हिंदी भाषा पर ग्रामीण बोलियों का प्रभाव बोली से ही भाषा बनती है । बोलियों का प्रभाव एक दूसरे पर पडता है । ग्रामीण बोलियों का हिंदी भाषा पर प्रभाव दिखाई देता है । मेरा गाँव डोणगाँव है । डोणगाँव में मराठी , कन्नड , तेलगु और हिंदी बोलियाँ बोलि जाती है । मेरे गाँव की आबादी छह हजार है । आबादी के अनुसार गाँव में चार बोलियाँ बोली जाती है । इन ग्रामीण बोलियों का हिंदी भाषा पर प्रभाव अधिक दिखाई देता है ।
हिंदी भाषा पर ग्रामीण बोलियों का प्रभाव
बोली से ही भाषा बनती है । बोलियों का प्रभाव एक दूसरे पर पडता है । ग्रामीण बोलियों का हिंदी भाषा पर प्रभाव दिखाई देता है । मेरा गाँव डोणगाँव है । डोणगाँव में मराठी , कन्नड , तेलगु और हिंदी बोलियाँ बोलि जाती है । मेरे गाँव की आबादी छह हजार है । आबादी के अनुसार गाँव में चार बोलियाँ बोली जाती है । इन ग्रामीण बोलियों का हिंदी भाषा पर प्रभाव अधिक दिखाई देता है ।
प्रत्येक भाषा का विकास बोलियों से ही होता है । जब बोलियों के व्याकरण का मानकीकरण होता जाता है तब उस बोली के बोलने या लिखनेवाले इसका ठीक से अनुकरण करते हुए व्यवहार करते है तथा वह बोली भावाभिव्यक्ति में इतनी सक्षम हो जाती है कि लिखित साहित्य का रूप धारण कर सके तो उसे भाषा का स्तर प्राप्त हो जाता है । बोलियों का भी नाम होता है जैसे – शेर कि बोली को दहाडना कहते है ,हाथी की बोली को चिंघाडना और घोडे की बोली को हिनहिनाना । बोली का सहज अर्थ है - ‘‘ विशिष्ट प्रदेश या विशिष्ट संस्कृति को लेकर जो व्यक्ति समूह अपना व्यवहार जिस भाषा में करता है उसे बोली कहते है । ’’
कोई बोली भाषा के केंद्र से जितनी निकट होगी उतनी अधिक सामान्यत: दोनों के बीच में पायी जाएगी। सभी तत्व सभी बोलियों में देखने को नहीं मिलते हैं। अलग-अलग तत्वों से बोली बनी रहती है। सभी बोलियों में सभी तत्व होते तो वे अलग बोलियों ही क्यों कहलाती ? ऐसा भी नहीं है कि एक बोली के तत्व किसी दुसरी बोली में न पाए जाए वरना वे एक भाषा की बोलियाँ क्योंकर कहलाएगी ? एक बोली के घेरे को दुसरी बोली के घेरे में जितना अधिक प्रवेश होगा उतनी अधिक सामान्यत: उन दोनों में पायी जाएगी । जैसे- ग्रामीण बोलियों में हिंदी भाषा पर मराठी बोली का अधिक प्रभाव दिखाई देता है । ग्रामीण बोली में मराठी के कई शब्द ऐसे है जो वैसे के वैसे हिंदी भाषा में प्रयुक्त होते है ।
हिंदी भाषा पर ग्रामीण बोलियों का प्रभाव |
