झाग - शमोएल अहमद की कहानी मैं बिस्तर पर अध-मरा सा लेट गया और आँखें बंद कर लीं | मुझे अपनी बीवी की याद आई | इतनी शिद्दत से मैंने उसको पहले कभी याद नहीं किया था | इस वक्त मुझे उसकी नितांत जरूरत महसूस हुई | मैंने किसी कुंठित मरीज की तरह आँखें खोलीं और कील पर झूलती चूड़ी की तरफ देखा | चूड़ी से बंधा हुआ धागा हवा में उसी तरह हिल रहा था ---!
झाग - शमोएल अहमद की कहानी
वो अचानक राह चलते मिल गयी थी .... !
और जिस तरह गड्ढे का पानी पाँव रखते ही मैला हो जाता है उसी तरह.. ..
उसी तरह उसके चेहरे का रंग भी एक लम्हे के लिए बदला था | मुझे अचानक सामने देखकर वो ठिठक गयी थी और मैं भी हैरत में पड़ गया था.. और तब हमारे मुंह से ‘’ अरे तुम.. ?’’के लगभग एक जैसे शब्द अदा हुए थे | फिर उसने आँचल को गर्दन के करीब बराबर किया तो मैंने उसपर उचटती सी निगाह डाली थी | वो यकीनन उम्र के उस हिस्से में थी जहां औरत पहले गर्दन पर पड़ती झुर्रियां छुपाना चाहती है | उसके चेहरे का रंग मुझे कुम्हलाया हुआ लगा और उसके लिबास से मैंने तुरंत ताड़ लिया कि बहुत खुशहाल नहीं है | उसकी चप्पल भी पुरानी मालूम हुई जो उसकी साड़ी से बिल्कुल मैच नहीं कर रही थी | चप्पल का रंग अंगूठे के करीब इस्तेमाल की कसरत से उड़ गया था | सहसा मुझे उस वक्त अपने खुशलिबास होने का गुमान हुआ और साथ ही मैंने महसूस किया कि उसकी खस्ताहाली पर मैं एक तरह से खुश हो रहा हूँ | उसकी बदहाली पर मेरा इस तरह खुश होना निश्चित रूप से एक गैरमुनासिब बात थी लेकिन मैं महसूसे बिना नहीं रह सका कि जो रिश्ता मेरे और उसके दरम्यान कभी पनप नहीं सका था उसकी ये अनदेखी कसक थी जो मेरे अंतस में गत बीस वर्षों से पल रही थी |
मुझे लगा वो मेरी नज़रों को भाप रही है | तब उसने एक बार फिर गर्दन के करीब आँचल को बराबर किया और आहिस्ता से मुस्कराई तो ये मुस्कराहट मुझे खुश्क पत्ते की तरह बेजान लगी | उसने पूछा था कि क्या इन दिनों मैं इसी शहर में रह रहा हूँ .. ? स्वीकार सर हिलाते हुए मैंने भी उससे यही सवाल किया था जिसका जवाब उसने भी ठीक मेरी तरह सर हिलाकर दिया था | लेकिन ‘ हाँ ‘ कहते हुए उसके चेहरे पर एक अनजानी पीड़ा का भाव साफ दिख गया था | शायद वो असमंजस में थी कि इस तरह अचानक मुलाकात की उसको कतई उम्मीद नहीं थी या ये बात उसको मुनासिब नहीं मालूम हुई हो कि मैं उसके बारे में जान लूँ कि वो भी इसी शहर में रह रही है | लेकिन खुद मुझे कुछ ऐसा अप्रत्याशित सा नहीं लग रहा था | मैं स्वीकार करूंगा कि मुद्दतों उसकी टोह में रहा हूँ कि वो कहाँ है.. ? कैसी है .. ? और ये कि उसका दाम्पत्य जीवन.. ?
