे ना पोथी तू जा । ...पर तेरी देखभल कौन करेगा ? अरे कौन क्या करेगा इसके लिये चेली खोजते हैं जब छुट्टी आयेगा तो ब्याह कर देंगे।’’
पहली ही छुट्टी में धूम धम से विवाह भी हो गया । सब कुछ सपनों सा सुन्दर पत्नी बिल्कुल हेमामालिनी सी । अब तो कहने वाले भी जलने लगे उसके भाग्य पर । कुछ दिन गांव में व्यतीत कर मोहन फिर लौट गया शहर। जा.....पोथी जा ...... नौकरी जो है ..... हेमा ख्याल रखना, अपना भी इसका भी। और जो अब गया मोहन तो फिर गया। ....................................वर्षों बीत गए वह न लौटा। बच्चे भी हुवे तो माता- पिता ही गए। पर अधिक रहे नहीं बेटे के साथ। पूछो तो कहते अरे , कब तक रहें वहां अपना घर नहीं छूटता। समय बीतता गया मां बाप के चेहरे पे रेखाऐं गहरी और गहरी होती गई । अब पैसा आने की खुशी भी न रही वह चाहते बेटा कुछ दिनों को ही सही पर घर तो आता। मोहन का कभी छुट्टी तो कभी बच्चों की पढ़ाई का ही रोना रह गया समय के साथ माता- पिता काल के गाल में समा गये।
चंचल गोस्वामी |
पिता के जाने के बाद वह मां को ले भी गया किन्तु वह लौट आई और अपनी अंतिम सांस अपने ही द्वार पर ली। अबकी बार वह अंत्येष्टी के तीसरे दिन पहुंचा चचेरे भाईयों द्वारा ही अंतिम क्र्रिया की गई। अब समय था उसकी जमीन जायदाद का तो बुजुर्गों की सहमति से घर पर ताला लगा दिया और जमीन की देखभाल चचेरे भाईयों को सौंप दी। वर्षों बीत गये धीरे-धीरे उनकी कुशल लेना भी बंद हो गया लड़ाई झगड़े में जमीन भी छुड़वा दी। गांव में कुछ दिन उसकी बातें होती लोग कहते अरे ! कभी कभी तो आना ही चाहिये ? ऐसा भी क्या काम कि मां बाप को भी न देख सका , इतने कष्टों से पाला था। फिर वह बातें भी कम होती गईं । धीरे- धीरे वह समय भी आया जब गांव ने ही उसे भुला दिया बस कहानी कहने को एक टूटा खंडहर अवश्य था।
देश में अचानक एक भयानक महामारी फैल गई। इसके संक्रमण से हजारों लोंगोें की मौत होने लगी। शहरों में रहना दूभर होने लगा। सर पर मंडराती मौत को देखकर मोहन को अपने गांव की याद आने लगी। ‘‘अरे......जैसा भी है गांव अभी भी इससे अछूता है। वहां कोई बीमारी नहीं फैली है’’। फिर अपना घर ,अपने खेत हैं वहां...। वहां जाकर रहेंगे कह कर परिवार व बच्चों के साथ मोहन अपने गांव लौट चला। मार्ग में अपने बच्चों को वहां की बहुत सी बातें बताते हुवे वहां का एक कल्पना संसार निर्मित करता रहा। वहां के खेत खलिहान, नदी नाले , पर्वत ,गलियां, द्वार चैखट सभी कुछ तो थे उस संसार में सजे चमकीले हीरे से। शहर से गाड़ियों के धक्के खाते हुवे आखिर पहुंच ही गये अपने गांव । वह पर्वत वैसे ही थे, नदियां भी कल कल बह रही थी पक्षियों की चहचहाहट कम नहीं हुई थी। कितना सुरम्य है उसका गांव , दूर से देखकर ही मन मोहने वाला। ‘‘ पापा आप हमें पहले कभी क्यों नहीं लाये यहां? कम से कम समर वैकेशन पे तो लाते ? मोहन निरूत्तर था।