एक बोली दूसरी बोली में घुलमिलकर मीलों तक चली जाती है। अत: यह नही कहा जा सकता कि कौनसी बोली कहाँ खत्म होती है और दुसरी कहाँ से शुरू होती है । अत: यहाँ सीमा रेखाएँ नहीं , सीमाक्षेत्र बताए जा सकते है । सोलापुर जिला महाराष्ट्र-कर्नाटक और आंध्र सीमा पर स्थित होने के कारण मराठी पर तेलगु और कन्नड भाषा का प्रभाव दिखाई देता है । ग्रामीण भागों में सम्मिश्रित बोलियाँ पायी जाती है क्योंकि कईयों के मातृभाषा अलग रहती है लेकिन किसी दूसरे क्षेत्र में बोली जानेवाली उनको बोलनी पडती है । तब उनकी बोली में सम्मिश्रित रूप दिखाई देता है। जैसे – कन्नड भाषा बोलनेवाले जब हिंदी बोलते है तब उनकी उच्चारण में लिंगभेद और शब्द उच्चारण में चढाव दिखाई देता है । जैसे – सिखना शब्द को वे लोग श महाप्राण ध्वनि से शीखना बोलते है और मै हिंदी बोलता है । ऐसे लिंगभेद उनके बोली उच्चारण में दिखाई देते है ।
विशुद्ध बोलियों का क्षेत्र प्रत्येक अवस्था में थोडा है और सम्मिश्रित बोलियों का क्षेत्र बडा हो जाता है । ऐसे क्षेत्र को किसी विशिष्ट बोली पर काम करनेवाला एक व्यक्ति इधर मिलाना चाहेगा और दूसरा उसे उधर ले जाना चाहेगा । सोलापुर जिला बहुभाषिक होने के कारण इस शहर में अनेक प्रकार की बोलियाँ बोली जाती है । शहर में बोली जानेवाली अनेक बोलीयों का प्रभाव ग्रामीण बोली पर भी पडता है।
सोलापुर शहर महाराष्ट्र राज्य में आंध्र और कर्नाटक राज्य की सीमापर स्थित है । सोलापुर में दक्षिण सोलापुर के कई देहातों पर कन्नड बोली का प्रभाव दिखाई देता है और कन्नड बोली जाती है । ऐसी कई बोलियों का स्थान विशेष के कारण एक दूसरे पर विशेषत: प्रभाव दिखाई देता है ।
मराठी भाषा का उदय संस्कृत से प्राकृत और अपभ्रंश इन भाषाओं से माना जाता है । उसी प्रकार से हिंदी भाषा का भी उगम इसी भाषाओं से माना जाता है । इसलिए हिंदी और मराठी बोली में साम्य दिखाई देता है। तो ग्रामीण भागों में मराठवाडी बोली बोली जाती है । तब कई बार क्रियापद पर कन्नड बोली का प्रभाव दिखाए देता है । इस बोली मे उर्दू शब्द भी प्रयुक्त होते है. जैसे – लाव , लास , आव इस प्रकार के शब्द प्रयोग में लाया जाते है । जैसे – जेवलालाव , चाल्लास , ठिवताव आदि । “ काय लंपूसाहेब व्हट वाईर काढून बसून सोडलात आज सक्काळी,सक्काळी ,’ “ एकदम मज्जा आद नोडरी अभ्यास इल्ला यान इल्ला , ’ । मज्जा, एकदम शब्द मराठी में प्रयुक्त है लेकिन प्रभाव के कारण यह शब्द कन्नड में पाये जाते है । इस बोली में गा प्रत्यय लगाया जाता है । जैसे – काय गा कव्वा येत्यास ? ( काय केंव्हा येणार ) मराठी बोली में सर्वनामों की रचना कुछ इस प्रकार है जैसे – ते – एकवचनी , तेंनी – अनेकवचनी और आदरार्थी रूप – त्येनी , त्या हयवनी , त्या- त्यवनी आदि सर्वनामों के ऐसे रूप मराठी बोली में प्रयुक्त है । बोलते-बोलते सोलापुरी ग्रामीण बोलि में अनुस्वार या बिंदी देकर शब्द उच्चारण करने की अलग-सी खासियत दिखाई देती है । जैसे – ‘ त्येबक ती आल , त्येबक तित पडलय आदि । मराठी बोली में औच्चारिक नियमन नही किया जाता है। मराठी बोली में कर्म को ही क्रियापद का रूप दिया जाता है। ग्रामीण मराठी बोली में अक्षरों को जुडाकर बोला जाता है । जैसे- अल्ला , गेल्ला , अल्ती , जेव्हलो , हन्ला , फेकला , झोप्लो आदि। ‘ व्हयब्बे कुठ गेल्तास ? ’ आदि शब्द प्रयोग में लाए जाते है । गडबडी , अज्ञान के कारण ऐसा घटित होता है । क्रियात्मक रूप के कारण क्रियापद को पूर्णत्व देने की आवश्यकता नही है । इस बारे में अज्ञान यही वास्तव कारण माना जाएगा । ‘ गेल्ती ’ ऐसे रुपों के उपयोजन से क्रिया के पूर्णत्वं की संदिग्धता नष्ट की जाती है ।
लिंगनिश्चती के बारे में सोलापुरी बोली में बडी ही गडबड दिखाई देती है । व्यक्ति के बारे में सौ प्रतिशत वास्तवता होती है परंतु शब्द रुपों में यह गडबड सौ प्रतिशत दिखाई देती है । चहा , कॉफी , भात ,टृक , एसटी आदि शब्द गडबड करते है । चाय – पुल्लिंगी शब्द लेकिन प्रयोगकर्ता के लिंगनुसार स्त्रीलिंग । जो की पुल्लिंगी होता है। कॉफी- स्त्रीलिंगी शब्द , टृक – पुल्लिंगी शब्द है लेकिन उसका उच्चारण स्त्रीलिंग में भी किया जाता है । कन्नड , हिंदी और तेलगु इन बोलियों के अतिप्रयोग से व्यवस्थापन में गडबड दिखाई देते है ।
ग्रामीण बोली भाषा में ‘ सुरमधुरता ’ होती है । मूल उच्चारण के सिवाय बडी हुए मात्रा के लययुक्त औच्चारिक रूप को हेल कहते है । ग्रामीण बोली में हेलकारी शब्दों की योजना होती है । कन्नड और तेलगु बोलियों का परिणाम कन्नड में आकारांत और उकारांत शब्दों में अधिक हेल है । “ बंदिल्ला , उंडील्ला , बित्तील्ला , होगिल्ला ऐसी ‘ ल्ला ’ युक्त अर्थात ‘ आ ’ कारयुक्त शब्द योजना बडी मात्रा में है । ‘ माडबेक्कु , होगबेक्कु , उनबेक्कु , आडबेक्कू ऐसी आज्ञार्थी ‘ ऊ ’ कारयुक्त शब्द रूप भी कन्नड बोली में है । कन्नड में ‘ अ ’ , उ ’, आ , ऊ , ओ ऐसी हेलकारी रूप अनेक है । कन्नड बोली के संपर्क से ग्रामीण बो ली में हेलयुक्त रुपों का समन्वय दिखाई देता है । जैसे – अलाव , गेलाव s s…. , जेवलाव s s…. , बसलाव s s…. , खाल्लाव ऐसे ‘ अ’ के हेल प्रयुक्त है । येकिब्बे , जाकिब्बे , अबे ..... तू बे .... ऐसे ही ‘ ए ’ कारयुक्त ‘ हेल ’ भी हमे सुनने को मिलते है । ‘ आलो ss …. , गेलो , जातो , गेल्तो , व्हतो , झ्झोपतो आदि । ‘ ओ ’ कारयुक्त हेल पद्धति की प्रवृत्ती दिखाई देती है । ‘ अ ’ कारयुक्त हेल तेलगु में ‘ उ ’ त्या , ओ ऐसे हेल कानडी से निर्माण हुआ है । कन्नड के संपर्क के करण हेलंयुक्त प्रवृत्ती सोलापुरी ग्रामीण मराठी में दिखाई देती है ।
