गलता लोहा शेखर जोशी Galta Loha Class 11 Aaroh NCERT

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गलता लोहा शेखर जोशी


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गलता लोहा पाठ का सारांश

प्रस्तुत पाठ या कहानी गलता लोहा लेखक शेखर जोशी जी के द्वारा लिखित है | गलता लोहा शेखर जोशी की कहानी- कला का एक प्रतिनिधि नमूना है। समाज के जातिगत विभाजन पर कई कोणों से टिप्पणी करने वाली या कहानी इस बात का उदाहरण है कि शेखर जोशी के लेखन में अर्थ की गहराई का दिखावा और बड़बोलापन जितना ही कम है, वास्तविक अर्थ और गंभीरता उतनी ही अधिक। लेखक की किसी मुखर टिप्पणी के बगैर ही पूरे पाठ से गुजरते हुए हम यह देखते हैं कि, एक मेधावी किंतु निर्धन ब्राह्मण युवक मोहन किन परिस्थितियों से उस मनोदशा तक पहुंचता है, जहां उसके लिए जातीय अभिमान बेमानी हो जाती है। मोहन का व्यक्तित्व जातीय आधार पर निर्मित झूठे भाईचारे की जगह मेहनतकशों के सच्चे भाईचारे की प्रस्तावना करता प्रतीत होता है, मानो लोहा गलकर नया आकार ले रहा हो। 

लेखक बताते है की मोहन के पैर स्वत: ही शिल्पकार टोले की ओर मुड़ जाते हैं। उसके मन में कहीं न कहीं धनराम लोहार की आफर की आवाज शेष थी जो, तीन-चार दिनों से वह दुकान की ओर जाते हुए दूर से ही ऐसे सुन रहा था जैसे लाल गर्म लोहे पर हथौड़े से पीटने की आवाज वह दूर से ही पहचान सकता हो।

एक दिन मोहन खेतों के किनारे उग आई कांटेदार झाड़ियों को साफ करने के उद्देश्य से हंसुवे को लेकर घर से
शेखर जोशी
शेखर जोशी
निकला था। उनके पिता वंशीधर, पुरोहिताई का काम कर अपना घर चलाते थे। परंतु अब वे इतने वृद्ध हो चुके थे कि उनके बस का अब यह काम नहीं था। यजमान लोग उनकी निष्ठा और संयम के कारण उनपर श्रद्धा रखते हैं, लेकिन बुढ़ापे का यह शरीर इतना कठिन श्रम और व्रत उपवास झेल नहीं पाता। सुबह-सुबह गहरी सांस लेकर वे सहारा पाने के उद्देश्य से कहते हैं- आज गणनाथ जाकर चंद्रदत्त जी के लिए रुद्रीपाठ करना था, परंतु अब मुश्किल लग रहा है कि, जा पाऊंगा। दो मील की सीधी चढ़ाई अब मेरे बस की बात नहीं है। अब अचानक से ना भी नहीं कहा जा सकता। कुछ समझ नहीं आ रहा।

मोहन अपने पिता का आश्रय तो समझ चुका था परंतु उसे ऐसे अनुष्ठान कर पाने का उसे अनुभव नहीं था। पिता की बातें सुनकर भी उसने उनका भार हल्का करने के लिए भी कोई सुझाव नहीं दिया। जैसे कि बात हवा में कर दी गई हो, उनका सवाल अनुत्तरित रह गया।

पिता का भार हल्का करने के लिए मोहन खेतों की और चला था, फिर उसे आभास हुआ जैसे हंसुवे की धार खत्म हो चुकी है। वह उसे लेकर धनराम के पास भट्टी पहुंचा। मोहन ने उससे पूछा मास्टर त्रिलोक सिंह तो अब गुजर गए होंगे। वे दोनों अब अपने बचपन की दुनिया में लौट आए थे धनराम की आंखों में एक चमक से आ गई थी। वह बोला मास्टर साहब भी क्या आदमी थे! अभी पिछले साल ही गुजरे। सच कहूं तो आखरी दम तक उनकी छड़ी का डर लगा ही रहता था। दोनों हंसने लगे और अपने बचपन के उस समय को याद करने लगे।

