राजस्थान की रजत बूँदें - अनुपम मिश्र

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राजस्थान की रजत बूँदें अनुपम मिश्र


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प्रस्तुत पाठ या लेख राजस्थान की रजत बूँदे लेखक अनुपम मिश्र जी के द्वारा लिखित है | इसमें लेखक के द्वारा राजस्थान की मरुस्थल में पानी के स्रोत कुंई को वर्णित किया गया है, जिसका निर्माण राजस्थान में विशेषत: जल संरक्षण के लिए किया जाता है | कुंई की खुदाई और चिनाई करने वाले लोगों को चेलवांजी के नाम से जाना जाता है | लेखक अनुपम मिश्र जी कहते हैं कि चेलवांजी कुंई के भीतर काम कर रहे हैं, जो पसीने से तरबतर हैं | तीस-पैंतीस हाथ गहरी खुदाई हो चुकी है | अब भीतर में गर्मी बढ़ती ही जाएगी | कुंई का जो व्यास है, वह बहुत ही संकरा है, जिसके लिए खुदाई का काम बसौली से किया जा रहा है | बसौली एक प्रकार की छोटी डंडी का छोटे फावड़े जैसा औज़ार होता है | जो नुकीला फल होता है, वह लोहे का और जो हत्था होता है, वह लकड़ी का | कुंई की गहराई में गर्मी को कम करने के लिए ऊपर में खड़े लोग कुछ समयावधि में मुट्ठी भर रेत नीचे फेंकते रहते हैं, जिसके कारण ताज़ी हवा नीचे की ओर जाती है और गर्म हवा ऊपर की ओर लौटती है | ऊपर से फेंकी जाने वाली रेत से खुद को सुरक्षित रखने के लिए चेलवांजी अपने सिर पर कांसे, पीतल या अन्य किसी धातु का एक टोप रूपी बर्तन पहन लेते हैं | 

आगे लेखक कहते हैं कि चेलवांजी, जिसे चेजारो भी कहा जाता है, कुंई की खुदाई और एक विशेष तरह की चिनाई करने वाले दक्षतम लोग हैं | उनका यह काम 'चेजा' कहलाता है | जिस कुंई को चोजारो बना रहे हैं, वह
राजस्थान की रजत बूँदें
राजस्थान की रजत बूँदें
एक छोटा सा कुआँ ही है | राजस्थान में अलग-अलग स्थानों पर एक विशेष कारण से कुंईयों की गहराई कुछ कम-ज़्यादा होती है | कुआँ भूजल को पाने के लिए बनता है, पर कुंई में वर्षा जल को संग्रहित किया जाता है | मरूभूमी में रेत का विस्तार और गहराई अथाह है | यहाँ पर वर्षा अधिक मात्रा में भी हो तो उसे भूमि में समा जाने में देर नहीं लगती | यहाँ पर कहीं-कहीं रेत के सतह के पचास-साठ हाथ नीचे खड़िया पत्थर की पट्टी भी मिलती है | कुएँ में पाया जाने वाला भूजल प्राय: खारा होने की वजह से पीने लायक नहीं होता | फलस्वरूप, ऐसे क्षेत्रों में कुंईयाँ बनाने की आवश्यकता होती है | जो खड़िया पट्टी होती हैं, वे वर्षा जल को गहरे खारे भूजल तक जाकर मिलने से रोकती हैं | ऐसी स्थिति में संबंधित क्षेत्रों में बरसा पानी भूमि की रेतीली सतह और नीचे चल रही पथरीली पट्टी के बीच अटक कर नमी की तरह फैल जाता है | कुंई के निर्माण से रेत में विलीन नमी बूँदों में बदलकर धीरे-धीरे रिसती रहती है और कुंई में पानी जमा होने लगता है | परिणामस्वरूप, यह पानी खारे पानी के सागर में अमृत के समान मिठास लिए होता है |

