शहर वापसी कहानी जैसे - जैसे गाड़ी गाँव की ओर सरकती जा रही थी विनय का मन भी पुरानी यादों के भंवर में डूबता जा रहा था। लहलहाते खेत खलिहानों के दृश्य हृदय को अनायास ही असीम शांति पहुँचा रहे थे। आज पूरे पंद्रह बरस बाद वह परिवार सहित वह गाँव लौट रहा था। उसकी आँखें विगत स्मृति के झौंकों से नम हो रही थी जिसे वह बस की खिड़की की ओर मुँह करके अपने बच्चों और पत्नी से छिपाने का प्रयास कर रहा था।
शहर वापसी कहानी
जैसे - जैसे गाड़ी गाँव की ओर सरकती जा रही थी विनय का मन भी पुरानी यादों के भंवर में डूबता जा रहा था। लहलहाते खेत खलिहानों के दृश्य हृदय को अनायास ही असीम शांति पहुँचा रहे थे। आज पूरे पंद्रह बरस बाद वह परिवार सहित वह गाँव लौट रहा था। उसकी आँखें विगत स्मृति के झौंकों से नम हो रही थी जिसे वह बस की खिड़की की ओर मुँह करके अपने बच्चों और पत्नी से छिपाने का प्रयास कर रहा था। परन्तु पत्नी मनोरमा सब कुछ समझ रही थी। उसने उन्हें रोकने का कोई प्रयत्न नहीं किया वरन वह बच्चों के साथ बातों में लग गई। विनय को अपने साथियों से मिलने की बहुत उत्सुकता थी। कैसे होंगे गाँव के रास्ते , वो हमजोली जिनके संग वह विद्यालय जाया करता था। अब सब बड़े हो गए होंगे। कैसे दिखते होंगे ? माँ और पिताजी के देहावसान के बाद रोजगार के लिए शहर आया विनय आज गाँव लौट रहा है अपने चाचा के लड़के की शादी के कारण । गाड़ी रुक गई बस से एक झुण्ड़ नीचे उतरा और दूसरा झुण्ड़ एक दूसरे को धकियाता हुआ अन्दर घुस आया । जिन्हें बैठने के लिए सीट नहीं मिली ; वे खड़े - खड़े यात्रा कर रहे हैं। विनय भी ऐसा करता था जब वह पास के शहर पढ़ने के लिए जाता था। बस में हो रहे शोर - शराबे से उसकी चेतना लौटी ; किसी ने उससे सीट माँगी है। उसने निर्विरोध बच्चे को गोद में बिठाकर नवागंतुक को सीट दे दी। उसकी बोली उसके गाँव की ही थी।
महिला ने उसी ग्रामीण भाषा में पूछा तुम कौन गाँव जाओगे ?
विनय ने सकपकाकर गाँव का नाम बताया , अजीतगढ़ ।
मैं भी वहीं जा रही हूँ। ( महिला ने प्रसन्न होकर कहा ) तुम गाँव में किस घर जा रहे हो ?
रामलाल जी खटीक के घर । विनय ने बताया।
उत्तर सुनकर वह महिला विनय से थोड़ा दूर सरक गई। अ..च्छा... ! जिनके बडे़ लड़के की शादी है पाँच दिन बाद ।
हाँ ! विनय ने सपाट संक्षिप्त उत्तर दिया। शायद वह महिला के दूर सरकने का कारण जान गया था।
टूटी - फूटी सड़कों के गड्डे भर दिए गए मगर गाँव वालों के मन पर पड़े खड्डे ज्यों के त्यों हैं ? क्यूँ ताई सही कहा न मैंने ?