त्रिलोक जी स्कूल की चारदीवारी के अंदर आते हैं और सारे बच्चों से पूछते हैं कि तुम लोगों ने प्रार्थना कर लिया! फिर एक कड़ी आवाज में पूछते हैं कि मोहन नहीं आया आज? मोहन उनका चहेता शिष्य था पढ़ाई के साथ गायन में भी अव्वल था। उसे मास्टर साहब ने पूरे स्कूल का मॉनिटर बनाया हुआ था। मोहन से मास्टर साहब की बहुत उम्मीदें थी। अगर कोई सवाल पूरे क्लास को नहीं आता तो, वह सवाल मोहन से ही पूछा करते। और मोहन उसका सही-सही जवाब भी दे देता और उन्हें संतुष्ट कर देता। उसके बाद मास्टर साहब उन लड़कों को दंड देने का भार भी मोहन के ऊपर ही डाल देते थे और मोहन को आदेश देते हुए कहते - खींच इसका कान और लगवा इससे दस बार उठक- बैठक। उन लड़कों में धनराम भी था, जिसे अपने हमजोली मोहन के हाथों कई बार कान खिंचवाने पड़े थे। मोहन के प्रति थोड़ी ईर्ष्या रहने के बाद भी धनराम के मन में उसके लिए स्नेह और आदर का भाव रहता था। बीच-बीच में त्रिलोक सिंह मास्टर यह कहा करते थे कि, एक दिन मोहन बहुत बड़ा आदमी बनेगा और उनका नाम ऊंचा करेगा। धनराम उन बाकी शिष्यों की तरह था जिन पर मास्टर जी कभी-कभी ही ध्यान दिया करते थे। एक दिन मास्टर जी ने धनराम से तेरह का पहाड़ा सुनाने को कहा, पर उसे बारह तक का पहाड़ा तो जैसे - तैसे याद हो गया परंतु तेरह का पहाड़ा याद करना उसे पहाड़ लगने लगा था। जैसे ही उसने तेरह का पहाड़ा गलत सुनाना शुरू किया मास्टर जी उसे डंडे से मारने लगे। डंडे के टूट जाने पर मास्टर जी, उसी से डंडा लाने को कहते हैं। मास्टर जी का नियम था मार खाने वाले को, खुद के लिए हथियार जुटाना पड़ता था।

धनराम को डर की वजह से तेरह का पहाड़ा याद ही नहीं हो रहा था छुट्टी के समय मास्टर जी उसे तेरह का पहाड़ा फिर से सुनाने को कहते हैं वो सुनाते सुनाते लड़खड़ाने लगा तो मास्टर जी कहते हैं तेरे दिमाग में तो लोहा भरा है! विद्या का ताप इसमें कैसे लगेगा? और पांच, छह दरातियां निकालकर धनराम को धार लगाने के लिए धरा देते हैं। क्योंकि धन राम के पिता धनराम को बचपन से ही अपने साथ काम करने के लिए उलझा देते थे। गंगाराम की मृत्यु के बाद धनराम उनकी विरासत को संभालने में लग गया। प्राइमरी स्कूल पार करने पर मोहन को छात्रवृत्ति मिली, जिससे कि त्रिलोक मास्टर की भविष्यवाणी कुछ हद तक सही साबित हुई जिससे कि मोहन के पिता का भी हौसला बढ़ गया और वह भी अपने पुत्र को पढ़ा लिखा कर बड़ा आदमी बनाने का सपना देखने लगे। मोहन का स्कूल काफी दूर था, वहां जाने के लिए नदी पार करना होता था। बरसात के दिनों में नदी का पानी अपने उफान पर होता था,जिससे कि मोहन को बहुत से दिक्कतों का सामना करना पड़ता था। उसके पापा उसकी पढ़ाई को लेकर बहुत चिंतित रहते थे। लेखक बताते हैं की एक बार बिरादरी के ही एक संपन्न परिवार का युवक लखनऊ से छुट्टियों में गांव आया हुआ था।जब मोहन के पिता ने अपने बेटे के पढ़ाई के संबंध में अपनी चिंता प्रकट की तो उन्होंने सहानुभूति जताते हुए उन्हें सुझाव दिया कि उसे लखनऊ शहर में उनके बेटे के पास भेज दें, ताकि वो वहां जाकर अच्छे से पढाई कर सके। परन्तु मोहन शहर जाकर घर के कामकाज में हाथ बताने का एक साधन बनकर रह जाता है। गांव का मेधावी छात्र शहर जाकर एक मामूली से छात्र बन जाता है।आठवीं कक्षा की पढ़ाई खत्म होने के बाद उसके आगे की पढ़ाई के लिए रमेश के परिवार में कोई तैयार ना था और उसे हाथ का हुनर सीखने को कहते हैं। 

