आओ, मिलकर बचाएँ कविता निर्मला पुतुल

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आओ मिलकर बचाएँ निर्मला पुतुल 


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आओ मिलकर बचाएँ कविता की व्याख्या


अपनी बस्तियों को 
नंगी होने से  
शहर की आबो-हवा से बचाएँ उसे 

बचाएँ डूबने से
पूरी की पूरी बस्ती को
हड़िया में

अपने चहरे पर
संथाल परगना की माटी का रंग
भाषा में झारखंडीपन 

भावार्थ - प्रस्तुत पंक्तियाँ कवयित्री निर्मला पुतुल जी के द्वारा रचित कविता आओ मिलकर बचाएँ से उद्धृत हैं | मूलत: यह कविता संथाली भाषा में लिखित है, जिसका हिन्दी अनुवाद अशोक सिंह ने किया है | कवयित्री निर्मला पुतुल जी उक्त पंक्तियों के माध्यम से अपने साधारण ग्राम्य परिवेश को दोष रूपी शहरी सभ्यता से बचाने का आह्वान् कर रही हैं | 

कवयित्री कहती हैं कि आओ, हम सब मिलकर अपनी बस्तियों को शहरी वातावरण के प्रभाव से बचा लें तथा अपनी संस्कृति को सुरक्षित कर लें | अर्थात् आज तक शहरी सभ्यता ने सिर्फ हमारी बस्तियों या हम पर विभिन्न प्रकार का शोषण किया है | आगे कवयित्री कहती हैं कि हमें अपनी बस्ती को डूबने से बचाना है अर्थात् विनाश, विस्थापन और शोषण से बचाना है | वरना पूरी की पूरी बस्ती हड्डयों के ढेर तले तबाह हो जाएगी | आगे कवयित्री कहती हैं कि हमारे चेहरे पर संथाल परगने की मिट्टी के रंग का एहसास और अपनी भाषा में झारखंडीपन अर्थात् बनावटी अभिव्यक्ति न अपनाकर झारखंड की भाषा या बोली, जो बचपन से हमारे व्यवहार या संचार का माध्यम रही है, उसका प्रभाव हम पर होना चाहिए | 

(2)- ठंडी होती दिनचर्या में 
जीवन की गर्माहट 
मन का हरापन
भोलापन दिल का
अक्खड़पन, जुझारूपन भी

भावार्थ - प्रस्तुत पंक्तियाँ कवयित्री निर्मला पुतुल जी के द्वारा रचित कविता आओ मिलकर बचाएँ से उद्धृत हैं | मूलत: यह कविता संथाली भाषा में लिखित है, जिसका हिन्दी अनुवाद 'अशोक सिंह' ने किया है | कवयित्री निर्मला पुतुल जी उक्त पंक्तियों के माध्यम से अपने साधारण ग्राम्य परिवेश को दोष रूपी शहरी सभ्यता से बचाने का आह्वान् कर रही हैं | 

इन पंक्तियों के द्वारा कवयित्री कहती हैं कि नगरीय संस्कृति के प्रभुत्व के कारण इस क्षेत्र के लोगों की दिनचर्या ठंडी अर्थात् धीमी पड़ती जा रही है | लोगों के जीवन में जो गर्माहट रूपी उत्साह हुआ करते थे, वो कहीं न कहीं धूमिल पड़ने लगे हैं | आगे कवयित्री कहती हैं कि मन का हरापन भी विलुप्त हो गया है अर्थात् मन का सुकून और उत्साह छिन गया है | दिल भोलेपन से अब कठोरता का परिचायक बन गया है | कवयित्री कहती हैं कि अब हमारे व्यवहार में वो मासूम देहातीपन नहीं रह गया, जिसके वजह से हम जाने जाते थे और न ही संघर्ष करने की क्षमता व जुझारूपन हममें शेष है | 

(3)- भीतर की आग 
धनुष की डोरी 
तीर का नुकीलापन 
कुल्हाड़ी की धार
जगंल की ताज़ा हवा
नदियों की निर्मलता
पहाड़ों का मौन
गीतों की धुन
मिट्टी का सोंधापन 
फसलों की लहलहाहट 