मराठी बोली में ‘ बहुत अच्छा ’ शब्द को ‘ लय भारी ’ और ‘ ठेचणे ’ इस क्रियापद को ‘ चेचणे ’ और किसी बात का आशय जब ज्यादा बडा हुआ होता है तब उसे ‘ लांबण ’ को ‘लामण ’ कहते है । कल को उंदया, गडबडला इस शब्द को भांबवला कहते है । मोटार साईकल के आवाज से उसे ग्रामीण अशिक्षित वर्ग के व्यक्ति ‘ फटफटी ’ और चार पैरों वाली गाडी को ‘ मोटार ’ कहते है । उर्दू का प्रभाव यहाँ के बोली पर आज भी दिखाई देता है । जैसे – ‘ घम ना पस्तावा ( गम ना पछतावा ) यह कहावत प्रयुक्त है। पेस्तर , गुदस्ता ( गुजिश्ता) ऐसे कई शब्द उर्दू , फारसी मे से आया है । मराठी बोली में बोलते समय वह शब्द उच्चारण होता है । और मराठी ग्रामीण बोली में कई शब्द ऐसे है जिनका पूर्ण तरह से लोप हो रहा है जैसे – खलबत्ता , उखळ , कायली , वळचण , माचोळी , कमाल , खुंटी , पेव , हुडवा , पडवी , ओसरी , ढेलज , कोठरी , बाज , उतरंडी , आडणी , माळगी , मोरी , उंबरठा , डोंबारी , देवळी , जातं , रांजण , पोहरा , आड वरवटा आदि । मराठी बोली में ‘ कल ’ शब्द को उद्या कहते है । भाई शब्द को भावंड और मेहमान शब्द सोयरे कहा करते है । जब देहातो में घर में झगडे होते है तब किसी को पता नही चलता मतलब घर की बात घर में होती है तो इस बात को देहाती बोली के लहेजे में ‘ भांड्याला भांड वाजत.... पण आवाज होत नाही ’ इस प्रकार का वाक्य उच्चारण विशेषत: बोला जाता है ।
इस बोली में ‘असं ’ शब्द व्यंजनांत है लेकिन उसी शब्द को हिंदी में ऐसा कहते है तो यह शब्द आ .... आकारांत है । मराठी और हिंदी के सर्वनामों में विशेषत: पर्याप्त अंतर है । जो इस प्रकार है -
मराठी में उसे तू , मी , तो , ती , तुझा , माझा आदि तो हिंदी में उसे तुम , मै ,वो , उन्हें (उनको ) , तुम्हारा , मेरा आदि सर्वनाम प्रयुक्त होते है । मराठी में होय शब्द को हिंदी में ‘ हाँ ’ शब्द प्रयुक्त होता है और अमुक शब्द हिंदी में भी एक ही शब्द में प्रयुक्त होता है । सुंदर शब्द मगरूर , भिखारी एकही अर्थ में प्रयुक्त है ।
मराठी , कन्नड , तेलुगूऔर हिंदी में कई ऐसे शब्द प्रयुक्त है जिनकी भावना अलग है लेकिन शब्द उच्चारण और शब्द एक है वह शब्द इस प्रकार है –
समान वर्ण लेकिन कुछ मात्रा भिन्नता वाले शब्द :
हिंदी भाषा बोलते समय अंग्रेजी या संस्कृत की अभिव्यक्तियों के उच्चारण द्वारा अपनी सामाजिक
बोली का परिचय कई तरह से देते है । जैसे – स्टेशन के लिए इस्टेशन , टेसन या टिसन का प्रयोग होता है । उच्च शिक्षित वर्ग के व्यक्ति पीला शब्द का प्रयोग करते है तब निम्न अशिक्षित वर्ग के व्यक्ति पीअर कहते है । सामाजिक बोली वस्तुत: समाज के स्तरीकृत होने का परिणाम होती है । समाज में जब विभिन्न स्तर पर अपनी अस्मिता या पहचान का भाषिक आधार ढूंढने की ओर प्रवृत्त होते है , तब सामाजिक बोली पैदा होती