त्रिलोक सिंह मास्टर की बात करते-करते बचपन से लेकर अब तक के कई प्रसंगों पर वे बात कर चुके थे। धनराम ने मोहन के हंसुवे को धार लगाकर उसे दे दिया और भूल चूक के लिए माफी मांगी। मोहन वहीं हंसुवे को लेकर बैठा रहा, जैसे उसे जाने की कोई जल्दी ना हो। सामान्यत: ब्राह्मण टोली के लोगों का शिल्पकार टोली में उठना - बैठना नहीं होता था। धनराम को एक लोहे को उचित ढंग से मोड़ने में कठिनाई हो रही थी। मोहन पहले तो उसे देख रहा था पर उसके बाद उसने अपना संकोच छोड़कर उसकी मदद करने के लिए, उस लोहे को ठोक- पीटकर गोले का रूप दे डाला। धनराम, पुरोहित खानदान के लड़के के इस कारनामे को देखता रह गया। धनराम संकोच और धर्म संकट की स्थिति में खड़ा था और उधर मोहन संतुष्ट भाव से अपने बनाए हुए गोले की त्रुटिहीन गोलाई को जांच रहा था। मोहन, धनराम की आंखों में अपने कारीगरी की स्वीकृति पाने की चाह में देखा। मोहन की आंखों में एक चमक थी, जिसमें ना किसी से कोई स्पर्धा थी और ना ही किसी से हार जीत का भाव…|| 


गलता लोहा पाठ का उद्देश्य शिक्षा 

गलता लोहा पाठ से हमें शिक्षा मिलती है कि, किस तरह पुरोहित (ब्राह्मण) समाज का एक युवक मोहन अपने जीवन में ऐसी परिस्थितियों का सामना कर चुका होता है कि एक समय में उसे जातीय अभिमान बेईमानी लगने लगती है और उसे जातीय आधार पर निर्मित भाईचारे की असली हकीकत मालूम होती है। उसे कोई भी काम छोटा प्रतीत नहीं होता। प्रस्तुत पाठ में मोहन ब्राह्मण होकर भी लोहार का काम करने में खुद को छोटा महसूस नहीं करता।


गलता लोहा पाठ के प्रश्न उत्तर


प्रश्न-1 कहानी के उस प्रसंग का उल्लेख करें, जिसमें किताबों की विद्या और घन चलाने की विद्या का जिक्र आया है।

उत्तर- धनराम उन अनेक छात्रों में से एक था, जो एक साथ किताबों की विद्या और घन चलाना सीख रहा था। लोहार का बेटा होने के कारण उसे अपने पिता से व्यवसाय का प्रशिक्षण भी मिल रहा था। वह एक तरफ पढाई कर रहा था और दूसरी तरफ अपने पिता के काम में हाथ भी बंटा  रहा था। उसे गणित समझ में नहीं आता था, जिसके कारण वह शिक्षक से मार भी खाता था। उसके शिक्षक भी उसके हाथों में औजार थमाकर धार लगाने का काम सौंप देते।

प्रश्न-2 धनराम मोहन को अपना प्रतिद्वंद्वी क्यों नहीं समझता था ? 

उत्तर- धनराम मोहन को अपना प्रतिद्वंद्वी इसलिए नहीं समझता था, क्योंकि धनराम लोहार जाति का था और मोहन ब्राह्मण। प्रारंभ से ही धनराम के मन में जाति को लेकर यह बात बिठा दी गई थी कि, वह नीची जाति का है और चाहे वह जितना भी पढ़ ले, काम उसे लोहार का ही करना है। मोहन पढ़ने में धनराम से कहीं अधिक तेज था, फिर भी धनराम जातिगत मानसिकता के कारण मोहन को अपना प्रतिद्वंद्वी नहीं समझता था।

प्रश्न-3 धनराम को मोहन के किस व्यवहार पर आश्चर्य होता है और क्यों ? 

उत्तर- प्रस्तुत पाठ के अनुसार, एक दिन धनराम लोहे की मोटी छड़ को भट्ठी में गलाकर उसे गोलाई में मोड़ने की कोशिश कर रहा था। एक हाथ से संड़सी पकड़कर दूसरे हाथ से हथौड़े की चोट करने के बावजूद लोहा उचित ढंग से मोड़ पाने में वह असमर्थ था। मोहन कुछ देर तक उसे काम करते हुए देख रहा था, फिर अचानक हथौड़ी लेकर उसे ठोक- पीटकर उसने गोले का रूप दे दिया। मोहन के इस व्यवहार पर धनराम को आश्चर्य होता है, क्योंकि मोहन एक ब्राह्मण परिवार का लड़का था और ब्राह्मण होकर भी उसे लोहारगिरी का काम आता है।

प्रश्न-4 मोहन के लखनऊ आने के बाद के समय को लेखक ने उसके जीवन का एक नया अध्याय क्यों कहा है ?

