उजड़ा गाॅव आज मोहन वर्षोंं बाद गांव लौट रहा है। पहाड़ के टेढ़े- मेढ़े चढ़ाई वाले रास्तों पे चलते- चलते अपने बचपन के दिन याद आने लगते हैं। कैसे हंसते खेलते बचपन के दिन गुजारे थे। मडुवे की रोटी , घी-गुड़ के साथ खा कर जंगलों में चराना , किलमाड़ु हिसालू खाना। वर्षों बीत गये जब से विदेश गया कभी वापस लौट ही न सका। कुछ समय बाद परिवार भी साथ ही चला गया लौटता भी तो किसके लिये?
उजड़ा गाँव
आज मोहन वर्षोंं बाद गांव लौट रहा है। पहाड़ के टेढ़े- मेढ़े चढ़ाई वाले रास्तों पे चलते- चलते अपने बचपन के दिन याद आने लगते हैं। कैसे हंसते खेलते बचपन के दिन गुजारे थे। मडुवे की रोटी , घी-गुड़ के साथ खा कर जंगलों में चराना , किलमाड़ु हिसालू खाना। वर्षों बीत गये जब से विदेश गया कभी वापस लौट ही न सका। कुछ समय बाद परिवार भी साथ ही चला गया लौटता भी तो किसके लिये?
अपने देश लौटा भी तो शहर में जहां नौकरी और परिवार में ही व्यस्त रहा कभी लौटकर वापस जाने का मौका ही नहीं मिला। जाता भी तो किसके लिये अपना परिवार , रिश्तेदार तो गाॅंव से शहर आकर बस गए थे।वर्षों बाद
उजड़ा गाँव |
‘‘अब तो हमारे गाॅंव मेें हमारे परिवार के अलावा बांकि लोग तो रहते ही होंगे। हमारे घर की देखभाल जगुवा के माता - पिता को दे दी थी । तुम्ही रहना कहा था यहां , अब तो उसके बच्चे भी बड़े हो गये होंगे? ’’पता नहीं वो लोग भी यहां रहते कि नहीं? ‘‘ वैसे तो अब तक यहां भी बहुत कुछ बदल गया होगा , पर फिर भी बहुत से लोग यहां से नहीं जाना चाहते थे , वो परिवार तो यहीं होते होंगे।’’
अरे, तुम्हें बताउं ! हमारे घर के पास एक पेड़ हुवा करता था उस पर जब भी फूल खिलते तो, सुबह के समय बड़ी ही अच्छी खुशबू आया करती थी।
तीज त्योहारों में लाल मिट्टी से लीपा हुआ आंगन, रसोई से आती पूरी- पकवानों की खुशबू , हर ओर से महकते आंगन। कोई भूखा नहीं न पषु न पक्षी न हम। हमारा गाॅंव हर ओर से भरा पुरा था। वहां अनाज तो होता ही था , फल सब्जी भी भरपूर मात्रा में हुवा करती थी।
उन बातों को बताते हुए बहुत सी बार उसका मन रोमांच से भर जाता है। कभी- कभी तो वह भावुक भी हो
चंचल गोस्वामी |
अपने गाॅव की पुरानी यादों में खोया हुवा सा वह एक खिंचाव की तरह बस खिंचा ही चला जा रहा था। ‘‘ ‘‘अरे मोहन! थोड़ा घीरे चलो तुम अपने गाॅव जा रहे हो पता है लेकिन हम भी तो तुम्हारे ही गाॅव आ रहे हैं।
‘‘हा हा हा .....अरे माफ करना । थोेड़ा खो गया था।.....चलो अभी साथ - साथ चलते हैं। ......अ.... अरे... अगर खो जांउ तो टोक देना हां।’’ ...हा हा हा.... ।