महिला ने हँसते हुए गर्दन हिला दी ..हूँ...हँ....हँ..हँ... ( वह पूरी तरह बात को नहीं समझ पाई थी )
तभी विनय को गाँव का चेहरा नजर आने लगा । दूर पंचायत भवन पर लिखा हुआ था ग्राम पंचायत ....गढ़ ...और दिखाई दे रहा था बस स्टेण्ड़ पर लगा बड़ा सा बोर्ड जो कि इस बात का प्रमाण था कि गाँव का विकास हो रहा है।
बस रूकते ही धक्का मुक्की शुरू , पहले मैं ...पहले मैं ...की उतावली में तथाकथित सभ्य मानवों का एक रेला - सा बस से बाहर निकलने लगा लेकिन उनको धकियाते हुए जबरन दूसरा रेला बस में सवार होने लगा ...बस का गेट अवरुद्ध हो गया । यहाँ बस परिचालक का चिर परिचित संचालन व कौशल काम आएगा ...कन्डैक्टर चिल्लाया ...पहले सवारियों को उतरने दो ..फिर चढ़ना ....और वह जबरन एक -एक को गेट पर से नीचे उतारने लगा ....यह उसका हर दस- पंद्रह मिनट का काम है ...सवारियाँ भी इसकी अभ्यस्त हैं और वह स्वयं भी। रास्ता मिला विनय सहित सब बस से उतरे ; अपना सामान संभाला , विनय ने चारों और नजर दौड़ाई ...बहुत कुछ बदल गया। एकाध कच्ची थड़ियों की जगह बहुत सारी नई - नई पक्की दुकानें , डेयरी , मिष्ठान्न भण्डार ....तभी उनके बेटे अमन ने कहा पापा...पापा यह सामान कौन लेकर चलेगा ? विनय ने कहा ..हम खुद ही लेकर चलेंगे और कौन आएगा यहाँ गाँव में , ये तेरा शहर नहीं जो ऑटो या गा......आ गई गाड़ी क्यों नहीं आएगी अमन भाई (किसी ने विनय की बात काटते हुए कहा ) अरे ...! राहुल इतना बड़ा हो गया !
प्रणाम काका जी , नमस्ते काकी ....सदा खुश रहो ...विनय ने उसे गले लगाते हुए कहा।
अब बातें घर चलकर करेंगे काका जी बैठो गाड़ी में बापूजी ने आपको लाने ही मुझे भेजा है। ( सामान चढ़ाकर बच्चों को भी जीप में बिठा लेता है।)
चलो बेटा । विनय और मनोरमा गाड़ी में बैठ गए। दस मिनट बाद घर आ गया। सब बहुत खुश दे विनय के
शहर वापसी |
उसने चौंककर आवाज कि दिशा में देखा ....भोलू ! ( वह लगभग चीछ पड़ा )
तू तो परदेशी हो गया , हमें थोड़ी पहचानता होगा ? आ ...चाय पी ले ( भोलाराम ने कहा)
विनय ने शरमाते हुए कहा ...तुझे क्यों नहीं पहचानूंगा ...मेरे दोस्त ...बचपन के खेल हमने साथ साथ खेले हैं ...
आज तो फिर से हो जाए एक मैच ? नहीं नहीं मैच नहीं आज जी भर कर बातें करेगें पार्टी करेंगे। मैं सबको बुला लेता हूँ। ( भोलाराम ने अविलंब दोस्तों को फोन कर दिया ) मैं अभी आता हूँ तुम बैठक में बैठो आराम से।
( भोलाराम भीतर चला गया शायद कुछ बनाने के लिए कहने )
भोलाराम ने अपनी पत्नी को चाय नाश्ता तैयार करने के लिए कहा तभी उसकी चाची आकर धीरे से फुसफुसाती है, कौन है ऐसा मेहमान जो इतनी तैयारी की जा रही है?
भोला राम से परिचय सुनकर चाची ने नाक चढ़ाया !