शायद रिश्ते मुरझा जाते हैं मरते नहीं हैं | वो नि;शब्द आँचल का पल्लू मरोड़ रही थी और मैं भी चुप था | मुझे अपनी चुप्पी पर हैरत हुई | कम से कम हम औपचारिक बातें तो कर ही सकते थे .. मसलन घर और बच्चों के बारे में | लेकिन मेरे होंठ सिले थे और वो भी खामोश थी | सहसा मेरे जी में आया कि रेस्तरां में चाय की दावत दूँ फिर सोचा शायद वो पसंद नहीं करेगी |
दरअसल रेस्तरां मेरी कमजोरी है | राह चलते किसी दोस्त से भेंट हो जाए तो मैं ऐसा प्रस्ताव जरूर रखता हूँ | किसी खूबसूरत रेस्तरां के अर्ध-अंधेरे कोने में चाय की हल्की हल्की चुस्कियों के साथ बातचीत का लुत्फ बढ़ जाता है | लेकिन हमारे दरम्यान चुप्पी उसी तरह बनी रही थी और अब सड़क पर यूं ही निरुद्देश्य खड़े रहना मुझे एक पल के लिए अजीब लगा था |शायद मैं गलत-बयानी से काम ले रहा हूँ | सच तो ये है कि उसके साथ इस तरह निःशब्द खड़े रहना एक सुखद अहसास को जन्म दे रहा था | ये भी मुमकिन है कि वो स्वयं किसी खिन्नता के भाव से गुजर रही हो | लेकिन उसने एक-दो बार पलकें उठाकर मेरी ओर देखा तो मुझे लगा मेरे साथ कुछ वक्त गुजारने की वो भी इच्छुक है | तब मैंने रेस्तरां की बात कह दी थी | उसने तुरंत हाँ नहीं कहा था | पहले इधर-उधर देखा था | आहिस्ता से मुस्कराई थी और पूछने लगी थी कि कहाँ चलना होगा तो मैंने एकदम पास वाले होटल की तरफ इशारा किया था |
हम रेस्तरां में आए | कोने वाली मेज खाली थी | वहाँ बैठते हुए मुझे लगा कि उसके चेहरे पर अगरचे खिन्नता का भाव नहीं है लेकिन एक तरह का संकोच वो जरूर महसूस कर रही है | इस बीच मेरा पाँव उसके पाँव से छू गया | ऐसा जान-बूझ कर नहीं हुआ था | लेकिन मुझे याद है एक बार बहुत पहले .. ..
तब वो शुरू शुरू के दीन थे जब कलियाँ चटकती थीं और खुशबुओं में भेद छुपा होता था और नदी की कलकल सागर के होने का पता देती थी | मुझे याद है उन दिनों रेस्तरां में एक बार उसके साथ बैठने का संयोग हुआ था | मैंने जान-बूझ कर मेज के नीचे अपना पाँव बढ़ाया था और उसके पाँव के स्पर्श को महसूसने की कोशि की थी | वो एकाएक सिकुड़ गयी थी और आँखों में धनक का रंग गहरा गया था .. फिर होंठों ही होंठों में मुस्कराई थी और मेरी तरफ चोर निगाहों से देखा था |
लेकिन अब .. ..
अब हम बीस साल की लंबी खाई से होकर गुजरे थे और जीवन के उस मोड पर थे जहां मेज के नीचे पाँव का छू जाना कोई नियोजित अमल नहीं होता महज संयोग होता है और ये महज संयोग था और मेरी ये नियत कतई नहीं थी कि मैं उसके बदन के स्पर्श को महसूस करूं | बस अनजाने में मेरा पाँव उसके पाँव को छू गया और किसी और अहसास से गुजरे बिना हम महज एक बेकार से स्पर्श को एकदम अनचाहे ढंग से महसूस रहे थे | उसने अपना पाँव हटाया नहीं था और मैं भी उसी स्थिति में बैठा रह गया था और न कलियाँ ही चटकी थीं न चिटियां ही सरसराई थीं न उसकी चित्तचोर निगाहों ने कोई जादू बिखेरा था | हम बीस वर्षों की लंबी खाई से गुजरकर जिस मोड पर पहुंचे थे वहाँ कदमों के नीचे सूखे पत्तों की चरमराहट तक बाकी नहीं थी |
बैरा आया था तो मैंने पूछा था वो चाय लेना पसंद करेगी या काफी ? जवाब में उसने मेरी पसंद के स्नैक्स के नाम लिए थे और मुझे हैरत हुई थी कि उसको याद था कि मैं .. !