कुछ चढ़ाई चढ़ने के बाद अरे थक गये हैं, थोड़ा रूक कर चलते हैं। हां हां ठीक है चलो आगे पेड़ के पास बैठते हैं। ‘‘पहले यहां पर छोटा सा पेड़ था , अब कितना बड़ा हो गया है। इतने सालों में कभी आना ही नहीं हुआ। चलो अब आये हीं हैं तो कुछ दिन यहीं बिताऐंगे। तुम्हें यहां आस- पास की हर जगह दिखाउंगा टूरिस्ट प्लेस कहते हो ना अब देखो पहाड़ी इलाके सभी एक से बढ़कर एक सुंदर है।’’
कुछ देर सुस्ताने के बाद मित्र बोला ‘‘चलो भई चलो नहीं तो आज पूरा गांॅव यहीं उतर आएगा’’। ‘‘अरे यार जब तुझे अपना गांव इतना याद आता था , तो कभी - कभी ही बीच में लौट कर आता अपना गांव देख जाता। हां........, पर तुम तो जानते ही हो ना कभी भी घर की जरूरतों से छुट्टी मिलती है क्या? वैसे भी आजकल जिन्हें शहरों की हवा भा गई वा कभी गांव लौटकर आना ही कहां चाहते हैं। फिर गांवो की सुखसुविधा की कमी भरा जीवन पलभर को भी नहीं भाता । बस यहीं रह जाता है गांव ... पीछे और अपनों से दूर।
छोड़ो... हम भी किन बातों के पीछे लग गये? अभी तो यहां की खुबसूरती का मजा लो। अभी गाॅंव पहुंचने में थोड़ा ही समय बाकी रह गया है। वैसी ही खुशबू उसके मन मस्तिष्क में छाने लगी। ‘‘देखो हमारे पेड़ की खुशबू यहां तक भी आ रही है।,’’ पर तुमने तो कहा था कि अभी गाॅंव पहुंचने में थोड़ा समय है। ,हा हा हा ,हां ......... पर उसके बीज उड़कर और पौधे उग आए होंगे। हां.....।
चढ़ाई चढ़ते ही गांव की सीमा शुुरू हो गई । अरे अब तो यहां बड़ा जंगल उग आया है लगता है गांव में आने जाने के लिये लोगों ने कोई नया ही रास्ता बना लिया होगा।
अरे! तुम ने आने से पहले किसी से सम्पर्क नहीं किया क्या? कैसे करता इतने साल बीत गए कि किसी से सम्पर्क रहा ही नहीं , फिर सोचा कि अगर गांव में पहुॅच ही जाउंगा तो निकालेंगे थोड़े ही। आसरा तो मिल ही जाएगा । यही तो खासियत है पहाड़ों की अनजान को भी अपना ही मान लेते हैं।
भई तारीफों को सुनते ही जोश चढ़ जाता है पर पैर जवाब देने लगे हैं , कब पहुॅचेंगे? हा हा हा वो....... देखो छत दिखने लगीं हैं कुछ बस वहीं हैं मेरा गांव।अब तो कदम रोके नहीं रूकते माफ करना..... अगर तेजी से आगे निकल जाउं।खुशी से झूमता हुआ मोहन स्वप्न लोक में चलता ही जा रहा था । किन्तु अचानक सब कुछ गायब हो गया जैसे धुंवे में कोई तस्वीर उभरी हो और अचानक से कहीं गायब हो गई हो। वहां कुछ नहीं था ........कुछ भी नहीं। वहां थे तो बस...........