भावार्थ - प्रस्तुत पंक्तियाँ कवयित्री निर्मला पुतुल जी के द्वारा रचित कविता आओ मिलकर बचाएँ से उद्धृत हैं | मूलत: यह कविता संथाली भाषा में लिखित है, जिसका हिन्दी अनुवाद 'अशोक सिंह' ने किया है | कवयित्री निर्मला पुतुल जी उक्त पंक्तियों के माध्यम से अपने साधारण ग्राम्य परिवेश को दोष रूपी शहरी सभ्यता से बचाने का आह्वान् कर रही हैं | 

इन पंक्तियों के द्वारा कवयित्री कहती हैं कि हमें अपनी मूल पहचान नहीं भूलना चाहिए | अपने अस्तित्व को ज़िंदा रखने की भूख हममें सदा बरकरार रहना चाहिए | संघर्ष करने की प्रवृत्ति के साथ-साथ अपने पारम्परिक हथियार जैसे - धनुष, तीर, कुल्हाड़ी इत्यादि धरोहरों को बचाए रखें | ताकि हमारी भावनाएं और संस्कृति का स्वर हमेशा गूंजामान होता रहे | आगे कवयित्री कहती हैं कि हम अपने वनों को अंधाधुंध कटाई से बचाएँ, ताकि ताज़ा हवा हमें मिलती रहे | नदियों की निर्मलता को बनाएँ रखें | आगे कवयित्री कहती हैं कि पहाड़ों का मौन रहना, पारम्परिक गीतों के धुन, मिट्टी का सोंधापन और फसलों की लहलहाहट इत्यादि हमारी संस्कृति के अभिन्न अंग हैं, जिसे पल भर के लिए भी खोना, मानो अपना वजूद खो देना है | हमें अपनी पहचान और प्रकृति के प्रति गहरा अनुराग को हमेशा जीवित रखना चाहिए | यही हमारे धरोहर हैं | 

(4)- नाचने के लिए खुला आँगन 
गाने के लिए गीत  
हँसने के लिए थोड़ी-सी खिलखिलाहट 
रोने के लिए मुट्ठी भर एकांत

बच्चों के लिए मैदान
पशुओं के लिए हरी-हरी घास
बूढ़ों के लिए पहाड़ों की शांति

भावार्थ - प्रस्तुत पंक्तियाँ कवयित्री निर्मला पुतुल जी के द्वारा रचित कविता आओ मिलकर बचाएँ से उद्धृत हैं | मूलत: यह कविता संथाली भाषा में लिखित है, जिसका हिन्दी अनुवाद 'अशोक सिंह' ने किया है | कवयित्री निर्मला पुतुल जी उक्त पंक्तियों के माध्यम से अपने साधारण ग्राम्य परिवेश को दोष रूपी शहरी सभ्यता से बचाने का आह्वान् कर रही हैं |  

इन पंक्तियों के द्वारा कवयित्री कहती हैं कि धीरे-धीरे बढ़ती जनसंख्या और विकास के कारण घर छोटे व सीमित
निर्मला पुतुल
निर्मला पुतुल
होते जा रहे हैं | नाचने के लिए पर्याप्त मात्रा में खुला आँगन नहीं बचा है और न ही अब हमारी संस्कृति की विशेषता बताने वाली गीतों का अस्तित्व बाकी है | कवयित्री कहती हैं कि हँसने के लिए थोड़ी-सी खिलखिलाहट की आवश्यकता है और रोने के लिए मुट्ठी भर एकांत की दरकार | लेकिन शहरी ज़िंदगी जीने की होड़ के कारण लोगों के पास इतना भी फुर्सत कहाँ है | बस दिखावे के कारण तनाव और पीड़ा को अपने जीवन रूपी थाली में परोसे जा रहे हैं | कवयित्री कहती हैं कि बच्चों के लिए खेल का मैदान, पशुओं के लिए हरी-हरी घास और बूढ़ों के लिए पहाड़ों की शांति जैसे वातावरण को वापस पाने के लिए हमें सामूहिक प्रयत्न करने की आवश्यकता है |

(5)- और इस अविश्वास-भरे दौर में 
थोड़ा-सा विश्वास
थोड़ी-सी उम्मीद
थोडे-से सपने

आओ, मिलकर बचाएँ
कि इस दौर में भी बचाने को
बहुत कुछ बचा हैं
अब भी हमारे पास ! 