काफ़ी आई तो हम हल्की हल्की चुस्कियाँ लेने लगे | वो नजरें नीची किए मेज को तक रही थी और मैं सामने यूं ही शून्य में घूर रहा था | इस दरम्यान मैंने उसको गौर से देखा | उसने कंघी इस तरह की थी कि कहीं कहीं चांदी के इक्का-दुक्का तार बालों में छिप गए थे | आँखें हल्कों में धँसी हुई थीं और किनारे की तरफ कनपटियों के करीब चिड़ियों के पंजों जैसा निशान बनने लगा था | वो मुझे घूरता देखकर थोड़ी सिमटी । फिर उसके होंठों के हिस्से में धुंधली सी मुस्कराहट पानी में लकीर की तरह उभरी और डूब गयी | मुझे ये सब अच्छा लगा... पास पास बैठकर खामोशी से काफ़ी की चुस्कियाँ लेना .. . एक दूसरे को कनखियों से देखने की कोशिश और चेहरे पर उभरती डूबती मुस्कराहट की धुंधली सी लकीर.. . |
झाग |
काफ़ी का आखिरी घूंट लेते हुए उसने पूछा कि इस होटल में कमरे भी तो मिलते होंगे .. ? मैंने नहीं में सर हिलाते हुए कहा कि ये सिर्फ रेस्तरां है और मेरा फ्लैट यहाँ से नजदीक है | अचानक मुझे अहसास हुआ कि मैंने बेतुका सा जवाब दिया है | वो पूछ भी नहीं रही थी कि मैं कहाँ रहता हूँ ? उसनने बस इतना जानना चाहा था कि यहाँ कमरे मिलते हैं या नहीं और मैं फ्लैट का जिक्र कर बैठा था | इन दिनों मैं अपने फ्लैट में तन्हा था , पत्नी मायके गयी हुई थी और तीनों लड़के हास्टल में रहते थे |
मुझे याद आया .. . शुरू शुरू की मुलाकातों में एक दीन रेस्तरां में काफ़ी पीते हुए जब मैंने पाँव बढ़ाकर उसके बदन के स्पर्श को महसूसने की कोशिश की थी तो मैंने बैरे को बुलाकर पूछा था कि यहाँ कमरे मिलते हैं या नहीं .. ? लेकिन ये बात मैंने यूं ही पूछ ली थी और इसके पीछे मेरा कोई स्वार्थ नहीं था और आज उसने ये बात दुहराई थी और मैंने भी तुरंत अपने फ्लैट की बाबत बताया था .. शायद इसका संबंध कुछ न कुछ अतीत से था और हमारे अचेतन में कहीं न कहीं एक अनदेखी सी चुभन पल रही थी | मुझे लगा होटल का कमरा और तन्हा फ्लैट एक ही डोर के दो सिरे हैं और उससे निकटतम होने की मेरी कुंठित अभिलाषा इस डोर पर अब भी किसी मैले कपड़े की तरह टंगी हुई है |
मुझे हैरत हुई कि अतीत की एक एक बात उसके दिल पर अंकित है | बीस साल के लम्बे अंतराल में वो कुछ भी भूली नहीं थी , बल्कि हम दोनों ही नहीं भूल पाए थे |
होटल का बिल याद करके हम बाहर आए तो उसने पूछा ‘’ घर में कौन कौन रहता है ?’’ मैंने बताया इन दिनों तन्हा रहता हूँ ॥ मेरा फ्लैट दूर नहीं है अगर वो देखना चाहे तो.. .. !