आगे लेखक कहते हैं कि इस अमृत को पाने के लिए मरूभूमी के समाज ने खूब मंथन किया है | अपने अनुभवों को व्यवहार में उतारने का पूरा एक शास्त्र विकसित किया है | इस शास्त्र ने समाज के लिए उपलब्ध पानी को तीन रूपों में बाँटा है | पहला रूप है 'पालरपानी' , जो सीधे बरसात से मिलने वाला पानी है | यह धरातल पर बहता है और इसे नदी, तालाब आदि में रोका जाता है | पानी का दूसरा रूप 'पातालपानी' कहलाता है | यह भूजल है जो कुओं में से निकाला जाता है | पालरपानी और पातालपानी के मध्य पानी का तीसरा रूप 'रेजाणीपानी' कहलाता है | धरातल से नीचे उतरा लेकिन पाताल में न मिल पाया पानी ही रेजाणी है | वर्षा की मात्रा नापने में भी इंच या सेंटीमीटर नहीं बल्कि 'रेजा' शब्द का उपयोग होता है | लेखक कहते हैं कि रेजाणीपानी खड़िया पट्टी के कारण पातालीपानी से अलग बनता है | इस पट्टी के अभाव में ही रेजाणीपानी खारे पातालीपानी से मिलकर खारा हो जाता है | इसी रेजाणीपानी को समेटने के लिए कुंई का निर्माण होता है | 

आगे लेखक अनुपम मिश्र जी कहते हैं कि चेजो यानी चिनाई का श्रेष्ठतम काम कुंई का प्राण है | इसमें छोड़ी सी भी चूक चेजारो की प्राण ले सकती है | पहले दिन कुंई खोदने के साथ-साथ खींप (एक प्रकार की घास, जिसके रेशों से रस्सी बनाई जाती है) के ढेर जमा कर लिया जाता है | चेजारो खुदाई शुरू करते हैं और बाकी लोग खींप की घास से कोई तीन अंगुला मोटा रस्सा बटने लगते हैं | पहले दिन काम पूरा होते-होते कुंई कोई दस हाथ गहरी हो जाती है | लगभग पाँच हाथ के व्यास की कुंई में रस्से की एक ही कुंडली का सिर्फ एक घेरा बनाने के लिए लगभग पंद्रह हाथ लम्बा रस्सा चाहिए | नए लोगों को तो समझ में भी नहीं आएगा कि यहाँ कुंई खुद रही है कि रस्सा बन रहा है | बीस-पच्चीस हाथ की गहराई तक जाते-जाते गरमी बढ़ती जाती है और हवा भी कम होने लगती है |  ऊपर से फेंकी जा रही रेत कुंई में काम कर रहे चेलवांजी को राहत दे जाती है | कभी-कभी कुंई बनाते समय ईंट की चिनाई से मिट्टी को रोकना संभव नहीं हो पाता | इसके लिए लकड़ी के लट्ठे नीचे से ऊपर की ओर एक दूसरे में फँसा कर सीधे खड़े किए जाते हैं | फिर इन्हें खींप या चग की रस्सी से बाँधा जाता है | यह बँधाई भी कुंडली का आकार ले लेती है, इसलिए इसे 'साँपणी' भी कहते हैं | लेखक आगे कहते हैं कि कुंई की सफलता यानी सजलता उत्सव का अवसर बन जाती है | यहाँ की परंपरा के अनुसार कुंई का काम पूरा होने के बाद चेलवांजी का विशेष ध्यान रखने के लिए विशेष भोज का आयोजन किया जाता था | उन्हें विदाई के समय तरह-तरह के भेंट दिया जाते थे | गाँव के साथ चेजारो का संबंध यहीं नहीं टूट जाता था, बल्कि समस्त तीज-त्योहारों, विवाह जैसे मंगल अवसरों पर नेग, भेंट उन्हें दी जाती थी और फसल आने पर खलिहान में उनके नाम से अनाज का एक अलग ढेर भी लगा दिया जाता था | अब केवल मजदूरी देकर भी काम करवाने का रिवाज़ आ गया है | 