भावार्थ - प्रस्तुत पंक्तियाँ कवयित्री निर्मला पुतुल जी के द्वारा रचित कविता आओ मिलकर बचाएँ से उद्धृत हैं | मूलत: यह कविता संथाली भाषा में लिखित है, जिसका हिन्दी अनुवाद 'अशोक सिंह' ने किया है | कवयित्री निर्मला पुतुल जी उक्त पंक्तियों के माध्यम से अपने साधारण ग्राम्य परिवेश को दोष रूपी शहरी सभ्यता से बचाने का आह्वान् कर रही हैं |  

इन पंक्तियों के द्वारा कवयित्री कहती हैं कि आज जब हर तरफ़ अविश्वास का दौर है, ऐसी स्थिति में भी हमारे पास बचाने को बहुत कुछ बाकी है | बस हमें थोड़ा-सा विश्वास, थोड़ी-सी उम्मीदें और थोड़े-से सपने अपने अंतःकरण में जीवित रखना होगा और हम सबको मिलकर अपनी सभ्यता व संस्कृति
को बचाने का सामूहिक प्रयास करना होगा | 


आओ मिलकर बचाएँ कविता का मूलभाव संमीक्षा सारांश

प्रस्तुत पाठ या कविता आओ मिलकर बचाएँ कवयित्री निर्मला पुतुल जी के द्वारा रचित है | यह कविता मूलत: संथाली भाषा में लिखित है, जिसका हिन्दी अनुवाद अशोक सिंह ने किया है | कवयित्री के मुताबिक प्रकृति के विनाश और विस्थापन के कारण आज आदिवासी समाज संकट में है | प्रस्तुत कविता के माध्यम से कवयित्री उन चीज़ों की सुरक्षा की बात कर रही हैं, जिनका होना स्वस्थ सामाजिक-प्राकृतिक परिवेश के लिए आवश्यक है | 

यदि संथाल समाज की बात करें, तो संथाल समाज में जहाँ एक तरफ़ सादगी, भोलापन, प्रकृति के प्रति झुकाव और कठोर व अत्यधिक परिश्रम करने की क्षमता जैसे सकारात्मक तत्व निहित हैं, तो वहीं दूसरी तरफ़ संथाल समाज में अशिक्षा, कुरीतियाँ और मादक पदार्थों की ओर लोगों का झुकाव भी शामिल है | प्रस्तुत कविता में उक्त दोनों पक्षों का यथार्थ चित्रण किया गया है...||  


आओ मिलकर बचाएँ कविता के प्रश्न उत्तर 


प्रश्न-1 ‘माटी का रंग’ प्रयोग करते हुए किस बात की ओर संकेत किया गया है ? 

उत्तर- प्रस्तुत कविता में प्रयुक्त 'माटी का रंग' से कवयित्री का तात्पर्य शहरी संस्कृति से परे अपने झारखंड राज्य के संथाल परगना अर्थात् आदिवासी ग्राम्य परिवेश के रीति-रिवाज़ों की सुंदर गुणों से सुसज्जित रहना है | कवयित्री के अनुसार, लोगों में उनके मूल अस्तित्व की गतिविधियाँ शामिल हो और स्वभाव में झारखंडीपन का वर्चस्व दिखाई दे | 

प्रश्न-2 भाषा में झारखंडीपन से क्या अभिप्राय है ? 