है । वृद्धों की बोली में पुरानापन और युवकों की बोली में अंतर होता है । पुरुष में और स्त्रियों की बोली में हिंदी बोली बोलते समय शब्द उच्चारण में अल्पप्राणता आ जाती है । जैसे – रुग्गई ( रुक गई ) हिंदी बोली में कुछ विशिष्ट शब्द मुहावरों की तरह एबिना परसर्ग के चल रहे है । इन सबको सुबंत रूप नही कह सकते कुछ में परसर्ग का लोप हो गया है । जैसे – ( से का लोप ) हाथों मरा , ( को का लोप ) रातों जगा , ( में का लोप ) माथे जड दिया , ( के का लोप ) घर वास्ते , उसकी खातिर आदि प्रयोग सभी बोलियों में पाए जाते है।
हिंदी भाषा में संस्कृत शब्द आंखे को देहातो में या ग्रामीण बोली में ‘ अक्की ’ शब्द का उच्चारण होता है और ‘ आधा ’ शब्द को अद्दा , क्यों शब्द को ‘ की , काय कू , पत्थर शब्द को फत्थरा ऐसे शब्द उच्चारण करते है। इसमें ‘ प ’ के स्थान पर ‘ फ ’ शब्द का उच्चारण करते है । उसी प्रकार से गली का लडका के लिए गल्ली का छोकरा , लगा को लग्या , मिला को मिल्या , दिखा को दिख्या , दिखता को दिसता आदि और बरोबर यह शब्द मराठी भाषा या बोली में जैसे के वैसे ग्रामीण में तथा हिंदी बोली बोलनेवाले व्यक्ति में उसी प्रकार का उच्चारण करता हुआ दिखाई देता है ।
तेलगु भाषा बोलनेवाले लोग जब मराठी बोली बोलते है तब उनका उच्चारण , लहेजा अलग दिखाई देता है जैसे – वह लोग ... भाऊ शब्द का उच्चारण करते समय उसे बाऊ उच्चारते है , खरं शब्द करं , खोट-खोट शब्द को कोट कोट , खाल्ला को काल्ला आदि । लडकी शब्द को ग्रामीण मराठी बोली में पोरगी शब्द प्रचलित है । उसी शब्द को तेलगु बोली में पिल्ला शब्द प्रचलित है ।
कन्नड और हिंदी बोली में ‘ री ’ और को प्रत्यय लगाया जाता है लेकिन कन्नड बोलि में क्रियापद को री लगता है और हिंदी में सर्वनामों को लगता है तब उनका आदरार्थी रूप दिखाई देता है।ऐसे कई उदाहरण हम कन्नड, मराठी , तेलगु के बता सकते है । तो इन सभी ग्रामीण बोलियों का प्रभाव तो हिंदी भाषा पर होता ही है । इसके साथ-साथ सुशिक्षित और अशिक्षित वर्ग का भी बोलियों पर प्रभाव दिखाई देता है । सुशिक्षित वर्ग में महाप्राण ध्वनियाँ दब जाती है । उनकी बोली में अशिक्षित व्यक्ति की तुलना में बोलने में नाजुकता होती है । जैसे – भी , नही , भूख , भिखारी के स्थान पर बी , नई , भूक , बिकारी आदि । ण , श , ड ध्वनियाँ केवल शिक्षित वर्ग की बोली में मिल सकते है कि शब्दों में और उनके उच्चारण में थोडासा फरक है लेकिन दोनो भी शब्द एकही अर्थ प्रदान करते है ।
वही बोली बोलनेवाले व्यक्ति जब हिंदी बोली बोलते है तब उनके बोलने में ज्यादातर लिंगभेद दिखाई देता है । जैसे हिंदी में ‘ मुझे घबराहट हो रही है ’ तो तेलगु भाषिक लोग हिंदी बोलते समय मुझे घबराहट हो रहा ,….ए। उपरोक्त उदाहरणों से यह स्पष्ट होता है कि तेलगु में ‘हो’ की जगह ‘ओ’ का उच्चारण होता है ।
