नई शिक्षा नीति का क्या असर होगा ? नई शिक्षा नीति से सभी बच्चों को समान रूप से पढ़ने और देश के विकास में भागीदार बनने का कितना अवसर प्राप्त हो सकेगा, या एक बार फिर से यह नारा सरकारी फाइलों और दीवारों तक ही सीमित रह जायेगा।
सब पढ़ें-सब बढ़ें, लेकिन कैसे ?
देश में 34 साल बाद एक बार फिर से शिक्षा नीति में बदलाव होने जा रहा है। अच्छी बात यह है कि यह बदलाव प्राथमिक स्तर पर भी की गई है। यानि बच्चों के बुनियादी ढांचे को मज़बूत करने पर भी ज़ोर दिया गया है। नई नीति के तहत इस बात पर फोकस किया गया है कि प्राथमिक लेवल से ही बच्चे का रुझान सीखने की तरफ बना रहे। यह एक अच्छी सोंच है। साइंस और कंप्यूटर के इस दौर में पढ़ने के साथ साथ सीखने पर भी ज़ोर दिया जाना ज़रूरी है। जब हम पढा करते थे, तब प्राइमरी स्कूल की दीवार पर एक बड़ी पैंसिल के ऊपर, स्कूल का झोला लटकाए दो बच्चे बैठे हुए छपे रहते थे। जिनके नीचे बड़े बड़े अक्षरों में लिखा होता था "सब पढ़ें-सब बढ़ें" आज भी बहुत सी स्कूल की दीवारों पर ऐसा ही स्लोगन मिटा हुआ, घिसा हुआ लिखा नज़र आ जायेगा।
शिक्षा नीति से अलग यदि कोरोना महामारी में इस स्लोगन का अर्थ समझें तो यही काफी अलग नज़र आता है। कोरोना काल से पहले तक "सब पढे-सब बढें" की दुनिया बहुत अलग थी। मैं यह नही कहता कि उस समय भी न सब पढ़ रहे थे या न सब बढ़ रहे थे। दिक्कतें उस समय भी थीं, लेकिन ये महामारी सिर्फ़ आर्थिक संकट लेकर नही आयी है। ये जो अपने साथ लेकर आयी है उसके बहुत सारे दूरगामी परिणाम होने वाले हैं। जिसमें से एक है भारतीय शिक्षा व्यवस्था की डांवाडोल स्थिति। बस इसी स्थिति को हम दिल्ली से छह सौ पचास किमी दूर उत्तर प्रदेश के सुल्तानपुर जिले के आसपास के गांव से समझने की कोशिश करेंगे।
जिले के तिरहुत बाज़ार में एक छोटा सा कोचिंग सेंटर है, जिसे अनुज कुमार अग्रहरि चलाते है। जब हम उनसे
बात करने पहुंचे तो उनके पिता ने बताया कि "लॉक डाउन के बाद से उनकी पोती साक्षी अग्रहरी भारी डिप्रेशन में है। वह अभी अभी दसवीं कक्षा में आयी है और उसे पढ़ने का बहुत शौक है, लेकिन स्कूल बंद होने से बेहद निराशा में चली गयी है।" बातचीत के दौरान जब हमने उनसे पूछा कि स्कूल को करोना की वजह से अब फोन पर चलाए जा रहे हैं तो उनका तर्क था कि "पहले तो स्कूल, बच्चो को मोबाइल से दूर रखने पर ज़ोर दिया करते थे। स्कूल में पढ़ाई के दौरान जिन बच्चो के पास मोबाइल पाया जाता था उन्हे अनुशासनहीनता के लिए सस्पेंड कर दिया जाता था। अब वही स्कूल के लोग बोल रहे है मोबाइल पर पढ़ाई होगी। क्या बच्चे अब अनुशासनहीनता नही करेंगे? अब हम कैसे तय करेंगे कि बच्चा फोन का इस्तेमाल पढ़ने में कर रहा है? वह ऐसे बहुत से सवाल उठाते हैं। लेकिन जब हम उनके बेटे अनुज से बात करते है तो वह अपने पिता की बात से बिलकुल अलग तर्क देते हैं। उनका मानना था कि परिस्थिति के साथ इंसान को बदलते रहना चाहिये। सरकार किसी भी तरह से यदि बच्चों को मौका दे रही है तो सबको आगे आकर उसका साथ देना चाहिए।