उत्तर- प्रस्तुत कविता के अनुसार, झारखंडीपन से  अभिप्राय झारखंड के स्थानीय लोगों के नैसर्गिक स्वभाव, भाषा और रहन-सहन से है | उक्त स्वभाव को ही शहरी संस्कृति धीरे-धीरे नष्ट कर रही है, जिसके विरोध में कवयित्री अपने संथाल व झारखंड राज्य के लोगों से आह्वान करती हैं कि वो अपनी मूल संस्कृति की तरफ़ लौट जाएँ और अपना धरोहर सुरक्षित कर लें | 

प्रश्न-3 दिल के भोलेपन के साथ-साथ अक्खड़पन और जुझारूपन को भी बचाने की आवश्यकता पर क्यों बल दिया गया है ? 

उत्तर- देखा जाए तो दिल का भोलापन सरल व सहज स्वभाव की ओर इशारा करता है | जिस तरह से शहरी प्रभुत्व के कारण गाँव के साधारण लोग गलत दिशा में अग्रसर हो गए हैं, वह शुभ संकेत नहीं है | इसलिए कवयित्री चाहती हैं कि हमारे गाँव के भोले-भाले आदिवासी बंधु प्रवृत्ति से अक्खड़ व जुझारू भी बने, ताकि वे अपनी बुराईयों को जड़ से उखाड़ फेंकने में कामयाब हों और कठिन वक़्त में अपनी संस्कृतियों की सुरक्षा हेतु तटस्थ रह सकें | इसलिए प्रस्तुत कविता में दिल के भोलेपन के साथ-साथ अक्खड़पन और जुझारूपन को भी बचाने की आवश्यकता पर बल दिया गया है | 

प्रश्न-4 प्रस्तुत कविता आदिवासी समाज की किन बुराइयों की ओर संकेत करती है ? 

उत्तर-  प्रस्तुत कविता आदिवासी समाज की निम्नलिखित बुराइयों की ओर संकेत करती है --- 

• आदिवासियों की संस्कृति व जीवन पर शहरी वातावरण का वर्चस्व बढ़ गया है | फलस्वरूप, वे अपना मूल पहचान गंवाते जा रहे हैं | 
• आदिवासी समाज मादक पदार्थों की तरफ़ अत्यधिक झुका है, जिसके कारण उनका शोषण हो रहा है | 
• आदिवासी समाज में अब भी शिक्षा का अभाव है | 
• धनुष-बाण, तीर-कमान इत्यादि जैसे अपने मूल धरोहरों से वे वंचित हो गए हैं | 
• कहीं न कहीं वे आत्मविश्वास की कमी से जूझ रहे हैं | 

प्रश्न-5 इस दौर में भी बचाने को बहुत कुछ बचा है --- से क्या आशय है ? 

उत्तर-  प्रस्तुत कविता के अनुसार, इस दौर में भी बचाने को बहुत कुछ बचा है --- से कवयित्री का आशय यह है कि आज आदिवासी समाज के पिछड़ापन का कारण उनके अंदर नकारात्मकता का समावेश है तथा शहरी कुसंस्कृतियों ने उनके अंदर के शुद्धीकरण को तोड़ने का काम किया है | किन्तु फिर भी कवयित्री को लगता है कि अब भी आदिवासियों की एकता संगठित है | अब भी उनकी संस्कृतियाँ पुनः जी उठने को व्याकुल है | इसलिए कवयित्री कहती हैं कि आज जब हर तरफ़ अविश्वास का दौर है, ऐसी स्थिति में भी हमारे पास बचाने को बहुत कुछ बाकी है | बस हमें थोड़ा-सा विश्वास, थोड़ी-सी उम्मीदें और थोड़े-से सपने अपने अंतःकरण में जीवित रखना होगा और हम सबको मिलकर अपनी सभ्यता व संस्कृति को बचाने का सामूहिक प्रयास करना होगा | 

प्रश्न-6 निम्नलिखित पंक्तियों के काव्य-सौन्दर्य को उद्घाटित कीजिए --- 
(क)- ठंडी होती दिनचर्या में जीवन की गर्माहट