आंध्र , कर्नाटक सीमापर स्थित सोलापुर जिला है । इन दोनो राज्यों की सीमा पर कई गाँव बसे हुए है । इसलिए कई गाँवो में कन्नड बोली बोली जाती है । कन्नड बोली का प्रभाव सोलापुरी ग्रामीण बोली पर दिखाई देता है । कन्नड भाषा में कुछ क्रियापद इस प्रकार के है । जैसे – बैठना ( कुंदरी ) , उठना ( एळरी ) , लेना ( तोरी ) , जाना ( होरी ), करना ( माडरी ) , थोडासा ( स्वल्प ) आदि । इन क्रियापदों के उच्चारण से एक बात स्पष्ट होती है कि जब किसी बडे व्यक्ति को हम आदरभाव से बोलते है तब हर शब्द के अंत में ‘ री ’ शब्द रूप का उच्चारण करते है । उसी प्रकार से हिंदी बोलने में जैसे आपको , हमको , तुमको , इनको अर्थात को प्रत्यय लगाया जाता है । हिंदी के इन सर्वनामों को जब लगता है तब आदरार्थी रूप बनता है ।
शिक्षित वर्ग बोली मे उतार और अशिक्षित वर्ग के बोली में पढाव दिखाई देता है । अधिकतर हमें शिक्षित वर्गो की बोली में स्पष्ट उच्चारण होता है और उनके बोली में गडबड अधिकतर दिखाई नही देते । इस प्रकार से स्थान विशेष और वहाँ पर बोली जानेवाली बोलियों का प्रभाव एक दूसरे पर होता ही रहता है ।
निष्कर्ष रूप में यह कहा जा सकता है कि , उन बोलियों के एक दूसरे के प्रभाव के कारण एक बोली के शब्द किसी दुसरी बोली में जाकर बैठते है और वही शब्द उस बोली भाषा का साहित्यिक रूप बनता है । सोलापुर जिला बहुभाषिक होने के कारण यहां समिश्रित बोलियाँ बोली जाती है । मैंने यह शोधालेख सर्वेक्षण पद्धति का प्रयोग कर लिखा है । मै स्वयं ग्रामीण डोणगाव हूं मेरे इस शैक्षणिक आवागमन में व्यक्ति के व्यवहार को भाषा के विकास एवं सौंदर्य को स्पष्ट करता दिखाई बना है जिससे यह शोधालेख लिखा गया है।इस प्रभाव के कारण बोली और भाषा के अध्ययन करने में एक दिशा मिलती है और हिंदी पर उस क्षेत्र के बोली का प्रभाव और उसमें प्रयुक्त शब्दों का भी अध्ययन किया जाता है । ऐसे कई क्षेत्र में बोली जानेवाली बोली के और उसके प्रभाव के कारण हिंदी भाषा और भी सफलता प्राप्त कर सकती है ।
आधार ग्रंथ –
1) ग्रामीण हिंदी बोलियाँ – डॉ. हरदेव बाहरी , किताब महल , इलाहाबाद
2) बोली विज्ञान और हिंदी की बोलियों का परिचय – डॉ. लक्ष्मीकांत पांडेय , साहित्य रत्नालय , कानपुर.
3) बोली भाषा – विकिपीडिया
- श्रुती शशिकांत चराटे
एम. ए भाग - १ (२०१९ -२०)
वालचंद कॉलेज ऑफ आर्ट्स एंड साइंस , सोलापुर.
ग्रामीण इलाकों मे जिस तरह की हिंदी का प्रयोग किया जाता है, इसे बहुत अच्छे से स्पष्ट किया।
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