संकुचित विचारधारा में भी परिवर्तन की शुरुआत होने लगी है। माहवारी शब्द जिसे बोलने की भी मनाही थी, अब उस पर राजस्थान के ग्रामीण क्षेत्रों की लड़कियां न केवल चर्चा करने लगी हैं, बल्कि सेनेट्री नैपकिन की उपलब्धता के लिए प्रशासन और राज्य सरकार को पत्र भी लिखने लगी हैं।
माहवारी पर शर्म नहीं, चर्चा करती है लड़कियां
21वीं सदी का भारत न केवल विज्ञान और टेक्नोलॉजी में ही आगे बढ़ा है, बल्कि सामाजिक रूप से भी यह पहले से अधिक समृद्ध हुआ है। हालांकि सामाजिक चेतना के रूप में इसका अपेक्षाकृत विकास नहीं हुआ है। विशेषकर महिलाओं के अधिकारों के संबंध में अभी भी भारतीय समाज वैचारिक रूप से संकुचित सोच रखता है। लड़कों की अपेक्षा लड़कियों पर पाबंदी लगाई जाती है। शिक्षा प्राप्त करने के मामले में भी लड़कियों की तुलना में लड़कों को प्राथमिकता दी जाती है। जबकि हाल ही में देश के कई राज्यों में दसवीं और बारहवीं के परीक्षा परिणामों में हमेशा की तरह लड़कों की तुलना में लड़कियों ने ही बाज़ी मारी है। इसके बावजूद भारतीय समाज में बेटियों के लिए राह बहुत कठिन है। हालांकि शहरी क्षेत्रों की अपेक्षा ऐसी मनोवृति ग्रामीण क्षेत्रों में देखने को अधिक मिलती है। विशेषकर देश के हिंदी भाषी राज्यों में लड़का और लड़की के बीच भेदभाव की खाई अधिक गहरी है।
किशोरियों के लिए प्रेरणास्रोत |
संकुचित विचारधारा और सामाजिक बेड़ियों में जकड़ी इन क्षेत्रों की लड़कियों को अपने जीवन की दिशा तय करने की आज़ादी तो बहुत दूर की बात है, वह अपने स्वास्थ्य के बारे में भी चर्चा नहीं कर सकती हैं। ऐसे समाज में माहवारी को पाप समझा जाता है, जबकि यह एक प्राकृतिक प्रक्रिया है। इसके बावजूद सदियों से माहवारी के मुद्दे पर बात करना बुरा माना जाता है। इस दौरान किशोरियों और महिलाओं को किस कठिन प्रक्रिया से गुज़रनी होती है, यह सभी को पता है। फिर भी माहवारी के दौरान नैपकिन की कमी या अन्य शारीरिक कठिनाइयों के बारे में वह किसी से कह नहीं पाती है।
हालांकि बदलते समय के साथ इस संकुचित विचारधारा में भी परिवर्तन की शुरुआत होने लगी है। माहवारी शब्द जिसे बोलने की भी मनाही थी, अब उस पर राजस्थान के ग्रामीण क्षेत्रों की लड़कियां न केवल चर्चा करने लगी हैं, बल्कि सेनेट्री नैपकिन की उपलब्धता के लिए प्रशासन और राज्य सरकार को पत्र भी लिखने लगी हैं। इन्हीं किशोरियों में एक प्रियंका बैरवा भी है। टोंक जिला के सोहेला पंचायत की रहने वाली प्रियंका ने गांव की अन्य लड़कियों के साथ मिलकर सेनेट्री नैपकिन उपलब्ध कराने के लिए आवाज़ उठाई। जिससे प्रशासन हरकत में आया और ज़रूरतमंद किशोरियों की परेशानी दूर हो सकी। तीन भाई बहनों में सबसे बड़ी प्रियंका के पिता की गांव में ही छोटी सी पंचर की दूकान है और माँ कृषि तथा मनरेगा मज़दूर है। स्कूल में पढ़ाई के साथ साथ प्रियंका स्थानीय स्तर पर संचालित शिव शिक्षा समिति राणोली, कठमाणा और सेव द चिल्ड्रन के सहयोग से सचांलित "शादी बच्चों का खेल नहीं” परियोजना से भी जुडी हुई है।
यह परियोजना पीपलु तहसील के 9 पंचायतों सोहेला, बगडी, जोला, प्यावडी, डारडातुकी, गलोद, जवाली, डोडवाडी, हाडीकला के 32 गांवों में संचालित की जा रही है। सभी गांवों में 10 से 19 साल तक की किशोरियों को इस समूह से जोड़ा गया है। इसका उद्देश्य न केवल उन्हें अपने अधिकारों के प्रति शिक्षित करना है बल्कि महिला स्वास्थ्य और महिला हिंसा के विरुद्ध जागरूक भी बनाना है। प्रियंका इन्हीं संस्थाओं की ओर से सोहेला पचांयत के किशोरी समूह, फेडरेशन समूह, चर्चा लीडर, चाइल्ड चैंपियन व युवा समूह की सदस्या है। याद रहे कि राजस्थान देश में न केवल महिला साक्षरता दर में सबसे पीछे है बल्कि गैर क़ानूनी तरीके से आज भी यहां बाल विवाह का प्रचलन जारी है। हालांकि स्थानीय स्तर पर काम कर रहे कई स्वयंसेवी संस्थाओं की मदद से प्रशासन को इसपर रोक लगाने में कामयाबी हासिल हुई है, लेकिन अब भी यह पूरी तरह से बंद नहीं हुआ है।