वो राजी हो गयी |
हम ऑटो पर बैठे | वो एक तरफ खिसक कर बैठी थी और मैंने फासले का ध्यान रखा था | तब मैं सोचे बिना नहीं रह सका था कि होटल के सोफ़े पर हम कितने सहज थे और अब एक दूरी बनाए रखने के सतत प्रयास से गुजर रहे थे | अगले चौक पर एक और आदमी ऑटो में आ गया तो मुझे अपनी जगह से थोड़ा खिसक कर बैठना पड़ा और अब फिर मेरा बदन उसके बदन को छूने लगा था | मैंने महसूस किया कि ये स्पर्श अर्थहीन नहीं है , बल्कि तीसरे की उपस्थिति हम दोनों के लिए नेक शगुन साबित हुई थी |
ऑटो आगे रुक तो मैंने पैसे अदा किए | फ्लैट वहाँ से चंद कदम पर ही था | हम चहलकदमी करते हुए फ्लैट तक आए | ड्राइंग रूम में दाखिल होते ही उसने एक उचटती सी नज़र चारों ओर डालि | कैबिनेट पर एक छोटे से स्टील फ्रेम में मेरी बीवी की तस्वीर लगी हुई थी | वो समझ गयी तस्वीर किसकी हो सकती है | उसने इशारे से पूछा भी .. मैंने स्वीकार में सिर हिलाया और उसके पास ही सोफ़े पर बैठ गया | हमारे दरम्यान चुप्पी छा गयी | वो सोफ़े पर उंगलियों से आड़ि -तिरछी सी लकीर खींच रही थी | अचानक उसका आँचल कंधे से ढलक गया और सीने का ऊपरी हिस्सा नुमाया हो गया | उसका सीना ऊपर की तरफ धंसा हुआ था और गर्दन की हड्डी उभरी हुई थी जिससे वहाँ पर गड्ढा सा बन गया था | गर्दन के किनारे एक-दो झुर्रियां दिख रही थीं | मुझे उसकी गर्दन कुरूप लगी | मुझे अजीब लगा.. मैंने उसे बुलाया क्यों और वो भी चली आई .. और अब दोनों ही एक गैर-जरूरी और बेमकसाद खामोशी को झेल रहे थे | आखिर मैंने खामोशी भंग करने में पहल की और पूछा वो चाय लेना पसंद करेगी या काफ़ी ? मेरा स्वर कुछ ठंडा था | मुझे लगा मैं चाय के लिए नहीं पूछ रहा हूँ अपनी ऊब का इजहार कर रहा हूँ | उसने इनकार में सर हिलाया तो मेरी झुंझलाहट बढ़ गयी | मैंने उसे फ्लैट का बाकी हिस्सा देखने के लिए कहा | वो सोफ़े से उठ गयी | मैं उसे पहले किचन में लेगया , फिर बालकनी दिखाई फिर बेडरूम |
बेडरूम में उसने उसी तरह उचटती सी नज़र डाली | सिंगार-मेज की सामने वाली दीवार पर एक कील जड़ी थी | कील पर एक चूड़ी लटकी हुई थी जिसमें एक छोटा स काला धागा बंधा था | उसने चूड़ी को गौर से देखा और पूछा कि धागा कैसा है ? मैंने हँसते हुए कहा की मेरी बीवी का टोटका है | वो जब भी घर से बाहर जाती है अपनी कलाई से एक चूड़ी निकालकर लटका देती है और काला धागा बांध देती है | वो समझती है की इससे गैर-औरत का घर में गुजर नहीं होता और मेरी निगाह भी चूड़ी पर पड़ेगी तो मुझे उसकी याद आती रहेगी |
वो हंसने लगी और व्यंग भरे स्वर में बोली कि इसका मतलब ये था की मेरी बीवी शक्की थी और उसको मुझ पर एतबार नहीं था | मुझे उसकी हंसी बुरी लगी | मैंने नागवार लहजे में कहा कि बात एतबार की नहीं थी .. बात आस्था और विश्वास की थी और कोई औरत नहीं चाहती कि उसका पति किसी पराई औरत से सम्बन्ध रखे | तब वो उसी तरह व्यंग भरे लहजे में बोली कि आस्था का मतलब है खौफ.. .. मेरी बीवी के मन में खौफ है की मैं ऐसा करूंगा .. इस खौफ से बचने के लिए उसने ऐसी आस्था को मन में जगह दी है कि काला धागा बांधने से.. ..