उत्तर- प्रस्तुत पाठ के अनुसार, जब मोहन गाँव छोड़कर पढ़ाई करने लखनऊ शहर आता है तब उसके जीवन का एक नया अध्याय शुरू होता है, लेखक ने ऐसा इसलिए कहा है क्योंकि अब उसे गाँव से बाहर शहरी परिवेश का ज्ञान हुआ। गांव में जहां वो एक मेधावी छात्र हुआ करता था शहर के स्कूली जीवन में अपनी कोई पहचान नहीं बना पाया। शहर आकर वह चाचियों और भाभियों के लिए काम- काज में हाथ बटाने का साधन बन कर रह गया था।

प्रश्न-5 मास्टर त्रिलोक सिंह के किस कथन को लेखक ने जबान के चाबुक कहा है और क्यों ? 

उत्तर- इस पाठ के अनुसार, धनराम के तेरह का पहाड़ा ठीक से न सुना पाने के कारण मास्टर त्रिलोक सिंह उस पर व्यंग्य करते हैं कि ‘तेरे दिमाग में तो लोहा भरा है रे! विद्या का ताप कहाँ लगेगा इसमें’। इस कथन को लेखक ने जबान के चाबुक कहा है। मास्टर त्रिलोक सिंह के इस कथन से छात्र को शारीरिक नहीं बल्कि मानसिक रूप से चोट पहुँचती है। जाति को लेकर किए गए इस व्यंग्य से धनराम हीन भावना से ग्रसित होकर आगे की पढ़ाई पूरी नहीं कर पाया। उसे ऐसा लगने लगता है कि उसे अब आगे चलकर लोहार का ही काम करना है।

प्रश्न-6  बिरादरी का यही सहारा होता है --- 

(क) किसने किससे कहा ? 
(ख) किस प्रसंग में कहा ? 
(ग) किस आशय से कहा ? 
(घ) क्या कहानी में यह आशय स्पष्ट हुआ है ? 

उत्तर- बिरादरी का यही सहारा - 

(क) यह कथन पंडित वंशीधर ने लखनऊ से आये बिरादरी के युवक रमेश से कहा।

(ख) वंशीधर को अपने बेटे मोहन के पढ़ाई को लेकर बहुत चिंता थी क्योंकि गाँव में उसकी आगे की पढ़ाई नहीं हो सकती थी। ऐसे में जब शहर से बिरादरी के एक युवक रमेश ने उसे अपने साथ शहर लखनऊ भेजने की बात की तो उन्हें लगा कि एक सहारा मिल गया। उन्होंने कृतज्ञता जताते हुए यह कथन कहा।

(ग) प्रस्तुत पाठ के अनुसार, वंशीधर के इस कथन का आशय यह था कि जाति - बिरादरी के होने से कुछ ना कुछ लाभ होता है। मौके पर अपनी बिरादरी के लोग ही सहायता करने को तैयार होते हैं।

(घ) नहीं, कहानी में यह आशय स्पष्ट नहीं हुआ है। इसका कारण यह है कि शहर जाने के बाद मोहन की पढ़ाई बंद ही हो गई। रमेश उसकी आगे की पढ़ाई पूरी करवाने अपने साथ ले कर गया था लेकिन मोहन वहाँ जाकर नौकर बनकर रह गया। मोहन की प्रतिभा काम के बोझ के तले दब कर रह गई। वहीँ उसके पिता वंशीधर इसी भ्रम में जी रहे थे कि उनका बेटा पढ़-लिखकर बड़ा अफसर बनकर गाँव लौटेगा। लेकिन मोहन ने अपनी वास्तविक स्थिति अपने परिवार वालों को नहीं बताया क्योंकि वह उन्हें दुखी नहीं करना चाहता था।

प्रश्न-7  उसकी आँखों में एक सर्जक की चमक थी ---  कहानी का यह वाक्य -- 

(क) किसके लिए कहा गया है ? 
(ख) किस प्रसंग में कहा गया है ? 
(ग) यह पात्र-विशेष के किन पहलुओं को उजागर
     करता है ? 