आगे लेखक अनुपम मिश्र जी कहते हैं कि खड़ीया पत्थर की पट्टी एक बड़े भाग से गुज़रती है | इसलिए उस पूरे हिस्से में एक के बाद एक कुंई बनती जाती है | निजी और सार्वजनिक सम्पत्ति का विभाजन करने वाली मोटी रेखा कुंई के मामले में बड़े विचित्र ढंग से मिट जाती है | प्रत्येक की अपनी-अपनी कुंई है | उसे बनाने और उससे पानी लेने का हक उसका अपना हक है | लेकिन कुंई जिस क्षेत्र में बनती है, वह गाँव समाज की सार्वजनिक भूमि है | उस जगह बरसने वाला पानी ही बाद में साल भर नमी की तरह सुरक्षित रहेगा और इसी नमी से वर्ष भर कुंईयों में पानी भरेगा | हर दिन सोने का एक अंडा देने वाली मुर्गी की चिरपरिचित कहानी को ज़मीन पर उतारती है कुंई | इससे दिन भर में बस दो-तीन घड़ा मीठा पानी निकाला जा सकता है | रेत के नीचे सब जगह खड़िया की पट्टी का अस्तित्व न होने के कारण कुंई हर जगह नहीं मिलती है | चुरू, बीकानेर, जैसलमेर और बाड़मेर के कई क्षेत्रों में इस पट्टी का अस्तित्व है, जिस कारण से वहाँ गाँव-गाँव में कुंइयाँ ही कुंइयाँ पाई जाती हैं | अलग-अलग जगहों पर खड़िया पट्टी के भी अलग-अलग नाम मिलते हैं | कहीं यह 'चारोली' है, तो कहीं 'धाधड़ो' या 'धड़धड़ो' , कहीं पर 'बिट्टू रो बल्लियो' के नाम से भी जानी जाती है, तो कहीं पर इस पट्टी का नाम केवल 'खड़ी' भी है | अत: इसी खड़ी के बल पर खारे पानी के बीच मीठा पानी देती खड़ी रहती है कुंई...|| 

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प्रश्न-1 राजस्थान में कुंई किसे कहते हैं ? इसकी गहराई और व्यास तथा सामान्य कुओं की गहराई और व्यास में क्या अंतर होता है ? 

उत्तर- राजस्थान की रजत बूँदें पाठ या लेखक के अनुसार वर्षा जल का संग्रहण करने के लिए राजस्थान में कुंई का निर्माण किया जाता है | जब वर्षा अत्यधिक होती है, तो वह मरुस्थल में रेत की सतह में विलीन जाती है और आहिस्ता-आहिस्ता रिसकर कुंई में एकत्रित हो जाती है | कुंई की गहराई सामान्य कुओं के जैसा ही होती है | किन्तु, इसके व्यास में अंतर पाया जाता है | सामान्यतः देखा जाए तो सामान्य कुओं का व्यास तकरीबन पन्द्रह से बीस हाथ का होता है, जबकि कुंई का व्यास लगभग पाँच से छ हाथ का होता है | 

प्रश्न-2 दिनोदिन बढ़ती पानी की समस्या से निपटने में यह पाठ आपकी कैसे मदद कर सकता है तथा देश के अन्य राज्यों में इसके लिए क्या उपाय हो रहे हैं ? जानें और लिखें ? 

उत्तर- कहते हैं जल ही जीवन है | बढ़ती जनसंख्या के दृष्टिकोण से बात करें तो अन्य जरूरतों की तरह ही पानी की समस्या में भी बढ़ोत्तरी हुई है | देश के अनेक राज्य हैं, जहाँ पर पानी की समस्या से निपटने के लिए निरन्तर विभिन्न प्रकार के उपाय किए जा रहे हैं | भारत के ऐसे अनेक क्षेत्र हैं, जहाँ पर लोगों को पानी लाने के लिए काफी दूरी तय करना पड़ता है | प्रस्तुत पाठ में जल संरक्षण के उपाय बताए गए हैं | जहाँ जल की कमी है या लोगों को पानी के लिए परेशानी उठाना पड़ता है, वैसे क्षेत्रों में कुंई का निर्माण करके इस समस्या को दूर भगाया जा सकता है | कहीं कुंई के स्थान पर या बदले में घर की छतों और आँगन में वर्षा जल का संग्रहित करके उसे भविष्य के लिए उपयोगी बनाया जा सकता है | 

प्रश्न-3 चेजारो के साथ गाँव समाज के व्यवहार में पहले की तुलना में आज क्या फ़र्क आया है ? पाठ के आधार पर बताइए | 