उत्तर- काव्य-सौन्दर्य को उद्घाटित - 

• प्रस्तुत कविता में कवयित्री ने दिनचर्या में आई उदासीनता को दूर करने के लिए ‘गर्माहट’ शब्द का लाक्षणिक प्रयोग किया है | 
• उक्त पंक्ति की भाषा सरल, सहज एवं सुबोध है | 
• स्वाभाविक तौर पर छंदमुक्त पंक्तियाँ हैं | 
• प्रयोग किए गए शब्द प्रतीकात्मक हैं | 

(ख)- थोड़ा-सा विश्वास  थोड़ी-सी उम्मीद थोड़े–से सपने आओ, मिलकर बचाएँ

उत्तर- • थोड़ा-सा, थोड़ी-सी, थोड़े–से तीनों शब्दों के प्रयोग से प्रस्तुत पंक्तियों में एक विशेष अभिव्यक्ति   का प्रयोग हुआ है | 
• उक्त पंक्ति की भाषा सरल, सहज एवं सुबोध है | 
• प्रेरणात्मक पंक्ति है, जिससे लोगों को आगे बढ़ने का आत्मबल मिले | 

प्रश्न-7 बस्तियों को शहर की किस आबो-हवा से बचाने की आवश्यकता है ? 

उत्तर- प्रस्तुत कविता के अनुसार, बस्तियों को शहर की अपसंस्कृति के प्रभाव से बचाने की आवश्यकता है | कवयित्री आदिवासियों से आह्वान करती हुई कहती हैं कि आओ, हम सब मिलकर अपनी बस्तियों को शहरी वातावरण के दुष्प्रभाव से बचा लें तथा अपनी संस्कृति को सुरक्षित कर लें | अर्थात् आज तक शहरी सभ्यता ने सिर्फ हमारी बस्तियों या हम पर विभिन्न प्रकार का शोषण किया है | शहरीकरण का प्रभाव , सुंदर, स्वच्छ व हरियाली युक्त वातावरण को दिन-प्रतिदिन नष्ट कर रहा है | इन सारी चीज़ों से कवयित्री बस्तियों को बचाना चाहती हैं | 



आओ मिलकर बचाएँ कविता के कठिन शब्द / शब्दार्थ 


• ठंडी होती - धीमी पड़ती
• दिनचर्या - दैनिक कार्य
• गर्माहट - उत्साह, उमंग 
• मन का हरापन - मन की खुशियाँ
• नंगी होना - मर्यादाहीन होना
• आबो-हवा - वातावरण, जलवायु 
• हड़िया - हड्डयों का भंडार
• माटी - मिट्टी 
• झारखंडीपन - झारखंड का प्रभाव 
• अक्खड़पन - रुखाई, कठोर होना 
• जुझारूपन - संघर्ष करने की प्रवृत्ति
• आग - गर्मी 
• निर्मलता - पवित्रता
• मौन - चुप्पी, स्तब्धता 
• सोंधापन - मिट्टी की खुशबू 
• लहलहाहट - लहराना
• अविश्वास - दूसरों पर विश्वास न करना
• दौर - समय 
• सपने - इच्छाएँ
• खिलखिलाहट - खुलकर हँसना
• मुट्ठी भर - थोड़ा-सा
• एकांत - अकेलापन, तन्हाई | 



COMMENTS

Leave a Reply: 2
  1. बस्तियां नंगी होने से क्या तात्पर्य है

    जवाब देंहटाएं
  2. अर्थात् बस्तियां शहरी कार्यों के कारण नस्ट हो रहीं हैं। शहरी लोग बस्तियों को नषट कर जन धन को हा नि पहुंचा रहे हैं। यदि इसी प्रकार यह चलता रहा तो एक स्थिति ऐसी आएगी की बस्तियां नंगी होने के साथ उजड़ जाएंगी।

    जवाब देंहटाएं
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हिन्दीकुंज,Hindi Website/Literary Web Patrika: आओ, मिलकर बचाएँ कविता निर्मला पुतुल
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