उत्तर- एक सर्जक की चमक - 

(क) यह वाक्य मोहन के लिए कहा गया है।

(ख) लेखक ने यह वाक्य उस प्रसंग में कहा जब मोहन, धनराम को काम करते हुए देख रहा था। जब धनराम लोहे की मोटी छड़ को नहीं मोड़ पाया तो मोहन बिना किसी संकोच के बड़ी ही कुशलता से उसे गोले के रूप में मोड़ दिया। अपनी इस सफलता से मोहन की आँखों में चमक आ गई।

(ग) इससे मोहन के उस चारित्रिक विशेषता को उजागर करता है, जिससे यह पता चलता है किसी भी जाति का संबंध किसी खास व्यवसाय से नहीं होता है। ब्राह्मण होते हुए भी वह लोहार का काम करने में जरा सा भी संकोच महसूस नहीं करता।

प्रश्न-8 एक अध्यापक के रूप में त्रिलोक सिंह का व्यक्तित्व आपको कैसा लगता है ? अपनी समझ में उसकी खूबियों और खामियों पर विचार करें | 

उत्तर- प्रस्तुत पाठ के अनुसार, एक अध्यापक के रूप में मास्टर त्रिलोक सिंह बच्चों के साथ कठोरता के साथ पेश आते हैं | वे एक परंपरागत शिक्षक थे | 

वे बच्चों के साथ मारने, डाँटने तथा सजा देने जैसे तरीकों का उपयोग करते थे | वे पढ़ाते वक़्त यह ध्यान रखते थे कि सभी बच्चे अच्छी तरह पढ़ाई कर रहे हैं कि नहीं | खैर, ये तो उनकी ख़ूबियों में शामिल है | 

अब अगर अध्यापक के रूप में त्रिलोक सिंह के खामियों के बारे में बात करें तो उनमें एक बुरी बात यह थी कि वे छात्रों के साथ जाति को लेकर भेदभाव करते थे | धनराम लोहार जाति का था इसलिए वे उसके सही जवाब न देने पर व्यंग्य करते हैं | मोहन उच्च जाति का था इसलिए वे उनपर कुछ अधिक ही प्यार न्यौछावर करते थे | 


प्रश्न-9 पाठ में निम्नलिखित शब्द लौह कर्म से सम्बंधित है | किसका क्या प्रयोजन है ? शब्द के सामने लिखिए --- 

उत्तर- प्रयोजन निम्नलिखित है - 

1. धौंकनी -- इसको मुँह में लगाकर आग को फूँकना होता है, जिससे आग धधकने लगती है |  

2. दराँती -- यह एक प्रकार का लोहे का बना औजार है, जो मूल रूप से घास काटने या फसल काटने के काम                     आती है | 

3. संड़सी --  यह कैंची के समान बना हुआ औजार है, जिससे गर्म छड़ इत्यादि को पकड़ा जाता है | 

4. आफर -- भट्ठी

5. हथौड़ा -- हाथ में लेकर इससे लोहा पीटा जाता है | 

प्रश्न-10 पाठ में काट-छाँटकर जैसे कई संयुक्त क्रिया शब्दों का प्रयोग हुआ है | कोई पाँच शब्द पाठ में से चुनकर लिखिए और अपने वाक्यों में प्रयोग में कीजिए | 

उत्तर- संयुक्त क्रिया शब्दों का प्रयोग - 

• काट-छाँटकर --- इस पटरे को काट-छाँटकर बल्ला बना दो | 

• उलट-पलट --- अमायरा तवे पर रोटी उलट-पलट रही थी | 

• उठा-पटक ---  बच्चे आपस में उठा-पटक कर रहे थे | 

• पढ़-लिखकर ---  वह पढ़-लिखकर एकदिन बड़ा आदमी बनेगा | 

• थका-माँदा --- वह थका-माँदा सो गया था | 


प्रश्न-11 मोहन ! थोड़ा दही तो ला दे बाज़ार से | 

मोहन ! ये कपड़े धोबी को दे तो आ | 

मोहन ! एक किलो आलू तो ला दे | 

ऊपर के वाक्यों में मोहन को आदेश दिए गए हैं | इन वाक्यों में 'आप' सर्वनाम का इस्तेमाल करते हुए उन्हें दोबारा लिखिए | 

उत्तर- सर्वनाम का इस्तेमाल -

• आप थोड़ा दही तो ला दीजिए बाज़ार से | 

• आप ये कपड़े धोबी को दे तो दीजिए | 

• आप एक किलो आलू तो ला दीजिए | 


गलता लोहा पाठ के कठिन शब्द शब्दार्थ 


• अनायास - बिना प्रयास के
• अनुगूंज - प्रतिध्वनि
• हंसुवे - घास काटने का औजार
• निष्ठा - श्रद्धा
• त्रुटिहीन - जिसमें कोई कमी ना हो
• विद्यावसनी - पढ़ने में रुचि रखने वाला
• प्रतिद्वंदी - मुकाबला करने वाला
• संटी - पतली छड़ी
• धौंकनी - लुहार या सुनारों की आग दहकने वाली लोहे या बांस की नली
• पुरोहिताई - पुरोहित (धार्मिक कृत्य करने वाला) का व्यवसाय | 


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