स्थानीय स्वयंसेवी संस्था शिव शिक्षा समिति और सेव द चिल्ड्रन के सहयोग से सचांलित "शादी बच्चों का खेल नहीं” में किशोरियों को माहवारी और शरीर की साफ़ सफाई के बारे में भी जागरूक किया जाता है। उन्हें कपड़ों की तुलना में नैपकिन के मेडिकल दृष्टिकोण से लाभों के बारे में भी बताया जाता है। इस संबंध में प्रियंका कहती है कि माहवारी के दौरान लड़कियों को स्कूल में मुफ्त नैपकिन उपलब्ध कराया जाता है। कई बार उन्हें स्थानीय आंगनबाड़ी से भी उपलब्ध हो जाता है। लेकिन कोरोना के कारण लॉक डाउन के दौरान स्कूल, आंगनबाड़ी व आस पास की दुकानें बन्द होने से लड़कियों को माहवारी के दौरान इसकी समस्या होने लगी। प्रियंका को महसूस हुआ कि इस गंभीर विषय को उठाने की ज़रूरत है, क्योंकि नैपकिन की कमी के कारण लड़कियां पुराने और गंदे कपड़े इस्तेमाल करने पर मजबूर होने लगी थीं। वह कहती है कि लॉक डाउन के दौरान सरकार की ओर से ज़रूरतमंदों को मुफ्त राशन उपलब्ध कराने जैसा सराहनीय कार्य किया जा रहा था, लेकिन नैपकिन की कमी को गंभीरता से नहीं लिया गया था। यही कारण है कि प्रशासनिक स्तर पर इसकी कमी को दूर करने के लिए कोई ठोस उपाय नहीं किये गए थे। जिसके बाद प्रियंका ने संस्था से जुड़ी अन्य किशोरियों से बात कर सीधे ज़िलाधिकारी को व्हाट्सप्प कर दिया। संस्था ने भी उसका साथ देते हुए इस संबंध में राज्य के उप मुख्यमंत्री को ट्वीट किया। इसके साथ ही इन आला अधिकारियों को ज्ञापन के रूप में मेल भी किया।
प्रियंका और उसकी संस्था की मेहनत रंग लाई। जिलाधिकारी ने इस विषय को गंभीरता से लेते हुए फ़ौरन सीडीपीओ को मामले को देखने और किशोरियों की समस्या को हल करने का आदेश दिया। जिसके बाद सोहेला पंचायत में एएनएम और आशा सहयोगिनी ने घर-घर जाकर सेनेटरी पैड वितरित किया। संस्था की एक अन्य सदस्या ममता बताती हैं कि प्रशासन के साथ साथ कुछ भामाशाह भी किशोरियों की मदद के लिए आगे आये और उन्होंने भी नैपकिन वितरित किया, लेकिन यह सभी किशोरियों के लिये पर्याप्त नहीं था। जिसके बाद प्रियंका और समूह की अन्य किशोरियों ने फिर से जिलाधिकारी को समस्या से अवगत कराया। जिसके बाद उन्होंने तुरंत कार्यवाही करते हुये, सीएमएचओ के नाम आर्डर जारी किया और स्कूल में बचे नैपकीन को फ़ौरन किशोरियों के बीच वितरित करने का आदेश देकर समस्या को हल किया। प्रियंका की इस हिम्मत और प्रयास के कारण लॉक डाउन में भी क्षेत्र की किशोरियों को सेनेट्री नैपकिन उपलब्ध हो सका।
वास्तव में हमारे देश में ऐसी कई किशोरियां हैं जो आज भी माहवारी के दिनों में नैपकिन की कमी के कारण गंदे कपड़े का इस्तेमाल करने के लिए मजबूर हैं। लेकिन वह एक ऐसे संकीर्ण सोंच वाले समाज से घिरी हुई हैं, जहां माहवारी के बारे में बात करना पाप समझा जाता है। ऐसे में प्रियंका जैसी किशोरियों के हौसले रौशनी की एक किरण जैसी है, जो बहुत सी किशोरियों के लिए प्रेरणास्रोत साबित होगी। (चरखा फीचर)
- पूनम जोनवाल
टोंक, राजस्थान
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