आज खुशी थी तो केवल इस बात की कि, वह अपने परिवार को उस भयावह बीमारी से बचाकर गांव ले आया है। चलो....... अच्छा है..... अपना घर नहीं बेचा , वरना आज कहां जाते....? अन्दर ही अन्दर मोहन प्रसन्नता से भरा हुवा गांव की सीमा के अन्दर प्रवेश कर गया । किन्तु यह क्या.......? प्रवेश करते ही स्वास्थ्य कर्मियों एवं स्वयं सेवियों द्वारा घेर लिया गया। कौन हैं? कहां से आए हैं?....पहले तो कभी यहाॅ नहीं देखा लाख समझाने तथा पुरानी यादें गांव से जुड़ी निशानियों पे स्वीकारा गया कि यह ग्रामीण नाग्रिक हैं। इसके बाद भी कुछ दिनों तक पूरे परिवार को आइशोलेशन में रहना पड़ा । पापा.......इस कैद से तो हम शहर में ही अच्छे थे......। कोई बात नहीं कुछ ही दिनों की बात है..., अच्छा खसा घर है हमारा फिर जब वहां जाएंगे तो आराम से रहेंगे।
बचपन की यादों में खोए हुवे वह दिन भी बीत गऐ। सामान के साथ लकदक सा मोहन गांव पहुंॅचता है। .......किन्तु यह क्या घर की जगह पर एक टूटा हुआ खंडहर खड़ा है। जिसकी चैखटें पीले पात सी हिलकर गिर जाने को तैयार हैं। टूटे चरमराते , लड़खड़ाते दरवाजों की आवाज से खंडहर की दीवारें भी भयभीत होती हैं। क्या.....पापा...... यह है हमारा और आपका सपनों का महल ?
मोहन स्तब्ध है.....।दूसरी ओर आंगन का तो पता नहीं धर के भीतर भी हरियाली फैली हुई है, शायद मोहन के आगमन पर खिल उठी हो? नजरें धुमाकर जब मोहन चारों ओर प्रश्नवाचक सा देखता है,? तो पाता है कि वैसी ही दृष्टि उसकी ओर भी उठ रहीं हैं। हर कोई मंुह छुपाए दूर से ही उसे व उसके परिवार को देख रहा है, जैसे कोई आतंकवादी गांव में घुस आया हो।
वहां शायद ही कोई उसे पहचानता हो। बच्चे अवश्य ही उनका परिचय पाना चाहते हैं किन्तु उनकी माताऐं ऐसा होने नहीं देतीं। प्रश्नों के उत्तर तलाश्ता सा जब वह अपने ही जीवन को दोहराने का प्रयास करता है। तो पाता है कि ,माता - पिता तो बहुत पूर्व गुजर गये। रिश्तेदारों से लड़- झगड़ कर संबंध खराब कर दिये। घर की देखभाल करने को भी कभी आया ही नहीं। जब किसी से मिला नहीं , किसी से परिचय नहीं, तो कोई पहचाने कैसे ?
कुछ पल तो लोग देखते रहे , फिर बीमारी के भय से धृणा भरी एवं अनचाहा आगमन सा बोझ लेकर लौट गए। बच्चे अपनी माताओं से पूछते रहे कि, यह कौन हैं? पर अनजान मांताऐं यही कहती वह नहीं जानती और ध्यान रहे यहां नहीं आना है।
थके से कदमों के साथ अपनी उधड़ी हुई यादों के भीतर प्रवेश कर रहा था शायद इस उम्मीद में कि उन उधड़े तानों - बानों को फिर से सी सके। किन्तु जिस गांव को उसने वर्षों पूर्व त्यागा था , वह आज वहीं से निष्कासित था।
- चंचल गोस्वामी
ग्राम-सन्न,
पो0 ऑ0- वडडा,पिथौरागढ़
उत्तराखण्ड
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