उत्तर- चेजारो के साथ गाँव समाज के व्यवहार में पहले की तुलना में आज बहुत फ़र्क आया है | यहाँ की परंपरा के अनुसार कुंई का काम पूरा होने के बाद चेलवांजी का विशेष ध्यान रखने के लिए विशेष भोज का आयोजन किया जाता था | उन्हें विदाई के समय तरह-तरह के भेंट दिया जाते थे | गाँव के साथ चेजारो का संबंध यहीं नहीं टूट जाता था, बल्कि समस्त तीज-त्योहारों, विवाह जैसे मंगल अवसरों पर नेग, भेंट उन्हें दी जाती थी और फसल आने पर खलिहान में उनके नाम से अनाज का एक अलग ढेर भी लगा दिया जाता था | परन्तु, अब केवल मजदूरी देकर भी काम करवाने का रिवाज़ आ गया है | 

प्रश्न-4 निजी होते हुए भी सार्वजनिक क्षेत्र में कुंइयों पर ग्राम समाज का अंकुश लगा रहता है | लेखक ने ऐसा क्यों कहा होगा ? 

उत्तर- राजस्थान की रजत बूँदें पाठ के अनुसार, जिन क्षेत्रों में कुंइयों का रिवाज़ है, वहाँ लगभग प्रत्येक की अपनी-अपनी कुंई है, जहाँ से पानी लेने का उनका निजी हक़ है | 

संबंधित स्थान पर बरसने वाला पानी ही बाद में वर्ष भर नमी की तरह सुरक्षित रहेगा और इसी नमी से वर्ष भर कुंइयों में पानी भरता रहेगा | नमी की मात्रा वर्षा के पानी से तय होती है | संबंधित क्षेत्र में बनने वाली हर नई कुंई का अर्थ है, पहले से तय नमी का बँटवारा | अत: निजी होते हुए भी सार्वजनिक क्षेत्र में कुंइयों पर ग्राम समाज का अंकुश लगा रहता है | 

प्रश्न-5 कुंई निर्माण से संबंधित निम्न शब्दों के बारे में जानकारी प्राप्त करें -- पालरपानी, पातालपानी, रेजाणीपानी | 

उत्तर- लेखक के अनुसार, मरुभूमी के समाज ने खूब मंथन किया है | अपने अनुभवों को व्यवहार में उतारने का पूरा एक शास्त्र विकसित किया है | इस शास्त्र ने समाज के लिए उपलब्ध पानी को तीन रूपों में बाँटा है -  

• पहला रूप है 'पालरपानी' , जो सीधे बरसात से मिलने वाला पानी है | यह धरातल पर बहता है और इसे नदी, तालाब आदि में रोका जाता है | 

• पानी का दूसरा रूप 'पातालपानी' कहलाता है | यह भूजल है जो कुओं में से निकाला जाता है | 

• पालरपानी और पातालपानी के मध्य पानी का तीसरा रूप 'रेजाणीपानी' कहलाता है | धरातल से नीचे उतरा लेकिन पाताल में न मिल पाया पानी ही रेजाणी है | वर्षा की मात्रा नापने में भी इंच या सेंटीमीटर नहीं बल्कि 'रेजा' शब्द का उपयोग होता है | लेखक कहते हैं कि रेजाणीपानी खड़िया पट्टी के कारण पातालीपानी से अलग बनता है | इस पट्टी के अभाव में ही रेजाणीपानी खारे पातालीपानी से मिलकर खारा हो जाता है | इसी रेजाणीपानी को समेटने के लिए कुंई का निर्माण होता है | 


राजस्थान की रजत बूँदें पाठ का शब्दार्थ 

• तरबतर -         अधिक भीगा हुआ (खून या पसीने से) 
• कुल्हाड़ी -        भूमि की खुदाई करने का एक  औजार 
• फावड़ा -          भूमि की खुदाई करने का एक औजार 
• विचित्र -          अजीब 
• पेचीदा -           उलझा हुआ 
• मरुभूमि -         मरुस्थल, रेगिस्तान 
• उखडूँ -            पंजे के बल घुटने मोड़ कर बैठना
• खींप -              एक प्रकार की घास जिसके रेशों से रस्सी बनती है | 
• डगालों -            मोटी टहनियाँ, शाखाएँ 
• आवक-जावक - आने-जाने की क्रिया 
• विभाजन -         बंटवारा | 


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राजस्थान की रजत बूँदें - अनुपम मिश्र
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