बेजान तकते खंडहर जो कभी जीवंत भी हुआ करते थे। आज बेजान , बेसहारा जिनमें जीवन का कोई भी निशान बांकी नहीं है। उधड़ी हुई इमारतें , जिनके दरवाजे लड़खड़ाकर यूं ही गिर पड़ते हैं। मानों अब हाथों में इतनी भी सामथ्र्य भी नहीं कि वह अपनी लाठी का भी बोझ उठा सके। उनके उधड़े बदन जैसे किसी अत्याचारी के अत्याचार की कहानी कह रहा हो, कि इक वहशी दरिंदा आया था और उसकी बोटी - बोटी नोंच कर ले गया। किससे कहती व्यथा ? पालनहार तो वर्षों पूर्व ही त्यागर चला गया । कभी सुध ली ही नहीं।
ये क्या हो गया......? शब्दों से पहले ही आंखों से आंसू निकल आए। कुछ ही घर , वो भी बेसहारा.....। यहां तो कुछ भी नहीं रहा । लड़खड़ाते कदमों से वह आगे बढ़ने लगा। अरे कहां जा रहा है? मित्र बोला.... उजाड़ ही सही आगे मेरा घर हुआ करता था। पर हम ऐसे बीहड़ में आ गये हैं , कोई जंगली जानवर होगा। रूको......... रोको मत उसे चलो हम भी साथ ही चलते हैं मित्र सहमी आवाज में बोला। रोता , लड़खड़ाता कुछ आगे बढ़ा ... बढ़ता ही जा रहा था कि मित्र ने हाथ खींचा वहां तोे एक बड़ी ढलान पर बरबादी के निशान के अलावा कुछ नहीं बचा था। चंद घरों के अलावा बांकी पूरा गांव समय का हाथ थाम कर निकल गया था कभी वापस न आने के लिये।
ढलान पर सरकते पत्थर कह रहे हों जब लोग चले गए तो ये घर यहां रह कर क्या करते? पूरा गांव बर्बाद हो चुका था। मार्ग में फूलों की महक शायद यही बता रही थी कि अब वो महक गांव से दूर जा चुकी है।
उसके कानों में वही बचपन की आवाजें गूजने लगीं ‘‘अरे मनुवा उठ बकार खोल , उज्याव हैगो’’ उठने कन?’
मनुवा ,हरूवा, खीम, नरूवा सभी मंुह- हाथ धो दूध के साथ दो बासी रोटी खाकर अपनी बकरियों, गाय और बैलों के साथ चल देते जंगल की ओर। इधर, महिलाऐं दुधारू पशुओं को आंगन में बांधतीं , घास चारा देतीं, घर के सभी काम निबटातीं।
आहा! कहीं से फूलों की भीनी - भीनी महक आ रही होती ‘‘ ऐ खिमुली य फूल मैं ले दिये ली कदु निकी खुशबू ऐ रै ,‘‘। होई ली लैह जाए।‘‘............. तेर च्यल त भर्ती हिन जै री नै कब उन छ? भोल ऐ जाल शैद’’ अरे चल भर्ती है जाल , के फिकर जन करिये।’’ तेर च्यल कि करमरी? बिदेश जांछ बल। कै दगड़? उ पार गौं मंें हिमु दगड़ भै छ बात बल ,उ कुनौ बल यां आ सब इंतजाम मैं कर दयूंल। अरे..... ठीक त छ जान दे पे , कि पत्त बाद में योई बहानल तैं ले घुुम आली विदेश।
अपने बचपन के दिनों को याद करके उसकी, आंखें नदी के पार गिरते धारे की तरह बहने लगी थी। आज उस अकेले पड़े धारे का साथ देने के लिये दो आँखें भी थी।
अब कुछ नहीं बचा यहां , हाथ थाम कर मित्र उसे लेकर चल दिये कोई सवाल नहीं न कोई शिकायत। चलो शाम तक नीचे पक्ककी सड़क तक पहुंच जाऐंगे। अब उसी उलझी पगडंडी को सुलझाते हुए थके कदमों के साथ दिल में टीस लिये लौट गया मोहन अब किसी और ठिकाने की ओर रात गुजारने के लिये।पीछे छोड़ उजड़ा गांव........
- चंचल गोस्वामी
ग्राम-सन्न,
पो0 ऑ0- वडडा,पिथौरागढ़
उत्तराखण्ड
बहुत सुंदर
जवाब देंहटाएंबहुत धन्यवाद आदरणीय
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