मुझे उसकी ये बौद्धिक बातें एकदम अच्छी नहीं लगीं | लेकिन मैं खामोश रहा | तब उसने अचानक अंगड़ाई ली और बिस्तर पर कोहनी के बल लेट गयी | फिर कील पर झूलती चूड़ी की तरफ देखती हुई ताने देने लगी मेरी बीवी मुझे पराई औरतों की कलुषित निगाहों से क्या बचाएगी .. ? बेचारी को क्या मालूम कि मैं कितना
मुझे उसकी ये बौद्धिक बातें एकदम अच्छी नहीं लगीं | लेकिन मैं खामोश रहा |
बोली कि मैंने उसकी सहेली के साथ क्या किया था ? उसने मुझे याद दिलाया था की उस दीन जब पार्टी में अचानक रौशनी गुल हो गयी थी तो.. ..? मैं चुप रहा | दरअसल मेरी एक कमजोरी है | औरत के कूल्हे मुझे उत्तेजित करते हैं .. . एकजरा ऊपर कमर के गिर्द गोश्त की जो तह होती है .. .. !
उस रात अचानक रौशनी गुल हो गयी थी और उसकी सहेली मेरे पास ही बैठी थी | मेरा हाथ अनायास उसकी कमर से छू गया था | मैंने हाथ हटाया नहीं था और वो भी वहाँ बैठी रह गयी थी .. और हाथ उस जगह निरंतर छूटे रहें और औरत विरोध नहीं करे तो .. !
मुझे अजीब लगा | उसकी सहेली ने ये बात उसको बता दी थी | मैं उससे आँखें नहीं मिला पा रहा था |
मैंने कनखियों से उसको देखा | उसके होंठों पर शरारत भरी मुस्कराहट रेंग रही थी | फिर अचानक वो मुझपर झुक आई और एक हाथ पीछे ले जाकर मेरी पतलून की पिछली जेब से कंघी निकाली | इस तरह झुकने में उसकी छातियाँ मेरे कंधे से छू गईं | तब वो हँसती हुई बोली की मैं पहले दाईं ओर मांग निकलता था और कहा करता था की ये मेरी विशिष्टता थी और ये कि हिटलर भी इसी तरह मांग निकालता था | मुझे हैरत हुई | उसको एक एक बात याद थी | वो मेरे बालों में कंघी करने लगी उसकी उँगलियाँ मेरे ललाट को छू रही थीं | मुझे अच्छा लगा.. उसका झुककर मेरी जेब से कंघी निकालना और मेरे बालों में फेरना .. वो एकदम समीप खड़ी थी .. उसकी छातियों की दरम्यानी लकीर मेरी निगाहों की सीध में थी और उसकी साँसों को मैं अपने चेहरे पर महसूस रहा था | उसके कंधे मेरे सीने को मुसलसल छू रहे थे | फिर उसने उसी तरह कंघी मेरी जेब में वापस रखी और आईने की तरफ इशारा किया |
मैंने घूमकर देखा | मुझे अपनी शक्ल बदली सी नज़र आई | मांग दाईं ओर निकली हुई थी | मैं मुस्कराए बिना नहीं रह सका | वो हंसने लगी और तब उसकी हंसी मुझे दिल-कश लगी | अचानक मुझे महसूस हुआ कि ज़िंदगी अभी हाथ से फिसली नहीं है .. . दाईं तरफ निकली हुई मांग---हँसती हुई औरत---और उरोजों के बीच थिरकती दूधिया लकीर ---! हम इस वक्त यकीनन अतीत से गुजर रहे थे जहां नदी की कलकल थी और समन्दर का मंद-मंद सा शोर था ---वो खुश थी---मैं भी मस्त था |
मस्ती के इस आलम में मेरा हाथ अचानक उसकी कमर के गिर्द रेंग गया और वो भी बेइख्तियार मेरे कंधे से लग गयी | उसके होंठ अध-खुले हो गए ---और यही चीज मुझे बेहाल करती है---कूल्हों पर हथेलियों का स्पर्श---और अध-खुले होंठ---!