इसी बीच अनुज एक ज़रुरी बात यह भी कहते है कि समाज में बहुत ही असमानता है। जिस समाज में दो जून की रोटी का जुगाड़ करना मुश्किल हो, वहां किस तरह से बच्चों को डिजिटल क्लास रूम या मोबाइल से पढ़ाया जा सकेगा? अनुज के अनुसार हमारा ग्रामीण समाज आज भी बहुत पिछड़ा हुआ है, वह इतना ज़रूरतमंद है कि ऐसे मौके काफ़ी होते है बच्चों को काम पर लगाने के लिए। सरकारें चाहे जो भी कोशिश करें लेकिन लोग शिक्षा के महत्व से आज भी अनजान है। यही कारण है कि अपने बच्चों को मज़दूरी में धकेल देते है। अनुज की बात से बिलकुल अलग दलित समाज की एक किसान महिला सुनीता देवी जिनकी उम्र करीब तीस साल है, अपने दो बेटे और एक बेटी का स्कूल में नामांकन करा रखा है। उनकी चिंता है कि घर में टच वाला फोन नही है। ऐसे में अब वह अपने बच्चों को कैसे पढ़ाएंगी? उन्हें इस बात का मलाल है कि लॉकडाउन में दिल्ली और लखनऊ में पढने वाले बच्चे तो आगे निकल जायेंगे और हमारे बच्चे घास छिलते रह जायेंगे"।
सुनीता की चिंता सिर्फ़ उनके बच्चे तक सीमित नही है बल्कि वह ऑनलाइन शिक्षा के तरीके पर भी सवाल खड़ा कर रही हैं। "घास छिलते रह जायेंगे हमारे बच्चें" यह वह शब्द है जो दिल्ली जैसे अत्य आधुनिक सुख सुविधाओं से लैस महानगर और अति पिछड़े उनके गांव की हकीक़त बयां करता है। हकीक़त तो यह है कि ऊपर से बराबर दिखने वाला हमारा यह समाज असल में एक चौड़ी खाई में बंटा हुआ है। ऐसे में यह प्रश्न उठता है कि क्या हम इस कोरोना काल में एक ऐसी पीढ़ी तैयार करने वाले हैं, जहां मज़दूर का बच्चा मज़दूर बनने को मज़बूर हो जायेगा?
इसी क्षेत्र में स्थित सुखपाल इंटर कॉलेज में हिंदी के अध्यापक शिव चंदर मौर्य मानते हैं कि देहात के अस्सी प्रतिशत इलाक़ो में बच्चे गरीब हैं, जिनके पास या तो मोबाइल नहीं है, या है भी तो बटन वाला छोटा फोन है। उनके अनुसार हम अपने सभी छात्रों से फोन पर लगातार जुड़े हुए हैं। हम मैसेज के ज़रिए उन्हे पढ़ाते हैं। अगर कोई शंका किसी को हो तो वो हमें बेझिझक कभी भी फोन कर सकता है। हम सरकार के सभी आदेशों का पालन कर रहे है।
मौर्य जी सरकारी मास्टर हैं तो अपने सरकारी अंदाज़ में ज़वाब दे रहे थे, लेकिन उनकी बात की पड़ताल करते हुए मैंने उसी गांव के एक छात्र दिनेश से बात की तो उसका कहना था कि उसे तो अभी तक कोई फोन नही आया है। उसने भी पहले ये सुना था कि फोन से पढ़ाई होगी, लेकिन एक महीने तक इंतज़ार के बाद भी उसके पास कोई फोन नही आया। दिनेश ने बताया कि फिर घर बैठ कर भी क्या करता? उसने लॉकडाउन में सब्ज़ी बेचना शुरु कर दिया। जिससे वह घर वालों की आर्थिक मदद कर रहा है। हालांकि उसे आज भी स्कूल खुलने का इंतजार है। लेकिन अगर नही खुले तो वह सब्ज़ी बेचने का काम ज़ारी रखेगा। दिनेश ग्यारह साल है, लेकिन मोल भाव में ब़ड़े बड़ों को पछाड़ देता है। वह रोज़ सुबह अपना ठेला लेकर जाता है और शाम को वापस लौटता है। उसी प्राइमरी स्कूल के सामने से, जिसकी दीवार पर लिखा हुआ है "सब पढ़े-सब बढ़ें"।
अब देखना यह है कि नई शिक्षा नीति से सभी बच्चों को समान रूप से पढ़ने और देश के विकास में भागीदार बनने का कितना अवसर प्राप्त हो सकेगा, या एक बार फिर से यह नारा सरकारी फाइलों और दीवारों तक ही सीमित रह जायेगा। (चरखा फीचर)
- राजेश निर्मल
दिल्ली
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