नीची जात के लड़के को तो दोस्त बनाया है तूने ! उसे बैठक में क्यों बिठाया ? बाहर नहीं बैठ सकता वह लाट साहब ? ( आवाज कुछ तेज हो गई)
चाची ...! भोला ...दबी आवाज में बोला ....यह औरों की तरह नहीं है ...शहर में रहता है।
रहता होगा...! मगर है तो खटीक ही ; शहर में रहने से इसकी औकात नहीं बदल जाएगी।
चाची कैसी बातें कर रही हो ....अब जमाना बदल गया।
जमाने के बदलने से प्रथाएँ नहीं बदल जाती ; नये कपड़े पहन लेने से इसका खून नहीं बदल जाता। रहेगा तो यह नीची जात का ही। (आवाज सुनकर घर की और औरतें भी जमा हो चुकी थी।)
चाची यह जात- पात पुराने हो गए ...अब कोई नहीं करता। भोला समझा रहा था तभी उसकी पत्नी चाय नाश्ता लेकर आ गई। चाची ने नाश्ते की ट्रे अपने हाथ में ले ली और बोली ....ले जा और खिला दे उसको मगर तू मत खाना उसके साथ और सुन ये बर्तन अलग रख देना उधर ..।
भोला राम ने क्रोध में आकर कहा ...अब तो मैं उसके साथ ही खाऊँगा एक ही प्लेट में ...जो करना है कर लो ...
चाची मन मसोसकर झल्लाते हुए चली गई ...कर ले धरम भ्रष्ट अपना ...मुझे तो लगता है तू भी पिछले जन्म का ........है , और सुन तू भी उसी की बिरादरी में शामिल हो जा ....
पूरी सतर्कता के बावजूद विनय सब कुछ सुन रहा था। उसे क्रोध भी आ रहा था और अपने मित्र पर स्नेह भी। वह असमंजस में था तभी भोला राम जबरन चेहरे पर मुस्कुराहट लिए नाश्ते की ट्रे रखते हुए बोला ..थोड़ी देर हो गई , आओ नाश्ता करें ...भोला राम विनय से अपने मनोभाव छिपाकर चाय पकड़ाने लगा ...चाय लो यार ...
विनय ने दोस्त को उठकर गले लगा लिया और बोला चाय फिर कभी ...आज मुझे जल्दी है ( भोला राम ठगा सा खड़ा रह गया )
विनय लौटते समय बरगद के विशाल वृक्ष की शरण में पड़ा सोच रहा था। संविधान के अनुच्छेद और तमाम धाराओं के बारे में ....अनुच्छेद 17 ...अस्पृश्यता का अंत ...
जाति , धर्म , सम्प्रदाय के आधार पर कोई भेदभाव नहीं होगा ...सबको कानून के समक्ष समानता का अधिकार है ...
संविधान की प्रस्तावना ... धर्म निरपेक्ष राज्य .... ये शब्द उसके कानों में गूँज रहे थे ....
तमाम वैज्ञानिक प्रगति उसे चिढ़ाती जान पड़ रही थी , विकास की सब अवधारणाएँ आज कमजोर महसूस हो रही थी।
वह अपने ईश्वर से पूछ रहा था काश..! पैदा होने पर इन्सान का वश चलता तो वह ऊँचे कूल में पैदा होता ....उसके कानों में कबीर की साखी गूँज रही थी ...
ऊँचे कुल का जनमिया ,जे करनी ऊँच न होय।
सुबरन कलश सुरा भरा , साधु निंदा सोय...। फिर धीरे - धीरे यह स्वर मंद पड़ गया ...
आज उसे कबीर छोटा जान पड़ रहा था। एक अजीब सा द्वंद्व मन में चल रहा था ....
मेरा प्यारा भारत ...गाँवों का देश ...मेरा गाँव ....
उसे शहरों से बहुत नफरत थी मगर आज उसे शहर के प्रति बड़ी आत्मियता हो रही थी। कम से कम शहर में यह दंश तो नहीं झेलना पडेगा। कुछ निश्चय कर वह घर की ओर लौट आया। कल प्रात: ही शहर वापसी है। वह बहुत उतावला हो रहा था लौट आने के लिए अपनी शहरी दुनिया में और खो जाने के लिए शहरी चकाचौंध में।
- मनोज कुमार सामरिया ‘मनु'
शिक्षक , साहित्यकार
ए -27 , लक्ष्मी नगर चतुर्थ ,
वार्ड नं. 2, मुरलीपुरा , जयपुर , राजस्थान
मो. :- 8058936129
मेल :- manusamaria20@gmail.com
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