मैंने उसे बाहों में भर लिया | वो मुझसे लिपटी हुई बिस्तर तक आई | मैंने ब्लाउज के बटन----!
उसकी आँखें बंद थीं और मैं भी होश खोने लगा था | आहिस्ता आहिस्ता उसकी सांसें तेज होने लगीं ---और फिर अचानक वो मेरी ओर गतिशील हुई , मेरे बाजुओं को गिरफ्त मे लिया और धीरे से फुसफुसा कर कुछ बोली जो मैं समझ नहीं सका | उसकी ये फुसफुसाहट मुझे लिजलिजी लगी ---मस्ती के क्षण विषाद में बदल गए | मेरी नज़र उसकी गर्दन की झुर्रियों पर पड़ी जो उस वक्त ज्यादा नुमाया हो गयी थीं | मुझे लिजलिजेपन का एहसास हुआ ---गर्दन के नीचे उभरी हुई हड्डियों का दरम्यानी गड्ढा----सीने का धंसा हुआ ऊपरी हिस्सा॥ और अध-पिचके बैलून की तरह लटकी हुई छातियाँ ----मुझे लगा उसका शरीर एक ढूह है जिसपर मैं केकड़े की तरह पड़ा हूँ | मैंने अपने हाथों की तरफ देखा | मेरी उँगलियाँ उसकी छातियों से जोंक की तरह लिपटी हुई थीं | मैं विषाद से भर गया और खुद को उससे अलग करते हुए बैठ गया |
उसने आँखें खोलीं और कील पर झूलती चूड़ी की तरफ देखा | चूड़ी से लटका हुआ धागा हवा में आहिस्ता आहिस्ता हिल रहा था | उसके होंठों पर एक रहस्यमयी मुस्कान फैल गयी | कुछ देर वो बिस्तर पर लेटी रही फिर कपड़े दुरुस्त करती हुई उठी और शीशे के सामने खड़ी हो गयी |
शमोएल अहमद |
इस नीयत से लाया भी नहीं था | वो बस मेरे साथ अअ गई थी और जब तक सोफ़े पर एक साथ बैठे हुए थे, इस बात का हल्का स गुमान भी नहीं था कि बेडरूम में जाते ही हम तुरंत-----शायद उम्र का ये हिस्सा खाईदार मोड से गुज़रता है | चालीस की लपेट में आई हुई औरत और पचपन की सरहदों से गुज़रता हुआ मर्द ---दोनों ही इस यथार्थ से पलायन करते हैं कि
वो जाने के लिए तैयार थी और उसी तरह मुस्करा रही थी | मैं भी चाहता था शीघ्र दफा हो | मैंने पूछा नहीं कहाँ रह रही हो ? उसने खुद बताया कि एक रिश्तेदार के यहाँ किसी आयोजन पर आई थी और कल सुबह लौट जाएगी |
उसके जाने के बाद सन्नाटा अचानक बढ़ गया | मैं बिस्तर पर अध-मरा सा लेट गया और आँखें बंद कर लीं | मुझे अपनी बीवी की याद आई | इतनी शिद्दत से मैंने उसको पहले कभी याद नहीं किया था | इस वक्त मुझे उसकी नितांत जरूरत महसूस हुई |
मैंने किसी कुंठित मरीज की तरह आँखें खोलीं और कील पर झूलती चूड़ी की तरफ देखा | चूड़ी से बंधा हुआ धागा हवा में उसी तरह हिल रहा था ---!
- शमोएल अहमद
३०१, ग्रैंड पाटलिपुत्र अपार्टमेन्ट
नई पाटलिपुत्र कालोनी ,
पटना - 800013
MOB - 9835299303
shamoilahmad@gmail.com
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