छोटा आदमी या छोटी सोच जून की गर्मी में, लगभग डेढ़ घंटे से चिलचलाती धूप में, धूल से अटी उस सड़क पर पसीने से भीगी खड़ी मैं शहर को जाने वाली बस का इंतज़ार कर रही थी। एनजीओ के काम से लगभग हर एक डेढ़ महीने में यहाँ आना जाना होता रहता था पर इतनी गर्मी में इस रेतीले टीलों के गाँव में आने का पहला ही अनुभव था।
छोटा आदमी या छोटी सोच
जून की गर्मी में, लगभग डेढ़ घंटे से चिलचलाती धूप में, धूल से अटी उस सड़क पर पसीने से भीगी खड़ी मैं शहर को जाने वाली बस का इंतज़ार कर रही थी। एनजीओ के काम से लगभग हर एक डेढ़ महीने में यहाँ आना जाना होता रहता था पर इतनी गर्मी में इस रेतीले टीलों के गाँव में आने का पहला ही अनुभव था। सर पर अपने दुपट्टे की छाँव किये और उसी के किनारे से पसीना पौंछती मैं बार-बार बस के आने की दिशा की ओर देखती और कोई हलचल न पा, मायूस सी हो जाती। शाम होने को थी और बस का कोई अता पता नहीं। तभी लड्डे (ऊँटगाड़ी) पर आता जैतराम दिखाई दिया। घुटनों तक की मटमैली धोती, बंडी और बटवाली पगड़ी पहने,अपनी मस्ती में लोकगीत गुनगुनाता जैतराम मेरे पास आकर रुका और बोला - "अठे हूं कोई साधन कोनि मिले, बाई सा। पधारो, थाने बड़े बस अड्डे छोड़ द्यूं।"
छोटा आदमी या छोटी सोच |
उसके कपड़ों से आती बू और उसकी बेतकल्लुफ़ी मुझे परेशान कर रही थी पर और कोई चारा भी नहीं था। अपने पर्स और खुद को संभालती मैं पीछे पुआल और घास के ढेर के बीच जगह बना कर बैठ गई। लड्डा चल पड़ा और साथ ही जैतराम का गीत भी चालू। सुनसान रास्ते पर दूर तक इंसान क्या किसी जानवर या पक्षी तक का नाम ओ निशान नहीं था। ऊँट के पैरों में बंधे घुँघरू अपनी लय से रेगिस्तान की शांति को भंग कर रहे थे और मैं मन ही मन ईश्वर को याद करती, प्रार्थना करती जा रही थी कि कहीं कोई "ऊँच नीच" न हो और मैं सही सलामत अपने घर पहुँच जाऊँ। जैतराम की घरवाली को मैंने कई बार अपने गहनों, कपड़ों की ओर मुग्ध भाव से निहारते देखा था। कहीं...... नहीं, नहीं.... मैंने अनहोनी की आशंका की सोच तक को सर झटक कर विदा किया और तभी जैतराम की आवाज़ से मेरी तन्द्रा टूटी। "हो, बाईसा। बड़ो अड्डों आई ग्यो।"
एक झटके से मैं लड्डे से कूदकर उतरी और बिना धन्यवाद या कोई बात किए सीधी बस अड्डे के अंदर दाखिल हो गई। शहर को जाने वाली एकमात्र सरकारी बस तैयार थी। आनन फ़ानन में टिकट लेकर मैं खिड़की से सर टिका कर अपनी सीट पर बैठी और बगल में सरकारी मास्टर राजीव जी आकर बैठ गए। राजीव जी मध्य वय के सभ्रांत और काफ़ी पढ़े लिखे व्यक्ति थे जिनका गाँव में काफी सम्मान था। उनको देखकर एक औपचारिक मुस्कुराहट का आदान प्रदान कर मैं आश्वस्त सी हो कब नींद के आगोश में समा गई, याद नहीं। शाम हो चली थी, हलके धुंधलके के बीच कुछ अजब सी बेचैनी के बीच नींद टूटी। कमर में कुछ चुभता सा महसूस हुआ। कुछ पल लगे समझने में, अविश्वास से राजीव जी की और देखा तो प्रत्युत्तर में बेहयाई से हँसते हुए उन्होंने अपनी कोहनी मेरी कमर में और गड़ा दी। मेरे चेहरे पर आई बेबसी और पीड़ा थी या उनके दिमाग का कोई फ़ितूर, अगले ही पल उनकी हाथ मेरी जांघ पर सरकने लगा। यूँ मैं काफ़ी मज़बूत हूँ पर पता नहीं कैसे जड़वत सी हो गई। शायद उन्होंने इसे मेरी मौन स्वीकारोक्ति समझ लिया और अब उनका हाथ और मज़बूती से मेरे शरीर पर घूमने लगा। अगले ही पल मुझे न जाने क्या हुआ, बिजली की तेज़ी से मैं उठी और राजीव जी के चेहरे पर ताबड़तोड़ थप्पड़ों की बरसात कर दी। शायद यह अपेक्षित नहीं था। वो घबरा गए, परिचालक ने बीच बचाव किया और उनकी सीट बदल दी। अगले स्टॉप पर मुझे उतरना था।
बस से उतरकर शरीर पर रेंगते गंदे कीड़ों जैसे एहसास के साथ आंसुओं को दबाती मैं घर पहुँची और सीधे स्नानघर में फ़व्वारे के नीचे जा खड़ी हुई। दिन भर की धूल के साथ मन का मैल भी धुल रहा था और छोटे और बड़े आदमी का फ़र्क स्पष्ट होता जा रहा था।
- अदिति जैन
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